Thursday, July 23, 2009

"सुशासन' में कहां से "दु:शासन?'

हिन्दुओं में यह कथा प्रचलित है कि अगर समाज में दु:शासन बनकर कोई द्रोपदी का चीरहरण करना चाहेगा तो कृष्ण बनकर कोई उसकी लाज भी बचाने अवश्य ही आयेगा, लेकिन यह क्या? बिहार में सुशासन की बात करने वाली नीतीश सरकार में ही राजधानी पटना में 23 जुलाई को एक लड़की का सरेआम चीरहरण होते रहा और कानून के रखवाले तमाशबीन बने सबकुछ देखते रहे। 25 वर्षीया वह लड़की राजधानी के व्यस्त इलाकों में से एक एक्जीविशन रोड में करीब एक घंटे तक चीखती रही, चिल्लाती रही, न्याय की भीख मांगती रही। आतताइयों से बचाने की गुहार लगाती रही। बावजूद इसके इंसानियत को तार-तार कर देने वाली इस घटना पर किसी की संवेदना नहीं जागी। आखिर जागती भी तो कैसे? लड़कियां या महिलाएं जो उपभोग की वस्तु समझी जाती हैं। सभ्य समाज, आधुनिकता और खुलेपन की वकालत करने वाले सैकड़ों लोग पूरी घटना के गवाह बने रहे। फिर भी मौन स्वीकारोक्ति। आखिर क्यों? क्या वे भूल गये कि झारखंड की यह इकलौती बेटी नहीं है जो अपने घर से अकेले ही रोजी-रोगजार की तलाश में निकली है? ग्लोबल दुनिया में लाखों लड़कियां प्रतिदिन रोजगार की तलाश में घरों से बाहर जा रही हैं। महानगरों में अकेली रह रही हैं। तो फिर इस लड़की का गुनाह क्या था? यही न कि उसने किसी पर विश्वास करके घर से अकेली ही बाहर निकली थी। क्या आज के समाज में किसी पर विश्वास करना गुनाह हो गया है? इन सारे प्रश्नों का जवाब सरकार के साथ ही सभ्य समाज के लोगों को देना होगा। वरना वह दिन दूर नहीं, जब मनचलों की हरकतों से देश और दुनिया की सारी गलियां, सड़कें और चौक-चौराहे तबाह हो जायेंगे।
और फिर कानून के रखवाले पुलिस...।
अपनी नाकामी को छुपाने के लिए एक से एक मनगढ़ंत कहानियां गढ़ने लगी। इलेक्ट्रानिक मीडिया के जरिये जब पूरा देख इस घटना का गवाह बना तो भी करीब दो घंटों बाद पुलिस की नींद खुली। उसमें भी ट्रैफिक पुलिस की। घंटों ड्यूटी से गायब रहे पेट्रोलिंग दारोगा शिवनाथ सिंह। मामले की गंभीरता को देखते हुए दारोगा को निलंबित कर दिया गया है। फिर भी इस घटना की जवाबदेही से नहीं बच सकती। आइपीएस अधिकारी एडीजी नीलमणि के बयान और भी चौकाने वाले हैं। उन्होंने कहा कि लड़की देह व्यापार के धंधे में लिप्त थी। क्या नीलमणि को किसी ने इस तरह के संवेदनहीन बयान देने के लिए बाध्य किया था? क्या सरकार की यह जिम्मेवारी नहीं बनती है कि राजधानी समेत अन्य जगहों पर चोरी छिपे चल रहे देह व्यापार के अड्डे को बंद कराया जाये? आखिर तबतक दूसरे की इज्जत से खिलवाड़ करती रहेगी बिहार पुलिस। क्या नीलमणि कभी बिहार पुलिस के गिरेबां में झांकने की कोशिश किये हैं। ठीक है थोड़े समय के लिए नीलमणि की बातों पर विश्वास भी कर लिया जाये तो भी क्या देह व्यापार करने वाली लड़कियों से पेश आने का यही तरीका है? पुलिस प्रवक्ता होने के नाते आखिर वे क्यों भूल जाते हैं कि सुशासन की सरकार के करीब चार वर्षों में ही सूबे में करीब तीन हजार महिलाओं के अस्मत के साथ खिलवाड़ किया है मनचलों ने। फिर वे किस कानून का हवाला देकर कहते हैं झारखंड की यह लड़की देह व्यापार करती थी। क्या सरकार के पास मजबूरीवश देह व्यापार करने वाली लड़कियों को इस दलदल से निकालने की कोई योजना है? अगर है तो फिर क्यों नहीं, वैसी लड़कियों को इस धंधे से मुक्त कराने के प्रयास किये जा रहे हैं। देर-सबेर इसका जवाब सरकार को देना ही पड़ेगा।

Wednesday, July 15, 2009

भारतीय मीडिया का दोरंगा चरित्र क्यों?

क्या हो गया है भारतीय मीडिया को? इंडिया और भारत के बीच बंटा हिन्दुस्तान आखिर तबतक इस विभाजन के कड़वाहट से रूबरू होता रहेगा? आखिर अपने-आप को चौथा स्तंभ कहलाने वाला मीडिया तब जागेगा? आखिर तब असली भारत की तस्वीर से देश और दुनिया को अवगत करायेगा? लाख टके का सवाल यह है कि नक्सली गूंज की धधक को शेयर मार्केट और संसद के गलियारे में गंभीरता से कब रखा जायेगा? आखिर क्यों नहीं मीडिया को 12 जुलाई को छत्तीसगढ के राजनांदगांव में नक्सलियों की घात में मारे गये पुलिस अधीक्षक विनोद कुमार चौबे समेत 39 सुरक्षा बलों की शहादत याद आयी? इसका जवाब न तो मीडिया घरानों के पास है और ही सियासतदानों की संजीदगी ऐसी घटनाओं पर होती है।
भारतीय मीडिया का चरित्र जानने के लिए सिर्फ चार उदाहरण ही काफी है। एक तो अभी की ताजातरीन छत्तीसगढ की घटना है, जिसमें एक आइपीएस अधिकारी समेत 39 पुलिस और अर्द्धसैनिक बलों के जवान मारे गये। दूसरी घटना है बरसात के पानी से मुंबई का डूबना। तीसरी घटना भी मुंबई की है, जहां बीते वर्ष आतंकवादियों ने ताज होटल में घुसकर कहर बरपाया था। और चौथी है दिल्ली उच्च न्यायालय का वह फैसला जिसमें समलैंगिक लोगों को कानूनी मान्यता की बात है। यह फैसला प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया में सप्ताह भर तक छाया रहा। देश में नई बहस शुरू हो गयी। हर साल की भांति इस साल भी मुंबई बरसात के पानी में डूबा। यह खबर भी कई दिनों तक सुर्खियों में बना रहा और दो आपराधिक घटनाएं...
चारों घटनाओं को भारतीय मीडिया ने अपने नजरिये से देखा। हमारी समझ में मीडिया के कुछ सामाजिक सरोकार भी हैं, लेकिन इन घटनाआंें में भारतीय मीडिया पूरी तरह से सामाजिक सरोकार को भूलकर अपने सरोकार से देश को देखा। जब मैं माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय से पत्रकारिता में स्नातकोत्तर कर रहा था तब पढाया गया था कि मीडिया सदा ही कमजोर पक्ष के साथ खड़ा रहा है लेकिन आज का भारतीय मीडिया...
छत्तीसगढ में अर्द्धसैनिक बलों के जवान नक्सलियों से लोहा ले रहे थे उस वक्त इलेक्ट्रानिक चैनल अपनी ही धून में खबरों को प्रसारित करने में मशगूल थे। शाम होते ही राष्ट्रीय चैनल "राखी का स्वयंवर' और सलमान खान का "दस का दम' दिखाने में व्यस्त दिखे। अबतक की देश की सबसे बड़ी नक्सली वारदात (नरसंहार) के बावजूद आखिर सीआरपीएफ के जवानों की शहादत को उस रूप में क्यों नहीं याद किया गया जिस रूप में ताज हमलों में शहीद हुए एटीएस प्रमुख करकरे, एनकाउंटर स्पेशलिस्ट विजय सालस्कर और एसीपी काम्टे को याद किया गया? आश्चर्य तो यह कि किसी भी फिल्मी हस्ती और खिलाड़ियों को विदेश में पुरस्कार जीतते ही बधाई पत्र जारी करने वाला राष्ट्रपति भवन भी लोकतंत्र की रक्षा के लिए शहीद हुए इन जवानों पर श्रद्धा के एक शब्द भी कहना मुनासिब नहीं समझा, आखिर क्यों? वह भी तब, जबकि नक्सली हमले में मारे गये एसपी विनोद कुमार चौबे को कभी यही राष्ट्रपति भवन बहादुरी का पुरस्कार दिया था।
कहा जा सकता है कि मुंबई महानगर है। देश की आर्थिक राजधानी है। यहां सैलानियों का जमावड़ा है और...
छत्तीसगढ...। यह ग्रामीण भारत है, जिसकी खुबसूरती कभी महात्मा गांधी देखा करते थे। आजादी के 60 वर्षों में गांवों की खुबसूरती को सियासतदानों ने पैरों तले रौंद दिया। शायद यही कारण है कि भारतीय मीडिया भी सियासतदानों की बहुरंगी चाल में फंसती चली जा रही है, जहां मुंबई और दिल्ली की चकाचौंध तो दिखाती देती है लेकिन गांवों की...
उन दिनों घटी देश की प्रमुख घटनाओं में से एक है दिल्ली में मेट्रो पुल गिरने से छह लोगों की मौत। लगातार दो दिनों तक यह खबर न्यूज चैनलों के टीवी स्क्रीन पर चलती रही। इसी दौरान इंग्लैंड और आस्ट्रेलिया के बीच एशेज का पहला टेस्ट ड्रॉ होने का विश्लेषण विशेषज्ञों द्वारा करवाया जा रहा है। "राखी का स्वयंवर' और सलमान खान के टीवी शो "कंगना रानौत की' उपस्थिति और हॉलीवुड में मल्लिका शेरावत की धूम और न जाने क्या-क्या..., उस वक्त टीवी चैनलों की सुर्खियां थे जबकि छत्तीसगढ में हुए बारूदी सुरंग विस्फोट में मारे गये सुरक्षाकर्मी सिर्फ और सिर्फ चलताउ खबर।
सबसे बड़ा आश्चर्य तो यह कि पूरे मामले पर देश का सियासतदान मौन है। इससे भी बड़ा आश्चर्य यह कि जिस दिन नक्सलियों की बंदूकें राजनांदगांव में गरज रही थी उसी दिन प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह जी-8 शिखर सम्मेलन में भाग लेने के लिए दिल्ली से उड़ान भर गये। फिर रक्षा मंत्री और गृह मंत्री भी मौन। सदा की तरह राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटील भी चुप रहना ही मुनासिब समझी। आखिर क्यों? इसलिये की नक्सली ग्रामीण भारत को लहुलूहान कर रहे थे?
60 साल के लोकतंत्र में क्या यह हास्यास्पद बात नहीं है कि मेनका गांधी का इकलौता वारिस वरूण गांधी हिन्दुत्ववादी राजनीति से प्रेरित होकर एक समुदाय विशेष (मुसलमान) के खिलाफ नफरत की आग उगलता है। उसके बाद मीडिया उसे हाथोंहाथ ले लेता है। जनता उसे लोकसभा सदस्य चुनती है और वह सांसद हो जाता है। तथाकथित सुरक्षा के मद्देनजर जेड श्रेणी सुरक्षा की मांग भी कर बैठता है। वहीं महाराष्ट्र का एक ऐसा भी नेता है जो भारतीय संप्रभुता पर चोट करते हुए दो प्रांतों के बीच नफरत फैलाकर राजनीति की दुकानदारी चलाना चाहता है। ये दोनों को मुंह खोलने भर की देरी है। इलेक्ट्रानिक चैनल इसे एक-एक क्षण का लाइव प्रसारण करने लगते हैं।
मुंबई घटना की लाइव रिपोर्टिंग करने का दु:साहस दिखलाने वाले किसी पत्रकार ने मदनवाडा और सीतापुर गांव में नक्सलियों से घिरे 200 जवानों और एसपी की बहादुरी और नक्सलियों के तेवर के दिखलाने का साहस आखिर किसी ने क्यों नहीं किया? खबर है कि नक्सलियों के चंगुल में फंस चुके जवान बराबर अपने मोबाइल और वॉकी टॉकी से अपने वरीय अधिकारियों के साथ ही मीडियाकर्मियों को पल-पल की सूचना दे रहे थे। एक बजे तक मोहला थाना प्रभारी विनोद धु्रव और एएसआइ कोमल साहू समेत करीब 21 जवान शहीद हो चुके थे। शाम होते-होते यह संख्या 30 तक हो गयी और देर शाम होते ही यह आंकड़ा 39 तक हो गयी।
प्रिंट मीडिया के पत्रकारों से मिली जानकारी के अनुसार, सुबह में ही खबर मिल गयी थी कि मानपुर इलाके के मदनवाड़ा, सीतापुर समेत पांच गांवों में नक्सलियों ने डेरा जमा लिया है। लेकिन न तो राज्य सरकार और न ही केंद्र सरकार ही इस संगीन और गंभीर मुद्दे पर अपनी सक्रियता दिखलायी। सरकार के साथ ही मीडिया के लिए भी शायद राष्ट्रपति पदक से सम्मानित एक आइपीएस अधिकारी और 39 जवानों की मौत देश को हिला देने वाली खबर नहीं है और न ही इस खबर पर विज्ञापन का कारोबार ही होने वाला है। बाजारवाद के आगे सबकुछ दाव पर लगा देने वाला मीडिया आखिर चिख-चिल्लाकर कुछ बोलता भी तो क्यों? इसका जवाब कौन देगा? लहुलूहान हो रहे रहे लोकतंत्र को बचाने की जिम्मेवारी सरकार के साथ ही मीडिया को भी है, आखिर कब जागेगा भारतीय मीडिया।
 
 

Thursday, July 9, 2009

पर्दे के पीछे सियासी खेल

झारखंड में दाग़ी पूर्व मंत्रिओं की गिरफ्तारी के मुद्दे पर चूहे-बिल्ली का खेल चल रहा है। कांग्रेस की कुचालों से यूपीए में ऊहापोह की िस्थति उत्पन्न हो गयी है।
झारखंड के दो पूर्व मंत्रिओं एनोस एक्का और हरिनारायण राय के खिलाफ निगरानी अदालत द्वारा जारी वारंट की तामील को लेकर इन दिनों खूब राजनीतिक जोर-आजमाइश चल रही है। सुरक्षा में लगी पुलिस भी इन दोनों के साथ कहां गायब है, इसका पता सरकार नहीं कर सकी है। इस खेल का सबसे दिलचस्प पहलू यह है कि कांग्रेस की खुटचाल ने राज्य में न केवल राजनीतिक अनिश्चिन्तता की िस्थति उत्पन्न कर दी है, बिल्क एक साथ यूपीए के पूरे कुनबे को चकरा कर रख दिया है।
यूपीए में शामिल अन्य दलों और विधायकों को तो उसी समय ऐसी चाल का आभास हो जाना चाहिए था जब कांग्रेस ने राज्यसभा चुनाव के समय अपनी शर्तें रखी थीं। चुनाव में कांग्रेस प्रत्याशी धीरज साहू की जीत पक्की करके पर्दे के पीछे से ही सही, कांग्रेस अगले विधानसभा चुनाव की तैयारी में जुट गयी है। महीनों से चल रहे सियासी उथल-पुथल के बीच पहले तो कांग्रेस ने दो जुलाई को राष्ट्रपति शासन की अवधि बढ़ा दी और फिर चुप्पी साध ली। राजधानी रांची में राजनीतिक हलचल तब तेज हो गयी, जब उसी दिन पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा समेत तीन निर्दलीय विधायकों कमलेश सिंह, भानुप्रपात शाही और बंधु तिर्की पर निगरानी विभाग में एक मुकदमा दर्ज हुआ। इन विधायकों पर आय से अधिक सम्पत्ति रखने, पद के दुरुपयोग और अवैध तरीके से विदेश यात्रा करने समेत कई आरोप हैं। पूरे मामले का दिलचस्प पहलू यह है कि उन्हीं विधायकों पर निगरानी का शिकंजा कसा है, जिन्होंने पर्दे के पीछे से राष्ट्रपति शासन का विरोध किया था या जो यूपीए के बैनर तले सरकार बनाने के लिए अधिक सक्रिय दिखे थे।
पूर्व विधानसभा अध्यक्ष और निर्दलीय सांसद इंदरसिंह नामधारी "द पब्लिक एजेंडा' से कहा, "यह कैसी विडंबना है कि राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री समेत छह मंत्रिओं पर निगरानी का मुकदमा दर्ज है। इनमें से दो पहले से ही फरार चल रहे हैं। आठ विधानसभा सीटें खाली हैं। सदन की बैठक को हुए छह महीने से अधिक समय हो गये है। ऐसी िस्थति में राष्ट्रपति शासन की अवधि बढ़ाना यह संकेत देना है कि कांग्रेस ने अब भी सरकार बनाने का लालच नहीं छोड़ा है।'
राजनीतिक विश्र्लेषकों का मानना है कि राजनीतिक दांव-पेंच में कांग्रेस माहिर रही है। पार्टी वर्षों तक कुछ इसी तरह की राजनीतिक चाल बिहार और उत्तर प्रदेश में चलती रही, जिसका खामियाजा उन राज्यों में अभी तक उसे भुगतना पड़ रहा है। लेकिन कांग्रेस नेता मनोज यादव कहते हैं, "पार्टी कोई चाल नहीं चल रही है, बिल्क सही तरीके से हालात का जायजा ले रही है।'
प्रदेश में लूट की संस्कृति बिहार से होते हुए यहां आयी है। शायद देश का यह इकलौता प्रदेश है, जहां बात-बात पर सौदेबाजी होती है। वैसे राजनीतिक गलियारे में इस बात पर भी बहस छिड़ी है कि कांग्रेस राज्यसभा चुनाव के समय हुई सौदेबाजी का एक-एक कर सारे विधायकों से बदला लेना चाहती है। यही कारण है कि पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा समेत अन्य मंत्रियों पर निगरानी का कसता शिकंजा राजनीति षड्यंत्र मानी जा रही है। पूर्व स्वास्थ्य मंत्री भानुप्रताप शाही का कहना है, "निर्दलीय विधायक राजनीतिक षड्‌यंत्र के शिकार हो रहे हैं। अगर हम पर लगे आरोप सही हैं तो फिर सरकार क्यों नहीं स्वास्थ्य विभाग में हुई बहालियों की जांच करवा ले रही है।' वहीं मानव संसाधन मंत्री बंधु तिर्की ने कहा, "निर्दलीय के साथ-साथ आदिवासी होना भी इस राज्य में गुनाह हो गया है। गांवों में पुलिस आदिवासियों को नक्सली बताकर गिरफ्तार करती है तो राजनीति में सक्रिय आदिवासियों को अनर्गल आरोपों में फंसाया जा रहा है।' सच्चाई चाहे जो भी हो, लेकिन इस बात बहस तेज हो गयी है कि अधिकारी राजनीतिक आकाओं के इशारे पर कार्रवाई कर रहे हैं। यही कारण है कि कई दिनों से फरार चल रहे दोनों मंत्रियों एनोस एक्का और हरि नारायण राय के संदिग्ध ठिकानों पर ताबड़तोड़ छापेमारी की गयी। फिर भी ये दोनों पुलिस की पहुंच से अभी तक दूर हैं।
राजनीतिक प्रयोगशाला बन चुके झारखंड में सब कुछ नया होता है, सो इन दोनों की फरारी भी नये तरीके से हुई है। दोनों अपने सरकारी बॉडीगार्ड के साथ फरार हैं। इन दोनों विधायकों पर इसी वर्ष जनवरी में मुकदमा दर्ज हुआ था। उस समय से निगरानी सुस्त रही। फिर आखिर ऐसा क्या हो गया, जिसकी वजह से सक्रियता बढ़ गयी। निगरानी विभाग के डीजी नेयाज अहमद का कहना है, "पुलिस किसी के दबाव में काम नहीं कर रही है। अधिकारी इन दोनों पर लगे आरोपों के साक्ष्य जुटाने में लगे हुए थे।'
झारखंड की 82 सदस्यीय विधानसभा में राजनीतिक जोड़तोड़ शुरू से ही होता रहा है। आंकड़ों के खेल में आदिवासी अस्मिता तार-तार होती रही। पहली विधानसभा ने तो किसी तरह अपना कार्यकाल पूरा कर लिया, लेकिन दूसरी विधानसभा में खूब अटकलें लगीं। चौदहवी लोकसभा में परमाणु करार पर केंद्र सरकार को समर्थन देने का तत्काल फायदा दिशोम गुरु शिबू सोरेन को मिला। वे कांग्रेस के सहयोग से दूसरी बार सत्तासीन हुए। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि इस सौदेबाजी का बदला कांग्रेस लेने ही वाली थी कि तमाड़ विधानसभा उपचुनाव में शिबू सोरेन की हार हो गयी। फिर क्या था, झामुमो की मजबूरी समझ कर कांग्रेस ने पलटा मारा। अब पर्दे के पीछे से कांग्रेस आगामी विधानसभा चुनाव की व्यूह रचना कर रही है।

दागदार हुआ सुशासन

पिछले एक महीने में ही दो इंजीनियर, 16 व्यवसायी समेत 125 लोग मारे गये हैं, जो सुशासन के दावों की पोल खोल रही है।

लोकसभा चुनाव खत्म होते ही बिहार में माफिया राज की वापसी के संकेत मिलने शुरू हो गये हैं। प्रदेश अभियंता संघ नवादा में पदस्थापित कन्नीय अभियंता अरुण कुमार की हत्या को भूला भी नहीं था कि 18 जून को सीतामढ़ी में पदस्थापित कार्यपालक अभियंता योगेंद्र पांडेय की रहस्यमयी परिस्थिति में जिला समाहरणालय परिसर में लाश मिलने से सनसनी फैल गयी। इसके कुछ दिन पहले बिल्डर सत्येंद्र सिंह सत्ता संरक्षित अपराधियों के शिकार हुए। स्पीडी ट्रायल चलाकर अपराधियों को फटाफट सजा दिलवाने का दावा करने वाली नीतीश कुमार की सरकार में सत्येंद्र सिंह हत्याकांड के आरोपी पूर्व सांसद और जदयू नेता विजय कृष्ण अपने बेटे चाणक्य संग फरार चल रहे हैं। इस बाबत पूछते ही डीजीपी डीएन गौतम भड़क गये और उन्होंने कहा, "पुलिस कोई ठेकेदार नहीं, जो तुरंत अपराध नियंत्रण करने का ठेका ले ले। विजय कृष्ण किसी के पॉकेट में नहीं हैं जिन्हें वहां से निकालकर सबके सामने ला दिया जाये।'
एक महीने में ही यह चर्चित हत्याओं का तीसरा मामला है, तो क्या इसे शुरुआत मान लिया जाये? संकेत तो कुछ इसी तरह के मिल रहे हैं। बीते महीने मारे गये ट्रांसपोर्टर संतोष टेकरीवाल के हत्यारों तक पुलिस पहुंच भी नहीं पायी थी कि अपराधियों ने अररिया के लोक अभियोजक देवनारायण मिश्र को गोली मार दी। जबकि स्व.मिश्र कई दफा सुरक्षा की गुहार लगा चुके थे। लोकसभा चुनाव में मिले अपार जनसमर्थन से फूले नहीं समा रही नीतीश कुमार के राज में पिछले एक महीने में ही 16 व्यवसायियों समेत 125 लोग मारे गये हैं।
ये कुछ घटनायें बताती हैं कि प्रदेश में शासन चाहे जिस किसी भी पार्टी की क्यों न हो, ईमानदारी और कतर्व्यनिष्टा से काम करने का खामियाजा अधिकारियों समेत आमलोगों को भुगतना ही पड़ेगा। रंगदारों की दबंगई और ठेका माफियाओं का रुतबा नीतीश राज में भी कायम है। उनकी दबंगई का आलम यह है कि बाढ़ स्थित नेशनल थर्मल पावर कॉरपोरेशन लिमिटेड (एनटीपीसी), जहां प्रतिवर्ष करोड़ों रुपये का निविदाएं निकलती हैं, में सत्ताधारी दल के एक स्थानीय विधायक की इजाजत के बिना पत्ता तक नहीं खड़कता। जेल से फरार चल रहे कई संगीन आरोपों के अभियुक्त विवेका पहलवान अपने गुप्त ठिकाने से माफिया राज चला रहा है तो बेउर जेल में बंद कुख्यात अपराधी बिंदू सिंह का दहशत झारखंड तक बरकरार है। हाल ही में झारखंड पुलिस ने बिंदू सिंह को रिमांड लेकर कड़ी पूछताछ की तो कई संगीन मामलों का खुलासा हुआ। लोकसभा चुनाव में हार के बाद से अधिकतर बाहुबली पर्दे के पीछे से ठेका राज चला रहे हैं। खबर तो यह भी है राजद शासनकाल में दर्जनों हत्या, लूट और अपहरणकांडों के अभियुक्त रीतलाल यादव ने भी पर्दे के पीछे से सत्ताधारी दल के एक विधायक के शह पर दानापुर स्थित डीआरएम कार्यालय में अपना सिक्का जमा लिया है। पूर्व सांसद सूरजभान, प्रभुनाथ सिंह और जदयू विधायक अनंत सिंह समेत ऐसे कई बाहुबली हैं जो गाहे-बगाहे ठेकेदारी के पेशे में अपना दबदबा जमाये हुए हैं और मनमानी वसूली के धंधे में लिप्त हैं। आश्चर्य तो यह कि निविदा कानून का उल्लंघन करने वाले इन बाहुबलियों के कारनामों से सियासी गलियारा अंजान नहीं है। सत्ता संरक्षित अपराध का ऐसा गठजोड़ बिहार और उत्तर प्रदेश के अलावा दूसरे अन्य प्रदेशों में शायद ही देखने को मिलता है।
बिहार में ठेकेदारी को लेकर हिंसा कोई नयी बात नहीं है। पटना के पुनाईचक स्थित सीपीडब्ल्यूडी कार्यालय के बाहर लालू-राबड़ी शासनकाल में बंदूकें गरजा करती थीं। अनिसाबाद स्थित सिंचाई भवन परिसर भी कई दफा बमों के धमाके और गोलियों की तड़तड़ाहट से गूंजा था। उस दौरान 60 इंजीनियरों की हत्याएं सत्ता संरक्षित अपराधियों ने कर दी थी। नीतीश कुमार के शुरुआती शासनकाल में इसपर लगाम लगा था लेकिन लोकसभा चुनाव के बाद जिस तरीके से अपराधियों और असामाजिक तत्वों का ग्राफ बढ़ना शुरू हुआ है उससे सुशासन का दावा सवालों के घेरे में आ गया है।
बीते साल औरंगाबाद के कार्यपालक अभियंता अमावस्या राम की मौत हृदयाघात से हो गयी। इस पर भी बवाल मचा। महीनों तक चर्चा का बाजार गर्म रहा कि एक दबंग ठेकेदार के दबाव में आकर विभागीय सचिव ने इंजीनियर को ऐसी डांट पिलाई की उनकी मौत हो गयी। लालू-राबड़ी शासन काल में आइआइटी इंजीनियर सत्येंद्र दुबे की हत्या का मामला आज भी प्रदेश के लोगों के दिलो-दिमाग में है। हालांकि जांच रिपोर्ट में उनकी हत्या लूट-पाट के उद्देश्य की गयी बताया गया है।
इंजीनियर योगेंद्र पांडेय की मौत, एक ही साथ कई सवाल छोड़ गया है। जिला प्रशासन के पास इस बात का जवाब नहीं है कि दो महीने में ही पांच बार लिखित रूप से सुरक्षा की गुहार लगाने के बावजूद कार्यपालक अभियंता की जान-माल की हिफाजत क्यों नहीं की जा सकी? लगातार मिल रही धमकियों की लिखित रूप से शिकायत करने के बावजूद विभागीय अधिकारी (सचिव) आरके सिंह क्यों मौन रहे? जातीय राजनीति का अखाड़ा रहा बिहार इस मामले को भी जातीय चश्मे से देख रहा है। नाम नहीं छापने की शर्त पर एक अभियंता ने कहा, "विभागीय सचिव, एसपी और ठेकेदार (जिससे विवाद चल रहा था) सभी एक जाति विशेष से आते हैं। इसलिये मामले को रफा-दफा करने की पूरी तैयारी चल रही है।' बिहार अभियंत्रण सेवा संघ के महासचिव राजेश्वर मिश्र ने "द पब्लिक एजेंडा' को बताया, "स्व. पांडेय अगर 2 जून को सड़क निर्माण में घटिया सामग्री (मेटल) लगाने वाली वत्स कंस्ट्रक्शन कंपनी को काली सूची में नहीं डालते तो संभव था कि 6 जून को पुलिस अधीक्षक क्षत्रनील सिंह की मौजूदगी में उनके आवासीय कार्यालय पर हमला नहीं हुआ होता और न ही 18 जून को जिला परिसर में उनकी लाश मिलती।' काली सूची में डाली गयी वत्स कंस्ट्रक्शन कंपनी के निदेशक किशोर सिंह हैं जो पूर्व सांसद धनराज सिंह के दामाद बताये जाते हैं। उनके करीबी दोस्त विवेक सिंह और राजीव सिंह हैं। सीबीआइ इन तीनों को संदिग्ध मान रही है। 15 सदस्यीय जांच टीम का नेतृत्व कर रहे सीबीआइ के संयुक्त निदेशक एसपी सिंह से पूछने पर सिर्फ इतना ही कहा, "प्लीज, इस संबंध में कुछ मत पूछिये। काम करने दीजिये। जल्द ही सबकुछ सामने आ जायेगा।'
इस मामले में एक ही साथ शक की सूई कई ओर घुमती है। सवाल है कि परसौनी के बीडीओ की गाड़ी से उनका शव अस्पताल पहुंचाया गया, तो फिर लावारिस स्थिति में लाश को छोड़कर विभागीय चालक फरार क्यों हो गया? उस समय स्वयं बीडीओ कहां थे? आखिर क्यों लाश को पहले देखने वाले अपर समाहर्त्ता (एडीएम) शैलेन्द्रनाथ चौधरी, उनका चालक विश्वनाथ कापर और सरकारी सुरक्षा गार्ड एक ही साथ संवेदनहीन हो गये? एक जिम्मेवार अधिकारी होने के बावजूद श्री चौधरी ने अपना मुंह बंद रखना क्यों मुनासिब समझा? ये कुछ सवाल हैं जिसका हल ढूंढ़े बिना सही नतीजे पर नहीं पहुंचा जा सकता। इस बाबत पथ निर्माण मंत्री डॉ प्रेम कुमार ने "द पब्लिक एजेंडा' को गोलमटोल जवाब दिया, "विभाग में किसी की मनमानी नहीं चलने दी जायेगी। दोषियों को सजा होगी। डा। योगेंद्र पांडेय की कुर्बानी ठेकेदारी के पेशे में फैले भ्रष्टाचार को खत्म करने में सहायक सिद्ध होगा।' वहीं विपक्ष इस तर्क को सिरे से खारिज कर रहा है। लोजपा सुप्रीमो रामविलास पासवान के अनुसार, "योगेंद्र पांडेय ठेकेदारी के पेशे में फैले भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गये।' प्रदेश की लगातार गिरती जा रही कानून-व्यवस्था सुशासन को दागदार कर रही है।