Tuesday, June 30, 2009

भ्रांति में फंसी क्रांति

माओवादियों के तेवर और क्रांति के वाम भटकाव के कारण हिंसक संघर्ष की घटनाओं ने सामाजिक-राजनीतिक तनाव को चरम पर ला दिया है।
"लालकिले की धरती को लाल बनाके छोड़ेंगे, पूरे हिंदुस्तान को नक्सलाइट बनाके छोड़ेंगे।'

लालकिले के सामने 15 अगस्त 2001 को जब प्रधानमंत्री देश को संबोधित करने वाले थे, उसके कुछ ही मिनट पहले ही इस नारे की गूंज सुनी गयी थी। नारा लगाने वाले अति वामपंथी छात्र संगठन डेमोक्रेटिक स्टूडेंट यूनियन (डीएसयू) के सदस्य थे। इन छात्रों में से 15 को दिल्ली पुलिस ने गिरफ्तार कर तिहाड़ जेल भेज दिया था। उस समय इस नारे के निहितार्थ को समझना आम लोगों के लिए थोड़ा कठिन था, लेकिन आज जब पश्चिम बंगाल का लालगढ़ इलाका माओवादियों की गर्जना से दहल रहा है, अब इस नारे की हकीकत समझ में आ रही है। हालांकि माओवादियों के लिए लालगढ़ पड़ाव है, ठहराव नहीं। ठहराव की खोज में माओवादी देश के 45 फीसदी भू-भाग पर पहुंच चुके हैं। 30 फीसदी जमीन माओवादियों के कब्जे में बतायी जाती है, जहां उनकी अपनी हुकूमत चलती है। नक्सलबाड़ी विद्रोह के समय से ही चीनी कम्युनिस्ट नेता माओत्से तुंग को अपना आदर्श मानने वाले नक्सलियों की भाषा ही बंदूक मानी जाती है। लेकिन अचानक माओवादियों की जमात 15वीं लोकसभा चुनाव अभियान के समय से कुछ ज्यादा ही हिंसक हो गयी है। दरअसल बिहार के मैदानी इलाके आंध्र प्रदेश में नक्सलियों के रॉबिनहुड स्टाइल का जनता ने विरोध किया है। माओवादियों को करारा झटका तब लगा जब पांच लाख के इनामी जोनल कमांडर कामेश्र्वर बैठा और दिनकर यादव ने संसदीय रास्ता अख्तियार कर लिया। दूसरी ओर, आंध्र प्रदेश के राज्य सचिव ने इसी वर्ष मार्च में पुलिस के सामने आत्मसमर्पण कर दिया।
सरकार को नक्सलियों के नये हिंसक तेवर का आभास तो 14 अप्रैल को ही हो जाना चाहिए था, जब माओवादियों ने बिहार के कैमूर पहाड़ी पर बीएसएफ के एक अस्थायी कैंप पर रॉकेट लांचर हमला किया था। दिल्ली में बैठी सरकार तब से लेकर अब तक रणनीति बनाने में जुटी हुई है तो दूसरी ओर देश के विभिन्न हिस्से नक्सलियों के हिंसक तेवर से थर्रा रहे हैं। 10 जून को संसद में गृहमंत्री पी चिदंबरम नक्सलियों से निबटने के लिए विशेष योजना बनाने की घोषणा कर रहे थे, तो बिहार-झारखंड-उत्तरी ओड़िशा स्पेशल एरिया कमेटी की गुरिल्ला आर्मी झारखंड के पश्र्चिमी सिंहभूम स्थित सारूगढ़ा घाटी (सारंडा के जंगल) में बारूदी सुरंग विस्फोट कर एक इंस्पेक्टर समेत 11 जवानों को मौत की नींद सुला रही थी। सरकार कुछ समझ पाती, इसके पहले ही 12 जून को माओवादियों ने बोकारो के पास नवाडीह में अर्द्धसैनिक बलों पर हमला बोल दिया, जिसमें 11 जवान मारे गये। 18 जून को जब पुलिस के आला अधिकारी लालगढ़ को माओवादियों के कब्जे से मुक्त कराने के लिए अभियान छेड़ने की योजना बना रहे थे, माओवादी ओड़िशा के कोरापुट जिले के पालुर गांव के पास बारूदी सुरंग विस्फोट में सीआरपीएफ के नौ जवानों को उड़ा रहे थे। यह सिर्फ बानगी है। सच्चाई इससे भी भयावह है। खुद सरकार का मानना है कि 28 में से कम से कम 16 राज्यों के 210 जिले नक्सल प्रभावित हैं। सामाजिक कार्यकर्ता भी माओवादियों के इस तेवर से सकते में हैं। वहीं माओवादी पत्रिका "जन ज्वार के' संपादक त्रिवेणी सिंह ने "द पब्लिक एजेंडा' को बताया, "सामंतवाद से बड़ा दुश्मन बुर्जुवा पूंजीपति है, जिसकी रक्षा के लिए पुलिस और फौज है। माओवादियों को लग रहा है कि वर्तमान शोषण आधारित व्यवस्था को टिकाये रखने के लिए ही फौज और पुलिस है, इसलिए अर्द्धसैनिक बलों पर हमले तेज हो गये हैं।'
देश के ज्यादातर हिस्सों में किसी न किसी रूप में माओवादियों की मौजूदगी देखी जा सकती है। रेड कोरिडोर की पुरानी पड़ चुकी माओवादियों की योजना पर भाकपा (माओवादी) की नौवीं कांग्रेस में ही यह तय हो चुका था कि मुक्त क्षेत्र (लिबरेटेड जोन) बनाकर सरकार को चुनौती नहीं दी जा सकती। इसके बाद नक्सली गुरिल्ला आधार पर क्षेत्र विस्तार में जुट गये। कभी ओड़िशा में सीआरपीएफ के जवान शहीद हो रहे हैं तो कभी महाराष्ट्र, कर्नाटक आदि राज्यों में माओवादी वारदातें हो रही हैं। फिलहाल सरकार नक्सलवादियों की आग को बुझाने के लिए बंदूक सहारा बना रही है। लेकिन सरकार को अपने पुराने अनुभवों से सीखने की जरूरत है। बंदूक का जवाब बंदूक से देने का ही नतीजा है कि दोनों (अर्द्धसैनिक बल और नक्सली) ओर से आक्रामकता और शत्रुता बढ़ती चली गयी।
भाकपा (माओवादी) के प्रवक्ता आजाद की मानें तो, "संसदीय रास्ते से समाज के गरीब तबके का विकास अगर संभव होता तो 60 साल के लोकतांत्रिक इतिहास में विकास की रोशनी से सुदूर ग्रामीण इलाका जगमगा उठता, लेकिन ऐसा नहीं हो सका।' ग्रामीण विकास की योजनाएं सरकारी फाइलों की शोभा बढ़ रही हैं। चाहे शिक्षित और संपन्न राज्य महाराष्ट्र, कर्नाटक और तमिलनाडु हो या फिर बीमारू राज्यों में शुमार बिहार, झारखंड, ओड़िशा, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश समेत अन्य राज्य, जमीनी स्तर के विकास का हाल हर जगह यही है। खुफिया सूत्रों की मानें तो हाल के दिनों में माओवादियों का फैलाव हिमाचल प्रदेश, पंजाब, हरियाणा और उत्तराखंड में भी हुआ है। लंबे समय से वाम सोच द्वारा शासित, पश्चिम बंगाल में भी आदिवासियों समेत अन्य पिछड़ी जमातों की समस्या दिनोंदिन विकराल होती जा रही है। परिणामत: रॉबिनहुड स्टाइल होने के बावजूद माओवादियों का समर्थन दिनोंदिन बढ़ता चला जा रहा है।
सन्‌ 1967 में पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी और फांसी देवा में बंदूक उठाने वाले लोग चाहते थे कि जमींदारों और बड़े किसानों की सरप्लस (सीलिंग) भूमि गरीबों के बीच बांट दी जाये। पश्चिम बंगाल और केरल में इस दिशा में कुछ काम भी हुआ। लेकिन अन्य राज्यों में सरकारें नीतियां ही बनाती रह गयीं। लोग भुखमरी के शिकार होते रहे। उपेक्षा और विक्षोभ से उपजा आक्रोश अब इस कदर उद्वेलित हो गया है कि चाकू से गोदकर और पत्थरों से कूच-कूच कर पुलिस के जवानों की हत्याएं की जा रही हैं। पिछले महीने बिहार, झारखंड और महाराष्ट्र में ऐसी घटनाएं घट चुकी हैं। इस बाबत नक्सलियों के जो भी तर्क हों, लेकिन इस कार्रवाई को कहीं से भी जायज नहीं ठहराया जा सकता।
समय के साथ नक्सलबाड़ी से उठा तूफान पूरे देश की राजनीति को प्रभावित किया, लेकिन आज उसी के नाम पर राजनीति करने वालों की एक धारा जनसंघर्षों के माध्यम से संसदीय रास्ते पर चल रही है, तो दूसरी धारा, जिसका बड़ा हिस्सा (भाकपा (माओवादी) का शिकार है,) क्रांति के वैचारिक भटकाव के रास्ते पर आगे बढ़ रही है। इतिहास गवाह है कि राजनीति को प्रभावित किये बिना कोई भी आंदोलन ज्यादा दिन तक नहीं टिक सका है। नेपाल इसका ताजा उदाहरण है। हालांकि इसके पहले ही मिजो और नगा विद्रोहियों ने इसे समझा और बंदूक की राजनीति छोड़ दी। समाजवादी देश रूस और माओवादी चीन ने भी समय की गति के साथ अपने आपको बदला है। ऐसी स्थिति में क्या भारत की माओवादी ताकतें दुनिया के अन्य देशों से सबक लेंगी या यों ही क्रांति के वाम भटकाव में जान लेने और देने का क्रूर खेल चलता रहेगा।
हाल में घटी नक्सली घटनाएं

  • 19 जून, 2009 --उड़ीसा के कोरापुट जिले के पालुर गांव के समीप हुए बारूदी सुरंग में सीआरपीएफ के नौ जवान मारे गये।
  • 10 जून, २००९-- झारखंड के पश्चिमी सिंहभूम से गोइलकेरा थानाक्षेत्र के सारूगढ़ा घाटी (सारंडा के जंगल) में माओवादियों ने बारूदी सुरंग विस्फोट किया, जिसमें थानाप्रभारी, सीआरपीएफ के इंस्पेक्टर समेत 11 जवान शहीद हो गये। दूसरी ओर, छत्तीसगढ के बीजापुर स्थित गंगालूर इलाके के कोरचूली इलाके में हुए बारूदी सुरंग विस्फोट में सीआरपीएफ का असिस्टेंड कमांडेंट रामपाल सिंह मारे गये जबकि 5 जवान शहीद हो गये। इसके एक दिन बाद यानी 11 जून को माओवादियों ने इसी प्रदेश के दूसरे हिस्से में विस्फोट करके 11 जवानों को मौत की नींद सुला दिया।
  • 25 मई, 2009----महाराष्ट्र के गढ़चिरौली इलाके में भाकपा (माओवादी) ने एक बारूदी सुरंग में 15 से अधिक अधिकारियों और पुलिसकर्मियों को मौत की नींद सुला दिया।
  • 11 मई, २००९--- छत्तीसगढ़ के धमतरी जिले में घात लगाये नक्सलियों ने पुलिस बल के 15 जवान को गोलियों से भून दिया।
  • 12 अप्रैल, 2009 को ओड़िशा के कोटापुर जिले के नाल्को बॉक्साइड कंपनी पर हमला कर 7 सीआइएसएफ के जवानों को मौत की नींद सुला दी।
  • 11 अप्रैल, 2009 को खूंटी जिले के अड़की थाना क्षेत्र के जरको गांव में सुबह पांच बजे से दोपहर के एक बजे मुठभेड़ में 5 जवान मारे गये।
  • 27 मार्च, 2009 को चतरा में नामांकन करने जा रहे निर्दलीय प्रत्याशी इंदरसिंह नामधारी और कांग्रेस प्रत्याशी के समर्थकों को नक्सलियोंं जमकर धुनाई की और चुनाव बहिष्कार की धमकी दी।
    15वीं लोकसभा चुनाव के दौरान पूरा देश नक्सली हिंसा से त्रस्त रहा। लोकतांत्रिक प्रक्रिया में अबतक सबसे अधिक हिंसा इसी चुनाव में हुई, जहां नक्सलियों ने 49 अर्द्धसैनिक बल के जवानों को गोलियों से भून दिया।
     

Wednesday, June 24, 2009

ब़ढती ताकत, घटती विचारधारा

पिछले कुछ वर्षों में झारखंड में नक्सलियों की ताकत और खौफ तो खूब ब़ढे हैं लेकिन उनकी वैचारिक प्रतिबधता लगभग खत्म हो चली है।
मलवे में तब्दील हो चुका लातेहार जिले के चियाकी रेलवे स्टेशन पर विरानगी छायी हुई है। यहां बुकिंग कलर्क के अलावा रेलवे के किन्ही अन्य कर्मचारियों का कोई अता-पता नहीं जबकि नक्सली घटना के तीन महीने से अधिक होने को है। भाकपा (माओवादी) से जु़डे नक्सिलयों ने 22 मार्च को इसलिए स्टेशन को डायनामाइट लगाकर उ़डा दिया था कि उनके दो दिवसीय बंदी के फरमान के बावजूद इस स्टेशन से होकर ट्रेनों की आवाजाही बंद नहीं हुई थी। ऐसी बात नहीं है कि माओवादियों का फरमान सिर्फ़ चियाकी रेलवे स्टेशन पर ही दिखा, बल्कि कुछ दिनों के बाद नक्सलियो ने हेहग़डा स्टेशन के समीप रांची-मुगलसराय पैसेंजर ट्रेन को छह घंटों तक बंधक बनाये रखा। घटना दिन में हुई, इसके बावजूद रेलवे के आला अधिकारी और सरकारी मशीनरी मूकदर्शक बनी रही और वे टेलीविजन व अखबारों से ही सूचना हासिल करते रहे। कमोबेश ऐसे ही हालात प्रदेश के अधिकांश इलाकों में है, जहां नक्सलियों की इजाजत के बिना पत्ता भी नहीं डोलता। एक सूचना के मुताबिक, माओवादियों ने 22 और 23 जून को एक बार फिर दो दिनों की बंदी का ऐलान किया है।
बात चाहे पश्चिम बंगाल और ओरिशा से सटे जमशेदपुर इलाके की करें या फिर छत्तीसगढ़ से लगे गुमला और ग़ढवा जिलो की, हर जगह स्थिति कमोबेश एक जैसी ही है। राज्य के पश्चिम इलाके यानि पलामू प्रमंडल की स्थिति तो और भी गंभीर है। पलामू प्रमंडल में ग़ढवा, लातेहार, पलामू और चतरा जिलो आते हैं। यहां तो एक तरह से नक्सलियों का ही "राज' कायम हो गया है। माओवादियो के भय से शाम होते ही कुडू होते हुए मेदिनीपुर (डालटेनगंज) जाने वाली स़डक बंद हो जाती है। चंदवा से चतरा जाने में तो आम लोगों के अलावा पुलिस अधिकारियों के भी पांव फूलने लगते हैं। शाम के बाद बरही से चौपारण और हजारीबाग से इटखोरी होते हुए चतरा जाने का तो सवाल ही नहीं उठता। पारसनाथ से गिरीडीह जाने वाले रास्ते में भी माओवादियों का वर्चस्व है। डुमरी की भी यही कहानी है। चाइबासा भी कोई अलग नहीं है। अगर कहें की पलामू प्रमंडल देश का दूसरा बस्तर बनते जा रहा है, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। जंगलों और पहा़डों से घिरे इस इलाके के अधिकांश भू-भाग नक्सलियों के कब्जे में चला गया है। जिला मुख्यालय में तो पुलिस अधिकारी दिख भी जाते हैं, लेकिन अधिकतर सुदूर इलाकों और प्रखंड मुख्यालयों में नक्सलियों का ही हुकुमत चलता है। नक्सलियों ने जिस तरीके से इस इलाके को अपनी गिरफ्त में लिया है, उससे आशंका व्यक्त की जाने लगी है कि कहीं यह इलाका दूसरा नक्सलबा़डी न बन जाये। जमीनी हालात तो यही बता रहे हैं कि भारी संख्या में अर्द्धसैनिक बलों की मौजूदगी के बिना पुलिस अधिकारी गांवों में घुसने से भी डरते हैं। नक्सलियों के फैलाव पर मानवाधिकार संगठन पीयूसीएल के प्रदेश सचिव शशिभूषण कहते हैं, "सामाजिक व्यवस्था शोषण पर आधारित है। फिर पलामू और चतरा के सामंती किस्से देश भर में चर्चित रहे हैं। इसकी रोकथाम के लिए सरकार ने कोई सामाजिक प्रयास नहीं किया। जिसकी वजह से भोले-भाले ग्रामीणों का विश्वास जीतने में माओवादी आगे निकल गये।'
उधर नक्सलबा़डी की परंपरा को आत्मसात करने वाली माओवादियों की जमात प्रदेश में कुकूरमुते की तरह उग रहे हैं। 70 के दशक नक्सल्वादिओं के जो आदर्श थे, वे समय की गति के साथ-साथ गुम होते चले गये। जमींदारों की जमीनों के खिलाफ गोलबंद हुए अतिवादी कम्युनिस्ट पार्टी व्यक्तिकत हिंसा और लूट-खसोट पर उतारू होती चली गयीं। 90 के दशक के बाद चली आर्थिक उदारीकरण और बाजारवाद की हवा में नक्सली भी बहने लगे। कमोबेश सारे सामंती दुर्गंध नक्सली गलियारे में पहुंच गये। लातेहार जिला स्थित ब़ढिनया गांव के शंकर मुंडा कहते हैं, "शुरू में माओवादियों के आदर्श ने आदिवासियों को आकिर्षत किया, लेकिन बाद में वे कुकुरमुते की तरह उग आये और अब नक्सली संगठनों के कारण लोगों का जीना हराम हो गया है।' ग्रामीणों को डर एक ओर से नहीं, बल्कि तीन ओर से है। एक ओर जहां पुलिस अधिकारी नक्सलियो को संरक्षण देने के आरोप में ग्रामीणों को प्रतारित करते हैं तो दूसरी ओर, माओवादियो का दोनों ध़डा उन्हें जबर्दस्ती अपनी ओर लाने की कोशिश कर रहा है।
इन परिस्थितियों बीच क्रांति का सब्जबाग दिखाने वाले नक्सिलयों का आंतरिक कलह भी अब खुलकर सामने आने लगा है। इसके परिणामतस्वरूप आठ साल के झारखंड में आधा दर्जन नक्सली संगठनों का उदय हो गया। एमसीसी के जमाने में पोलित ब्यूरो से नाराज चल रहे केंद्रीय कमेटी के सदस्य भरत ने एक अलग पार्टी ही बना डाली। नाम रखा तृतीय प्रस्तुति कमेटी (टीपीसी)। ग़ढवा, चतरा और पलामू में यह संगठन सिक्रय है और माओवादियों के आर्थिक स्रोत पर कब्जा जमाने की फिराक में है। अपने आक्रमक तेवर के साथ पीएलएफआइ (पीपुल्स लिबरेशन फ्रंट ऑफ इंडिया) ने उन इलाकों में भाकपा (माओवादी) समर्थकों पर हमले तेज कर दिया है जहां के लोगों ने उसकी अधीनता स्वीकार करने से इंकार कर दिया है। कभी इनामी माओवादी रहे दिनेश गोप भी एक अलग संगठन चला रहा है। नाम रखा है, जेएलटी (झारखंड लिबरेशन टाइगर)। खूंटी, गुमला, लोहरदगा और सिमडेगा इलाके में यह संगठन सिक्रय माओवादियों का कहना है इस तरह के अधिकतर संगठन अपने कारनामों से सच्चे नक्सलियों को बदनाम करने पर तूले हुए हैं।
हालात इस कदर बेकाबू होते जा रहा हैं कि माओवादियों ने अपनी करतूतों से दिन और रात का फासला खत्म कर दिया है। जब, जिसे चाहा, उसकी हत्या कर दी। मात्र आठ साल में ही प्रदेश में एक सांसद, दो विधायक, एक एसपी व दो डीएसपी मारे जा चुके हैं, जबकि 400 से अधिक पुलिस और अर्द्धसैनिक बलों के जवान नक्सली हिंसा के शिकार हुए हैं। जनवाद की बात करने वाली माओवादी जमात ने अबतक एक हजार से अधिक आम लोगों को पुलिस मुखबिर बताकर तो कहीं सामंती सोच के नाम पर गोलियों से भून डाला। खुफिया सूत्रों का कहना है कि सूबे के करीब 130 पुलिस थाने माओवादियों के ही रहमोकरम पर चल रहे हैं। इस बाबत राज्य पुलिस प्रवक्ता एसएन प्रधान ने "द पब्लिक एजेंडा' को बताया, "आज तक यही तय नहीं हो पाया है कि आख़िर माओवादी चाहते क्या हैं? कभी वे निरीह ग्रामीणों की हत्या करते हैं तो कभी छुपकर पुलिसकिर्मयों पर वार करते हैं, क्या इससे क्रांति आ जायेगी?' अधिकारीयों के तर्क अपनी जगह है लेकिन इस बात से कौन इंकार कर सकता है कि माओवादियों की राजनीतिक लाइन और संघर्ष के तरीकों में आये भटकाव के बावजूद सूबे के करीब 8 हजार नौजवान हथियार बंद होकर सरकार को चुनौती देते फिर रहे हैं।
लाख टके का सवाल है की प्रतिवर्ष पुलिस आधुनिकीकरण के नाम पर करीब एक हजार करो़ड रुपये खर्च होने के बावजूद राज्य मशीनरी माओवादियों के फैलाव को रोकने में क्यों नहीं सफल हो पा रही है? क्यों सियासतदान संगीनों के साये में जीने को मजबूर हैं? क्यों प्राकृतिक संपन्नता के बावजूद ग्रामीणों को पीने का पानी तक मयस्सर नहीं है? जिस दिन इसका जवाब सियासतदानों की फौज खोज लेगी, संभव है उसी दिन माओवादियों की चाल पर लगाम लग जायेगा। फिलहाल कागजी योजनाएं बनाने में मशगूल सरकार इसके समाधान की और आगे ब़ढती नजर नहीं आ रही है।

Tuesday, June 23, 2009

uत्तरी बिहार में तेजी से फैले पैर

नक्सलबादी से उठा तूफान 40 वर्षों में बिहार के अधिकांश हिस्से में पसर गया है। फिर भी, आज उनके पास न तो वो वैचारिक तेज है और न ही कोई स्पष्ट सामाजिक एजेंडा।
कहने के लिए तो बिहार में "सुशासन की सरकार'' है लेकिन फिर भी बिहार कराह रहा है। लोकतंत्र की धरती, महात्मा बुद्ध और महावीर की कर्म और ज्ञानस्थली, बिहार में नक्सलियों का खूनी खेल लगातार जारी है। कुख्यात "जहानाबाद जेल ब्रेक कांड' के बाद पुलिस मशीनरी ने सूबे से नक्सली संगठनों को खत्म करने के लिए दावे तो अनेक किए, लेकिन सच्चाई यह है कि बिहार में नक्सली संगठन लगातार मजबूत होते जा रहे हैं। कभी थाने लूट लिये जाते हैं, तो कहीं रॉकेट लांचर से अर्धसैनिक बलों पर हमले हो रहे हैं। पुलिस आधुनिकीकरण की सारी योजनाएं माओवादियों के सामने कागजी शेर साबित हो रही हैं जबकि खुफिया तंत्र भी माओवादी रणनीति के आगे पंगु साबित हो रहा है।
सत्तर के दशक में मुशहरी (मुजफ्फरपुर, जहां राज्य की पहली नक्सलवादी घटना घटी थी), भोजपुर, औरंगाबाद और जहानाबाद की धरती नक्सलियों के खूनी खेल से लाल हुआ करती थी। वर्षों तक मध्य बिहार और भोजपुर में चल रहे इस खूनी खेल से उत्तरी बिहार का अधिकांश हिस्सा अनजान रहा। तब तर्क दिये जाते थे कि मध्य बिहार और भोजपुर की धरती नक्सलियों के लिए इसलिए उर्वर साबित हो रही है कि इन इलाकों में वर्षों तक जमींदारों व सामंतों के जुल्म चलते रहे थे। लेकिन आज हालात बदल गये हैं। एमसीसी और पीपुल्स वार के विलय के बनी भाकपा (माओवादी) के गठन होते ही तेजी से सूबे के अन्य हिस्से में नक्सलियों का फैलाव हुआ। देखते ही देखते पश्चिमी चंपारण, पूर्वी चंपारण, सीतामढ़ी, मुजफ्फरपुर, दरभंगा, वैशाली और हाजीपुर जिले के ग्रामीण इलाके नक्सली आतंक के चपेट में आ गये। तीन महीने पहले ही माओवादियों ने वैशाली में पुलिस जवानों से चार रायफल लूट लिये। इस इलाके में माओवादियों ने बैंक लूट की घटना को भी अंजाम दिया है। नवादा और औरंगाबाद में पिछले चार महीने में ही दो दर्जन पुलिसकर्मी नक्सली हमले में मारे गये हैं।
माओवादियों का कहना है कि सूबे की 21 हजार एकड़ जमीन या तो नक्सलियों की वजह से विवादित हो गयी हैं या फिर उनके कब्जे में है। इन जमीनों पर माओवादी समर्थक खेती कर रहे हैं जबकि सैकड़ों एकड़ जमीन नक्सलियों की वजह से बंजर होने की स्थिति में है। वर्षों पहले नक्सलियों ने उन जमीनों पर लाल झंडा गाड़कर उसे जमींदारों से छीन लिया था।
कभी जातीय गोलबंदी में विश्वास करने वाली नक्सलपंथियों के फैलाव का एक बड़ा कारण यह माना जा रहा है कि अब वे प्रशासनिक भ्रष्टाचार और व्यवस्था की खामियों की चर्चा करके गरीब ग्रामीणों के बीच पहुंच रहे हैं। पूर्वी-उत्तरी बिहार के भागलपुर और खगड़िया के कुछ इलाके माओवादियों की गिरफ्त में आ चुके हैं। "बिहार का लेलिनग्राड' कहलाने वाले बेगूसराय जिले में भी इन दिनों माओवादी गतिविधियां देखी जा रही हैं। इस बाबत आर्थिक विश्लेषक शैवाल गुप्ता कहते हैं, "प्रदेश में भूदान की जमीन भी दबंगों ने कब्जा लिया, फिर गरीबों के पास जीने का कोई सहारा नहीं रहा, इसलिए वे माओवादियों की ओर आकर्षित हो रहे हैं।'
इन सब घटनाओं के बीच तीन वर्षों में माओवादियों को भी गहरा झटका लगा है। भाकपा (माओवादी) के पोलित ब्यूरो सदस्य प्रमोद मिश्र समेत करीब छः सौ हार्डकोर नक्सली गिरफ्तार किए जा चुके हैं। बावजदू इसके नक्सली तेवर कम होते नहीं दिख रहा। अब तो वे मोबाइल टॉवर को भी निशाना बनाने से नहीं चूक रहे हैं। जनवरी से अबतक चार दर्जन से अधिक टॉवरों को डायनामाइट से उड़ाया गया है। नक्सलियों की हिंसक गतिविधियों पर लगाम क्यों नहीं लगा पा रही है सरकार, इस बाबत आईजी ऑपरेशन एसके भारद्वाज कहते हैं, "सरकार नक्सलियों के खिलाफ व्यापक अभियान छेड़े हुए है। सैकड़ों हार्डकोर माओवादी गिरफ्तार किये गये हैं।'
हालांकि बिहार की भौगोलिक स्थितिया नक्सलियों के अनुकूल नहीं है। इसलिए वे यहां झारखंड और छातीसगढ़ जैसे गुरिल्ला युद्ध चलाने में सक्षम नहीं हो पाते। इसके अलावा उत्तरी-पूर्वी बिहार के कुछ इलाके मसलन कोसी प्रमंडल के जिलों में आज भी सामाजिक सामंजस्य बना हुआ है और लोग वर्ग भेद जैसी बातों पर यकीन नहीं करते। वे वर्तमान व्यवस्था से खिन्न जरूर हैं लेकिन इसे बदलने के लिए जो दावे नक्सली करते आ रहे हैं उनके प्रति वे आश्वस्त नहीं हैं। बावजूद इसके नक्सली संगठन आज बिहार के हर इलाके में अपनी उपिस्थति दर्ज करा रहे हैं। यह इस बात का संकेत है कि बिहार सरकार नक्सली संगठनों से निपटने में आज भी असक्षम है।
प्रमुख नक्सली हमले
Ø 30 अगस्त, 2008---पश्चिम चंपारण के बुरूडीह में बारूदी सुरंग विस्फोट में 12 जवानों की हत्या कर दी गयी।
Ø फरवरी, 2009--- महीने में नवादा के कौलाकोल इलाके में नक्सलियों की महिला दस्ता ने थानाप्रभारी समेत 12 जवानों को कब्जा में करने के बाद पहले चाकू से प्रहार किया इसके बाद उनकी ही बंदूकों से गोलियों बरसानी शुरू कर दी और सारे हथियार लूट लिये।
Ø 21 अगस्त, 2008---गया जिले के रानीगंज में माओवादियों ने 6 पुलिसकर्मी की हत्या कर दी। इसमें दो माओवादी समेत एक आम नागरिक मारा गया।