Tuesday, March 17, 2009

तीखे होंगे छापामार संघर्ष

एमसीसी के संस्थापक सदस्य व बिहार-बंगाल स्पेशल एरिया कमिटी के तीन बार सचिव रह चुके पूर्व विधायक रामाधार सिंह फिलहाल बंदी मुक्ति संघर्ष समिति के बैनर तले माओवादी राजनीति में सक्रिय हैं। उन्होंने पब्लिक एजेंडा से देश में चल रहे नक्सली आंदोलन पर अपनी बेबाक टिप्पणी की। पेश है बातचीत के प्रमुख अंश---
आप शिक्षक से नक्सल राजनीति (दरमिया और बघौरा-दलेलचक समेत आधा दर्जन नरसंहारों के आरोपी रहे) में आये। फिर वहां से आपकी दिलचस्पी खत्म हुई और संसदीय रास्ता अपनाते हुए विधानसभा में पहुंचे। आखिर क्या कारण रहा कि मुख्यधारा की राजनीति को तिलांजलि देते हुए पुन: नक्सली गतिविधियों में शामिल हो गये हैं
मैं शिक्षक के साथ-साथ भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का सदस्य भी था। देखा कि क्रांति के नाम पर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी जमींदारों के साथ सांठगांठ करने में लगी है। फिर औरंगाबाद के ग्रामीण इलाके में जमींदारों के खिलाफ एमसीसी (अति चरम वामपंथी संगठन) का बगावती नेतृत्व अपनी ओर आकर्षित किया। इससे प्रभावित होकर मैंने भी बंदूक थाम ली। लेकिन एमसीसी की नरसंहार की राजनीति से मन उब गया और फिर संसदीय रास्ता अख्तियार कर लिया। लेकिन विधासभा के अंदर देखा कि किस तरह से गरीबों के पैसे पर नव जमींदार (विधायक और मंत्री) मटरगस्ती कर रहे हैं। उससे एक बार फिर लगा कि अगर गरीबों के लिए लड़ाई लड़नी है तो नक्सल आंदोलन से अच्छा कोई विकल्प नहीं हो सकता। इसी ख्याल से पुन: नक्सल आंदोलन को गति देने में लगा हूं।
पिछले चार वर्षों में दर्जनों कुख्यात माओवादी या तो गिरफ्तार कर लिये गये या फिर पुलिस मुठभेड़ में मारे गये। इसका माओवादी पार्टी पर क्या असर दिख रहा है?
देखिये, फर्जी मुठभेड़ में नक्सलियों के मारे जाने से माओवादियों की ताकत घटने वाली नहीं है। क्योंकि पुलिस मुठभेड़ में मारे जाने वाले नक्सली अपने जमात में शहीद कहे जाते हैं। रही बात गिरफ्तारी की, तो नक्सलियों ने मुखबिरों के खिलाफ कार्रवाई (मौत के घाट) की शुरुआत कर दी है।
तो इसके क्या मायने निकाले जायें?
माओवाद एक विज्ञान है जिसका सिद्धांत कहता है कि दुश्मन से निपटने के लिए एक कदम आगे बढ़ना चाहिए जबकि दुश्मन की ताकत को भांपते हुए दो कदम पीछे भी हटना चाहिए। इसी सिद्धांत को मानते हुए नक्सलियों ने आन्ध्र के पड़ोसी राज्यों मसलन उड़ीसा, छातीश्गढ़, केरल और तमिलनाडू में अपना फैलाव शुरू कर दिया है ताकि पुलिसिया दमन होने पर जनता को इसका खामियाजा नहीं भुगतना पड़े वहीं दूसरी ओर आधार इलाके से सुरक्षित छापामार लड़ाई को तेज किया जा सके।
आन्ध्र प्रदेश के राज्य सचिव ने हाल ही में किसी केंद्रीय कमिटी के नेता पर मनमानी का आरोप लगाते हुए केरल पुलिस के सामने आत्मसमर्पण कर दिया। इसका पार्टी पर कैसा प्रभाव पड़ेगा?
पार्टी छोड़ने वाले से माओवादी राजनीति पर कोई खास असर तो नहीं पड़ेगा। लेकिन जनता पर इसका बुरा प्रभाव पड़ सकता है। ऐसी स्थिति में केंद्रीय नेतृत्व को चाहिए कि वे माओवादी दर्शन से जनता को शिक्षित करे।
भाकपा (माओवादी) बंदूक के सहारे stta सत्त्ाा पर कब्जा करने बात करता है जबकि दंडकारण्य स्पेशल कमिटी ने छतीश्गढ़ सरकार से shantivarta शांतिवात्त्र्ाा का प्रस्ताव रखा है। क्या माओवादी पार्टी कमजोर हो गयी है इस कारण सरकार से शांतिवात्त्र्ाा की अपील की है या इसके कुछ आैर मायने हैं।
यह नक्सलियों की कमजोरी नहीं है। बिल्क छत्त्ाीसगढ़ में बदले हालात का नतीजा है। वहां पर भाजपा सरकार आदिवासियों से आदिवासियों को लड़वाने की फिराक में है। इसीलिये नक्सलियों ने संघर्ष का अपना तरीका बदलते हुए सरकार से शांतिवात्त्र्ाा की शत्त्र्ा (प्रतिबंध हटाने) रखी है ताकि माओवादी राजनीति को जनसंगठन के माध्यम से जनता के बीच ले जाया जा सके।
बिहार-झारखंड के नक्सल प्रभावित सीमाई इलाकों में अफीम की खेती घड़ल्ले से हो रही है। क्या नक्सली नशाखोर समाज निर्माण में लगे हुए हैं?
यह आरोप सरासर गलत है। रूस आैर चीन में भी कई इलाके नशाखोरों की चपेट में थे जहां आंदोलन चल रहे थे। जिसे लाल फाैज ने कुशलता के साथ बिना एक बूंद खून बहे ही खत्म कर दिया था। यहां भी जरूरत है उस तरह के आंदोलन छेड़ने की। अगर ऐसा नहीं हुआ तो दलालों की ही संख्या बढेगी। इसकी रोकथाम के लिए पार्टी गंभीरता से विचार कर रही है। गया आैर चतरा के कई इलाकों में नक्सलियों ने अफीम उगाने वाले किसानों के खिलाफ आंदोलन छेड़ रखा है।
फिर भी अफीम उगाने वाले किसानों की संख्या क्यों बढ़ती जा रही है?
जोनल कमांडरों में राजनैतिक चेतना का अभाव है। यही कारण है कि नक्सल प्रभावित इलाकों में अवैध धंधे फल-फूल रहे हैं। इसकी रोकथाम के लिए पार्टी गंभीरता से विचार कर रही है।
अचानक नक्सलियों ने जमीन आंदोलन से अपना ध्यान हटा दिया है? क्या माओवादी पार्टी अपने पुराने सिद्धांतों से हट गयी है?
ऐसी कोई बात नहीं है, अपने पुराने सिद्धंातों पर पार्टी आज भी कायम है।
नक्सलियों के नाम पर झारखंड में आधा दर्जन नक्सली समूह तैयार हो गये हैं जो आये दिन आपराधिक घटनाओं को अंजाम देते फिर रहे हैं। क्या ऐसे गिरोहों की माकपा (माओवादी) से सांठगांठ है।
नहीं, विकृत मानसिकता के क्रांति विरोधी लोग ही नक्सलवाद के आदर्श सिद्धांतों के खिलाफ हैं जिसका खामियाजा भाकपा (माओवादी) को भुगतना पड़ रहा है जबकि सच्चाई यह है कि माओवादियों ने अबतक चार दर्जन से अधिक टीपीसी समेत अन्य आपराधिक गिरोह के सदस्यों मार गिराया है।
भाकपा (माओवादी) की आगे की रणनीति होगी?
माओवादियों की रणनीति किसी से छुपी हुई नहीं है। फिर भी छत्त्ाीसगढ, महाराष्ट्र, उड़ीसा आैर आन्ध्र प्रदेश के कुछ हिस्सों में सक्रिय नक्सली संगठन भाकपा माले (जनशिक्त) से विलय के लिए वार्ता चल रही है। अगर परििस्थति ने साथ दिया तो जल्द ही भाकपा (माओवादी) में जनशिक्त का विलय हो जायेगा। अगर यह संभव हुआ तो देश मंेंं छापामार लड़ाई आैर तीखी होगी।
आसन्न लोकसभा चुनाव में नक्सलियों की कैसी रणनीति होगी?
क्रांति का रास्ता साफ है। अब आर-पार की लड़ाई शुरू हो गयी है जिसमें एक जगह संसदीय रास्ते हैं तो दूसरे रास्ते की लड़ाई माओवादी दिखा रहे हैं। इस बार के चुनाव में पार्टी जनता के बीच जायेगी और नेताओं के ढपोरशंखी घोषणाओं और उनके दागदार चेहरे को बेनकाम करेगी।

माओवादियों का बदला नेता!

"आप मजदूर हैं और आपकी मेहनत के सहारे ही देश आगे बढ़ता है। आपके खून-पसीने को मलाई में बदलकर मालिक-सरकार जमकर मौज उड़ाते हैं और आप अंधेरे में रहते हैं। इसलिये एक वर्ग की सरकार में बगैर हिस्सेदारी के भी रणनीति के तौर पर कैसे लाभ उठाया जाये, इसे समझना होगा। नहीं तो हम सभी मारे जाएंगे।'
नक्सलियों के सबसे बड़े नेता गणपति का यह बयान मुंबई हमले के बाद आया है। एक ओर सरकार देशी-विदेशी आतंकियों से निपटने के लिए फेडरल एजेंसी बनाने की पहल कर रही है वहीं दूसरी ओर गणपति ने यह बयान देकर नक्सली जमातों के साथ ही प्रशासनिक खेमे में भूचाल ला दिया है। बंदूक के सहारे सत्ता हथियाने की वकालत करने वाले गणपति को आखिर ऐसी कौन सी मजबूरी आ गयी कि उन्होंने सरकार में हिस्सेदारी के बगैर ही लाभ उठाने की समझौतावादी लाइन को अख्तियार करने की बात कह डाली। गणपति की मानें तो आजादी के बाद देश का बड़ा हिस्सा विकास की रोशनी से कोसों दूर रहा है। इसलिए संसदीय राजनीति के अंतरविरोधों और जनता के आक्रोश को गोलबंद कर ही उसका लाभ उठाया जा सकता है।
इधर नक्सली जमातों से लेकर प्रशासनिक महकमों तक में यह खबर जंगल में आग की तरह फैल रही है कि नक्सली प्रमुख मुपल्ला लक्ष्मण राव उर्फ गणपति लंबे समय से बीमार चल रहे हैं। इस वजह से संगठन के कामों में वे विशेष रूचि नहीं ले रहे हैं। परिणामत: संगठन की जिम्मेदारी आन्ध्रप्रदेश - उड़ीसा स्पेशल एरिया कमिटी के सचिव सब्यसाची पांडा को मिल गयी है। हालांकि इसकी पुष्टि न तो नक्सली खेमा कर रहा है और ही केंद्रीय खुफिया ब्यूरो को इस बात की सही जानकारी है। एमसीसी खेमे से आने वाले 40 वर्षीय पांडा के बारे में बताया जाता है कि उन्होंने वर्ष 1996 में पार्टी की सदस्यता ग्रहण की। 2006 में कोटापुर जेलब्रेक को अंजाम देने वाले पांडा ने तब 774 पुलिस रायफलें लूटकर माओवादी खेमे में अपना महत्वपूर्ण स्थान बना लिया था। नयागढ़ जेलब्रेक में भी रणनीति के तौर पर उनकी भूमिका मानी जाती है। आन्ध्रा पुलिस ने उन पर १० लाख रुपये का इनाम घोषित कर रखा है। राजनीतिक परिवार से आने वाले पांडा के पिता और भाई पहले माकपा के सदस्य थे लेकिन कुछ वर्ष पहले ही उन लोगों ने बीजू जनता दल का दामन थाम लिया।
छनकर आ रही खबरों के मुताबिक इन दिनों भाकपा (माओवादी) के अंदर संघर्ष के तरीकों को लेकर गहरी बहस छिड़ी हुई है और वे नये सिरे से भारतीय उपमहाद्वीप को परिभाषित करने में लगे हुए हैं। विदित हो कि आजादी के बाद से लेकर अबतक माओवादी इस देश को अर्द्धसामंती और अर्द्धऔपनिवेशिक देश मानते रहे हैं। लेकिन माओवादियों की कर्नाटक इकाई देश की अर्द्धसामंती चेहरे कोे सिरे से खारिज कर दिया है जबकि इसी सामंतवाद की बुनियाद पर साठ के दशक में पश्चिम बंगाल के गांवों में जन्मा नक्सलवाद धुर विप्लवी वामपंथी माओवादी विचारकों चारु मजूमदार और कानू सान्याल समेत दर्जनभर कम्युनिस्टों के जेहन से निकलकर साहित्यकार महाश्वेता देवी की "हजार चौरासी की मां' के कथानक तक विस्तृत हो गया है। कभी कानून-व्यवस्था की समस्या बन चुना नक्सलवाद अब घोषित तौर पर सामाजिक -आर्थिक प्रक्रिया में बदलाव का हामी हो गया है और उसका घटिया संस्करण सबके सामने है। शायद तभी गणपति का सूर भी बदला नजर आ रहा है।
माओवादी राजनीति में एक ही साथ कई समस्याएं उठ खड़ी हुई हैं। मसलन कभी दक्षिण एशिया में माओवादी आंदोलन को हवा देने वाला नक्सलियों का अगुवा नेपाल संसदीय रास्ता अख्तियार कर लिया है और दुनिया के माओवादियों के बीच यह संदेश दे रहा है कि वर्तमान समय में बंदूक के सहारे सत्ता हथियाने का रास्ता बंद हो चुका है। सूत्रों का कहना है कि माओवादियों की एक बड़ी जमात नेपाल के प्रचंड लाइन का मौखिक समर्थन कर रहा है। ऐसे में माओवादियों के बीच इस बात की बहस चल पड़ी है कि जब चीन में ही माओत्सेतुग्ड अप्रसांगिक हो गये तो फिर विविधताओं से भरे भारत में बंदूक के सहारे सत्ता कैसे हासिल की जा सकती है? वैसे ही लोग इस बात की वकालत कर रहे हैं कि जरूरत है अतीत की विरासत, वर्तमान के अनुभव और भविष्य की आकांक्षाओं को ध्यान में रखकर ही नयी विचारधारा और परिर्वतन की रणनीति बनाने की।
नौंवे दशक में अचानक उत्तर भारत में दलित और पिछड़े संसदीय नेताओं का राजनीति में उभार होना भी नक्सलियोंं के अस्तित्व को खतरे में डाल दिया है। यही कारण है वोट बहिष्कार को तिलांजलि देते हुए नक्सल समर्थक लोग अब जमकर मतदान में हिस्सा ले रहे हैं। बिहार, झारखंड, उड़ीसा समेत नक्सल प्रभावित अन्य राज्यों के गांवों से बड़े जोतदारों और जमींदारों का पलायन हो चुका है। यानी उन लोगों ने नक्सलियों की हुकूमत स्वीकार कर ली है।
केंद्रीय नेतृत्व इन सारी बातों पर आत्ममंथन ही कर रहा था कि अचानक छत्तीसगढ़ राज्य इकाई की दंडकारण्य कमिटी ने सरकार से शांति वार्ता का प्रस्ताव रख डाला। मजे की बात यह है कि इसबात की जानकारी केंद्रीय नेतृत्व तक को नहीं है। यही नहीं, आन्ध्र प्रदेश इकाई के राज्य सचिव और केंद्रीय कमिटी के सदस्य सांबासिवुदू ने आत्मसमर्पण करके नेतृत्व की कुशलता पर ही सवाल उठाया है। खबर है कि माओवादियों के शीर्ष नेतृत्व से उनकी अनबन चल रही थी। ये वही माओवादी हैं जिन्होंने अक्तूबर, 2003 में तत्कालीन मुख्यमंत्री चन्द्रबाबू नायडू पर हमले की योजना बनायी थी। इन्होंने 1993 में महमूदनगर जिले से भूमिगत माओवादी राजनीति की शुरुआत की थी। तब से वह लगातार माओवादी राजनीति को फैलाने में लगे रहे। उनके आत्मसमर्पण से माओवादियों के अंदर चल रहे अंतरविरोध खुलकर सामने आ गया है। यह तो बानगी मात्र है। सच्चाई तो यह है बीते चार वर्षों में आन्ध्र से लेकर बिहार तक दर्जनों हार्डकोर माओवादियों ने आत्मसमर्थन किया है। आखिर क्या कारण है कि एक जज्बे के साथ नक्सली बनने वाले हार्डकोर कैडर आत्मसमर्पण करने पर मजबूर हो रहे हैं? इसका मंथन माओवादियों की केंद्रीय कमिटी ने जब शुरू की तो विवाद गहरा गया। जबकि कई ऐसे भी हैं जो नेतृत्व को अनदेखा करते हुए रॉबिनहुड बनने के चक्कर में गिरफ्तार हो चुके हैं। नक्सलियों की लगातार हो रही गिरफ्तारी पर केंद्रीय नेतृत्व भी सकते में है और गंभीर आत्मचिंतन में लगा हुआ है। खबर है कि बीते साल बिहार और झारखंड के सीमाई इलाकों के घने जंगलों में आयोजित केंद्रीय कमिटी की बैठक में जब दो धारी संघर्ष (टू लाइन स्ट्रगल) शुरू हुआ तो पार्टी सकते में आ गयी और आनन-फानन में कई ऐसे फैसले ले लिये जिसे अगर सार्वजनिक कर दिया जाये तो नक्सल आंदोलन में भूचाल आये बिना नहीं रहेगा। बताया जाता है कि भारतीय समाज का विश्लेषण कर रहे माओवादियों की सर्वोच्च संस्था अब पीपुल्स गुरिल्ला लिबरेशन आर्मी हो गयी है जबकि इसके पहले पार्टी सर्वोच्च संस्था हुआ करती थी। बदले विश्व परिदृश्य में संयुक्त मोर्चा के महत्व को भी नक्सलियों ने समझा है। जबकि इसके पहले नक्सलियों की जमात संयुक्त मोर्चा को सिरे से खारिज करती थी। बंदूक के सहारे समतामूलक समाज निर्माण करने के हिमायती माओवादियों ने अपने 40 वर्षों के संघर्ष में पहली बार संयुक्त मोर्चा में गांधीवादियों से लेकर लोकतंत्रप्रेमियांें के साथ मोर्चा बनाने का निर्णय लिया है ताकि छोटे स्तर के नक्सली वाम भटकाव की ओर अग्रसर नहीं हों।
यही नहीं, पश्चिम बंगाल के गांवों से 1967 में सही किसानों के हाथों में जमीन और किसान कमिटी के हाथों में हुकूमत के हिमायती नक्सलियों ने आधार इलाका बनाने की बात भी फिलहाल स्थगित कर दी है और वे छापामार जोन बनाने पर जोर दे रहे हैं ताकि सरकार से संघर्ष तीखा होने की स्थिति में पुलिस के दमन से आधार इलाके की जनता को बचाया जा सके । इसका परिणाम भी सामने दिखने लगा है। बात चाहे महाराष्ट्र के गढचिरौली जिले में 15 पुलिसकर्मियों को पत्थर से कूच-कूचकर हत्या करने की हो या झारखंड के राहे पुलिस पिकेट के पांच जवानों को चाकू गोदकर मारने की। बिहार के नवादा स्थित कौआकोल में तो नक्सलियों ने हद ही कर दी जहां पीएलजीए की गुरिल्ला आर्मी की महिला दस्ता ने 15 पुलिसकर्मियों के हथियार छिनने के बाद हत्या कर दी। आगे नक्सलियों का कहर कहां बरपेगा, यह कहना मुश्किल है। विदित हो कि पिछले साल केंद्रीय कमिटी के सदस्य और मारक दस्ते का मास्टरमाइंड प्रमोद मिश्र की जब धनबाद में गिरफ्तारी हुई तब इस बात का खुलासा भी हुआ था कि नक्सलियों ने अपनी रणनीति बदल दी है और अब वे भारतीय सेना से लड़ाई करने के पक्ष में आ गये हैं। बात दीगर है कि अबतक सेना को नक्सली इलाकोें में नहीं उतारा गया है।
आर्थिक सुधारवाद के इस जमाने में नक्सलियों का मानना है कि दलाल पूंजीपतियों के सहयोग से साम्राज्यवादी पूंजी गांवों तक अपनी पैठ बना रही है। इससे निपटने और इसके खतरों से जनता को अवगत कराने के लिए गांधीवादियों से लेकर अन्य समाजवादियों से सांठगांठ कर रही है।

Wednesday, March 4, 2009

कम नहीं आंकिये बसपा को

हालांकि उत्तर प्रदेश को छोड़कर कहीं भी बहुजन समाज पार्टी की सरकार नहीं है और न किसी दूसरे राज्यों में वह सरकार बनाने की ही स्थिति में है। बावजूद इसके आगामी आम चुनाव में बसपा राष्ट्रीय राजनीति में निर्णायक दबदबा बनाने में कामयाब हो सकता है। कुछ महीने पूर्व हुए चार राज्यों के विधानसभा चुनाव परिणामों को देखते हुए बड़े दलों मसलन भाजपा और कांग्रेस इसे नकार कर नहीं चल सकते।
बसपा की सोशल इंजीनियरिंग को देखते हुए कांग्रेस और भाजपा समेत वाम दलों ने भी इसे बतौर सत्ता प्रेम दलितों को पटाने में लगी है। हालांकि ऊ परी तौर पर दोनों दल यह दिखाने की फिराक में हैं कि फिलहाल बसपा से डरने की जरूरत नहीं है। लेकिन इन दलों के अंदर झांकने पर तस्वीर कुछ दूसरी उभरकर आ रही है। इसका गवाह केंद्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली ही है जहां कभी बसपा ने दो सीटों (8.5 फीसदी) से खाता खोला था वहां बीते विधानसभा चुनाव में उसे14 फीसदी वोट मिले। कमोवेश यही हाल मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में दिखा जहां पिछले विधासनभा चुनाव में अपना वोट बैंक बढ़ाने में कामयाब रहा। एक ओर बसपा ने जहां मध्य प्रदेश में दो सीटों की बढ़ोतरी करते हुए वर्तमान विधानसभा में सात विधायकों को भेजने में सफल रहा वहीं छत्तीसगढ़ में वोट प्रतिशत 6.00 कर लिया। हाथी की मस्त चाल से राजों-रजवाड़ों का गढ़ राजस्थान भी अछूता नहीं रहा। यहां सत्ता की बागडोर भले ही कांग्रेस पार्टी ने संभाली हो लेकिन बसपा ने 4 अतिरिक्त सीटें जीतकर अपना 6 फीसदी वोट बढ़ा लिया। कभी "वोट से लेंगे पीएम-सीएम और मंडल से लेंगे एसपी-डीएम' का राग अलापने वाली बसपा इन दिनों न सिर्फ उत्तर भारत में बल्कि अखिल भारतीय राजनैतिक वजूद बचाने में कामयाब हुई है। विदित हो कि कांशीराम ने जब अपनी नौकरी छोड़कर बामसेफ और डी-फोर के रास्ते बसपा बनाया था उसी समय उन्होंने नया हिन्दुस्तान का सपना भी देखा था उस समय उनका स्पष्ट विचार था कि दलितों और पिछड़ों का भला तब तक नहीं होने वाला जबतक सत्ता पर उनका (दलितों और पिछड़ों) कब्जा नहीं होगा।
वैसे तो बहुत लोगों को यह भ्रम है कि बसपा दलितों की पार्टी है। लेकिन इसके गिरेबां में झांकने पर यह स्पष्ट होता है कि यह दलितों की पार्टी नहीं, बल्कि भारतीय संविधान पर खरा उतरने वाली एकमात्र पार्टी है जिसके संस्थापक कांशीराम ने 1987 में ही हरियाणा विधानसभा में पिछड़ों को आरक्षण देने की वकालत की थी। तब मंडल कमीशन की रिपोर्ट केंद्रीय सचिवालय में धूल खा रही थी। उसी समय कांशीराम ने आजादी के बाद के हुक्मरानों पर तरस के साथ ही आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा था कि आखिर क्या कारण रहा कि इतने दिनों के बाद भी अनुसूचित जाति, जनजाति के साथ ही पिछड़ों को न तो सामाजिक मान्यता ही मिली और न ही कोई अधिकार ही दिये गये।
यही नहीं, सीएसडीएस की ओर से जारी किये गये आंकड़ों के अनुसार 1999 में 13 फीसदी गैर-यादवों के वोट बसपा को मिली। कहने का तात्पर्य यह कि कांशीराम ने बसपा में दलितों के साथ ही पिछड़ों और मुसलमानों को भी जोड़ने का प्रयास किया। एक कदम आगे बढ़ते हुए वर्ष 2007 में पार्टी सुप्रीमो मायावती ने बसपा में सवर्णों में ब्राहणों के साथ ही वैश्यों को जोड़कर एक नया कीर्तिमान स्थापित किया और सोशल इंजीनियर बन गयी। कमाल करते हुए मायावती ने प्रदेश में 30 फीसदी वोट और 206 सीटें पाकर अपने दम पर सरकार बना ली। अगर सबक ुछ ठीकठाक रहा तो आगामी लोकसभा चुनाव में वह 40-50 सीट आसानी से जीत सकती है। अगर ऐसा हुआ तो बिना बसपा के सहयोग के केंद्र की सरकार चलाना मुश्किल होगी। फिर गठबंधन की राजनीति उन्हें प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठा दे तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी, क्योंकि देश की बड़ी वामपंथी पार्टी सीपीएम पहले ही मायावती के पक्ष में खड़ा हो चुकी है। वहीं सांप्रदायिकता के नाम पर भाजपा विरोध अभी भी वामपंथियों का जारी है। फिर दिल्ली, राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ समेत अन्य राज्यों में जिस तरीके से हाथी मस्तानी चाल चली है उसका भी संकेत सकारात्मक ही है।

Tuesday, March 3, 2009

...और ओबामा ने बाजी मार ली

...और अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के अंतिम वाकयुुद्ध में 46 वर्षीय डेमोक्रेट्‌स उम्मीदवार बराक ओबामा ने बाजी मार ली। अंतिम बहस के बाद न्यूयार्क टाइम्स व सीबीएस की ओर से कराये गये जनमत सर्वेक्षण में बराक अपने प्रतिद्वंदी 76 वर्षीय रिपब्लिकन उम्मीदवार जॉन मैक्केन से 14 फीसदी मतों से आगे चल रहे थे। जबकि 22 अक्टूबर को वॉल स्ट्रीट जनरल व एनबीसी न्यूज की ओर से कराये गये सर्वेक्षण में भी ओबामा 52 फीसदी मतदाताओं के पसंदीदा बन गये हैं वहीं मैक्केन के समर्थकों का आंकड़ा 42 फीसदी है। दो हफ्ते पहले की गयी रायशुमारी के नतीजों में ओबामा को 4 फीसदी की बढ़त मिल गयी है। फिर भी, इन सर्वेक्षणों का अंतिम प्रतिफल 4 नवंबर को राष्ट्रपति चुनाव के लिए होने वाले मतदान के बाद ही आएगा, जिसका दुनिया बेसब्री से इंतजार कर रही है।
16 अक्टूबर को न्यूयार्क के लंबे-चौड़े भू-भाग में फैले होपस्ट्रा विश्वविद्यालय परिसर के बहस हॉल में दोनों प्रत्याशियों ने आमने-सामने एक-दूसरे पर तीखे प्रहार किये। शब्दवाणों की झड़ी से एक ओर जहां रिपब्लिकन उम्मीदवार मैक्केन बार-बार झल्लाये वहीं डेमोक्रेट्‌स प्रत्याशी व्यक्तिगत हमला झेलने के बावजूद गंभीर बने रहे और शालीनता के साथ मुद्दों को उठाते रहे।
वैसे तो चुनावी माहौल में ओछी राजनीति कोई नई बात नहीं है। एशिया, अफ्रीका समेत दुनिया के अधिकांश देश इस रोग से संक्रमित हैं। लेकिन इस बार अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव अभियान में प्रत्याशियों की बयानबाजी ने सारी सीमाओं को लांघ दिया। डेमोक्रेट्‌स उम्मीदवार आतंकी बताए गये तो डेमोक्रेट समर्थकों ने रिपब्लिक उम्मीदवार को हिंसक बताया और कहा कि मैक्केन युद्ध की मानसिकता से ग्रस्त हैं।
अमेरिकी चुनावी इतिहास में शायद ऐसा पहली बार हुआ है जब पूरे चुनावी अभियान से एकतरफा मुद्दे गायब दिख रहे हैं। आर्थिक सुनामी की मार झेल रहे अमेरिका समेत तीसरी दुनिया के देश व्यक्तिगत बयानबाजी व ओछी राजनीति से हतप्रभ हैं। हद तो यह कि आर्थिक नीतियों पर चर्चा करने की बजाय पूरे चुनावी अभियान में रिपब्लिकन उम्मीदवार मैक्केन हताशा भरी राजनीति करते दिख रहे हैं। चुनावी सर्वेक्षणों के परिणामों से हताश हो चुके मैक्केन ने बिना साक्ष्य जुटाए ही यह प्रचारित करने का भरसक प्रयास किया कि बराक ओबामा का संबंध आतंकवादियों से रहा है। उन्होंने कहा कि बराक सातवें दशक में वियतनाम युद्ध के समय आतंकी संगठन "वेदर अंडरग्राउंड' के संस्थापक सदस्यों में से एक विलियम एयर्स (उस दौरान बम विस्फोटों में नाम आया था) के साथ रहे हैं। रिपब्लिकन उप राष्ट्रपति पद की उम्मीदवार सारा पेलेन ने भी इस बात का जोर-जोर से प्रचार किया कि बराक का संबंध आतंकवादियों से रहा है।
हालांकि इतने तीखे आरोप के बावजूद बराक शालीनता के साथ चुनावी अभियान में डटे हुए हैं। रिपब्लिकन पार्टी के व्यक्तिगत हमले से आहत बराक ने सफाई देते हुए मतदाताओं से कहा कि इन दिनोें विलियम एयर्स शिकागो के एक महाविद्यालय में व्याख्याता के पद पर कार्यरत हैं। उन्होंने मैक्केेन व सारा के इस आरोप को तथ्यहीन बताया और कहा कि आज से 40 साल पहले, जिस वक्त के आरोप हम पर लग रहे हैं उस समय हमारी उम्र मात्र आठ साल की थी। क्या आठ साल का मासूम बालक आतंकवादियों से संबंध रख सकता है? उन्होंने जोर देकर कहा कि अगर वाकई एयर्स आतंकवादी होते तो पूर्व राष्ट्रपति रोनाल्ड रेगन के पूर्व राजदूतों व उनके नजदीकी सहयोगियों से उस बोर्ड को आर्थिक मदद नहीं मिलती, जिसमें आज से 10 साल पहले मैं और एयर्स दोनों शामिल थे। फिर भी, बराक ने इस आरोप का जवाब एक इलेक्ट्रॅानिक विज्ञापन के माध्यम से दिया है। इस विज्ञापन में दिखाया गया है कि जब वॉल स्ट्रीट ढह रहा था, उस वक्त मैक्केन बहुत ही लापरवाह थे। मतदाताओं को इसमें बताया जा रहा है कि अमेरिका की गिरती अर्थव्यवस्था व 750 हजार बेरोजगार अमेरिकियों का ध्यान हटाने के लिए ही ओबामा पर व्यक्तिगत प्रहार किये गये हैं। हालांकि अमेरिकी जनता चुनाव पूर्व हुए सर्वेक्षणों में मैक्केन के इस बेतुका आरोप को सिरे से खारिज कर दिया है।
अपने तूफानी चुनावी अभियान के अंतिम चरण में ओबामा ने सरकार की नीतियों पर प्रहार करते हुए कहा- अगर किसी भी हालत में मैक्केन जीत जाते हैं तो वे भी जॉर्ज बुश की ही तरह अमेरिका का कबाड़ा निकाल देंगे। व्यंग्यात्मक लहजे में ओबामा ने कहा कि मैं अमेरिकी जनता की बेहतरी के लिए कुछ दिन और व्यक्तिगत हमले बर्दाश्त कर ले रहा हूं, लेकिन नहीं चाहता कि अमेरिकी जनता अगले चार साल तक नाकामयाब आर्थिक नीतियों के भरोसे चले। इतना सुनते ही मैक्केन गुस्से में आ गये और डेमोक्रेट्‌स प्रत्याशी को चेताते हुए कहा-"सीनेटर ओबामा, आप संभलकर बात करें, मैं जॉर्ज बुश नहीं हूं।' इतना सुनते ही तपाक से बराक बोले-"बुश की नीतियों को अगर मैं आपकी नीति मानता हूं तो इसमें गलत क्या है? क्योंकि विश्वव्यापी आर्थिक संकट के बावजूद आप अभी भी बुश की आर्थिक नीतियों जो टैक्स, ऊर्जा, खर्च आदि से संबंधित है, का समर्थन कर रहे हैं। मैक्केन का कहना है कि ओबामा वर्गयुद्ध की नीति पर चल रहे हैं।
बीते दिनों जिस तरह से पूरा भारतीय संसद राहुल गांधी के उस भाषण पर ठहर सा गया था जिसमें उन्होंने उड़ीसा के किसी गांव की लीलावती-कलावती की चर्चा की गयी थी। ठीक उसी तरह से ओबामा ने अंतिम बहस में "द प्लंबर' की रोचक गाथा सुनायी। मानों पूरी बहस ही "जो' नामक एक ऐसे प्लंबर पर आकर टिक गई जो ओहियो में ओबामा से मिला था और इनके टैक्स प्रस्ताव से बर्बाद होने का अंदेशा जताया था। मैक्केन ने उसी "जो' को मध्यवर्गीय अमेरिकी प्रतिनिधि का चेहरा मानते हुए कोई ग्यारह बार नाम लिया। शुरू में तो यह रोचक लगा लेकिन बाद में उसका उल्लेख उबाऊ होने लगा। कुछ भी हो लेकिन इन दिनों भारतीय कलावती-लीलावती की ही तरह अमेरिका में "जो' द प्लंबर भी मशहूर हो चुका है।
अंतिम बहस के दौरान दोनों नेताओंं ने जोर-शोर से हिस्सा लिया। एक ओर रिपब्लिकन उम्मीदवार ने जहां अनुभव के अस्र चलाये वहीं डेमोक्रेट प्रत्याशी ने धैर्य से आर्थिक सुनामी का तांडव झेल रही जनता के साथ ही अपने समर्थकों का भी ढांढस बंधाया।
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विशेषज्ञों का आकलन
न्यूयॉर्क में बहस से एक दिन पहले के रुझान :
ओबामा: 49.9 फीसदी- (इलेक्टोरल कॉलेज के 313 वोटों की बढ़त )
मैक्केन: 42 फीसदी-सिर्फ 158 पर रूक गए।
15 अक्टूबर, तीसरी व निर्णायक बहस (स्थान-न्यूयॉर्क के लांग आईलैंड स्थित हाफ्स्डा विश्वविद्यालय के परिसर में)
विषय-वित्तीय संकट
जॉन मैक्केन
पहले 30 मिनट
· जबरदस्त हावी रहे। धाराप्रवाह बोले। चुन-चुन कर आरोप मढ़े।
दूसरे 30 मिनट
· पहले तो हावी होने का भरोसा खुद पर भारी पड़ने लगा। फिर गड़बड़ा गए। आरोप लगाने लगे।
तीसरे 20 मिनट
· एकदम दिशा खो बैठे। निजी प्रहार करने करने। माखौल उड़ाने लगे।
बराक ओबामा
पहले 30 मिनट
· शुरुआत गड़बड़ा गई। शायद भौंचक रह गए कि मैक्केन ऐसा कर सकते हैं। ये, देखिए..मेरी बात तो सुनिए..जैसे शब्दों का इस्तेमाल करने लगे।
दूसरे 40 मिनट
· तेजी से संभले। गलती न हो जाए, इसलिए शांत थे। सिर्फ मुद्दों पर ही बोले।
तीसरे 20 मिनट
· संयमित और अविचलित रहे। खूब अच्छा बोले।
बहस के बाद रुझान:
· ओबामा-53 फीसदी
·

Sunday, March 1, 2009

छूटे घुमते उपद्रवी

हिंदू भावनाओं को उभारकर सत्तासीन होने की बेचैनी भाजपा के लिए नयी बात नहीं है। यह बेचैनी दक्षिणी राज्य कर्नाटक में भी दिखनी शुरू हो गयी है। लालकृष्ण आडवाणी को प्रधानमंत्री के पद पर पहुंचाने को व्याकुल भगवा ब्रिगेड ने इसकी जिम्मेवारी नवोदित चरमपंथी संगठन श्रीराम सेना को दी है। कमोबेश यही काम बजरंग दल, विश्व हिंदू परिषद, शिव सेना, मनसे समेत अन्य दूसरे हिंदूवादी संगठन भी करते रहे हैं। कुछ दिनों पूर्व श्रीराम सेना ने पहले मेंगलूर के बालमत्ता रोड स्थित एक पब में आतंक मचाया और दर्जनभर हिंदू लड़कियों को दौड़ा-दौड़ा कर पीटा। फिर कुछ दिनों के बाद केरल के सीपीएम विधायक सी.एच.के. कुन्हांभू की बेटी को सिर्फ इसलिए घंटों बंधक बनाये रखा क्योंकि वह अपने एक अल्पसंख्यक दोस्त (मुस्लिम) के साथ बस में यात्रा कर रही थी। इससे सेना की वहशी मानसिकता ही छलकती है। ये दोनों उदाहरण तो बानगी मात्र हैं। श्रीराम सेना का आतंक सूबे के छोटे कस्बों और गांवों तक पहुंच गया है। आश्चर्य तो यह कि तथाकथित राष्ट्रवादियों ने प्यार पर ही पहरा लगा दिया है।
एटीएस से मिली जानकारी के अनुसार हिंदू राष्ट्र की कल्पना को साकार करने के लिए सेना ने 1,132 आत्मघाती दस्ते तैयार कर रखे हैं जिनका काम सांप्रदायिक भावनाओं को भड़काना और हिंदू आतंकवाद को हवा देना है। सेना प्रमुख प्रमोद मुतालिक का संबंध अभिवन भारत नामक संगठन के साथ ही मालेगांव विस्फोट के आरोपी साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर समेत दर्जनों चरमपंथियों से भी है, जिनकी योजना 2025 तक देश को हिंदू राष्ट्र में तब्दील करने की है। संस्कृति के इन ठेकेदारों ने पब के बहाने गंगा-यमुनी संस्कृति के साथ-साथ महिलाओं की आजादी और आधुनिकता का भी विरोध किया है। ये कैसे "रामभक्त' हैं जो पश्चिमी संस्कृति से मुक्ति के नाम पर कहीं महिलाओं पर हमला करते हैं तो कहीं मुसलमानों के खिलाफ हिंदुओं को भड़काते हैं जबकि आम धारणा है कि स्वयं भगवान राम शाप से मुक्ति के लिए अहिल्याबाई के पास पैदल पहुंचे थे। श्रीराम सेना के कार्यकर्ताओं ने अपनी कार्रवाईयों से साबित कर दिया है कि तालिबानीकरण सिर्फ किसी जाति या संप्रदाय तक ही सीमित नहीं है। भारतीय जनता पार्टी गुजरात के बाद कर्नाटक को हिंदुत्व का दूसरा प्रयोगशाला बना देना चाहती है। इसी के मद्देनजर उसकी तैयारी भी चल रही है। वैसे तो इसकी सुगबुगाहट 2005 में ही शुरू हो गयी थी जब सूबे के विभिन्न हिस्सों में हिंदू-मुस्लिम दंगे हुए थे और गो-हत्या रोकने को लेकर सत्ता संरक्षित बवाल करवाया गया था। लेकिन आगामी लोकसभा चुनाव के मद्देनजर भगवा ब्रिगेड को यह भरोसा है कि कर्नाटक और आंध्रप्रदेश की सीटें ही केंद्र में भाजपा को सत्ता दिला सकती है। इसी विश्वास के साथ वेंकैया नायडू ने अपनी विजय संकल्प यात्रा के दौरान कहा, "दक्षिण के 132 सीटें केंद्रीय सत्ता की कुंजी है जिसे हर हाल में हासिल करना है।' लोकसभा चुनाव के मद्देनजर भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह कहते हैं, "हमारे राजनीतिक प्रतिद्वंदियों के दिमाग में संघ और भाजपा का अजीब डर बैठ गया है और तथ्यों की पुष्टि के बिना ही आरोप शुरू कर देते हैं।'
दरअसल श्रीराम सेना प्रमुख प्रमोद मुतालिक का भाजपा की मातृ संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) से गहरा संबंध रहा है। संघ के सूत्रों का कहना है कि मुतालिक 1975 से 2004 तक आरएसएस का सक्रिय सदस्य था। संघ के पदाधिकारियों ने उसकी कतर्व्यनिष्ठा को देखते हुए 2004 में दक्षिण भारत (कर्नाटक) में बजरंग दल का संयोजक बनाया। गत विधानसभा चुनाव में उसने भाजपा का जमकर सहयोग किया। 28 अगस्त, 2005 में वह शिव सेना से जुड़ा। सितंबर, 2008 में राष्ट्र रक्षक सेना के साथ ही श्रीराम सेना का भी गठन किया। वैसे तो आरएसएस और भाजपा के शीर्ष नेताओं ने इस बात से इंकार किया है कि प्रमोद मुतालिक का संघ से कोई संबंध है और श्रीराम सेना उसका जेबी संगठन है। लेकिन इस बात का जवाब मुख्यमंत्री बी. एस. येदियुरप्पा समेत भाजपा के शीर्ष नेताओं के पास है कि आखिर किस तरह वह प्रदेश के 11 जिलों की पुलिस की नजर में वांछित होने के बावजूद खुलेआम कानून को चुनौती देता फिर रहा है। यही नहीं, सूबे के विभिन्न जिलों में मुतालिक पर 45 से अधिक आपराधिक मामले दर्ज हैं। देश में भगवा ब्रिगेड की हरकतों के बारे में गृहमंत्री पी.चिदंबरम कहते हैं, "श्रीराम सेना देश के लिए खतरा है और केंद्र सरकार इस संगठन की गतिविधियों पर नजर रखे हुए है।'