tag:blogger.com,1999:blog-71958519445559828262024-02-06T18:39:37.941-08:00bihariश्याम सुन्दरhttp://www.blogger.com/profile/16320869658773019790noreply@blogger.comBlogger56125tag:blogger.com,1999:blog-7195851944555982826.post-87803305058715257192017-11-27T07:00:00.001-08:002017-11-27T07:00:21.542-08:00
कभी दुनिया को शांति और अहिंसा का पाठ पढ़ाने वाला बिहार आजादी के 20 वर्षों बाद ऐसा धधका जिसकी धमक लंबे समय तक बना रहेगा। 60 के दशक से चले हिंसा-प्रतिहिंसा के दौर में हिंसक तत्वों को मिलता रहा सत्ता का संरक्षण। बिकता रहा कानून। जुल्मी खरीदते रहे न्याय। कराहता रहा बिहार। न्याय के लिये तड़पते रहे दलित-पिछड़े व अल्पसंख्यक। वासे तो लंबे समय से दलितों-पिछड़ों पर अत्याचार के किस्सों से भरा पड़ा है बिहारी समाज। लेकिन सामंतों की संगठित सेना का पहला हमला सत्तर के दशक में पूर्णिया जिले के रूपसपुर-चंदवा से शुरू होकर औरंगाबाद क् मियांपुर में खत्म होता सा दिख रहा है, हुआ नहीं है।बहरहाल, सत्तर के दशक में रूपसपुर-चंदवा में दो दर्जन आदिवासी जिंदा जला दिये गये तो 16 जून, 2000 को मियांपुर में 35 दलित-पिछड़ों को गोलियों से भून दिया गया। पहले में नाम आया तत्कालीन बिहार विधानसभा अध्यक्ष लक्ष्मी नारायण सुधांशु का। अभियुक्तों के पास पकड़ा गया था उनका दोनाली बंदूक। न्यायालय ने कहा-यह भरोसे लायक नहीं है कि सूबे के इतने बड़े सियासतदान और साहित्यकार का इस जघन्य हत्याकांड से कोई ताल्लुकात रहा होगा। बाइज्जत बरी कर दिये गये लक्ष्मी नारायण सुधांशु तो मियांपुर नरसंहार में नाम आया रणवीर सेना के स्वयंभू कमांडर ब्रम्हेश्वर मुखिया का। मुखिया भी साक्ष्य के अभाव में बरी हो गया। ये दोनों न्यायिक फैसले उदाहरण मात्र हैं। खून से लथपथ बिहार में सामंती जातीय स्वयंभू को बराबर बचाता रहा न्यायालय जबकि आजीवन कारावास व फांसी की सजा के हकदार बनाये जाते रहे दलित व सामाजिक रूप से पिछड़े जागरूक लोग। आज भी बिहार के जेल 80 फीसद दलित-पिछड़ों व अल्पसंख्यकों से भरे पड़े हैं जबकि सूबे में न तो दलितों का कोई संगठित आपराधिक गिरोह है और एकाध गिरोहों को छोड़ पिछड़ों का कोई संगठित आपराधिक गिरोह नहीं है। तो सवाल है कि इन सत्तर वर्षों में बदला क्या? सूबे की सियासत बदली। कांग्रेस की जगह जनता सरकार बनी। सामाजिक न्याय और न्याय के साथ विकास का राग अलापने वाली सरकार बनी। वर्ग संघर्ष के नाम पर जातीय हिंसा देखने को मिला। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और एकात्म मानवतावाद का उन्मादी चेहरा दिखा। सियासी चेहरे बदले। लेकिन नहीं बदला ते सत्ता का चरित्र और न्याय के मंदिर का मिजाज। बिहार में अबतक छोटे-बड़े 60 नरसंहार हुए। अकेले रणवीर सेना ने क्रूर तरीके से 22 नरसंहारों को अंजाम दिया। इनमें दलित, पिछड़े व मुसलमानों के करीब तीन सौ चेहरे मार डाले गये। सूबे में अबतक का सबसे बड़ा नरसंहार अरवल जिले के लक्ष्मणपुर-बाथे गांव में अक दिसंबर, 1997 को हुआ। दरिंदगी की हद पार कर दरिंदों ने महिलाओं के गुप्तांग में गोली मारी। दूधमुंहे बच्चों को हवा में उछालकर गोलियों से भून दिया। बेजान हो चुके बुजुर्ग समेत दलित व पिछड़े समाज के 61 लोगों की हत्या बेरहमी से कर दी गयी। गर्भवती महिलाओं को यह कहकर मारा कि नक्सली पैदा करने की मशीन हैं ये महिलाएं। विशेष अदालत ने 16 दोषियों को फांसी और 10 को उम्र कैद की सजा सुनाई थी। लेकिन पटना हाईकोर्ट ने नौ अक्टूबर, 2013 को अपने फैसले में साक्ष्य के अभाव का हवाला देकर सभी अभियुक्तों को बरी कर दिया। न्यायालय को पूरा हक है किसी को निर्दोष साबित करने का। लेकिन सवाल है कि लक्ष्मणपुर-बाथे गांव में 61 लोगों को मौत के घाट उतारने वाला कौन था? आखिर माजरा क्या है? गुनाहगारों को क्यों नहीं ढूंढ पाया न्यायालय? देर-सबेर इसका जवाब सियासतदानों के साथ ही न्यायालय को भी देना होगा। फिर इसे हम कानून का राज कैसे कहेंगे? लोकतंत्र के मायने क्या हैं? सवाल है कि आजादी के सत्तर वर्षों बाद भी क्या न्यायपालिका अराजक है या सामंती गुंड़ों के इशारे पर नाच रहा है न्यायालय? नरसंहारों के ह्दयविदारक नजारा भले ही न्यायालय को न दीख रहा हो लेकिन कोबरा पोस्ट के एक स्टिंग आॅपरेशन ने कोर्ट के फैसले को चुनौती देते हुए कहा कि हां, मिला है नरसंहारी संगठन रणवीर सेना को नेताओं का संरक्षण। कोबरा पोस्ट ने भाजपा नेता सुशील कुमार मोदी, राजद नेता शिवानंद तिवारी, रालोसपा नेता अरूण कुमार, सीपी ठाकुर समेत दर्जनों नेताओं का सच सामने ला दिया। इसके पहले, 1996 में भोजपुर के बथानीटोला गांव में रणवीरों ने दलित-पिछड़े समुदाय के 22 लोगों को गोलियों से भूना था। बताया गया कि 1992 में घटित गया जिले के बारा गांव में मारे गये एक जाति विशेष के 32 लोगों की हत्या का बदला है बथानीटोला नरसंहार। दोनों घटनाओं में हुआ क्या? न्यायालय को बारा नरसंहार में साक्ष्य मिला। पांच को फांसी की सजा हुई। कुछ को आजीवन कारावास। वहीं निचली अदालत ने बथानाटोला के मुजरिमों में से तीन को फांसी जबकि 20 को आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी। फिर पता नहीं, पटना हाईकोर्ट को ऐसा क्या सबूत मिला कि बथानीटोला कांड के सभी अभियुक्त बरी कर दिये गये। कोर्ट के इस फैसले पर भारी प्रतिक्रिया हुई तो तत्कालीन बिहार सरकार के एक मंत्री ने चेतावनी देते हुए कहा कि सरकार उपरी अदालत में अपील करेगी तो सूबे का माहौल बिगड़ जाएगा। हद तो तब हो गयी जब शंकर बिगहा नरसंहार में निचली अदालत ने ही सभी 23 अभियुक्तों को बाइज्जत बरी कर दिया। बारा नरसंहार के पहले 1991 में पटना के तिस्सखोरा में 15 तो भोजपुर के देव-सहियारा में 15 दलित मार डाले गये। देश मौन रहा। अपने-आप को सभ्य समाज का नागरिक बताने वाले सामंतों के तेवर तल्ख हुए जब अरवल जिले के सेनारी गांव में महिला संरक्षण में पल रहे रणवीर सेना के गुंडों पर पुलिस ने धावा बोला। महिलाओं ऐर पुलिस में हिंसक झडप हुई। हिंसा-प्रतिहिंसा के दौर में पहली बार महिलाओं ने पुलिस पर धावा बोला, जिसे न्यायालय ने महिला अत्याचार माना और पुलिसिया जुर्म के खिलाफ स्वतः संज्ञान भी लिया। लेकिन मियांपुर नरसंहार में फैसले का वक्त आया तो पटना हाईकोर्ट ने 10 में से नौ अभियुक्तों को साक्ष्य के अभाव में बरी कर दिया। बहुत कम लोगों को याद है 1988 में घटी औरंगाबाद के छेछानी नरसंहार। महुआ चुनने के सवाल पर हुए विवाद में मदनपुर प्रखंड के छेछानी में पिछड़े समाज के दरिंदों ने मार दिया था।जनाधार बढ़ाने के फिराक में लगे एमसीसी इसी ताक में था और बदले की भावना से बगल के गांव दलेलचक-बघौरा में 1987 में 56 सामंती लठैतों को मौत के घाट उतार दिया। बिहार में हुए पहले सामंती नरसंहार से तब थर्रा गया था पूरा देश। छेछानी के मुजरिम खुलेआम घूमते रहे वहीं, साजिश के तहत फंसाये गये दलेलचक-बघौरा कांड में पिछड़ी जाति के आठ लोगों को सुप्रीम कोर्ट भी सजा बहाल रखा। नरसंहारों के सामाजिक पृष्ठभूमि के विश्लेषण के बाद जस्टिस डी बंद्धोपाध्याय ने चेतावनी भरे लहजे में कहा कि बिहार आज भी बारूद के ढेर पर टिका है, जो कभी भी बलास्ट कर सकता है। इसके मायने हैं। इसी बारूद के ढेर के बीच अपनों को ढूंढ़ रहे हैं भोजपुर के अकोढ़ी, नारायणपुर, नोंही-नागवान,बेलछी, दनवार-बिहटा समेत दर्जनों गांवों के सैकड़ों पीडि़त परिवार। दरअसल, देश का दूसरा राज्य बिहार है जहां कि 55 फीसदी आबादी भूमिहीन है जबकि सूबे की 14 फीसद दलित-आदिवासी आबादी में आधे से अधिक भूमिहीन है। यहां के मजदूर सत्तर और अस्सी के दशक तक ईस्ट इंडिया कंपनी के जमाने में तय मजदूरी पर पलते रहे। संघर्ष की शुरुआत भी यहीं से हुई। बहरहाल, कानून के राज की बात करने वालों से सीधा सवाल है कि जिस रणवीर सेना ने 22 नरसंहारों में तीन सौ लोगों का कत्लेआम किया हो, उस रणवीर सेना के स्वयंभू ब्रम्हेश्वर मुखिया के खिलाफ 16 मामलों में कोई सबूत नहीं मिला। चंद समय में ही छह मामलों मेॆ जमानत मिल गयी। वह कुख्यात भेड़िया जेल से बाहर तो आया न्याय के साथ विकास की बात करने वाली सरकार के समय। लेकिन सत्ता समीकरण में एक ओर जहां सामाजिक न्याय की सरकार में तांडव मचाने वाले ब्रम्हेश्वर मुखिया की गतिविधियों की जांच के लिये अमीरदास आयोग का गठन हुआ तो न्याय के साथ विकास की बात करने वाली सरकार ने सत्ता में आने के एक महीने के अंदर ही अमीरदास आयोग को भंग कर यह बता दिया कि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और एकात्म मानवतावाद की बात करने वालों के लिये रणवीर सेना की महत्ता है, अमीरदास आयोग की नहीं। जिस तरीके से अमीरदास आयोग की अकाल मृत्यु हुई। ठीक उसी तरीके से दलितों-पिछड़ों के खून से होली खेलने वाले ब्रम्हेश्वर मुखिया का अंत भी घिनौना हुआ। सामंती जुर्मों को संरक्षित करनेवाले इस लंपट भेड़िये की हत्या गोलियों से भूनकर कर दी गयी। संदेहास्पद तरीके से हुई हत्या की जांच सीबीआई कर रही है। तो सवाल है कि आजादी के सत्तर वर्षों के बाद भी दलित-पिछड़ों को सम्मान से जीने का रास्ता बचा है क्या? विधायिका सियासत कर रही है। कार्यपालिका भ्रष्टाचार में लिप्त है। न्यायपालिका जातिवादियों और सामंतियों की रखैल की तरह काम कर रहा है। लोकतंत्र का चौथा स्तंभ मीडिया पूंजीपतियों के इशारे पर नाच रहा है। तो फिर रास्ता क्या बचता है? अब भी कोई रास्ता बचा है क्या? तलाशने होंगे संभावनाएं। मिल-बैठकर करना होगा विचार। तोड़नी होंगी सामंती जकडने और करारा जवाब देना होगा ब्राह्मणवादियों को। यही सबकुछ होते रहा तो देश के लोकतांत्रिक समाज को खूनी लोकतंत्र में बदलते देर नहीं लगेगा।
श्याम सुन्दरhttp://www.blogger.com/profile/16320869658773019790noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7195851944555982826.post-78984519174874307592016-12-02T05:01:00.000-08:002016-12-02T05:01:07.082-08:00भारत का विभाजन क्यों?>
मार्क्सवादी अमेरिकी इतिहासकार और चिंतक पैरी एंडरसन ने योरोप और विश्व इतिहास पर महत्वपूर्ण काम किया है। वह 1962 से न्यू लैफ्ट रिव्यू के संपादक हैं। एंडरसन ने इधर भारतीय इतिहास पर काम करना शुरू किया है। उनके भारत संबंधी लेखों का संग्रह द इंडियन आइडियालॉजी शीर्षक से प्रकाशित हुआ है। यह लेख पहले प्रसिद्ध ब्रितानवी पत्रिका लंदन रिव्यू आफ बुक्स में ‘व्हाई पार्टीशन’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ था। इस लंबे लेख का यह प्रारंभिक एक तिहाई अंश यथावत दिया जा रहा है।
सन् 1945 तक गांधी का युग खत्म होकर नेहरू का जमाना शुरू हो गया था। दोनों के बीच के फर्कों पर बात करने की मानो परंपरा-सी रही है, पर इन फर्कों का स्वतंत्रता के संघर्ष के परिणाम से संबंध ज्यादातर अंधेरे में रहा है। न ही वे फर्क हमेशा साफ-साफ पकड़ में आते हैं। नेहरू एक पीढ़ी छोटे, देखने में सुंदर, काफी ऊंचे सामाजिक वर्ग से आए, पश्चिम की अभिजात शिक्षा प्राप्त, धार्मिक विश्वासों से रहित थे और उनके कई प्रेम-संबंध भी थे, ये बातें सभी को पता हैं। गांधी के साथ उनका अनोखा संबंध यहां राजनीतिक तौर पर ज्यादा प्रासंगिक है। राष्ट्रीय आंदोलन में अपने अमीर पिता, जो 1890 के दशक से ही कांग्रेस के स्तंभ थे, द्वारा भर्ती करवाए गए नेहरू पर गांधी का जादू तब चला जब वह तीस की उम्र के करीब थे और जब उनके अपने राजनीतिक विचार उतने विकसित नहीं हुए थे। एक दशक पश्चात् जब उन्होंने स्वतंत्रता और समाजवाद की संकल्पनाएं ग्रहण कर ली थीं जिनसे गांधी इत्तफाक नहीं रखते थे और लगभग चालीस के हो चुके थे तब भी वह गांधी को लिख रहे थे, ‘क्या मैं आप ही की राजनीतिक औलाद नहीं हूं, गो कि किसी कदर नाफरमां-बरदार और बिगड़ी औलाद?’ वल्दियत वाली बात अपनी जगह सही है; पर नाफरमानी (या अवज्ञा) दरअसल नाफरमानी कम, नखरा ज्यादा था। बहुतों की तरह 1922 में गांधी द्वारा असहयोग आंदोलन की हवा निकाल देने से हताश, 1932 में अछूतों का निर्वाचन मंडल शुरू करने के खिलाफ उनके अनशन से निराश, 1934 में सविनय अवज्ञा आंदोलन को स्थगित करने के गांधी के कारणों से चकित, नेहरू फिर भी हर बार अपने सरपरस्त के फैसले के आगे अपने आपको झुका देते।
राष्ट्रीय आंदोलन का पवित्रीकरण? ‘हमारी राजनीति में इस धार्मिक तत्व के बढऩे से मैं कभी-कभी परेशान हो जाता,’ मगर ‘मुझे अच्छी तरह पता था कि उसमें कोई और चीज है, जो मनुष्यों की गहन आतंरिक लालसा की पूर्ति करती है।’ असहयोग आंदोलन की असफलता? ‘आखिर वह (गांधी) इसके लेखक और प्रवर्तक थे और वह आंदोलन क्या था और क्या नहीं इस बात का निर्णय उनसे बेहतर कौन कर सकता था। और उनके बिना हमारे आंदोलन का अस्तित्व ही कहां था?’ पूना का आमरण अनशन? ‘दो दिनों तक मैं अन्धकार में था और आशा की कोई किरण नहीं नजर आती थी, गांधीजी जो कर रहे थे उस काम के चंद परिणामों के बारे में सोच कर मेरा दिल बैठता जाता …फिर एक अजीब-सी बात हुई। एकदम भावनात्मक संकट जैसा हुआ और उसके बाद मुझे शांति महसूस हुई और भविष्य उतना अंधकारमय नहीं लगा। मनोवैज्ञानिक क्षण में सही चीज करने का अद्भुत कौशल गांधीजी के पास था और मुमकिन है कि उनके किए के – जिसे सही ठहराना मेरे दृष्टिकोण से नामुमकिन सा था- बहुत अच्छे परिणाम होंगे।’ और वह दावा कि बिहार में भूकंप भेज कर ईश्वर ने सविनय अवज्ञा आंदोलन के प्रति अप्रसन्नता दर्शाई थी? बापू की घोषणा ने नेहरू को उनके विश्वास के ‘लंगर से दूर खदेड़ दिया’ मगर यह मानकर कि उनके सरपरस्त का किया सही है उन्होंने ‘जैसे-तैसे समझौता कर लिया।’ क्योंकि ‘आखिरकार गांधीजी क्या ही अद्भुत व्यक्ति थे।’ ये सारी घोषणाएं 1936 के जमाने की हैं जब नेहरू अपने समूचे कैरियर के किसी भी कालखंड के मुकाबले राजनीतिक तौर पर सबसे ज्यादा रैडिकल थे। इतने कि साम्यवादी विचारधारा के प्रति झुकाव रखते थे। 1939 के आते-आते वे सीधे-सीधे यह प्रमाणित कर रहे थे, ‘भारत का उनके (गांधी के) बिना कुछ नहीं होगा।’
अप्रतिम अभिभावकी
nehru-and-gandhiमनोवैज्ञानिक अवलंब की इस मात्रा में अलग-अलग सूत्र आपस में गुंथे हुए थे। नेहरू के गांधी के प्रति संतानवत विमोह में कुछ अनोखा नहीं था। मगर नेहरू के प्रति गांधी के अभिभावकीय स्नेह की गहराई – जो उन्होंने अपनी संतानों के प्रति विशेष सख्ती बरतते हुए अमूमन नहीं दिखाई- अप्रतिम थी। इन भावनात्मक बंधनों में परस्पर हितों का गणित भी समाविष्ट था। जब तक वह कांग्रेस के दायरे में रह कर काम करते रहे, गांधी नेहरू पर यह भरोसा कर सकते थे कि वह वयस्क राजनीतिक मुद्दे उनके समक्ष नहीं उठाएंगे, जबकि गांधी के प्रिय होने की वजह से नेहरू यह मान कर चल सकते थे कि वह कांग्रेस की अगुआई करने और आजादी के बाद देश पर राज करने में अपने प्रतिद्वंद्वियों को पीछे छोड़ देंगे। फिर भी उन दोनों के बीच क्या उतनी भी बड़ी बौद्धिक खाई थी ही नहीं? एक बुनियादी संदर्भ में वास्तव में एक खाई थी। गांधी के अलौकिक स्वप्नों और दुनियावी अप्रचलितों की खातिर नेहरू के पास वक्त नहीं था। उद्योगों और आधुनिकता के फायदों में उनका पूरी तरह लौकिक स्तर पर भरोसा था। फिर भी जब तक राजसत्ता पहुंच से दूर थी तब तक यह विभाजन रेखा उतनी महत्त्वपूर्ण न थी। जहां तक ब्रिटिश राज के तहत राष्ट्रीय आंदोलन के राजनीतिक नजरिए का संबंध है, तो गुरु और चेले में उनकी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के विभेद की बनिस्बत बहुत कम फर्क है।
गांधी के यहां पुस्तकीय ज्ञान अधिक न था। लंदन में उन्हें कानून की अपनी पाठ्य-पुस्तकें रुचिपूर्ण लगीं- संपत्ति कानून पर आधारित पुस्तिका को पढऩा ‘उपन्यास पढऩे जैसा था’ – मगर बेंथम को समझना बेहद मुश्किल था। दक्षिण अफ्रीका में उन्हें इल्हाम हुआ रस्किन और टॉल्सटॉय की पुस्तकों का। भारत में जेल में वह इस नतीजे पर पहुंचे कि गिबन महाभारत का घटिया संस्करण है और यह कि वह स्वयं पूंजी को मार्क्स से बेहतर लिख सकते थे। जहां पर आकर उनकी दृष्टि जमी वह थी उन चंद पुस्तकें पर जो उन्होंने हिंद स्वराज लिखना शुरू करने से पहले तक पढ़ रखी थीं और कुछ गिने-चुने हिंदू क्लासिक्स। दक्षिण अफ्रीका छोड़ते समय दुनिया के बारे में उनके मूलभूत विचार मूलत: परवान चढ़ चुके थे। सत्य दूसरी किताबों में नहीं बल्कि खुद उनमें मौजूद था। एक भारतीय आलोचक ने ‘एक अधभरे दिमाग की ऐसी समाश्वस्तता’ के खतरों के प्रति आगाह करते हुए लिखा था कि ‘गांधी जैसी बेफिक्र स्वच्छंदता से प्रथम पुरुष का इस्तेमाल करने वाला, लगभग वैसी ही परिस्थितियों में रहा हुआ दूसरा कोई भी व्यक्ति बहुत खोजने पर भी मुझे नहीं मिला।’
गांधी को जो उच्च शिक्षा नहीं मिली थी वह नेहरू को हासिल हुई, और वह बौद्धिक विकास भी जिसमें अत्यधिक धार्मिक आस्था ने अड़ंगा नहीं डाला था। लेकिन इन सुअवसरों का जो प्रतिफलन हुआ वह अपेक्षा से कम था। प्रतीत होता है कि उन्होंने कैम्ब्रिज में बहुत कम सीखा, जैसे-तैसे प्राकृतिक विज्ञान में औसत डिग्री हासिल की जिसका बाद में नामोनिशां तक न रहा, वकालत के इम्तहानों में उनका प्रदर्शन ठीक नहीं रहा और लौटने पर अपने पिता के नक्शेकदम पर चलते हुए वकालत की प्रैक्टिस में भी उन्हें कोई खास सफलता नहीं मिली। कैम्ब्रिज में दर्शन के मेधावी छात्र रहे सुभाष चंद्र बोस, जो आई.सी.एस. (इंडियन सिविल सर्विस) के एलीट ओहदे की परीक्षा पास करने वाले और फिर देशभक्ति की वजह से उसमें प्रवेश करने से इनकार करने वाले पहले देशी थे, के साथ नेहरू का अंतरध्यान खींचता है। मगर एक मामूली किस्म का आगाज आगे आने वाली बहार को नहीं रोक सकता, और नेहरू समयानुसार एक समर्थ वक्ता और सफल लेखक बन गए। मगर फिर भी वह नाम मात्र की भी साहित्यिक अभिरुचि या बौद्धिक अनुशासन नहीं हासिल कर पाए। उनकी सबसे महत्त्वाकांक्षी कृति द डिस्कवरी ऑफ इंडिया (भारत की खोज), जो 1946 में प्रकाशित हुई थी, श्वेर्मराई (अति भावुकता) के वाष्प-स्नान जैसी है। अछूतों के नेता आम्बेडकर बौद्धिक स्तर में कांग्रेस के बहुत से नेताओं से काफी ऊपर थे और कुछ हद तक जिसका कारण लंदन स्कूल ऑफ इकॉनॉमिक्स और कोलंबिया विश्वविद्यालय में हुई उनकी गंभीर शिक्षा-दीक्षा थी। उनसे नेहरू की तुलना करना उचित नहीं होगा। आम्बेडकर को पढऩा मतलब किसी दूसरी दुनिया में प्रवेश करना है। द डिस्कवरी ऑफ इंडिया – और उसकी पूर्ववर्ती कृति द यूनिटी ऑफ इंडिया को तो रहने ही दीजिये- ये न केवल उनमें औपचारिक विद्वत्ता की कमी और रूमानी मिथकों के प्रति लत को दर्शाती हैं, बल्कि उससे भी कुछ गंभीर बात यह है कि ये बौद्धिक से ज्यादा मनोवैज्ञानिक सीमा दिखाती है। खुद को धोखा देने का ऐसा सामर्थ्य जिसके दूरगामी राजनीतिक परिणाम सामने आए।
‘भारत मेरे खून में था और उसमें ऐसा बहुत कुछ था जो सहज रूप से मुझे रोमांचित करता था,’ वह अपने पाठकों को बताते हैं।
”वह बहुत ही प्यारा है और उसकी संतानें उसे नहीं भुला सकतीं चाहे वे कहीं भी चले जाएं या उन पर कैसी भी विपत्तियां आएं। क्योंकि वह अपनी महानता और कमजोरियों में भी उनका हिस्सा है और उसकी संतानों का अक्स उसकी गहरी आंखों में है जिन्होंने बहुत कुछ जीवन का आवेग, हर्ष और मूर्खता को देखा है और ज्ञान के कुएं में भी झांका है।”
समूची डिस्कवरी ऑफ इंडिया पुस्तक इस किस्म की बिलकुल नहीं है। मगर बारबरा कार्टलैंड (अपने रोमांटिक उपन्यासों के मशहूर बीसवीं सदी की एक प्रमुख अंग्रेज लेखिका) प्रवृत्ति-सतह से कभी दूर न थी:
”शायद अब भी हम प्रकृति के रहस्यों को अनुभव कर पाएं और उसके जीवन और सौंदर्य राग को सुन पाएं और उससे सत हासिल कर पाएं। यह राग चुनिंदा जगहों पर नहीं गाया जाता और अगर उसे सुन सकने वाले कान हमारे पास हों तो हम उसे लगभग कहीं भी सुन सकते हैं। मगर कुछ जगहें होती हैं जहां वह उन्हें भी लुभा लेता है जो उसके लिए तैयार नहीं होते और कहीं दूर बज रहे तेज वाद्य के गहरे स्वरों की तरह आता है। ऐसी ही पसंदीदा जगहों में है कश्मीर, जहां सुंदरता का बसेरा है और एक इंद्रजाल हमारे होश फाख्ता कर देता है।”
ऐसा गद्य लिखने वाले दिमाग से राष्ट्रीय आंदोलन के सामने खड़ी कठिनाइयों के बारे में अधिक यथार्थवाद दिखाने की उम्मीद नहीं की जा सकती।
आम्बेडकर का महत्व
जब गांधी डॉ. आम्बेडकर को यह मांग स्वीकार करने के लिए ब्लैकमेल कर रहे थे कि अछूतों के साथ जाति व्यवस्था के परित्यक्तों की तरह नहीं बल्कि उसी के अंतर्गत निष्ठावान हिंदुओं के तौर पर बर्ताव किया जाएगा, तब नेहरू ने आम्बेडकर के समर्थन में या उनके प्रति एकजुटता दर्शाने वाला एक भी लफ्ज न कहा। गांधी अनशन पर थे और बावजूद इसके कि तब अछूतों का भविष्य एक गौण बात थी, जैसे कि नेहरू ने बड़े जोरदार तरीके से उसे खारिज कर दिया, उनका चुप रहना काफी था। हालांकि यहां पर, जिस किसी मुद्दे पर वह राजनीतिक स्टैंड लेते थे उसके विषय में गांधी के साथ असहमति प्रदर्शित करने को लेकर एक मामूली-सी अनिच्छा वाला मामला भर नहीं था। नेहरू, जैसा कि उन्होंने कई बार स्वयं माना है, आस्तिक नहीं थे। हिंदू धर्म के सिद्धांतों की उनकी नजर में बहुत कम या नहीं के बराबर कीमत थी। मगर गांधी की ही तरह एकदम सरल तौर पर वह धर्म को राष्ट्र से जोड़ते थे यह कहते हुए कि ‘हिंदू धर्म राष्ट्रवाद का प्रतीक बन गया था। वह वास्तव में राष्ट्रीय धर्म था जिसमें नस्ली और सांस्कृतिक, सभी गहन प्रवृत्तियों को आकर्षित करने की क्षमता थी और यही चीज आज हर तरफ राष्ट्रवाद की बुनियाद बनी है।’ उसके विपरीत बौद्ध धर्म भारत में उत्पन्न होने के बावजूद इसलिए पिछड़ गया क्योंकि वह ‘अनिवार्यत: अंतरराष्ट्रीय’ था। इस्लाम, जो भारत में उपजा भी नहीं था, तो और भी कम राष्ट्रीय था।
इसका नतीजा यह हुआ कि जिस व्यवस्था के हिंदू धर्म की आधारशिला होने की बात पर गांधी जोर देते थे और जिसने इतिहास में उसे बिखरने से बचाया था, उसे सजीले रूप में पेश करना जरूरी था। बेशक जाति की अपनी विकृतियां (कुरूपताएं) थीं और गांधी को भी यह बात तस्लीम करनी पड़ी। नेहरू ने बतलाया था कि वृहत परिप्रेक्ष्य में मगर भारत को उसके लिए शर्मिंदा होने की जरूरत नहीं थी। ‘जाति कार्य और प्रयोजन पर आधारित एक समूह व्यवस्था थी। उसका मतलब था एक सर्व-समावेशी व्यवस्था जिसमें कोई साझा सिद्धांत न हो और हर समूह को पूरी स्वतंत्रता मिले।’ सौभाग्य से जिस चीज ने यूनानियों को अक्षम बनाया था वह इसमें नहीं थी और ‘यह निम्नतम स्तर वालों के लिए दासप्रथा के मुकाबले बहुत ज्यादा बेहतर थी। हर जाति के अंतर्गत समानता और कुछ हद तक स्वतंत्रता थी; हर जाति उपजीविकाजन्य थी और स्वयं को अपने विशिष्ट कार्य में प्रयुक्त करती थी। इस कारण दस्तकारी और शिल्पकारिता में ऊंचे दर्जे की विशेषज्ञता और कौशल पैदा हो पाया वह भी उस समाज व्यवस्था के अंतर्गत जो प्रतिस्पर्धात्मक और अर्जनशील नहीं थी।’ वास्तव में किसी पदानुक्रमता (हाइरार्की) के सिद्धांत को मूर्त रूप देने से बहुत दूर जाकर जाति ने ‘हर समूह में लोकतांत्रिक प्रवृत्ति बनाए रखी।’ बाद की पीढिय़ां, जिन्हें यह मानने में दिक्कत पेश आ रही होगी कि नेहरू ने ऐसी भयावह बातें लिखी हैं, उन परिच्छेदों की ओर इशारा कर सकती हैं जहां उन्होंने जोड़ा था कि ‘वर्तमान समाज के संदर्भ में – (कालखंड रहित) अतीत के विपरीत- जाति ‘प्रगति की अवरोधक’ बन गई थी, जो राजनीतिक या आर्थिक लोकतंत्र से सुसंगत नहीं थी। जैसा कि आम्बेडकर ने बड़े तीखेपन से नोट किया था, नेहरू ने अस्पृश्यता का कभी जिक्र भी नहीं किया था।
यह मानना भूल होगी कि नेहरू द्वारा जाति को अलंकरण प्रदान करना रणनीतिक अथवा सिनिकल था। भारतीय चरित्र और दीगर चीजों पर बहु-सहस्त्राब्दिक ‘एकात्मता की छाप’ की उनकी खोज की ही भांति यह भी उसी ‘श्वेर्मराई’ का हिस्सा था। गांधी ने लिखा था कि इतिहास प्रकृति का व्यवधान है। और इस बात का प्रमाण अप्रासंगिक है। जिस बात का दावा गांधी ने स्वयं के लिए किया था, नेहरू ने उसका सामान्यीकरण कर दिया। नेहरू ने द डिस्कवरी ऑफ इण्डिया में लिखा, ‘सत्य क्या है। मैं निश्चित तौर पर नहीं जानता। मगर व्यक्ति मात्र के लिए सत्य कम से कम वह है जो वह खुद महसूस करता है और जानता है कि वह खरा है। इस व्याख्या के आधार पर अपने सत्य पर दृढ़ रहने वाला गांधी जैसा दूसरा नहीं देखा।’ राष्ट्र के कारज में ‘हमें ऊपर उठाने और सत्य के लिए बाध्य करने हेतु अविचल सत्य के प्रतीक के तौर पर गांधी सदैव उपस्थित थे।’ ऐसे ज्ञानमीमांसात्मक प्रोटोकालों के कारण ही नेहरू एक पृष्ठ पर जाति की समानता और स्वतंत्रता का भली भांति अनुमोदन कर सकते थे और दूसरे पन्ने पर उसके बीत जाने की उम्मीद भी जता सकते थे।
एकाधिकारवादी मनोवृत्ति
the-indian-ideologyअगर राष्ट्रीय धर्म और उसके मूलभूत संस्थानों के बारे में उनका यह मत था, तो उन धर्मों के मानने वालों की उनके दृष्टिकोण में क्या स्थिति थी जो न तो अपने उद्गम में राष्ट्रीय थे न विस्तारण में? राजनीतिक नेता के तौर पर नेहरू की पहली असली परीक्षा 1937 के चुनावों के साथ आई। अब वह गांधी के सहायक नहीं थे, जो 1934 के बाद नेपथ्य में चले गए थे। चुनावों में कांग्रेस की जीत और उसकी प्रथम क्षेत्रीय सरकारों के गठन के साल में वह कांग्रेस के अध्यक्ष थे। चुनाव परिणामों को लेकर शेखी बघारते हुए नेहरू ने घोषणा की कि भारत में महत्त्व रखने वाली अब दो ही शक्तियां हैं : कांग्रेस और अंग्रेज सरकार। इसमें जरा भी शक नहीं कि खुद को धोखा देने वाले घातक अंदाज में उन्हें इस बात पर भरोसा भी था। दरअसल यह एक इकबालिया जीत थी। इस समय तक कांग्रेस का सदस्यत्व 97 फीसदी हिंदू था। भारत भर के लगभग 90 फीसदी मुसलमान संसदीय क्षेत्रों में उसे खड़े होने के लिए मुसलमान उम्मीदवार तक नहीं मिले। नेहरू के अपने प्रांत उत्तर प्रदेश में, जो अब की तरह उस समय भी भारत का सबसे घनी आबादी वाला क्षेत्र था, कांग्रेस ने सभी हिंदू सीटें जीत ली थीं। मगर एक भी मुस्लिम सीट वह हासिल नहीं पर पाई थी। फिर भी, चुनाव प्रचार के दौरान तक कांग्रेस और मुस्लिम लीग के ताल्लुकात खराब नहीं थे और जब नतीजे आए तो लीग ने तब लखनऊ में बनने वाले मंत्रिमंडल में कुछ प्रतिनिधित्व हासिल करने के लिए दोनों पार्टियों के बीच गठबंधन करना चाहा। ‘निजी तौर पर मुझे पक्का यकीन है कि हमारे और मुस्लिम लीग के बीच कोई भी समझौता या गठबंधन बेहद हानिकारक होगा।’ तो नेहरू के आदेश पर मुस्लिम लीग को बड़ी रुखाई से बता दिया गया कि ऐसा कुछ चाहने से पहले वह अपने आप को कांग्रेस में विलीन कर दे। ऊंची जाति के हिंदुओं की मनोवृत्ति को आगे चलकर आम्बेडकर ने एकाधिकारवादी बताया था। इस सामान्यीकरण की वैधता चाहे जो हो, यकीनन संदेहास्पद है, मगर इस बात में कोई शक नहीं कि स्वतंत्रता संघर्ष की वैधता के एकाधिकार पर कांग्रेस का दावा उसका केंद्रीय वैचारिक तत्त्व था।
फिर क्यों आम मुसलमानों ने, दीगर हिंदुस्तानियों की तरह पर्याप्त संख्या में कांग्रेस को वोट नहीं दिया? इस पर नेहरू का जवाब यह था कि उन्हें चंद मुस्लिम सामंतों ने बहकाया था और हिंदू भाइयों के साथ अपने साझा सामजिक हितों को जान जाने पर पर वे कांग्रेस के समर्थन में आ जाएंगे। उनके नेतृत्व में मुसलमानों को यह समझाने के लिए एक व्यापक जनसंपर्क अभियान चलाया गया था। मगर बोस के विपरीत नेहरू का जनता के साथ सहज संपर्क बेहद कम था और वह कोशिश जल्द ही ठप्प पड़ गई। जमीनी स्तर पर लामबंदी करने की वह उनकी आखिरी कोशिश थी। दो साल बाद जब वह कांग्रेस के अध्यक्ष नहीं थे, उन्होंने बोस को निकाल बाहर करने में सांठ-गांठ की। सैद्धांतिक तौर पर बोस पार्टी के वाम पक्ष में उनके हमराह थे मगर नेहरू के विपरीत गांधी के जादू से मुक्त थे और उन्हें गांधी का उत्तराधिकारी बनने से वंचित रखने में सक्षम प्रतिद्वंद्वी थे। नेहरू अब भी स्वतंत्र अभिनेता नहीं थे। नेहरू की जीवनीकार जूडिथ ब्राउन की तथ्यात्मक राय में वह पार्टी के पुराने खूसटों के ‘एकदम भरोसेमंद’ आधार बने रहे।
दूसरा विश्व युद्ध छिड़ जाने पर कांग्रेस आलाकमान ने भारत की जनता से पूछे बिना वायसराय द्वारा जर्मनी के खिलाफ जंग छेड़ देने के विरोध में सभी प्रांतीय सरकारों को इस्तीफा देने का निर्देश दिया। इसका तुरंत असर यह हुआ कि एक राजनीतिक खालीपन तैयार हो गया जिसमें जिन्ना ने बड़ी दृढ़ता से अपने पैर जमा दिए। वह इस बात से बाखबर थे कि अपने सबसे महत्त्वपूर्ण साम्राज्य में लंदन को रियाया की वफादारी दिखाने की बेहद जरूरत थी। कांग्रेस मंत्रिमंडलों के अंत को ‘हश्र का दिन’ घोषित कर उन्होंने बिना समय खोये ब्रिटेन की मुश्किल घड़ी में उसके प्रति अपना समर्थन व्यक्त किया और उसके बदले में युद्धकालीन अनुग्रह हासिल कर लिया। लेकिन उनके सामने काम मुश्किल था। अब तक वह मुस्लिम लीग के निर्विवाद नेता बन चुके थे। मगर उपमहाद्वीप की दूर-दूर तक बिखरी हुई मुस्लिम अवाम बिलकुल एकजुट न थी। बल्कि वह पहेली के उन टुकड़ों की तरह थी जिन्हें साथ मिलाकर कभी एक नहीं किया जा सकता।
मुस्लिम लीग की स्थिति
Muhammad-Ali-Jinnahऐतिहासिक तौर पर मुस्लिम एलीट का सांस्कृतिक और राजनीतिक हृदय स्थल उत्तर प्रदेश में था, जहां लीग सबसे ज्यादा मजबूत स्थिति में थी बावजूद इसके कि एक तिहाई से भी कम आबादी मुसलमान थी। सुदूर पश्चिम में सिंध, बलूचिस्तान और उत्तर-पश्चिम सीमावर्ती प्रांत में मुस्लिम जबरदस्त रूप से बहुलता में थे। मगर अंग्रेजों के कब्जे में वे काफी बाद में आए और इस वजह से वे इलाके देहाती पिछड़े हुए क्षेत्र थे, जहां उन स्थानीय नामी-गिरामियों का वर्चस्व था जो न उर्दू जबान बोलते थे और न लीग के प्रति कोई वफादारी रखते थे, और न ही लीग की उन इलाकों में कोई सांगठनिक मौजूदगी थी। पंजाब और बंगाल में, जो भारत के संपन्नतम प्रांत थे और एक दूसरे से काफी दूर स्थित थे, मुसलमान बहुसंख्यक थे। पंजाब में उनका संख्याबल जरा ही अधिक था मगर बंगाल में अधिक मजबूत था। इन दोनों ही प्रांतों में लीग बहुत प्रभावशाली शक्ति नहीं थी। पंजाब में वह नगण्य थी। यूनियनिस्ट पार्टी जिसका पंजाब प्रांत पर नियंत्रण था, बड़े मुस्लिम जमींदारों और संपन्न हिंदू जाट किसानों का गठबंधन था और इन दोनों ही धड़ों के सेना से संबंध मजबूत थे और वे अंग्रेजी राज के प्रति वफादार भी थे। बंगाल में, जहां लीग के नेता प्रांत के पूर्वी हिस्से में बड़ी रियासतों के मालिक कुलीन जमींदार थे, राजनीतिक प्रभाव केपीपी (कृषक प्रजा पार्टी) का था जिसका आधार आम किसान वर्ग था। इस तरह प्रांतीय स्तर पर पर्यवेक्षक जहां भी नजर डालते, मुस्लिम लीग कमजोर नजर आती। हिंदू बहुल इलाकों में उसे कांग्रेस ने सत्ता से परे रखा हुआ था और मुस्लिम-बहुल क्षेत्रों में उसे उसके विरोधी संगठनों ने उपेक्षित कर रखा था। अखिल भारतीय स्तर पर आवश्यक कौशल और जीवट के साथ काम कर सकने वाले एकमात्र मुस्लिम नेता के तौर पर जिन्ना की प्रतिष्ठा ने लीग को बचा लिया। इसी वजह से यूनियनिस्ट, केपीपी और दीगर नेतृत्व अपनी-अपनी प्रांतीय जागीरें बनाए रखते हुए अंग्रेजों के साथ केंद्र में बातचीत की खातिर जिन्ना को अपना नुमाइंदा बनाने को राजी हुए। यह टुकड़ा-टुकड़ा और असंबद्ध आलम ही 1937 के चुनावों में कांग्रेस की हेकड़ी का एक कारण था। कांग्रेस आलाकमान के लिए लीग एक चुकी हुई ताकत थी जिसे नजर-अंदाज किया जा सकता था जबकि दीगर स्थानीय मुस्लिम पार्टियों को अपने सुभीते के अनुसार चुना जा सकता था और अपना सहयोगी बनाया जा सकता था।
महायुद्ध ने इस संरचना को तेजी से बदल देना था। अंग्रेज, जो मुसलमानों को गदर के बाद अपनी रियाया का सबसे खतरनाक हिस्सा मानते आए थे, बीसवीं सदी के आते-आते उन्हें हिंदू राष्ट्रवाद के सबसे सुरक्षित प्रत्युत्तर के रूप में देखने लगे। अंग्रेजी राज के खिलाफ साझा संघर्ष में मुसलमान हिंदुओं के साथ गुट न बना लें यह सुनिश्चित करने के लिए अंग्रेजों ने उन्हें पृथक निर्वाचक मंडल भी प्रदान कर दिया। दूसरी तरफ वे यह भी नहीं चाहते थे कि उपमहाद्वीप में कानून और व्यवस्था कायम करने के उनके दावों की कलई सांप्रदायिक हिंसा खोल दे और न ही वे अपेक्षाकृत शक्तिशाली हिंदू समुदाय से, जिसमें उनके अनेक मित्रवत जमींदार और व्यापारी थे, बेजा दुश्मनी ही मोल लेना चाहते थे। सो उन्होंने ध्यान रखा कि वे अपने अनुग्रहों में एकदम पक्षपाती न हो जाएं। मगर कांग्रेस मंत्रिमंडलों के पद त्याग देने के बाद और जब लीग युद्ध कार्य में सरकार को जन समर्थन मुहैया करा रही थी, जिन्ना वायसराय के पसंदीदा संभाषी बन गए। जीवन पद्धति और दृष्टिकोण में पूर्णत: सेकुलर होने के बावजूद कांग्रेस ने जिन्ना को दशकों से अस्वीकार कर रखा था और कांग्रेस के समाजशास्त्रीय यथार्थ से वह भली-भांति परिचित थे। जैसा कि सीनियर नेहरू ने, जो अपने बेटे की तुलना में ज्यादा सुस्पष्ट या यूं कहें कि ज्यादा साफगोई वाले थे, ध्यान दिलाया था कि कांग्रेस अपनी संरचना में अनिवार्यत: एक हिंदू पार्टी थी और केंद्र में उसकी सत्ता के उसकी प्रांतीय सरकारों की बनिस्बत मुसलमानों के प्रति ज्यादा हमदर्द होने की सम्भावना कम थी।
जिन्ना की मुश्किलें, नेहरू की मान्यताएं
जिन्ना ने, जो अभी तक अपनी बुनियाद के कमजोर होने से वाकिफ थे और उस वजह से सीमित होने को राजी नहीं थे, अंग्रेजी राज के आगे कोई एकदम साफ-साफ मांगें रखना टाले रखा था। अब घटनाक्रम से हौसला पाकर उन्होंने नए कार्यक्रम का खुलासा किया। 1940 में लाहौर में उन्होंने घोषणा की कि उपमहाद्वीप में एक नहीं बल्कि दो राष्ट्र हैं और यह कि आजादी को उन दोनों के सह-अस्तित्व को इस स्वरूप में समायोजित करना होगा जो उन क्षेत्रों को स्वायत्तता और सार्वभौमिकता दे जिनमें मुसलमान बहुसंख्यक हैं। जिन्ना के निर्देशानुसार लीग ने जो प्रस्ताव पारित किया उसका शब्दांकन जानबूझ कर अस्पष्ट रखा गया; उसमें संघटक राज्यों के बारे में बहुवचन में बात की गई थी और ‘पाकिस्तान’ लफ्ज का इस्तेमाल नहीं किया गया था – जिसके बारे में जिन्ना ने बाद में शिकायत की थी कि कांग्रेस ने उन्हें ऐसा करने के लिए बाध्य किया था। उस पदबंध की अस्पष्टता के पीछे जिन्ना की अनसुलझी कशमकश थी। लगभग समान रूप से मुसलमान बाहुल्य वाले इलाकों को स्वतंत्र राष्ट्र के गठन के लिए संभव उम्मीदवार समझा जा सकता था। मगर क्या कम बाहुल्य वाले इलाकों में भी वही संभाव्यता थी? और सर्वोपरि यह कि बाहुल्य वाले इलाके कल्पित भारत से अगर अलग हो गए, तो पीछे रह जाने वाले उन अल्पसंख्यकों का क्या होगा जो जिन्ना का अपना राजनीतिक आधार थे? क्या उन्हें किसी प्रकार के व्यापक संघ की जरूरत न होगी जिसमें मुस्लिम अवाम बहुसंख्यक हिंदू मर्जी के मनमाने इस्तेमाल से अपना बचाव कर सकें? इन सारी दिक्कतों के मद्देनजर क्या नहीं कहा जा सकता कि जिन्ना स्वयं झांसा दे रहे थे – वास्तविक महत्तम हासिल करने के लिए अवास्तविक मांगों को सौदेबाजी के तौर पर सामने रख रहे थे? उस दौरान बहुत सारे लोगों को ऐसा ही लगा था और उसके बाद भी इस बात को मानने वाले कुछ कम नहीं हैं।
लाहौर प्रस्ताव को चाहे जितना चमकाने की कोशिश की जाए, तब तक यह साफ हो चुका था कि आजादी अपने आप में उस शाश्वत एकता की गारंटी नहीं होगी जिसकी बात कांग्रेस के विचारक अक्सर किया करते थे। हिंदू और मुसलमान राजनीतिक अस्मिताओं की प्रतिद्वंद्विता ने उस एकता के लिए पैदा किया खतरा आसन्न और सुस्पष्ट था। नेहरू की प्रतिक्रिया क्या थी? 1935 में अपनी आत्मकथा के एक विशिष्ट परिच्छेद में उन्होंने भारत में एक मुस्लिम राष्ट्र के होने की संभावना को नकार दिया था, ‘राजनीतिक तौर पर यह विचार बेतुका है और आर्थिक रूप से खामख्याली; यह गौर किये जाने लायक है ही नहीं।’ 1938 में उनसे मिलने आए कुछ अमेरिकियों से उन्होंने कहा कि ‘भारत में कोई धार्मिक या सांस्कृतिक संघर्ष नहीं है और सदियों से चली आई उसकी अनिवार्य एकता भारत का अद्भुत और सारभूत तत्व है।’ अपने एक निबंध में उन्होंने दावा किया था कि ‘भारत की एकात्मकता के लिए कार्यरत ताकतें दुर्जेय और जबरदस्त हैं और कोई अलगाववादी प्रवृत्ति इस एकात्मकता को तोड़ डालेगी ऐसी कल्पना नहीं की जा सकती।’ लाहौर प्रस्ताव के बाद, 1941 में वह प्रवृत्ति उनके सामने मुंह बाए खड़ी थी मगर अपने उस निबंध को पुनर्प्रकाशित करते हुए उन्हें अपने इस दावे को बदलने की कोई जरूरत नहीं महसूस हुई।
कांग्रेस के लिए खतरे की घंटी
वेवल जो महायुद्ध के दौरान भारत में फौज के प्रधान सेनापति थे, 1945 के आते-आते वायसराय बन गए। वह जानते थे कि साम्राज्यवादी खेल खत्म हो गया है। उनकी टिप्पणी, ‘अपने खिलाफ बहुत भारी संख्या में खड़े विरोधी पक्ष को देखकर पीछे हटने को मजबूर होने वाली सैन्य शक्ति की जो हालत होती है वैसी ही हमारी वर्तमान स्थिति है।’ महायुद्ध के दौरान भारत छोड़ो आंदोलन छेडऩे के जुर्म में जेल में बंद नेहरू और उनके सहकारियों को जून में रिहा कर दिया गया और सर्दियों में प्रांतों और केंद्र के चुनाव हुए जो 1935 के मताधिकार पर ही आधारित थे। नतीजे कांग्रेस के लिए खतरे की घंटी की तरह थे और होने भी चाहिए थे। मुस्लिम लीग न सिमटी थी और न ओझल हुई थी। अपने संगठन को खड़ा करने के, उसकी सदस्यता बढ़ाने के, अपना दैनिक पत्र निकालने के और जिन प्रांतीय सरकारों से अब तक उन्हें दूर रखा गया था उनमें अपने कदम जमाने के कामों में जिन्ना ने महायुद्ध के दौर का इस्तेमाल किया था। 1936 में एक ठंडा पड़ चुका उबाल कहकर नकार दी गई मुस्लिम लीग ने 1945-46 में भारी जीत हासिल की। उसने केंद्र के चुनावों में हर एक मुस्लिम सीट और प्रांतीय चुनावों में 89 प्रतिशत मुस्लिम सीटें जीत लीं। मुसलमानों के बीच अब उनकी प्रतिष्ठा वैसी हो चली थी जैसी हिंदुओं में कांग्रेस की थी।
आजादी के लिए सभी दलों को स्वीकार्य संवैधानिक ढांचे के बारे में बातचीत करने के लिए लेबर पार्टी की सरकार ने लंदन से कैबिनेट मिशन भेजा। जिस संघीय रचना का प्रस्ताव मिशन ने अंतत: रखा वह लाहौर में जिन्ना द्वारा सामने रखी गई व्यवस्थाओं से कुछ मिलता-जुलता था। हालांकि अब तक मुस्लिम लीग का रुख काफी कड़ा हो गया था, फिर भी दोनों पार्टियों ने पहलेपहल इस योजना के प्रति अपनी सम्मति दर्शाई। दो हफ्तों बाद नेहरू उस से मुकर गए और घोषणा की कांग्रेस अपने मन की करने के लिए स्वतंत्र है। राजनीतिक नेता के तौर पर यह उनका पहला विशुद्ध रूप से व्यक्तिगत निर्णय था। उनके कट्टरपंथी सहकर्मी वल्लभभाई पटेल तक ने उसे ‘जज्बाती अहमकपन’ करार दिया मगर कमान से निकला हुआ तीर वापिस नहीं आ सकता था। इसके जवाब में जिन्ना, जिन्होंने सड़कों पर किये जाने वाले विरोध प्रदर्शनों को भीड़ से की गई लापरवाह अपील मानते हुए हमेशा उनकी निंदा की थी, ने संसदीय तरीके को लेकर मुसलमानों का धैर्य अब टूट चुका है यह दर्शाने के लिए ‘सीधी कार्रवाई के दिन’ की घोषणा कर दी। अभिजात स्तर पर दांव खेलने में माहिर सियासतदां के तौर पर जिन्ना का जनसामूहिक कार्रवाई में कोई अनुभव नहीं था और उन्हें उसके संचालन और नियंत्रण का भी अंदाजा नहीं था। कलकत्ते में सांप्रदायिक मारकाट मच गई। मुस्लिम गुंडों द्वारा शुरू की गई यह मारकाट जब खत्म हुई तो दोनों समुदायों के सापेक्ष संख्याबल के मद्देनजर अपरिहार्य रूप से हिंदुओं की तुलना में कहीं ज्यादा मुसलमान मारे जा चुके थे।
हर संभव तरीका अपनाकर देख लेने के बाद हार कर वेवल ने एक अंतरिम सरकार बनाई जिसकी अगुवाई प्रधानमंत्री के तौर पर नेहरू कर रहे थे और पटेल आतंरिक मंत्री थे। लीग द्वारा किये गए शुरुआती बहिष्कार के बाद जिन्ना के सहायक लियाकत अली खान अंतरिम सरकार में वित्त मंत्री बने। हर पार्टी दूसरी के आड़े आने पर आमादा थी। प्रांतीय चुनावों के नतीजों के आधार पर नामजद किये गए नुमाइंदों को लेकर बनी संविधान-सभा का लीग ने बहिष्कार किया। संविधान-सभा में कांग्रेस इस कदर हावी थी और इसके लिए सैद्धांतिक रूप से सरकार की ही जिम्मेदारी बनती थी, कि कांग्रेस ने लियाकत के संपत्ति कर के प्रस्ताव को इस आधार पर रोक दिया कि चूंकि ज्यादातर व्यापारी हिंदू हैं, ऐसा करना धार्मिक पक्षपात होगा। तो यह परिस्थिति थी जब फरवरी, 1947 में एटली सरकार ने घोषणा की कि जून, 1948 तक भारत को आजादी मिल जाएगी और हस्तांतरण के प्रभारी के तौर पर वायसराय का काम संभालने माउंटबेटन को रवाना किया।
धार्मिक फूट और साम्राज्यवादी नीति
माउंटबेटन के आगमन के साथ भारत में धार्मिक फूट को लेकर साम्राज्यवादी नीति का एक चक्र पूरा हुआ। 19 वीं सदी के दूसरे उत्तरार्ध में अंग्रेजी राज को यह शक था कि गदर में पेशकदमी करने वाले मुसलमान थे और हिंदुओं को ज्यादा भरोसेमंद समझा जाता था। बीसवीं सदी के पहले उत्तरार्ध में यह पसंदगी तब बदल गई जब हिंदू राष्ट्रवाद ज्यादा आग्रही हो गया और उसे रोकने के लिए मुस्लिम महत्वाकांक्षाओं को बढ़ावा दिया गया। अब अपने अंतिम चक्र में लंदन ने जबर्दस्त झटका देते हुए बहुसंख्यक समुदाय को अपना विशेषाधिकृत सम्भाषी चुन लिया। 1947 में इस भारी परिवर्तन की जज्बाती शिद्दत उभरी थी विचारधारा, रणनीति और शख्सियत के अचानक हुए संगम से। ब्रिटेन की लेबर पार्टी हुकूमत के लिए उनके अपने दृष्टिकोण से सबसे निकटतम भारतीय पार्टी कांग्रेस थी; नेहरू के साथ जुड़ी फेबियन कडिय़ां काफी पुरानी थीं। राष्ट्रीय स्वाभिमान जाकर भावनात्मक अपनेपन से मिल गया। ब्रिटेन ने एक छितरे हुए उपमहाद्वीप को इतिहास में सर्वप्रथम एक एकल राजनीतिक क्षेत्र बना डाला था। सही समझ वाले सारे अंग्रेज देशभक्त, जिनमें सिर्फ एटली जैसे साम्राज्यवादी शिक्षा के उत्पाद ही शामिल नहीं थे, इस बात को बड़े गर्व के साथ अपने साम्राज्य की सबसे उत्कृष्ट सृजनात्मक उपलब्धि मानते और उनकी रवानगी के वक्त उस में दरारें पडऩा उस उपलब्धि पर सवालिया निशान लगने जैसा होता। ब्रिटेन को अगर भारत छोडऩा है तो भारत को वैसे ही रहना होगा जैसा कि अंग्रेजों ने उसे गढ़ा था। ब्रिटेन के पास तब भी सिर्फ मलाया ही नहीं बल्कि एशिया में भी कीमती मिल्कियतें थीं – उनके सबसे फायदेमंद उपनिवेश जो जल्द ही कम्युनिस्ट विद्रोह की रंगभूमि बन जाने वाले थे और जिन्हें छोडऩे की ब्रिटेन को कोई जल्दी नहीं थी। उसी समय उत्तर-पश्चिम सीमा से थोड़ी ही दूर अंग्रेजी राज का पारंपरिक हौवा बैठा हुआ था जो अब सोवियत संघ के रूप में और भी भयंकर था। आला अफसरान इस बात पर एकमत थे कि उपमहाद्वीप के विभाजन से रूसियों को ही फायदा पहुंचेगा। अगर दक्षिण एशिया के दरवाजों को साम्यवाद के खिलाफ मजबूती के साथ बंद किया जाना था तो न सिर्फ ब्रिटेन बल्कि पश्चिम के भी रणनीतिक हितों को संयुक्त भारत के परकोटे की दरकार थी।
ये सारी बातें इसी तरफ इशारा कर रही थीं कि मुस्लिम लीग, जो कभी अंग्रेजी राज का नीतिगत साधन हुआ करती थी, अब उसके मामलों के यथेष्ट निपटारे में एक प्रमुख अड़चन थी और उसका साक्षात रूप जिन्ना थे। कांग्रेस के नेता ब्रिटेन द्वारा उन्हें सौंपे जाने वाले विरसे की अखंडता का झंडा उठाये हुए थे और जिन्ना यह उम्मीद नहीं कर सकते थे कि उनके साथ समतुल्य बर्ताव किया जाएगा। मगर इस ढांचागत विषमता में एक असंतुलित व्यक्तिगत आत्मश्लाघिता को मिलाया गया और यह सम्मिश्रण घातक साबित हुआ। ‘वह झूठा, बौद्धिक रूप से सीमित और चालबाज शख्स’ – माउंटबेटन के इस अमिट पोट्रेट के लिए हमें एंड्रयू रॉबट्र्स का शुक्रगुजार होना चाहिए। दक्षिण-पूर्व एशिया में मित्र राष्ट्रों की सेना के प्रतीकात्मक कमांडर के तौर पर कोलम्बो में अपनी कैडिलैक की पिछली सीट पर बैठे-बैठे खयाली कारनामों में डूबे हुए माउंटबेटन जब दिल्ली आए तो इस बात से बेइंतहा खुश थे कि उन्हें ‘लगभग दिव्य शक्तियों से नवाजा गया है। मैंने महसूस किया कि मुझे दुनिया का सबसे ताकतवर आदमी बना दिया गया है।’ माउंटबेटन पहनावे और समारोह संबंधी आडम्बर का विकृत रूप थे और झंडों और झालरदार सूटों को लेकर उनका जूनून अक्सर राज्य के मामलों पर तरजीह पा जाता। उनके दो सर्वोपरि सरोकार थे: अंग्रेजी राज के अंतिम शासक के तौर पर एक ऐसी हस्ती बनना जो हॉलीवुड को शोभा दे और खासकर यह सुनिश्चित करना कि भारत राष्ट्रमंडल के अंतर्गत का ही एक राज्य बना रहे, ‘विश्व में प्रतिष्ठा और रणनीति दोनों को लेकर यूनाइटेड किंगडम के लिए यह अत्यधिक महत्त्व की बात होगी।’
माउंटबेटन और नेहरू के संबंध
ऐसा माना गया था कि अगर ब्रिटिश राज का बंटवारा होना ही है तो बड़ा हिस्सा- जितना बड़ा उतना अच्छा – ब्रिटिश उद्देश्यों के लिए महत्त्व का होगा। उपमहाद्वीप के भविष्य की योजना बनाने में कांग्रेस अब पसंदीदा सहयोगी क्यों थी इस बात के पीछे के राजनीतिक कारणों में एक व्यक्तिगत कारण भी जुड़ गया था। नेहरू के रूप में माउंटबेटन को एक दिलचस्प साथी मिल गया था, एक से स्वभाव वाले वे दोनों ही सामाजिक तौर पर भी समकक्ष थे। गांधी ने अंग्रेजों के साथ हमेशा अच्छे संबंध बनाए रखना चाहा था। गांधी द्वारा नेहरू को उत्तराधिकारी चुने जाने का अंशत: कारण यह था कि वह अंग्रेजों के साथ अच्छे संबंध रखने के लिए सांस्कृतिक तौर पर सुसज्ज थे जबकि पटेल और अन्य उम्मीदवारों में वह चीज न थी। सारे संबंधित लोगों के लिए यह तसल्ली की बात थी कि कुछ ही हफ्तों में नेहरू वायसराय के न केवल खास दोस्त बन गए बल्कि जल्द ही उनकी बीवी के साथ हमबिस्तर भी हो गए। इस संबंध को लेकर भारतीय राज्य इतना संकोची रहा आया है कि पचास सालों के बाद भी वह इस विषय को छूने वाली एक अमरीकी फिल्म का प्रदर्शन रोकने में दखल दे रहा था। भारतीय राज्य के इतिहासकार भी इस विषय के बगल से चुपचाप निकल जाते हैं। दिल के मामले कदाचित ही हुकूमत के मामलों पर असर डालते हैं। मगर इस मामले में यह इमकान न था कि त्रिकोण के कामुक संबंध ब्रिटिश नीति को लीग के पक्ष में झुका देते। राजनयिकों को इससे कहीं कम गलतियों के लिए चलता कर दिया जाता है।
फिर भी एक ऐसे दौर में जब ब्रिटेन प्रकट रूप से भारत में विभिन्न दलों को एक साथ लाने की कोशिश कर ही रहा था और कांग्रेस एकीकृत देश को आजादी की तरफ ले जाने की कोशिश कर रही थी, गौरतलब है कि तब जिन्ना के बारे में माउंटबेटन और नेहरू कैसी भाषा का इस्तेमाल कर रहे थे और एटली उसमें सुर मिला रहे थे। माउंटबेटन के लिए जिन्ना एक ‘पागल’, घटिया आदमी’ और ‘मनोरोगी केस’ थे; नेहरू के लिए वह एक ‘हिटलरी नेतृत्व और नीतियों’ वाली पार्टी की अगुआई कर रहे पैरेनोइड थे और एटली के लिए वह ‘गलतबयानी करने वाले’ थे।
विभाजन की ओर
माउंटबेटन जब आए तो पंजाब में सांप्रदायिक दंगे भड़के हुए थे। एक महीने के अंदर-अंदर उन्होंने फैसला कर लिया कि विभाजन अपरिहार्य है क्योंकि कांग्रेस और लीग के बीच का गतिरोध दूर नहीं हो पा रहा है। मगर समूचे इलाके का बंटवारा कैसे होना था? अनिवार्यत: बात पांच सवालों पर आकर टिक गई। बंगाल और पंजाब इन दो प्रमुख प्रांतों का क्या होगा जहां मुसलमान बहुसंख्यक तो थे मगर उनका संख्याबल उतना जबरदस्त नहीं था? रजवाड़ों के शासन वाले अंचलों को, जहां कांग्रेस और लीग दोनों की ही उपस्थिति नगण्य थी, कैसे आवंटित किया जाएगा? विभाजन के सिद्धांत के बारे में या सरहद कहां खड़ी की जाएगी इस बात को लेकर क्या जनता की राय पूछी जाएगी? विभाजन की प्रक्रिया का पर्यवेक्षण कौन करेगा? इस पर अमल कितनी समयावधि में किया जाएगा?
इस मौके पर आकर कांग्रेस और लीग का हिसाब अदल-बदल हो गया। सारे राष्ट्र की नुमाइंदगी करने का कांग्रेस का दावा 1920 के दशक से ही उसकी विचारधारा का केंद्र रहा था। मुस्लिम निर्वाचन मंडल में लीग द्वारा अपनी ताकत दिखाए जाने पर यह दावा धराशायी हो गया था। मगर अपनी नई-नवेली ताकत का लीग क्या करने वाली थी? लाहौर प्रस्ताव के छह साल बीत जाने पर भी जिन्ना को हिंदू-बहुल प्रांतों में मुस्लिम अल्पसंख्यकों के संरक्षण के साथ-साथ मुस्लिम बाहुल प्रांतों की सार्वभौमिकता के लिए कोई संभाव्य समाधान नहीं मिला था। बस इतना भर हुआ था कि पाकिस्तान का नारा, जिसे उन्होंने 1943 में खारिज कर दिया था, मुसलमानों के बीच इतना मकबूल साबित हुआ कि बिना किसी स्पष्टीकरण के जिन्ना ने उसे अपना लिया और यह दावा किया कि लाहौर प्रस्ताव में ‘राज्य’ की जगह ‘राज्यों’ मुद्रण की अशुद्धि के कारण आया था। शायद उन्होंने यह हिसाब लगाया था कि चूंकि अंग्रेजों के सामने लीग और कांग्रेस के परस्पर विरोधी उद्देश्य हैं, वह आखिरकार अपने हिसाब से समय लगाकर दोनों पक्षों पर अपनी पसंद का परिसंघ थोप देंगे। उस परिसंघ में उपमहाद्वीप के मुस्लिम-बाहुल इलाके स्वशासी होंगे और केंद्रीय सत्ता न इतनी मजबूत होगी कि उन पर चढ़ सके और न ही इतनी कमजोर कि स्वशासी हिंदू-बहुल प्रक्षेत्रों में मुसलमान अल्पसंख्यकों की रक्षा भी न कर सके। अंतत: कैबिनेट मिशन ने जो योजना तैयार की वह जिन्ना के सोच (विजन) के काफी करीब थी।
मगर कांग्रेस पार्टी ने हमेशा से एक शक्तिशाली केंद्रीकृत राज्य की आरजू की थी और नेहरू का मानना था कि भारतीय एकता को बचाए रखने के लिए यह जरूरी है। इसलिए ऐसी कोई स्कीम नेहरू के लिए विभाजन से भी खराब थी क्योंकि वह उनकी पार्टी को उस शक्तिशाली केंद्रीकृत राज्य से महरूम कर देती। राष्ट्रीय वैधता के ऊपर अपनी इजारेदारी पर कांग्रेस ने शुरू से जोर दिया था। यह दावा अब बिलकुल स्वीकार नहीं किया जा सकता था। लेकिन अगर बुरी से बुरी स्थिति भी हुई तो भारत के बड़े हिस्से में सत्ता के अबाधित एकाधिकार के मजे लेना अविभाजित भारत में उस सत्ता को बांटकर बंधे पड़े रहने से बेहतर था। इसलिए जब लीग तकसीम की बात कर रही थी तो जिन्ना परिसंघ के बारे में सोच रहे थे, और जब कांग्रेस संघ की बात कर रही थी, तो नेहरू बंटवारे की तैयारी कर रहे थे। कैबिनेट मिशन योजना की लुटिया हस्बे-दस्तूर डुबो दी गई।
सारी निगाहें अब इस बात पर आ टिकीं कि लूट का बंटवारा कैसे होगा। अंग्रेज अब भी राजा थे: बंटवारा माउंटबेटन करेंगे। नेहरू इस बात से निश्चिंत थे कि उन पर इनायत जरूर होगी, मगर कितनी इसका अंदाजा पहले से होना मुश्किल था। ब्रिटिश राज से जो भी राज्य उभरेंगे उन्हें पुनर्नामित ब्रिटिश राष्ट्रमंडल के अंतर्गत बनाए रखना माउंटबेटन के लिए सबसे अहम बात थी। इसका मतलब था कि उन राज्यों को आजादी एक स्वतंत्र-उपनिवेश (डोमिनियन) के तौर पर स्वीकार करनी होगी। मुस्लिम लीग को इससे कोई आपत्ति नहीं थी। मगर लंदन में चलने वाली जालसाजियों के आगे भारत के नतमस्तक होने को कांग्रेस 1928 से ही सिद्धांतत: खारिज करती आई थी और इसमें डोमिनियन वाली बात भी जाहिरन शामिल थी। तो जिस छोटी कौम को माउंटबेटन विभाजन के लिए जिम्मेदार मानते थे, उसी कौम के राष्ट्रमंडल का सदस्य बन जाने की अवांछनीय संभावना माउंटबेटन के सामने इस कारण आ खड़ी हुई। वहीं बड़ी कौम जो उनके अनुसार न केवल अपेक्षाकृत दोषरहित थी बल्कि रणनीतिक और वैचारिक तौर पर अधिक महत्त्वपूर्ण भी थी, राष्ट्रमंडल से बाहर रहने वाली थी। इस पहेली को कैसे सुलझाया जाना था?
इसे सुलझाया उस घड़ी के तारणहार वी पी मेनन ने। अंग्रेजों की नौकरशाही में केरल के उच्च-पदस्थ हिंदू अधिकारी मेनन माउंटबेटन के व्यकिगत अमले का हिस्सा थे और कांग्रेस के सांगठनिक बाहुबली सरदार पटेल के मित्र भी। क्यों न विभाजन सीधे-सीधे इस तरह हो कि कांग्रेस को बहुत बड़ा क्षेत्र और आबादी हासिल हो जाए जिसकी हकदार वह मजहब के आधार पर थी ही, और तो और अंग्रेजी राज की पूंजी और सैनिक एवं नौकरशाही तंत्र का भी बड़े से बड़ा हिस्सा मिल जाए – और इसके बदले में माउंटबेटन से राष्ट्रमंडल में भारत के प्रवेश का वायदा किया जाए? इतना ही नहीं, मुंह मीठा करने के लिए, मेनन ने रजवाड़ों को भी थाली में परोसने की सलाह दी जिससे कि जिन्ना को मिलने वाले हिस्से की क्षतिपूर्ति हो जाए। कुल मिलाकर रजवाड़े क्षेत्रफल और आबादी में भावी पाकिस्तान के बराबर थे और उस समय तक कांग्रेस ने उन्हें अलंघ्य मान रखा था। नेहरू और पटेल को मनाने में कोई मुश्किल नहीं हुई। अगर मालमत्ता दो महीनों के अंदर-अंदर हस्तांतरित हो जाता है, तो सौदा पूरा। इस रास्ते के हाथ लगने (ब्रेकथ्रू) की सूचना मिलने पर माउंटबेटन फूले नहीं समाये और फिर मेनन को उन्होंने लिखा, ‘बड़ी खुशकिस्मती रही कि आप मेरे स्टाफ में रिफोर्म्स कमिश्नर रहे, और इस तरह हम बहुत शुरुआती दौर में ही एक दूसरे के करीब आ गए, क्योंकि आप वह पहले आदमी थे जो डोमिनियन स्टेटस के मेरे विचार से पूर्णत: सहमत थे और आपने वह हल ढूंढ निकाला जिसके बारे में मैंने सोचा भी नहीं था और उसे सत्ता के अति शीघ्र हस्तांतरण से पहले ही स्वीकार्य बना दिया। इस निर्णय की इतिहास हमेशा बेहद कद्र करेगा और इस बात के लिए मैं आपका आभारी हूं।’ इतिहास उतना कद्रदान नहीं साबित हुआ जितनी उन्हें उम्मीद थी।
आखिरी घड़ी में एक गड़बड़ हो गई। स्वतंत्रता और विभाजन का लंदन द्वारा स्वीकृत मसौदा शिमला में सभी पक्षों के आगे रखने से पहले माउंटबेटन को पूर्वबोध हुआ कि औरों के देखने से पहले उन्हें वह मसौदा गुप्त रूप से नेहरू को दिखा देना चाहिए। उसे देखकर नेहरू आग-बबूला हो गए: मसौदे में यह बात पर्याप्त रूप से साफ नहीं की गई थी कि भारतीय संघ अंग्रेजी राज का उत्तराधिकारी राज्य होगा और इस वजह से उसे सारी चीजें हासिल होंगी और यह भी कि पाकिस्तान उसे अलग हो रहा है। माउंटबेटन ने अपने अंतर्ज्ञान के लिए किस्मत का शुक्रिया अदा किया। उन्होंने कहा कि अगर वह मसौदा नेहरू को नहीं दिखाते तो खुद वह और उनके आदमी ‘देश की सरकार के सामने निरे अहमक साबित हो जाते कि उन्होंने सरकार को इस खुशफहमी में रखा था कि नेहरू मसौदा स्वीकार कर लेंगे’ और ‘डिकी माउंटबेटन बर्बाद हो गए होते और अपना बोरिया-बिस्तर बांध चुके होते’। मेनन का अमूल्य साथ तो था ही, और मुश्किल टल गई जब उन्होंने नेहरू की पसंद वाला मसौदा तैयार किया। जून के पहले हफ्ते में माउंटबेटन ने घोषणा की कि ब्रिटेन 14 अगस्त को सत्ता का हस्तांतरण कर देगा, उस तारीख को बाद में उन्होंने स्वयं ही ‘हास्यास्पद रूप से जल्दबाज’ बताया था। इस जल्दबाजी की वजह साफ थी, और वह बताने में माउंटबेटन ने कोई गोलमाल नहीं किया। ‘हम क्या कर रहे हैं? प्रशासकीय तौर पर एक पक्की इमारत बनाने और एक झोंपड़ी या तम्बू तानने में फर्क है। जहां तक पाकिस्तान की बात है, हम एक तंबू तान रहे हैं। इससे ज्यादा हम कुछ नहीं कर सकते।’
साभार: थ्री एसेज कंबाइन द्वारा प्रकाशित इंडियन आइडियोलॉजी सेश्याम सुन्दरhttp://www.blogger.com/profile/16320869658773019790noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7195851944555982826.post-77416067395564214822016-12-01T04:41:00.000-08:002016-12-01T04:41:11.057-08:00रेल दुर्घटनाओं के गुनाहगार और असलियत<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="MsoNormal" style="background-color: #ffff99; font-size: 10pt; margin-bottom: 0pt; margin-right: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span style="color: #000099; font-family: Mangal; font-size: 10pt; text-align: left;">जब-जब रेल दुर्घटना हुआ, देष में कोहराम मचा है। बात चाहे आज अहले सुबह कानपुर में पटरी से उतरी पटना-इंदौर एक्सप्रेस की हो या फिर बंगाल में चार साल पहले हुए ज्ञानेष्वरी एक्सप्रेस की। दुर्घटना के पीछे कारण चाहे जो भी हो लेकिन आरोप-प्रत्यारोप में खत्म हो जाती है असली कारणों की तहकीकात और अपने नीयत चाल से पटरियों पर दौड़ पड़ती है रेल। सवारियों की जान-जोखिम में डाल पटरी पर दौड़ती रेलवे प्रशासन क्या इस बार अपनी मुंह खोलेगा और मामले की सही तहकीकात कर दोषियों पर कोई कार्रवाई होगी?</span></div>
<div class="MsoNormal" style="background-color: #ffff99; font-size: 10pt; margin-bottom: 0pt; margin-right: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span lang="hi" style="color: #000099; font-family: Mangal;">सवाल इसलिये कि आज से करीब 12 साल पहले हावडा-नई दिल्ली राजधानी एक्सप्रेस के दो बोगी मगध के लाल गलियारे स्थित रफीगंज स्टेशन के समीप मदार नदी में गिर गयी थी। सितंबर का महीना था और नदी में बाढ़ आयी हुई थी। देश की वीआईपी गाड़ियों में शुमार राजधानी एक्सप्रेस के मदार नदी में गिरने से करीब 150 यात्रियों की मौत हो गयी थी और 500 से अधिक गंभीर रूप से घायल थे। तब बिहार के मुख्यमंत्री लालू प्रसाद थे और महज संयोग था कि रेल मंत्री थे नीतीश कुमार। जो इस समय बिहार के मुख्यमंत्री हैं। रात्री के करीब 11 बज रहे थे और अधिकांश यात्री गहरी निद्रा में थे। घटना से उत्पन्न हालात बेकाबू हो गये थे। हालांकि उस वक्त बिहारियों की सेवा को देष ने सराहा था। घायलों को रफीगंज जैसे छोटे जगह में समुचित इलाज नहीं हो पा रहा था। चूकि यह इलाका माओवादियों का गढ़ माना जाता था इसलिये भी प्रशासन फूंक-फंूक कर कदम रख रही थी।</span></div>
<div class="MsoNormal" style="background-color: #ffff99; font-size: 10pt; margin-bottom: 0pt; margin-right: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span lang="hi" style="color: #000099; font-family: Mangal;">बहरहाल, घटनास्थल पर दोपहर बाद पहुंचे तत्कालीन रेलमंत्री नीतीश कुमार मुदार्बाद के नारे लगे थे। वहीं रेलमंत्री ने इस घटना के लिये बिहार सरकार को लताड़ते हुए सुरक्षा में चूक बताया था। जबकि अहले सुबह रफीगंज पहुंचे तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद इस बड़ी घटना के लिये मदार नदी पर सौ साल पहले बने रेल पुल को कमजोर बताया था। कारण चाहे जो भी हो। लेकिन देश की यह बड़ी घटना भी सियासी भेंट चढ़ गया। अबतक न तो बिहार पुलिस इस मामले में किसी नतीजे पर पहुंची और न ही रेलवे प्रशासन।</span></div>
<div class="MsoNormal" style="background-color: #ffff99; font-size: 10pt; margin-bottom: 0pt; margin-right: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: justify;">
<span lang="hi" style="color: #000099; font-family: Mangal;">बताते चले कि इस घटना के पहले कभी भी माओवादियों पर यह तोहमत नहीं लगा कि माओवादी सनसनी फैलाने या फिर रेलवे पैसेंजर को लुटने के ख्याल से पैसेंजर गाड़ियों पर हमला किये हों। हां जब कभी माओवादी पुलिस से हथियार लूटने के ख्याल से रेलवे को निषाना बनाते रहे हैं। बहरहाल, सच्चाई चाहे जो भी हो सियासी भेंट चढ़ चुके राजधानी एक्सप्रेस कांड का अनुसंधान अब भी पुलिस फाइल में चल रहा है। इस सच से इनकार नहीं किया जा सकता कि आरोप-प्रत्यारोप के इस सियासी दौर में सरकारें चाहें जो करें लेकिन माओवादियों ने उस वक्त इस मामले को गंभीरता से लिया था और इलाके के कई चोर गिरोहों को खुलेआम जनअदालत लगाकर मार दिया था। उसके बाद से दूसरी बार जब बंगाल में ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस दुर्घटनाग्रस्त हुई। इस घटना में भी सौ से अधिक यात्रियों की मौत हुई थी। घायलों की संख्या सैंकडों थी। तब भी रेलवे प्रशासन ने इस घटना के लिये राज्य सरकार को दोषी माना था वहीं मुख्यमंत्री ममता बनर्जी इसे माओवादी नेता किशन जी की चाल बतायी थी। हालांकि माओवादी इस घटना के लिये सीपीएम को जिम्मेवार बताते हुए अपना पल्ला झाड लिया था। आरोप-प्रत्यारोप के इस दौर में एक बार फिर आशंका है कि कानपुर में हुए पटना-इंदौर एक्सप्रेस की जांच कागजों में दब कर रह जायेगी। </span><span lang="hi" style="color: #000099; font-family: Mangal; font-weight: bold;">(लेखक जन अधिकार पार्टी लोकतांत्रिक के प्रदेश प्रवक्ता हैं)</span></div>
</div>
श्याम सुन्दरhttp://www.blogger.com/profile/16320869658773019790noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7195851944555982826.post-25471503016656776052016-12-01T04:30:00.001-08:002016-12-01T04:30:46.438-08:00सिसकियां भर रहा मगध का लाल गलियारा<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="MsoNormal" style="background-color: #ffff99; font-size: 10pt; margin-bottom: 0pt; margin-right: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: center;">
<br /></div>
<div class="MsoNormal" style="background-color: #ffff99; font-size: 10pt; margin-bottom: 0pt; margin-right: 0pt; margin-top: 0pt;">
<br /></div>
<div class="MsoNormal" style="background-color: #ffff99; font-size: 10pt; margin-bottom: 0pt; margin-right: 0pt; margin-top: 0pt;">
<span lang="hi" style="color: #000099; font-family: Mangal;">कभी बमों के धमाके तो कभी गोलियों की गूंज से आसमान गूंजायमान। भूख से तड़पते बच्चे। मार्च का महीना आते ही हलक बूझाने लायक पानी मयस्सर नहीं। एक तो गांवों में स्कूल का नामोनिषान नहीं, कहीं स्कूल दिख भी गये तो पढ़ाने लायक मास्टर नहीं। दवा और डाॅक्टर के अभाव में दम तोड़ते मरीज। यही पहचान रह गयी है मगध के नवादा, गया और औरंगाबाद के एंटी नक्सल अभियान चलाये जा रहे इलाकों की। वह मगध जिससे कभी दुनिया को शांति और अहिंसा का पाठ पढ़ाया था। बौद्धिक संपन्नता के लिये दुनिया मगध की ओर आकर्षित होती थी। नालंदा का बौद्ध विहार आज भी शोध का विषय बना हुआ है तो नये जमाने में मगध की पहचान भूख, अषिक्षा, गरीबी, कुपोषण के साथ ही मानवता को शर्मसार करने वाले कुकृत्यों से हो रहा है। आज मगध पहचाना जा रहा है जातीय जहर से। मगध की पहचान हो रही है साम्प्रदायिक उन्माद से। मगध पहचाना जा रहा है दलाल नेताओं से। गरीबों के शोषण से। मगध पहचाना जा रहा है सामंती उत्पीड़न से। मगध की पहचान हो गयी है लाष पर राजनीति करने वाले सियासतदानों से। अपने में गौरवषाली अतीत समेटे मगध पहचाना जा रहा है नक्सल के नाम पर गोलियों की तड़तड़ाहट से। बमांे के धमाकों से। देषद्रोह और देषभक्तों के वैचारिक संघर्षों से।</span></div>
<div class="MsoNormal" style="background-color: #ffff99; font-size: 10pt; margin-bottom: 0pt; margin-right: 0pt; margin-top: 0pt;">
<span lang="hi" style="color: #000099; font-family: Mangal;">अपने गौरवषाली इतिहास पर इतराता मगध एक लाख वर्ष पहले से जाना जा रहा है। बात चाहे ऋग्वेद या अर्थववेद की करें या फिर द्वापर के कृष्ण और त्रेता के राम की। हर युग में मगध की अपनी पहचान रही है। प्यार-मोहब्बत से दुनिया पर राज करने वाला मगध सिसक रहा है। कराह रहा है। अपनों से। सियासतदानों से। कानून के रखवालों से। संविधान के रक्षकों से। लोकतंत्र के नाम पर तांडव मचाने वाले सियासतदानों से। सामंती देषभक्तों से। कू्रर नौकरषाहों से। मगध के जिन इलाकांे में सीआरपीएफ और कोबरा बटालियन का विषेष नक्सल विरोधी अभियान चल रहा है, उस मगध में बेजुबानों पर बहादुर बन रही है सीआरपीएफ। कहीं गांवों में एंटी नक्सल के नाम पर झोपड़ियां उजाड़ी जा रही है। किषोरियों के साथ दुष्कर्म हो रहे हैं। बुर्जुगों को पीटा जा रहा है। महिलाआंे को माओवादियों की पत्नी बताया जा रहा है तो संविधान और मानवता की दुहाई देने वाले नौजवानों को नक्सली कह कर जेलों में ठूंसा जा रहा है। अघोषित कफ्र्यू लागू है मगध के जंगली और पहाडी इलाकों में। हद तो यह कि नक्सल आॅपरेषन से लौटते वक्त जवान गांवों से मुर्गियां और बकरे अपने साथ उठा ला रहे हैं। कभी गांवों में पुलिस की लाल टोपी देखते ही जंगलों और पहाड़ों में दुबकने वाले ग्रामीण आजादी के 70 वर्षों के बाद भी सैंकड़ों की संख्या में सीआरपीएफ को देख पहाड़ों को अपना बसेरा बना रहे हैं तो ऐसे ग्रामीणों को कोबरा और पारा मिलिटी के जवान नक्सल कह गोलियों से भून रहे हैं।</span></div>
<div class="MsoNormal" style="background-color: #ffff99; font-size: 10pt; margin-bottom: 0pt; margin-right: 0pt; margin-top: 0pt;">
<span lang="hi" style="color: #000099; font-family: Mangal;">क्या देष का गृह मंत्री यह बता सकता है कि मगध के किस गांव और किस जंगली इलाके से माओवादियों के किसी बड़े नेता की गिरफ्तारी हुई है? कब हुई? क्यों जंगलों में नहीं पकड़े जाते माओवादी चिंतक और कुख्यात माओवादी? जब माओवादी नेताआंे की गिरफ्तारी शहरों से हो रही है तो फिर क्यों माओवादियों के नाम पर जंगलों और पहाड़ों में खाक छान रही है पुलिस। अपनी बंदूकों से किसे डराना चाह रही है सीआरपीएफ? सवाल यह भी कि किस नेटवर्क से हथियारों का जखीरा पहुंच रहा है माओवादियों के पास। क्या 50 सालों के नक्सल विरोधी अभियान मंे यह बताने का साहस आला अधिकारी करेंगे कि किन रास्तों से असमाजित तत्वों तक पहंुच रहा है कारतूस, गोला-बारूद, डायना माइट और हथियारों का जखीरा? आखिर इन सवालों पर क्यों चूप्पी साध लेते हैं एंटी नक्सल आॅपरेषन में लगे अधिकारी और सियासतदान? आष्चर्य तो यह भी अब माओवादियों के पास राॅकेट लांचर तक की उपलब्धता बतायी जा रही है तो फिर सवाल है कि अािखर सरकार का खुफिया तंत्र कर क्या रहा है? क्यों नहीं खुफिया अधिकारियों को जानकारी हो पाती है माओवादी गतिविधियों की? इस चूक की वजह से आम लोग तो परेषान हैं ही। अर्द्ध सैनिक बलों के जवान भी मलेरिया जैसी भयंकर बीमारी से परेषान हो रहे हैं। कई जवानों की मौत मलेरिया से हो चुकी है।</span></div>
<div class="MsoNormal" style="background-color: #ffff99; font-size: 10pt; margin-bottom: 0pt; margin-right: 0pt; margin-top: 0pt;">
<span lang="hi" style="color: #000099; font-family: Mangal;">सवाल कई हो सकते हैं। इस सबके बीच, जहां तक मुझे जानकारी है। माओवादी वर्ग-संघर्ष की राजनीति करते हैं। माओवादियों के सिद्धांत में एक वर्ग शोषकों का है तो दूसरा शासकों का। माओवादी मानते हैं कि दूसरा वर्ग गरीबों का दुष्मन है। कानून को अपने तरीके से चलाता है। संविधान को रौंदता है। देष में दिनोंदिन चैड़ी होती जा रही आर्थिक विषमता की खाई का हवाला देते हुए माओवादी कहते हैं कि देष की 90 फीसद अकूत संपत्ति पर एक फीसद लोगों का कब्जा है और यही एक फीसद लोगों की अर्थव्यवस्था 99 फीसद लोगों पर थोपी जा रही है। एक माओवादी चिंतक ने बताया कि पूंजीपतियों की रखैल बन चुके सियासतदान कहीं विषमता की खाई में देष को ही न डूबो दें!</span></div>
<div class="MsoNormal" style="background-color: #ffff99; font-size: 10pt; margin-bottom: 0pt; margin-right: 0pt; margin-top: 0pt;">
<span lang="hi" style="color: #000099; font-family: Mangal;">बहरहाल, सच्चाई चाहे जो भी हो, लेकिन पुलिसिया आंकडें बताते हैं कि देष में माओवादियों के एकाध-दो नेता को छोड़ किसी भी बड़े माओवादी की गिरफ्तारी जंगलों-पहाड़ों से नहीं हुई है। बात चाहे आॅक्सफोर्ड में रीडर रह चुके माओवादी प्रो कोबार्ड गांधी की हो या फिर तमिल साहित्य के बड़े जानकार व पोलित ब्यूरो सदस्य सुधाकर रेड्डी की। माओवादी प्रमोद मिश्रा की हो या फिर विजय कुमार आर्य, सुषील राय, नारायण सान्याल, शीला दीदी, पुलेंदू शेखर मुखर्जी, वाराणासी सुबह्णयम समेत दूसरे माओवादी चिंतकों की।</span></div>
<div class="MsoNormal" style="background-color: #ffff99; font-size: 10pt; margin-bottom: 0pt; margin-right: 0pt; margin-top: 0pt;">
<span lang="hi" style="color: #000099; font-family: Mangal;">इस सबके बीच, एंटी नक्सल आॅपरेषन में लगे जवानों और अधिकारियों के अपने तरीके हैं। लेकिन क्या सरकार का कोई आला अधिकारी बता सकता है कि मगध के औरंगाबाद स्थित मदनपुर ब्लाॅक के पचरूखिया और लंगुआही समेत आस-पड़ोस के आधा दर्जन ग्रामीणों का क्या गुनाह है जिसकी वजह से सैंकड़ों लोग गांवों से पलायन कर चुके हैं। इन गांवों में रह रही हैं तो सिर्फ बूढ़ी महिलाएं। लाचार बुर्जुग। बिना दूध देने वाली कुछ गाय और भैंस। मुसहरों के जीविकोपार्जन का असली ताकत सुअर। औरंगाबाद के पत्रकार गणेष कुमार ने बताया कि पचरूखिया और लंगुआही समेत उस इलाके में जाने के कोई सीधे रास्ते नहीं हैं। एक बार पत्रकारों की टोली वायु सेना के हेलीकाॅप्टर से उस दुर्गम गांव में पहुंची थी। दुखद लेकिन रोमांचकारी आपबीती सुनाई गणेष कुमार ने। बतौर गणेष कुमार-इलाके को देखने से नहीं लगता यह मगध का कोई गांव है। लोगों के बदन पर कपड़े नहीं हैं। गांवों में घरों के नाम पर झोपड़ियां हैं। पहुंचने के रास्ते नहीं हैं। घरों में खाने को समुचित अन्न नहीं हैं। लोग आज भी पीने के पानी पाॅच किलोमीटर दूर गैलन में भरकर लाते हैं। लोगों की सूखी अंतड़िया हैं। शरीर की बनावट ऐसी मानों कंकाल हो।</span></div>
<div class="MsoNormal" style="background-color: #ffff99; font-size: 10pt; margin-bottom: 0pt; margin-right: 0pt; margin-top: 0pt;">
<span lang="hi" style="color: #000099; font-family: Mangal;">इस सबके बीच, आजादी के 70 वर्षों के बाद भी इस इलाके में न तो पीडीएस सिस्टम का नामोनिषान है और न ही पीने के पानी मयस्सर है। स्कूल और अस्पताल अबतक ग्रामीण नहीं देख पाये हैं। गरीबों के लिये सरकारी योजनाएं होती क्या है? इसकी भनक लोग नहीं जानते।</span></div>
<div class="MsoNormal" style="background-color: #ffff99; font-size: 10pt; margin-bottom: 0pt; margin-right: 0pt; margin-top: 0pt;">
<span lang="hi" style="color: #000099; font-family: Mangal;">आष्चर्य तो यह कि पिछले करीब 26 वर्षों से सूबे में सामाजिक न्याय की सरकार है। इस सरकार के रहते लगातार इलाके से नक्सल के नाम पर हो रहे इंतहां जुर्म से आजीज आ चुके ग्रामीणों का होता पलायन यह बताने के लिये काफी है कि सामाजिक न्याय औरंगाबाद के पंचरूखिया, लंगुआही, गया के रजौल, फुलवरिया डैम के अंदर बसे दर्जनों गांव, इमामगंज, बांकेबाजार, मोहनपुर, नवादा ककोलत, कौआकोल समेत अन्य पहड़तली इलाके में रह रहे मुसहर, भोक्ता समेत अन्य दलितों, पिछड़े समुदायांे के लिये जुमला के सिवा कुछ नहीं है।</span></div>
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श्याम सुन्दरhttp://www.blogger.com/profile/16320869658773019790noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7195851944555982826.post-86242607527374829752009-07-23T23:40:00.000-07:002009-07-23T23:46:53.064-07:00"सुशासन' में कहां से "दु:शासन?'हिन्दुओं में यह कथा प्रचलित है कि अगर समाज में दु:शासन बनकर कोई द्रोपदी का चीरहरण करना चाहेगा तो कृष्ण बनकर कोई उसकी लाज भी बचाने अवश्य ही आयेगा, लेकिन यह क्या? बिहार में सुशासन की बात करने वाली नीतीश सरकार में ही राजधानी पटना में 23 जुलाई को एक लड़की का सरेआम चीरहरण होते रहा और कानून के रखवाले तमाशबीन बने सबकुछ देखते रहे। 25 वर्षीया वह लड़की राजधानी के व्यस्त इलाकों में से एक एक्जीविशन रोड में करीब एक घंटे तक चीखती रही, चिल्लाती रही, न्याय की भीख मांगती रही। आतताइयों से बचाने की गुहार लगाती रही। बावजूद इसके इंसानियत को तार-तार कर देने वाली इस घटना पर किसी की संवेदना नहीं जागी। आखिर जागती भी तो कैसे? लड़कियां या महिलाएं जो उपभोग की वस्तु समझी जाती हैं। सभ्य समाज, आधुनिकता और खुलेपन की वकालत करने वाले सैकड़ों लोग पूरी घटना के गवाह बने रहे। फिर भी मौन स्वीकारोक्ति। आखिर क्यों? क्या वे भूल गये कि झारखंड की यह इकलौती बेटी नहीं है जो अपने घर से अकेले ही रोजी-रोगजार की तलाश में निकली है? ग्लोबल दुनिया में लाखों लड़कियां प्रतिदिन रोजगार की तलाश में घरों से बाहर जा रही हैं। महानगरों में अकेली रह रही हैं। तो फिर इस लड़की का गुनाह क्या था? यही न कि उसने किसी पर विश्वास करके घर से अकेली ही बाहर निकली थी। क्या आज के समाज में किसी पर विश्वास करना गुनाह हो गया है? इन सारे प्रश्नों का जवाब सरकार के साथ ही सभ्य समाज के लोगों को देना होगा। वरना वह दिन दूर नहीं, जब मनचलों की हरकतों से देश और दुनिया की सारी गलियां, सड़कें और चौक-चौराहे तबाह हो जायेंगे।<br />और फिर कानून के रखवाले पुलिस...।<br />अपनी नाकामी को छुपाने के लिए एक से एक मनगढ़ंत कहानियां गढ़ने लगी। इलेक्ट्रानिक मीडिया के जरिये जब पूरा देख इस घटना का गवाह बना तो भी करीब दो घंटों बाद पुलिस की नींद खुली। उसमें भी ट्रैफिक पुलिस की। घंटों ड्यूटी से गायब रहे पेट्रोलिंग दारोगा शिवनाथ सिंह। मामले की गंभीरता को देखते हुए दारोगा को निलंबित कर दिया गया है। फिर भी इस घटना की जवाबदेही से नहीं बच सकती। आइपीएस अधिकारी एडीजी नीलमणि के बयान और भी चौकाने वाले हैं। उन्होंने कहा कि लड़की देह व्यापार के धंधे में लिप्त थी। क्या नीलमणि को किसी ने इस तरह के संवेदनहीन बयान देने के लिए बाध्य किया था? क्या सरकार की यह जिम्मेवारी नहीं बनती है कि राजधानी समेत अन्य जगहों पर चोरी छिपे चल रहे देह व्यापार के अड्डे को बंद कराया जाये? आखिर तबतक दूसरे की इज्जत से खिलवाड़ करती रहेगी बिहार पुलिस। क्या नीलमणि कभी बिहार पुलिस के गिरेबां में झांकने की कोशिश किये हैं। ठीक है थोड़े समय के लिए नीलमणि की बातों पर विश्वास भी कर लिया जाये तो भी क्या देह व्यापार करने वाली लड़कियों से पेश आने का यही तरीका है? पुलिस प्रवक्ता होने के नाते आखिर वे क्यों भूल जाते हैं कि सुशासन की सरकार के करीब चार वर्षों में ही सूबे में करीब तीन हजार महिलाओं के अस्मत के साथ खिलवाड़ किया है मनचलों ने। फिर वे किस कानून का हवाला देकर कहते हैं झारखंड की यह लड़की देह व्यापार करती थी। क्या सरकार के पास मजबूरीवश देह व्यापार करने वाली लड़कियों को इस दलदल से निकालने की कोई योजना है? अगर है तो फिर क्यों नहीं, वैसी लड़कियों को इस धंधे से मुक्त कराने के प्रयास किये जा रहे हैं। देर-सबेर इसका जवाब सरकार को देना ही पड़ेगा।श्याम सुन्दरhttp://www.blogger.com/profile/16320869658773019790noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-7195851944555982826.post-70804695930840548752009-07-15T05:15:00.000-07:002009-07-15T05:19:35.066-07:00भारतीय मीडिया का दोरंगा चरित्र क्यों?क्या हो गया है भारतीय मीडिया को? इंडिया और भारत के बीच बंटा हिन्दुस्तान आखिर तबतक इस विभाजन के कड़वाहट से रूबरू होता रहेगा? आखिर अपने-आप को चौथा स्तंभ कहलाने वाला मीडिया तब जागेगा? आखिर तब असली भारत की तस्वीर से देश और दुनिया को अवगत करायेगा? लाख टके का सवाल यह है कि नक्सली गूंज की धधक को शेयर मार्केट और संसद के गलियारे में गंभीरता से कब रखा जायेगा? आखिर क्यों नहीं मीडिया को 12 जुलाई को छत्तीसगढ के राजनांदगांव में नक्सलियों की घात में मारे गये पुलिस अधीक्षक विनोद कुमार चौबे समेत 39 सुरक्षा बलों की शहादत याद आयी? इसका जवाब न तो मीडिया घरानों के पास है और ही सियासतदानों की संजीदगी ऐसी घटनाओं पर होती है।<br />भारतीय मीडिया का चरित्र जानने के लिए सिर्फ चार उदाहरण ही काफी है। एक तो अभी की ताजातरीन छत्तीसगढ की घटना है, जिसमें एक आइपीएस अधिकारी समेत 39 पुलिस और अर्द्धसैनिक बलों के जवान मारे गये। दूसरी घटना है बरसात के पानी से मुंबई का डूबना। तीसरी घटना भी मुंबई की है, जहां बीते वर्ष आतंकवादियों ने ताज होटल में घुसकर कहर बरपाया था। और चौथी है दिल्ली उच्च न्यायालय का वह फैसला जिसमें समलैंगिक लोगों को कानूनी मान्यता की बात है। यह फैसला प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया में सप्ताह भर तक छाया रहा। देश में नई बहस शुरू हो गयी। हर साल की भांति इस साल भी मुंबई बरसात के पानी में डूबा। यह खबर भी कई दिनों तक सुर्खियों में बना रहा और दो आपराधिक घटनाएं...<br />चारों घटनाओं को भारतीय मीडिया ने अपने नजरिये से देखा। हमारी समझ में मीडिया के कुछ सामाजिक सरोकार भी हैं, लेकिन इन घटनाआंें में भारतीय मीडिया पूरी तरह से सामाजिक सरोकार को भूलकर अपने सरोकार से देश को देखा। जब मैं माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय से पत्रकारिता में स्नातकोत्तर कर रहा था तब पढाया गया था कि मीडिया सदा ही कमजोर पक्ष के साथ खड़ा रहा है लेकिन आज का भारतीय मीडिया...<br />छत्तीसगढ में अर्द्धसैनिक बलों के जवान नक्सलियों से लोहा ले रहे थे उस वक्त इलेक्ट्रानिक चैनल अपनी ही धून में खबरों को प्रसारित करने में मशगूल थे। शाम होते ही राष्ट्रीय चैनल "राखी का स्वयंवर' और सलमान खान का "दस का दम' दिखाने में व्यस्त दिखे। अबतक की देश की सबसे बड़ी नक्सली वारदात (नरसंहार) के बावजूद आखिर सीआरपीएफ के जवानों की शहादत को उस रूप में क्यों नहीं याद किया गया जिस रूप में ताज हमलों में शहीद हुए एटीएस प्रमुख करकरे, एनकाउंटर स्पेशलिस्ट विजय सालस्कर और एसीपी काम्टे को याद किया गया? आश्चर्य तो यह कि किसी भी फिल्मी हस्ती और खिलाड़ियों को विदेश में पुरस्कार जीतते ही बधाई पत्र जारी करने वाला राष्ट्रपति भवन भी लोकतंत्र की रक्षा के लिए शहीद हुए इन जवानों पर श्रद्धा के एक शब्द भी कहना मुनासिब नहीं समझा, आखिर क्यों? वह भी तब, जबकि नक्सली हमले में मारे गये एसपी विनोद कुमार चौबे को कभी यही राष्ट्रपति भवन बहादुरी का पुरस्कार दिया था।<br />कहा जा सकता है कि मुंबई महानगर है। देश की आर्थिक राजधानी है। यहां सैलानियों का जमावड़ा है और...<br />छत्तीसगढ...। यह ग्रामीण भारत है, जिसकी खुबसूरती कभी महात्मा गांधी देखा करते थे। आजादी के 60 वर्षों में गांवों की खुबसूरती को सियासतदानों ने पैरों तले रौंद दिया। शायद यही कारण है कि भारतीय मीडिया भी सियासतदानों की बहुरंगी चाल में फंसती चली जा रही है, जहां मुंबई और दिल्ली की चकाचौंध तो दिखाती देती है लेकिन गांवों की...<br />उन दिनों घटी देश की प्रमुख घटनाओं में से एक है दिल्ली में मेट्रो पुल गिरने से छह लोगों की मौत। लगातार दो दिनों तक यह खबर न्यूज चैनलों के टीवी स्क्रीन पर चलती रही। इसी दौरान इंग्लैंड और आस्ट्रेलिया के बीच एशेज का पहला टेस्ट ड्रॉ होने का विश्लेषण विशेषज्ञों द्वारा करवाया जा रहा है। "राखी का स्वयंवर' और सलमान खान के टीवी शो "कंगना रानौत की' उपस्थिति और हॉलीवुड में मल्लिका शेरावत की धूम और न जाने क्या-क्या..., उस वक्त टीवी चैनलों की सुर्खियां थे जबकि छत्तीसगढ में हुए बारूदी सुरंग विस्फोट में मारे गये सुरक्षाकर्मी सिर्फ और सिर्फ चलताउ खबर।<br />सबसे बड़ा आश्चर्य तो यह कि पूरे मामले पर देश का सियासतदान मौन है। इससे भी बड़ा आश्चर्य यह कि जिस दिन नक्सलियों की बंदूकें राजनांदगांव में गरज रही थी उसी दिन प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह जी-8 शिखर सम्मेलन में भाग लेने के लिए दिल्ली से उड़ान भर गये। फिर रक्षा मंत्री और गृह मंत्री भी मौन। सदा की तरह राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटील भी चुप रहना ही मुनासिब समझी। आखिर क्यों? इसलिये की नक्सली ग्रामीण भारत को लहुलूहान कर रहे थे?<br />60 साल के लोकतंत्र में क्या यह हास्यास्पद बात नहीं है कि मेनका गांधी का इकलौता वारिस वरूण गांधी हिन्दुत्ववादी राजनीति से प्रेरित होकर एक समुदाय विशेष (मुसलमान) के खिलाफ नफरत की आग उगलता है। उसके बाद मीडिया उसे हाथोंहाथ ले लेता है। जनता उसे लोकसभा सदस्य चुनती है और वह सांसद हो जाता है। तथाकथित सुरक्षा के मद्देनजर जेड श्रेणी सुरक्षा की मांग भी कर बैठता है। वहीं महाराष्ट्र का एक ऐसा भी नेता है जो भारतीय संप्रभुता पर चोट करते हुए दो प्रांतों के बीच नफरत फैलाकर राजनीति की दुकानदारी चलाना चाहता है। ये दोनों को मुंह खोलने भर की देरी है। इलेक्ट्रानिक चैनल इसे एक-एक क्षण का लाइव प्रसारण करने लगते हैं।<br />मुंबई घटना की लाइव रिपोर्टिंग करने का दु:साहस दिखलाने वाले किसी पत्रकार ने मदनवाडा और सीतापुर गांव में नक्सलियों से घिरे 200 जवानों और एसपी की बहादुरी और नक्सलियों के तेवर के दिखलाने का साहस आखिर किसी ने क्यों नहीं किया? खबर है कि नक्सलियों के चंगुल में फंस चुके जवान बराबर अपने मोबाइल और वॉकी टॉकी से अपने वरीय अधिकारियों के साथ ही मीडियाकर्मियों को पल-पल की सूचना दे रहे थे। एक बजे तक मोहला थाना प्रभारी विनोद धु्रव और एएसआइ कोमल साहू समेत करीब 21 जवान शहीद हो चुके थे। शाम होते-होते यह संख्या 30 तक हो गयी और देर शाम होते ही यह आंकड़ा 39 तक हो गयी।<br />प्रिंट मीडिया के पत्रकारों से मिली जानकारी के अनुसार, सुबह में ही खबर मिल गयी थी कि मानपुर इलाके के मदनवाड़ा, सीतापुर समेत पांच गांवों में नक्सलियों ने डेरा जमा लिया है। लेकिन न तो राज्य सरकार और न ही केंद्र सरकार ही इस संगीन और गंभीर मुद्दे पर अपनी सक्रियता दिखलायी। सरकार के साथ ही मीडिया के लिए भी शायद राष्ट्रपति पदक से सम्मानित एक आइपीएस अधिकारी और 39 जवानों की मौत देश को हिला देने वाली खबर नहीं है और न ही इस खबर पर विज्ञापन का कारोबार ही होने वाला है। बाजारवाद के आगे सबकुछ दाव पर लगा देने वाला मीडिया आखिर चिख-चिल्लाकर कुछ बोलता भी तो क्यों? इसका जवाब कौन देगा? लहुलूहान हो रहे रहे लोकतंत्र को बचाने की जिम्मेवारी सरकार के साथ ही मीडिया को भी है, आखिर कब जागेगा भारतीय मीडिया।<br /> <br /> श्याम सुन्दरhttp://www.blogger.com/profile/16320869658773019790noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-7195851944555982826.post-57271990611258401602009-07-09T03:18:00.000-07:002009-07-09T03:47:32.897-07:00पर्दे के पीछे सियासी खेल<strong>झारखंड में दाग़ी पूर्व मंत्रिओं की गिरफ्तारी के मुद्दे पर चूहे-बिल्ली का खेल चल रहा है। कांग्रेस की कुचालों से यूपीए में ऊहापोह की िस्थति उत्पन्न हो गयी है।</strong><br />झारखंड के दो पूर्व मंत्रिओं एनोस एक्का और हरिनारायण राय के खिलाफ निगरानी अदालत द्वारा जारी वारंट की तामील को लेकर इन दिनों खूब राजनीतिक जोर-आजमाइश चल रही है। सुरक्षा में लगी पुलिस भी इन दोनों के साथ कहां गायब है, इसका पता सरकार नहीं कर सकी है। इस खेल का सबसे दिलचस्प पहलू यह है कि कांग्रेस की खुटचाल ने राज्य में न केवल राजनीतिक अनिश्चिन्तता की िस्थति उत्पन्न कर दी है, बिल्क एक साथ यूपीए के पूरे कुनबे को चकरा कर रख दिया है।<br />यूपीए में शामिल अन्य दलों और विधायकों को तो उसी समय ऐसी चाल का आभास हो जाना चाहिए था जब कांग्रेस ने राज्यसभा चुनाव के समय अपनी शर्तें रखी थीं। चुनाव में कांग्रेस प्रत्याशी धीरज साहू की जीत पक्की करके पर्दे के पीछे से ही सही, कांग्रेस अगले विधानसभा चुनाव की तैयारी में जुट गयी है। महीनों से चल रहे सियासी उथल-पुथल के बीच पहले तो कांग्रेस ने दो जुलाई को राष्ट्रपति शासन की अवधि बढ़ा दी और फिर चुप्पी साध ली। राजधानी रांची में राजनीतिक हलचल तब तेज हो गयी, जब उसी दिन पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा समेत तीन निर्दलीय विधायकों कमलेश सिंह, भानुप्रपात शाही और बंधु तिर्की पर निगरानी विभाग में एक मुकदमा दर्ज हुआ। इन विधायकों पर आय से अधिक सम्पत्ति रखने, पद के दुरुपयोग और अवैध तरीके से विदेश यात्रा करने समेत कई आरोप हैं। पूरे मामले का दिलचस्प पहलू यह है कि उन्हीं विधायकों पर निगरानी का शिकंजा कसा है, जिन्होंने पर्दे के पीछे से राष्ट्रपति शासन का विरोध किया था या जो यूपीए के बैनर तले सरकार बनाने के लिए अधिक सक्रिय दिखे थे।<br />पूर्व विधानसभा अध्यक्ष और निर्दलीय सांसद इंदरसिंह नामधारी "द पब्लिक एजेंडा' से कहा, "यह कैसी विडंबना है कि राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री समेत छह मंत्रिओं पर निगरानी का मुकदमा दर्ज है। इनमें से दो पहले से ही फरार चल रहे हैं। आठ विधानसभा सीटें खाली हैं। सदन की बैठक को हुए छह महीने से अधिक समय हो गये है। ऐसी िस्थति में राष्ट्रपति शासन की अवधि बढ़ाना यह संकेत देना है कि कांग्रेस ने अब भी सरकार बनाने का लालच नहीं छोड़ा है।'<br />राजनीतिक विश्र्लेषकों का मानना है कि राजनीतिक दांव-पेंच में कांग्रेस माहिर रही है। पार्टी वर्षों तक कुछ इसी तरह की राजनीतिक चाल बिहार और उत्तर प्रदेश में चलती रही, जिसका खामियाजा उन राज्यों में अभी तक उसे भुगतना पड़ रहा है। लेकिन कांग्रेस नेता मनोज यादव कहते हैं, "पार्टी कोई चाल नहीं चल रही है, बिल्क सही तरीके से हालात का जायजा ले रही है।'<br />प्रदेश में लूट की संस्कृति बिहार से होते हुए यहां आयी है। शायद देश का यह इकलौता प्रदेश है, जहां बात-बात पर सौदेबाजी होती है। वैसे राजनीतिक गलियारे में इस बात पर भी बहस छिड़ी है कि कांग्रेस राज्यसभा चुनाव के समय हुई सौदेबाजी का एक-एक कर सारे विधायकों से बदला लेना चाहती है। यही कारण है कि पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा समेत अन्य मंत्रियों पर निगरानी का कसता शिकंजा राजनीति षड्यंत्र मानी जा रही है। पूर्व स्वास्थ्य मंत्री भानुप्रताप शाही का कहना है, "निर्दलीय विधायक राजनीतिक षड्यंत्र के शिकार हो रहे हैं। अगर हम पर लगे आरोप सही हैं तो फिर सरकार क्यों नहीं स्वास्थ्य विभाग में हुई बहालियों की जांच करवा ले रही है।' वहीं मानव संसाधन मंत्री बंधु तिर्की ने कहा, "निर्दलीय के साथ-साथ आदिवासी होना भी इस राज्य में गुनाह हो गया है। गांवों में पुलिस आदिवासियों को नक्सली बताकर गिरफ्तार करती है तो राजनीति में सक्रिय आदिवासियों को अनर्गल आरोपों में फंसाया जा रहा है।' सच्चाई चाहे जो भी हो, लेकिन इस बात बहस तेज हो गयी है कि अधिकारी राजनीतिक आकाओं के इशारे पर कार्रवाई कर रहे हैं। यही कारण है कि कई दिनों से फरार चल रहे दोनों मंत्रियों एनोस एक्का और हरि नारायण राय के संदिग्ध ठिकानों पर ताबड़तोड़ छापेमारी की गयी। फिर भी ये दोनों पुलिस की पहुंच से अभी तक दूर हैं।<br />राजनीतिक प्रयोगशाला बन चुके झारखंड में सब कुछ नया होता है, सो इन दोनों की फरारी भी नये तरीके से हुई है। दोनों अपने सरकारी बॉडीगार्ड के साथ फरार हैं। इन दोनों विधायकों पर इसी वर्ष जनवरी में मुकदमा दर्ज हुआ था। उस समय से निगरानी सुस्त रही। फिर आखिर ऐसा क्या हो गया, जिसकी वजह से सक्रियता बढ़ गयी। निगरानी विभाग के डीजी नेयाज अहमद का कहना है, "पुलिस किसी के दबाव में काम नहीं कर रही है। अधिकारी इन दोनों पर लगे आरोपों के साक्ष्य जुटाने में लगे हुए थे।'<br />झारखंड की 82 सदस्यीय विधानसभा में राजनीतिक जोड़तोड़ शुरू से ही होता रहा है। आंकड़ों के खेल में आदिवासी अस्मिता तार-तार होती रही। पहली विधानसभा ने तो किसी तरह अपना कार्यकाल पूरा कर लिया, लेकिन दूसरी विधानसभा में खूब अटकलें लगीं। चौदहवी लोकसभा में परमाणु करार पर केंद्र सरकार को समर्थन देने का तत्काल फायदा दिशोम गुरु शिबू सोरेन को मिला। वे कांग्रेस के सहयोग से दूसरी बार सत्तासीन हुए। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि इस सौदेबाजी का बदला कांग्रेस लेने ही वाली थी कि तमाड़ विधानसभा उपचुनाव में शिबू सोरेन की हार हो गयी। फिर क्या था, झामुमो की मजबूरी समझ कर कांग्रेस ने पलटा मारा। अब पर्दे के पीछे से कांग्रेस आगामी विधानसभा चुनाव की व्यूह रचना कर रही है।श्याम सुन्दरhttp://www.blogger.com/profile/16320869658773019790noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7195851944555982826.post-6252378640089506052009-07-09T03:06:00.000-07:002009-07-09T03:17:00.377-07:00दागदार हुआ सुशासन<p align="center"><strong>पिछले एक महीने में ही दो इंजीनियर, 16 व्यवसायी समेत 125 लोग मारे गये हैं, जो सुशासन के दावों की पोल खोल रही है।</strong> </p><p>लोकसभा चुनाव खत्म होते ही बिहार में माफिया राज की वापसी के संकेत मिलने शुरू हो गये हैं। प्रदेश अभियंता संघ नवादा में पदस्थापित कन्नीय अभियंता अरुण कुमार की हत्या को भूला भी नहीं था कि 18 जून को सीतामढ़ी में पदस्थापित कार्यपालक अभियंता योगेंद्र पांडेय की रहस्यमयी परिस्थिति में जिला समाहरणालय परिसर में लाश मिलने से सनसनी फैल गयी। इसके कुछ दिन पहले बिल्डर सत्येंद्र सिंह सत्ता संरक्षित अपराधियों के शिकार हुए। स्पीडी ट्रायल चलाकर अपराधियों को फटाफट सजा दिलवाने का दावा करने वाली नीतीश कुमार की सरकार में सत्येंद्र सिंह हत्याकांड के आरोपी पूर्व सांसद और जदयू नेता विजय कृष्ण अपने बेटे चाणक्य संग फरार चल रहे हैं। इस बाबत पूछते ही डीजीपी डीएन गौतम भड़क गये और उन्होंने कहा, "पुलिस कोई ठेकेदार नहीं, जो तुरंत अपराध नियंत्रण करने का ठेका ले ले। विजय कृष्ण किसी के पॉकेट में नहीं हैं जिन्हें वहां से निकालकर सबके सामने ला दिया जाये।'<br />एक महीने में ही यह चर्चित हत्याओं का तीसरा मामला है, तो क्या इसे शुरुआत मान लिया जाये? संकेत तो कुछ इसी तरह के मिल रहे हैं। बीते महीने मारे गये ट्रांसपोर्टर संतोष टेकरीवाल के हत्यारों तक पुलिस पहुंच भी नहीं पायी थी कि अपराधियों ने अररिया के लोक अभियोजक देवनारायण मिश्र को गोली मार दी। जबकि स्व.मिश्र कई दफा सुरक्षा की गुहार लगा चुके थे। लोकसभा चुनाव में मिले अपार जनसमर्थन से फूले नहीं समा रही नीतीश कुमार के राज में पिछले एक महीने में ही 16 व्यवसायियों समेत 125 लोग मारे गये हैं।<br />ये कुछ घटनायें बताती हैं कि प्रदेश में शासन चाहे जिस किसी भी पार्टी की क्यों न हो, ईमानदारी और कतर्व्यनिष्टा से काम करने का खामियाजा अधिकारियों समेत आमलोगों को भुगतना ही पड़ेगा। रंगदारों की दबंगई और ठेका माफियाओं का रुतबा नीतीश राज में भी कायम है। उनकी दबंगई का आलम यह है कि बाढ़ स्थित नेशनल थर्मल पावर कॉरपोरेशन लिमिटेड (एनटीपीसी), जहां प्रतिवर्ष करोड़ों रुपये का निविदाएं निकलती हैं, में सत्ताधारी दल के एक स्थानीय विधायक की इजाजत के बिना पत्ता तक नहीं खड़कता। जेल से फरार चल रहे कई संगीन आरोपों के अभियुक्त विवेका पहलवान अपने गुप्त ठिकाने से माफिया राज चला रहा है तो बेउर जेल में बंद कुख्यात अपराधी बिंदू सिंह का दहशत झारखंड तक बरकरार है। हाल ही में झारखंड पुलिस ने बिंदू सिंह को रिमांड लेकर कड़ी पूछताछ की तो कई संगीन मामलों का खुलासा हुआ। लोकसभा चुनाव में हार के बाद से अधिकतर बाहुबली पर्दे के पीछे से ठेका राज चला रहे हैं। खबर तो यह भी है राजद शासनकाल में दर्जनों हत्या, लूट और अपहरणकांडों के अभियुक्त रीतलाल यादव ने भी पर्दे के पीछे से सत्ताधारी दल के एक विधायक के शह पर दानापुर स्थित डीआरएम कार्यालय में अपना सिक्का जमा लिया है। पूर्व सांसद सूरजभान, प्रभुनाथ सिंह और जदयू विधायक अनंत सिंह समेत ऐसे कई बाहुबली हैं जो गाहे-बगाहे ठेकेदारी के पेशे में अपना दबदबा जमाये हुए हैं और मनमानी वसूली के धंधे में लिप्त हैं। आश्चर्य तो यह कि निविदा कानून का उल्लंघन करने वाले इन बाहुबलियों के कारनामों से सियासी गलियारा अंजान नहीं है। सत्ता संरक्षित अपराध का ऐसा गठजोड़ बिहार और उत्तर प्रदेश के अलावा दूसरे अन्य प्रदेशों में शायद ही देखने को मिलता है। <br />बिहार में ठेकेदारी को लेकर हिंसा कोई नयी बात नहीं है। पटना के पुनाईचक स्थित सीपीडब्ल्यूडी कार्यालय के बाहर लालू-राबड़ी शासनकाल में बंदूकें गरजा करती थीं। अनिसाबाद स्थित सिंचाई भवन परिसर भी कई दफा बमों के धमाके और गोलियों की तड़तड़ाहट से गूंजा था। उस दौरान 60 इंजीनियरों की हत्याएं सत्ता संरक्षित अपराधियों ने कर दी थी। नीतीश कुमार के शुरुआती शासनकाल में इसपर लगाम लगा था लेकिन लोकसभा चुनाव के बाद जिस तरीके से अपराधियों और असामाजिक तत्वों का ग्राफ बढ़ना शुरू हुआ है उससे सुशासन का दावा सवालों के घेरे में आ गया है।<br />बीते साल औरंगाबाद के कार्यपालक अभियंता अमावस्या राम की मौत हृदयाघात से हो गयी। इस पर भी बवाल मचा। महीनों तक चर्चा का बाजार गर्म रहा कि एक दबंग ठेकेदार के दबाव में आकर विभागीय सचिव ने इंजीनियर को ऐसी डांट पिलाई की उनकी मौत हो गयी। लालू-राबड़ी शासन काल में आइआइटी इंजीनियर सत्येंद्र दुबे की हत्या का मामला आज भी प्रदेश के लोगों के दिलो-दिमाग में है। हालांकि जांच रिपोर्ट में उनकी हत्या लूट-पाट के उद्देश्य की गयी बताया गया है।<br />इंजीनियर योगेंद्र पांडेय की मौत, एक ही साथ कई सवाल छोड़ गया है। जिला प्रशासन के पास इस बात का जवाब नहीं है कि दो महीने में ही पांच बार लिखित रूप से सुरक्षा की गुहार लगाने के बावजूद कार्यपालक अभियंता की जान-माल की हिफाजत क्यों नहीं की जा सकी? लगातार मिल रही धमकियों की लिखित रूप से शिकायत करने के बावजूद विभागीय अधिकारी (सचिव) आरके सिंह क्यों मौन रहे? जातीय राजनीति का अखाड़ा रहा बिहार इस मामले को भी जातीय चश्मे से देख रहा है। नाम नहीं छापने की शर्त पर एक अभियंता ने कहा, "विभागीय सचिव, एसपी और ठेकेदार (जिससे विवाद चल रहा था) सभी एक जाति विशेष से आते हैं। इसलिये मामले को रफा-दफा करने की पूरी तैयारी चल रही है।' बिहार अभियंत्रण सेवा संघ के महासचिव राजेश्वर मिश्र ने "द पब्लिक एजेंडा' को बताया, "स्व. पांडेय अगर 2 जून को सड़क निर्माण में घटिया सामग्री (मेटल) लगाने वाली वत्स कंस्ट्रक्शन कंपनी को काली सूची में नहीं डालते तो संभव था कि 6 जून को पुलिस अधीक्षक क्षत्रनील सिंह की मौजूदगी में उनके आवासीय कार्यालय पर हमला नहीं हुआ होता और न ही 18 जून को जिला परिसर में उनकी लाश मिलती।' काली सूची में डाली गयी वत्स कंस्ट्रक्शन कंपनी के निदेशक किशोर सिंह हैं जो पूर्व सांसद धनराज सिंह के दामाद बताये जाते हैं। उनके करीबी दोस्त विवेक सिंह और राजीव सिंह हैं। सीबीआइ इन तीनों को संदिग्ध मान रही है। 15 सदस्यीय जांच टीम का नेतृत्व कर रहे सीबीआइ के संयुक्त निदेशक एसपी सिंह से पूछने पर सिर्फ इतना ही कहा, "प्लीज, इस संबंध में कुछ मत पूछिये। काम करने दीजिये। जल्द ही सबकुछ सामने आ जायेगा।'<br />इस मामले में एक ही साथ शक की सूई कई ओर घुमती है। सवाल है कि परसौनी के बीडीओ की गाड़ी से उनका शव अस्पताल पहुंचाया गया, तो फिर लावारिस स्थिति में लाश को छोड़कर विभागीय चालक फरार क्यों हो गया? उस समय स्वयं बीडीओ कहां थे? आखिर क्यों लाश को पहले देखने वाले अपर समाहर्त्ता (एडीएम) शैलेन्द्रनाथ चौधरी, उनका चालक विश्वनाथ कापर और सरकारी सुरक्षा गार्ड एक ही साथ संवेदनहीन हो गये? एक जिम्मेवार अधिकारी होने के बावजूद श्री चौधरी ने अपना मुंह बंद रखना क्यों मुनासिब समझा? ये कुछ सवाल हैं जिसका हल ढूंढ़े बिना सही नतीजे पर नहीं पहुंचा जा सकता। इस बाबत पथ निर्माण मंत्री डॉ प्रेम कुमार ने "द पब्लिक एजेंडा' को गोलमटोल जवाब दिया, "विभाग में किसी की मनमानी नहीं चलने दी जायेगी। दोषियों को सजा होगी। डा। योगेंद्र पांडेय की कुर्बानी ठेकेदारी के पेशे में फैले भ्रष्टाचार को खत्म करने में सहायक सिद्ध होगा।' वहीं विपक्ष इस तर्क को सिरे से खारिज कर रहा है। लोजपा सुप्रीमो रामविलास पासवान के अनुसार, "योगेंद्र पांडेय ठेकेदारी के पेशे में फैले भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गये।' प्रदेश की लगातार गिरती जा रही कानून-व्यवस्था सुशासन को दागदार कर रही है। <br /> </p>श्याम सुन्दरhttp://www.blogger.com/profile/16320869658773019790noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7195851944555982826.post-32573785431714384522009-06-30T03:30:00.000-07:002009-06-30T03:43:54.961-07:00भ्रांति में फंसी क्रांति<p>माओवादियों के तेवर और क्रांति के वाम भटकाव के कारण हिंसक संघर्ष की घटनाओं ने सामाजिक-राजनीतिक तनाव को चरम पर ला दिया है।<br />"लालकिले की धरती को लाल बनाके छोड़ेंगे, पूरे हिंदुस्तान को नक्सलाइट बनाके छोड़ेंगे।' </p><p>लालकिले के सामने 15 अगस्त 2001 को जब प्रधानमंत्री देश को संबोधित करने वाले थे, उसके कुछ ही मिनट पहले ही इस नारे की गूंज सुनी गयी थी। नारा लगाने वाले अति वामपंथी छात्र संगठन डेमोक्रेटिक स्टूडेंट यूनियन (डीएसयू) के सदस्य थे। इन छात्रों में से 15 को दिल्ली पुलिस ने गिरफ्तार कर तिहाड़ जेल भेज दिया था। उस समय इस नारे के निहितार्थ को समझना आम लोगों के लिए थोड़ा कठिन था, लेकिन आज जब पश्चिम बंगाल का लालगढ़ इलाका माओवादियों की गर्जना से दहल रहा है, अब इस नारे की हकीकत समझ में आ रही है। हालांकि माओवादियों के लिए लालगढ़ पड़ाव है, ठहराव नहीं। ठहराव की खोज में माओवादी देश के 45 फीसदी भू-भाग पर पहुंच चुके हैं। 30 फीसदी जमीन माओवादियों के कब्जे में बतायी जाती है, जहां उनकी अपनी हुकूमत चलती है। नक्सलबाड़ी विद्रोह के समय से ही चीनी कम्युनिस्ट नेता माओत्से तुंग को अपना आदर्श मानने वाले नक्सलियों की भाषा ही बंदूक मानी जाती है। लेकिन अचानक माओवादियों की जमात 15वीं लोकसभा चुनाव अभियान के समय से कुछ ज्यादा ही हिंसक हो गयी है। दरअसल बिहार के मैदानी इलाके आंध्र प्रदेश में नक्सलियों के रॉबिनहुड स्टाइल का जनता ने विरोध किया है। माओवादियों को करारा झटका तब लगा जब पांच लाख के इनामी जोनल कमांडर कामेश्र्वर बैठा और दिनकर यादव ने संसदीय रास्ता अख्तियार कर लिया। दूसरी ओर, आंध्र प्रदेश के राज्य सचिव ने इसी वर्ष मार्च में पुलिस के सामने आत्मसमर्पण कर दिया।<br />सरकार को नक्सलियों के नये हिंसक तेवर का आभास तो 14 अप्रैल को ही हो जाना चाहिए था, जब माओवादियों ने बिहार के कैमूर पहाड़ी पर बीएसएफ के एक अस्थायी कैंप पर रॉकेट लांचर हमला किया था। दिल्ली में बैठी सरकार तब से लेकर अब तक रणनीति बनाने में जुटी हुई है तो दूसरी ओर देश के विभिन्न हिस्से नक्सलियों के हिंसक तेवर से थर्रा रहे हैं। 10 जून को संसद में गृहमंत्री पी चिदंबरम नक्सलियों से निबटने के लिए विशेष योजना बनाने की घोषणा कर रहे थे, तो बिहार-झारखंड-उत्तरी ओड़िशा स्पेशल एरिया कमेटी की गुरिल्ला आर्मी झारखंड के पश्र्चिमी सिंहभूम स्थित सारूगढ़ा घाटी (सारंडा के जंगल) में बारूदी सुरंग विस्फोट कर एक इंस्पेक्टर समेत 11 जवानों को मौत की नींद सुला रही थी। सरकार कुछ समझ पाती, इसके पहले ही 12 जून को माओवादियों ने बोकारो के पास नवाडीह में अर्द्धसैनिक बलों पर हमला बोल दिया, जिसमें 11 जवान मारे गये। 18 जून को जब पुलिस के आला अधिकारी लालगढ़ को माओवादियों के कब्जे से मुक्त कराने के लिए अभियान छेड़ने की योजना बना रहे थे, माओवादी ओड़िशा के कोरापुट जिले के पालुर गांव के पास बारूदी सुरंग विस्फोट में सीआरपीएफ के नौ जवानों को उड़ा रहे थे। यह सिर्फ बानगी है। सच्चाई इससे भी भयावह है। खुद सरकार का मानना है कि 28 में से कम से कम 16 राज्यों के 210 जिले नक्सल प्रभावित हैं। सामाजिक कार्यकर्ता भी माओवादियों के इस तेवर से सकते में हैं। वहीं माओवादी पत्रिका "जन ज्वार के' संपादक त्रिवेणी सिंह ने "द पब्लिक एजेंडा' को बताया, "सामंतवाद से बड़ा दुश्मन बुर्जुवा पूंजीपति है, जिसकी रक्षा के लिए पुलिस और फौज है। माओवादियों को लग रहा है कि वर्तमान शोषण आधारित व्यवस्था को टिकाये रखने के लिए ही फौज और पुलिस है, इसलिए अर्द्धसैनिक बलों पर हमले तेज हो गये हैं।'<br />देश के ज्यादातर हिस्सों में किसी न किसी रूप में माओवादियों की मौजूदगी देखी जा सकती है। रेड कोरिडोर की पुरानी पड़ चुकी माओवादियों की योजना पर भाकपा (माओवादी) की नौवीं कांग्रेस में ही यह तय हो चुका था कि मुक्त क्षेत्र (लिबरेटेड जोन) बनाकर सरकार को चुनौती नहीं दी जा सकती। इसके बाद नक्सली गुरिल्ला आधार पर क्षेत्र विस्तार में जुट गये। कभी ओड़िशा में सीआरपीएफ के जवान शहीद हो रहे हैं तो कभी महाराष्ट्र, कर्नाटक आदि राज्यों में माओवादी वारदातें हो रही हैं। फिलहाल सरकार नक्सलवादियों की आग को बुझाने के लिए बंदूक सहारा बना रही है। लेकिन सरकार को अपने पुराने अनुभवों से सीखने की जरूरत है। बंदूक का जवाब बंदूक से देने का ही नतीजा है कि दोनों (अर्द्धसैनिक बल और नक्सली) ओर से आक्रामकता और शत्रुता बढ़ती चली गयी।<br />भाकपा (माओवादी) के प्रवक्ता आजाद की मानें तो, "संसदीय रास्ते से समाज के गरीब तबके का विकास अगर संभव होता तो 60 साल के लोकतांत्रिक इतिहास में विकास की रोशनी से सुदूर ग्रामीण इलाका जगमगा उठता, लेकिन ऐसा नहीं हो सका।' ग्रामीण विकास की योजनाएं सरकारी फाइलों की शोभा बढ़ रही हैं। चाहे शिक्षित और संपन्न राज्य महाराष्ट्र, कर्नाटक और तमिलनाडु हो या फिर बीमारू राज्यों में शुमार बिहार, झारखंड, ओड़िशा, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश समेत अन्य राज्य, जमीनी स्तर के विकास का हाल हर जगह यही है। खुफिया सूत्रों की मानें तो हाल के दिनों में माओवादियों का फैलाव हिमाचल प्रदेश, पंजाब, हरियाणा और उत्तराखंड में भी हुआ है। लंबे समय से वाम सोच द्वारा शासित, पश्चिम बंगाल में भी आदिवासियों समेत अन्य पिछड़ी जमातों की समस्या दिनोंदिन विकराल होती जा रही है। परिणामत: रॉबिनहुड स्टाइल होने के बावजूद माओवादियों का समर्थन दिनोंदिन बढ़ता चला जा रहा है।<br />सन् 1967 में पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी और फांसी देवा में बंदूक उठाने वाले लोग चाहते थे कि जमींदारों और बड़े किसानों की सरप्लस (सीलिंग) भूमि गरीबों के बीच बांट दी जाये। पश्चिम बंगाल और केरल में इस दिशा में कुछ काम भी हुआ। लेकिन अन्य राज्यों में सरकारें नीतियां ही बनाती रह गयीं। लोग भुखमरी के शिकार होते रहे। उपेक्षा और विक्षोभ से उपजा आक्रोश अब इस कदर उद्वेलित हो गया है कि चाकू से गोदकर और पत्थरों से कूच-कूच कर पुलिस के जवानों की हत्याएं की जा रही हैं। पिछले महीने बिहार, झारखंड और महाराष्ट्र में ऐसी घटनाएं घट चुकी हैं। इस बाबत नक्सलियों के जो भी तर्क हों, लेकिन इस कार्रवाई को कहीं से भी जायज नहीं ठहराया जा सकता।<br />समय के साथ नक्सलबाड़ी से उठा तूफान पूरे देश की राजनीति को प्रभावित किया, लेकिन आज उसी के नाम पर राजनीति करने वालों की एक धारा जनसंघर्षों के माध्यम से संसदीय रास्ते पर चल रही है, तो दूसरी धारा, जिसका बड़ा हिस्सा (भाकपा (माओवादी) का शिकार है,) क्रांति के वैचारिक भटकाव के रास्ते पर आगे बढ़ रही है। इतिहास गवाह है कि राजनीति को प्रभावित किये बिना कोई भी आंदोलन ज्यादा दिन तक नहीं टिक सका है। नेपाल इसका ताजा उदाहरण है। हालांकि इसके पहले ही मिजो और नगा विद्रोहियों ने इसे समझा और बंदूक की राजनीति छोड़ दी। समाजवादी देश रूस और माओवादी चीन ने भी समय की गति के साथ अपने आपको बदला है। ऐसी स्थिति में क्या भारत की माओवादी ताकतें दुनिया के अन्य देशों से सबक लेंगी या यों ही क्रांति के वाम भटकाव में जान लेने और देने का क्रूर खेल चलता रहेगा।<br /><strong>हाल में घटी नक्सली घटनाएं</strong><br /><strong></strong></p><ul><li><strong>19 जून, 2009</strong> --उड़ीसा के कोरापुट जिले के पालुर गांव के समीप हुए बारूदी सुरंग में सीआरपीएफ के नौ जवान मारे गये।</li><li><strong>10 जून, २००९--</strong> झारखंड के पश्चिमी सिंहभूम से गोइलकेरा थानाक्षेत्र के सारूगढ़ा घाटी (सारंडा के जंगल) में माओवादियों ने बारूदी सुरंग विस्फोट किया, जिसमें थानाप्रभारी, सीआरपीएफ के इंस्पेक्टर समेत 11 जवान शहीद हो गये। दूसरी ओर, छत्तीसगढ के बीजापुर स्थित गंगालूर इलाके के कोरचूली इलाके में हुए बारूदी सुरंग विस्फोट में सीआरपीएफ का असिस्टेंड कमांडेंट रामपाल सिंह मारे गये जबकि 5 जवान शहीद हो गये। इसके एक दिन बाद यानी 11 जून को माओवादियों ने इसी प्रदेश के दूसरे हिस्से में विस्फोट करके 11 जवानों को मौत की नींद सुला दिया।</li><li><strong>25 मई, 2009----</strong>महाराष्ट्र के गढ़चिरौली इलाके में भाकपा (माओवादी) ने एक बारूदी सुरंग में 15 से अधिक अधिकारियों और पुलिसकर्मियों को मौत की नींद सुला दिया।</li><li><strong>11 मई, २००९---</strong> छत्तीसगढ़ के धमतरी जिले में घात लगाये नक्सलियों ने पुलिस बल के 15 जवान को गोलियों से भून दिया।</li><li><strong>12 अप्रैल, 2009</strong> को ओड़िशा के कोटापुर जिले के नाल्को बॉक्साइड कंपनी पर हमला कर 7 सीआइएसएफ के जवानों को मौत की नींद सुला दी। </li><li> 11 अप्रैल, 2009 को खूंटी जिले के अड़की थाना क्षेत्र के जरको गांव में सुबह पांच बजे से दोपहर के एक बजे मुठभेड़ में 5 जवान मारे गये। </li><li> 27 मार्च, 2009 को चतरा में नामांकन करने जा रहे निर्दलीय प्रत्याशी इंदरसिंह नामधारी और कांग्रेस प्रत्याशी के समर्थकों को नक्सलियोंं जमकर धुनाई की और चुनाव बहिष्कार की धमकी दी।<br /><em>15वीं लोकसभा चुनाव के दौरान पूरा देश नक्सली हिंसा से त्रस्त रहा। लोकतांत्रिक प्रक्रिया में अबतक सबसे अधिक हिंसा इसी चुनाव में हुई, जहां नक्सलियों ने 49 अर्द्धसैनिक बल के जवानों को गोलियों से भून दिया।<br /></em> </li></ul>श्याम सुन्दरhttp://www.blogger.com/profile/16320869658773019790noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7195851944555982826.post-42479742128039942052009-06-24T00:13:00.000-07:002009-07-10T03:45:51.411-07:00ब़ढती ताकत, घटती विचारधारा<div align="left"><strong>पिछले कुछ वर्षों में झारखंड में नक्सलियों की ताकत और खौफ तो खूब ब़ढे हैं लेकिन उनकी वैचारिक प्रतिबधता लगभग खत्म हो चली है।</strong><br />मलवे में तब्दील हो चुका लातेहार जिले के चियाकी रेलवे स्टेशन पर विरानगी छायी हुई है। यहां बुकिंग कलर्क के अलावा रेलवे के किन्ही अन्य कर्मचारियों का कोई अता-पता नहीं जबकि नक्सली घटना के तीन महीने से अधिक होने को है। भाकपा (माओवादी) से जु़डे नक्सिलयों ने 22 मार्च को इसलिए स्टेशन को डायनामाइट लगाकर उ़डा दिया था कि उनके दो दिवसीय बंदी के फरमान के बावजूद इस स्टेशन से होकर ट्रेनों की आवाजाही बंद नहीं हुई थी। ऐसी बात नहीं है कि माओवादियों का फरमान सिर्फ़ चियाकी रेलवे स्टेशन पर ही दिखा, बल्कि कुछ दिनों के बाद नक्सलियो ने हेहग़डा स्टेशन के समीप रांची-मुगलसराय पैसेंजर ट्रेन को छह घंटों तक बंधक बनाये रखा। घटना दिन में हुई, इसके बावजूद रेलवे के आला अधिकारी और सरकारी मशीनरी मूकदर्शक बनी रही और वे टेलीविजन व अखबारों से ही सूचना हासिल करते रहे। कमोबेश ऐसे ही हालात प्रदेश के अधिकांश इलाकों में है, जहां नक्सलियों की इजाजत के बिना पत्ता भी नहीं डोलता। एक सूचना के मुताबिक, माओवादियों ने 22 और 23 जून को एक बार फिर दो दिनों की बंदी का ऐलान किया है।<br />बात चाहे पश्चिम बंगाल और ओरिशा से सटे जमशेदपुर इलाके की करें या फिर छत्तीसगढ़ से लगे गुमला और ग़ढवा जिलो की, हर जगह स्थिति कमोबेश एक जैसी ही है। राज्य के पश्चिम इलाके यानि पलामू प्रमंडल की स्थिति तो और भी गंभीर है। पलामू प्रमंडल में ग़ढवा, लातेहार, पलामू और चतरा जिलो आते हैं। यहां तो एक तरह से नक्सलियों का ही "राज' कायम हो गया है। माओवादियो के भय से शाम होते ही कुडू होते हुए मेदिनीपुर (डालटेनगंज) जाने वाली स़डक बंद हो जाती है। चंदवा से चतरा जाने में तो आम लोगों के अलावा पुलिस अधिकारियों के भी पांव फूलने लगते हैं। शाम के बाद बरही से चौपारण और हजारीबाग से इटखोरी होते हुए चतरा जाने का तो सवाल ही नहीं उठता। पारसनाथ से गिरीडीह जाने वाले रास्ते में भी माओवादियों का वर्चस्व है। डुमरी की भी यही कहानी है। चाइबासा भी कोई अलग नहीं है। अगर कहें की पलामू प्रमंडल देश का दूसरा बस्तर बनते जा रहा है, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। जंगलों और पहा़डों से घिरे इस इलाके के अधिकांश भू-भाग नक्सलियों के कब्जे में चला गया है। जिला मुख्यालय में तो पुलिस अधिकारी दिख भी जाते हैं, लेकिन अधिकतर सुदूर इलाकों और प्रखंड मुख्यालयों में नक्सलियों का ही हुकुमत चलता है। नक्सलियों ने जिस तरीके से इस इलाके को अपनी गिरफ्त में लिया है, उससे आशंका व्यक्त की जाने लगी है कि कहीं यह इलाका दूसरा नक्सलबा़डी न बन जाये। जमीनी हालात तो यही बता रहे हैं कि भारी संख्या में अर्द्धसैनिक बलों की मौजूदगी के बिना पुलिस अधिकारी गांवों में घुसने से भी डरते हैं। नक्सलियों के फैलाव पर मानवाधिकार संगठन पीयूसीएल के प्रदेश सचिव शशिभूषण कहते हैं, "सामाजिक व्यवस्था शोषण पर आधारित है। फिर पलामू और चतरा के सामंती किस्से देश भर में चर्चित रहे हैं। इसकी रोकथाम के लिए सरकार ने कोई सामाजिक प्रयास नहीं किया। जिसकी वजह से भोले-भाले ग्रामीणों का विश्वास जीतने में माओवादी आगे निकल गये।'<br />उधर नक्सलबा़डी की परंपरा को आत्मसात करने वाली माओवादियों की जमात प्रदेश में कुकूरमुते की तरह उग रहे हैं। 70 के दशक नक्सल्वादिओं के जो आदर्श थे, वे समय की गति के साथ-साथ गुम होते चले गये। जमींदारों की जमीनों के खिलाफ गोलबंद हुए अतिवादी कम्युनिस्ट पार्टी व्यक्तिकत हिंसा और लूट-खसोट पर उतारू होती चली गयीं। 90 के दशक के बाद चली आर्थिक उदारीकरण और बाजारवाद की हवा में नक्सली भी बहने लगे। कमोबेश सारे सामंती दुर्गंध नक्सली गलियारे में पहुंच गये। लातेहार जिला स्थित ब़ढिनया गांव के शंकर मुंडा कहते हैं, "शुरू में माओवादियों के आदर्श ने आदिवासियों को आकिर्षत किया, लेकिन बाद में वे कुकुरमुते की तरह उग आये और अब नक्सली संगठनों के कारण लोगों का जीना हराम हो गया है।' ग्रामीणों को डर एक ओर से नहीं, बल्कि तीन ओर से है। एक ओर जहां पुलिस अधिकारी नक्सलियो को संरक्षण देने के आरोप में ग्रामीणों को प्रतारित करते हैं तो दूसरी ओर, माओवादियो का दोनों ध़डा उन्हें जबर्दस्ती अपनी ओर लाने की कोशिश कर रहा है।<br />इन परिस्थितियों बीच क्रांति का सब्जबाग दिखाने वाले नक्सिलयों का आंतरिक कलह भी अब खुलकर सामने आने लगा है। इसके परिणामतस्वरूप आठ साल के झारखंड में आधा दर्जन नक्सली संगठनों का उदय हो गया। एमसीसी के जमाने में पोलित ब्यूरो से नाराज चल रहे केंद्रीय कमेटी के सदस्य भरत ने एक अलग पार्टी ही बना डाली। नाम रखा तृतीय प्रस्तुति कमेटी (टीपीसी)। ग़ढवा, चतरा और पलामू में यह संगठन सिक्रय है और माओवादियों के आर्थिक स्रोत पर कब्जा जमाने की फिराक में है। अपने आक्रमक तेवर के साथ पीएलएफआइ (पीपुल्स लिबरेशन फ्रंट ऑफ इंडिया) ने उन इलाकों में भाकपा (माओवादी) समर्थकों पर हमले तेज कर दिया है जहां के लोगों ने उसकी अधीनता स्वीकार करने से इंकार कर दिया है। कभी इनामी माओवादी रहे दिनेश गोप भी एक अलग संगठन चला रहा है। नाम रखा है, जेएलटी (झारखंड लिबरेशन टाइगर)। खूंटी, गुमला, लोहरदगा और सिमडेगा इलाके में यह संगठन सिक्रय माओवादियों का कहना है इस तरह के अधिकतर संगठन अपने कारनामों से सच्चे नक्सलियों को बदनाम करने पर तूले हुए हैं।<br />हालात इस कदर बेकाबू होते जा रहा हैं कि माओवादियों ने अपनी करतूतों से दिन और रात का फासला खत्म कर दिया है। जब, जिसे चाहा, उसकी हत्या कर दी। मात्र आठ साल में ही प्रदेश में एक सांसद, दो विधायक, एक एसपी व दो डीएसपी मारे जा चुके हैं, जबकि 400 से अधिक पुलिस और अर्द्धसैनिक बलों के जवान नक्सली हिंसा के शिकार हुए हैं। जनवाद की बात करने वाली माओवादी जमात ने अबतक एक हजार से अधिक आम लोगों को पुलिस मुखबिर बताकर तो कहीं सामंती सोच के नाम पर गोलियों से भून डाला। खुफिया सूत्रों का कहना है कि सूबे के करीब 130 पुलिस थाने माओवादियों के ही रहमोकरम पर चल रहे हैं। इस बाबत राज्य पुलिस प्रवक्ता एसएन प्रधान ने "द पब्लिक एजेंडा' को बताया, "आज तक यही तय नहीं हो पाया है कि आख़िर माओवादी चाहते क्या हैं? कभी वे निरीह ग्रामीणों की हत्या करते हैं तो कभी छुपकर पुलिसकिर्मयों पर वार करते हैं, क्या इससे क्रांति आ जायेगी?' अधिकारीयों के तर्क अपनी जगह है लेकिन इस बात से कौन इंकार कर सकता है कि माओवादियों की राजनीतिक लाइन और संघर्ष के तरीकों में आये भटकाव के बावजूद सूबे के करीब 8 हजार नौजवान हथियार बंद होकर सरकार को चुनौती देते फिर रहे हैं।<br />लाख टके का सवाल है की प्रतिवर्ष पुलिस आधुनिकीकरण के नाम पर करीब एक हजार करो़ड रुपये खर्च होने के बावजूद राज्य मशीनरी माओवादियों के फैलाव को रोकने में क्यों नहीं सफल हो पा रही है? क्यों सियासतदान संगीनों के साये में जीने को मजबूर हैं? क्यों प्राकृतिक संपन्नता के बावजूद ग्रामीणों को पीने का पानी तक मयस्सर नहीं है? जिस दिन इसका जवाब सियासतदानों की फौज खोज लेगी, संभव है उसी दिन माओवादियों की चाल पर लगाम लग जायेगा। फिलहाल कागजी योजनाएं बनाने में मशगूल सरकार इसके समाधान की और आगे ब़ढती नजर नहीं आ रही है।</div>श्याम सुन्दरhttp://www.blogger.com/profile/16320869658773019790noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7195851944555982826.post-84803914999506481592009-06-23T23:48:00.000-07:002009-07-10T03:58:56.292-07:00uत्तरी बिहार में तेजी से फैले पैर<div align="justify"><em><strong>नक्सलबादी से उठा तूफान 40 वर्षों में बिहार के अधिकांश हिस्से में पसर गया है। फिर भी, आज उनके पास न तो वो वैचारिक तेज है और न ही कोई स्पष्ट सामाजिक एजेंडा।<br /></strong></em>कहने के लिए तो बिहार में "सुशासन की सरकार'' है लेकिन फिर भी बिहार कराह रहा है। लोकतंत्र की धरती, महात्मा बुद्ध और महावीर की कर्म और ज्ञानस्थली, बिहार में नक्सलियों का खूनी खेल लगातार जारी है। कुख्यात "जहानाबाद जेल ब्रेक कांड' के बाद पुलिस मशीनरी ने सूबे से नक्सली संगठनों को खत्म करने के लिए दावे तो अनेक किए, लेकिन सच्चाई यह है कि बिहार में नक्सली संगठन लगातार मजबूत होते जा रहे हैं। कभी थाने लूट लिये जाते हैं, तो कहीं रॉकेट लांचर से अर्धसैनिक बलों पर हमले हो रहे हैं। पुलिस आधुनिकीकरण की सारी योजनाएं माओवादियों के सामने कागजी शेर साबित हो रही हैं जबकि खुफिया तंत्र भी माओवादी रणनीति के आगे पंगु साबित हो रहा है।<br />सत्तर के दशक में मुशहरी (मुजफ्फरपुर, जहां राज्य की पहली नक्सलवादी घटना घटी थी), भोजपुर, औरंगाबाद और जहानाबाद की धरती नक्सलियों के खूनी खेल से लाल हुआ करती थी। वर्षों तक मध्य बिहार और भोजपुर में चल रहे इस खूनी खेल से उत्तरी बिहार का अधिकांश हिस्सा अनजान रहा। तब तर्क दिये जाते थे कि मध्य बिहार और भोजपुर की धरती नक्सलियों के लिए इसलिए उर्वर साबित हो रही है कि इन इलाकों में वर्षों तक जमींदारों व सामंतों के जुल्म चलते रहे थे। लेकिन आज हालात बदल गये हैं। एमसीसी और पीपुल्स वार के विलय के बनी भाकपा (माओवादी) के गठन होते ही तेजी से सूबे के अन्य हिस्से में नक्सलियों का फैलाव हुआ। देखते ही देखते पश्चिमी चंपारण, पूर्वी चंपारण, सीतामढ़ी, मुजफ्फरपुर, दरभंगा, वैशाली और हाजीपुर जिले के ग्रामीण इलाके नक्सली आतंक के चपेट में आ गये। तीन महीने पहले ही माओवादियों ने वैशाली में पुलिस जवानों से चार रायफल लूट लिये। इस इलाके में माओवादियों ने बैंक लूट की घटना को भी अंजाम दिया है। नवादा और औरंगाबाद में पिछले चार महीने में ही दो दर्जन पुलिसकर्मी नक्सली हमले में मारे गये हैं।<br />माओवादियों का कहना है कि सूबे की 21 हजार एकड़ जमीन या तो नक्सलियों की वजह से विवादित हो गयी हैं या फिर उनके कब्जे में है। इन जमीनों पर माओवादी समर्थक खेती कर रहे हैं जबकि सैकड़ों एकड़ जमीन नक्सलियों की वजह से बंजर होने की स्थिति में है। वर्षों पहले नक्सलियों ने उन जमीनों पर लाल झंडा गाड़कर उसे जमींदारों से छीन लिया था।<br />कभी जातीय गोलबंदी में विश्वास करने वाली नक्सलपंथियों के फैलाव का एक बड़ा कारण यह माना जा रहा है कि अब वे प्रशासनिक भ्रष्टाचार और व्यवस्था की खामियों की चर्चा करके गरीब ग्रामीणों के बीच पहुंच रहे हैं। पूर्वी-उत्तरी बिहार के भागलपुर और खगड़िया के कुछ इलाके माओवादियों की गिरफ्त में आ चुके हैं। "बिहार का लेलिनग्राड' कहलाने वाले बेगूसराय जिले में भी इन दिनों माओवादी गतिविधियां देखी जा रही हैं। इस बाबत आर्थिक विश्लेषक शैवाल गुप्ता कहते हैं, "प्रदेश में भूदान की जमीन भी दबंगों ने कब्जा लिया, फिर गरीबों के पास जीने का कोई सहारा नहीं रहा, इसलिए वे माओवादियों की ओर आकर्षित हो रहे हैं।'<br />इन सब घटनाओं के बीच तीन वर्षों में माओवादियों को भी गहरा झटका लगा है। भाकपा (माओवादी) के पोलित ब्यूरो सदस्य प्रमोद मिश्र समेत करीब छः सौ हार्डकोर नक्सली गिरफ्तार किए जा चुके हैं। बावजदू इसके नक्सली तेवर कम होते नहीं दिख रहा। अब तो वे मोबाइल टॉवर को भी निशाना बनाने से नहीं चूक रहे हैं। जनवरी से अबतक चार दर्जन से अधिक टॉवरों को डायनामाइट से उड़ाया गया है। नक्सलियों की हिंसक गतिविधियों पर लगाम क्यों नहीं लगा पा रही है सरकार, इस बाबत आईजी ऑपरेशन एसके भारद्वाज कहते हैं, "सरकार नक्सलियों के खिलाफ व्यापक अभियान छेड़े हुए है। सैकड़ों हार्डकोर माओवादी गिरफ्तार किये गये हैं।'<br />हालांकि बिहार की भौगोलिक स्थितिया नक्सलियों के अनुकूल नहीं है। इसलिए वे यहां झारखंड और छातीसगढ़ जैसे गुरिल्ला युद्ध चलाने में सक्षम नहीं हो पाते। इसके अलावा उत्तरी-पूर्वी बिहार के कुछ इलाके मसलन कोसी प्रमंडल के जिलों में आज भी सामाजिक सामंजस्य बना हुआ है और लोग वर्ग भेद जैसी बातों पर यकीन नहीं करते। वे वर्तमान व्यवस्था से खिन्न जरूर हैं लेकिन इसे बदलने के लिए जो दावे नक्सली करते आ रहे हैं उनके प्रति वे आश्वस्त नहीं हैं। बावजूद इसके नक्सली संगठन आज बिहार के हर इलाके में अपनी उपिस्थति दर्ज करा रहे हैं। यह इस बात का संकेत है कि बिहार सरकार नक्सली संगठनों से निपटने में आज भी असक्षम है।<br /><strong>प्रमुख नक्सली हमले</strong><br />Ø <strong>30 अगस्त, 2008</strong>---पश्चिम चंपारण के बुरूडीह में बारूदी सुरंग विस्फोट में 12 जवानों की हत्या कर दी गयी।<br />Ø <strong>फरवरी, 2009</strong>--- महीने में नवादा के कौलाकोल इलाके में नक्सलियों की महिला दस्ता ने थानाप्रभारी समेत 12 जवानों को कब्जा में करने के बाद पहले चाकू से प्रहार किया इसके बाद उनकी ही बंदूकों से गोलियों बरसानी शुरू कर दी और सारे हथियार लूट लिये।<br />Ø <strong>21 अगस्त, 2008</strong>---गया जिले के रानीगंज में माओवादियों ने 6 पुलिसकर्मी की हत्या कर दी। इसमें दो माओवादी समेत एक आम नागरिक मारा गया।</div>श्याम सुन्दरhttp://www.blogger.com/profile/16320869658773019790noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7195851944555982826.post-35747099097334523032009-05-27T00:38:00.000-07:002009-07-09T05:24:42.634-07:00अकेली औरते, सामूहिक पहल<div align="justify"><strong>बिहार की कई विधवा और परित्यक्त महिलाओं ने समाज और धर्म की रूढ़ियों को तोड़ते हुए सुहागिन बनने का निर्णय लेकर एक मिसाल कायम की है।<br /></strong>अठारह साल की उम्र में विधवा हो चुकी विभा अपने परिजनों के साथ ही समाज के ठेकेदारों से पूछती है, "आखिर सफेद कपड़ों में पूरी जिंदगी कैसे कटेगी? कब तक कुलक्षणी होने का लांछन लगता रहेगा?' लेकिन समाज के पास इसका कोई जवाब नहीं है। विभा, पटना जिले के मदारपुर (पुनपुन) गांव की रहने वाली हैं। 15 वर्ष की आयु में उसकी शादी हुई थी और मात्र तीन साल के बाद ही वह विधवा हो गयी। उसके पति को अपराधियों ने गोलियों से भून दिया था। भरी जवानी में विधवा होने का दर्द क्या होता है, यह कोई विभा से पूछे। आगे की जिंदगी उसके सामने डरावने सवाल की तरह खड़ी थी और विभा के पास कोई जवाब नहीं था। ससुराल के साथ-साथ मैके से भी आये दिन ताने सुनने पड़ रहे थे। ऐसी विकट परििस्थतयों का सामना करने के लिए उसने पुनर्विवाह का निर्णय ले लिया। हालांकि उसके इस क्रांतिकारी फैसले से परिवार में कोहराम मचा हुआ है। कमोवेश ऐसी ही पीड़ा गया जिले के बाराचट्टी गांव की कमला की है। नक्सलियों ने कुछ वर्ष पहले उसके पति को पुलिस का मुखबिर बताकर गोली मार दी थी तो दूसरी ओर, पुलिस मुठभेड़ में मारे गये नक्सली लालमोहन यादव उर्फ नटवर की पत्नी हेमलता (काल्पनिक नाम), समस्तीपुर की पूजा, मुजफ्फरपुर की अर्चना, नालंदा जिले की सुनीता, बेगूसराय की रमावती आदि की कहानी भी एक जैसी है। समाज में विधवाओं की लंबी सूची है जो पति की गैरमौजूदगी कुंठित जिंदगी जी रही हैं और इस सामाजिक अभिशाप से मुक्ति चाहती है.<br />महिला सशिक्तकरण के नाम पर भले ही देश में हर वर्ष करोड़ों रुपये खर्च किये जा रहे हों, लेकिन विधवा और परित्यक्ता महिलाओं का कल्याण और सशिक्तकरण शायद सरकारी दायरे से बाहर ही है। अकेली जिंदगी गुजार रहीं विधवा और परित्यक्तता महिलाओं की घुटनभरी जिंदगी की दास्तान किसी से छिपी हुई नहीं है। घर के भीतर कुलक्षणी, तो बाहर उन्हें अपशकून माना जाता है। सामाजिक ताने-बाने और पारिवारिक मर्यादा का ऐसा ढोंग सामाजिक और धार्मिक ठेकेदारों ने रच रखा है कि उससे आजीज आकर विधवाओं ने रूढ़िवादी परंपराओं को तिलांजलि देते हुए सधवा (सुहागन) बनने की मुहिम ही छेड़ दी है। विचारों की शान पर विधवाओं की आवाज कितनी तेज होती है और कितनी दूर तक पहुंचती है, इस बारे में तत्काल कुछ कहना जल्दबाजी होगी। लेकिन राजधानी पटना में विधवा और परित्यक्ता महिलाओं ने विधवा पुनर्विवाह की वकालत करके सामाजिक तौर पर एक नया विवाद तो छेड़ ही दिया है।<br />इतिहास बताता है कि लोकतंत्र की जननी रहा बिहार राष्ट्रीय स्तर पर हमेशा क्रांतिकारी प्रतीक खड़ा करता रहा है और देश की सामाजिक-राजनीतिक हलचलों में अहम भूमिका निभाते आ रहा है। बात चाहे अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह की हो या फिर आजाद भारत में इंदिरा गांधी की तानाशाही और सामंती जुर्म के खिलाफ बगावत की हो, बिहार ने सदा ही अग्रणी भूमिका निभायी है। एक बार फिर सामाजिक ठेकेदारों और रूढ़िवादी परंपराओं को चुनौती देते हुए कनाडाई मूल की राजस्थानी महिला डॉ. जिन्नी श्रीवास्तव की पहल और मुस्लिम महिला अख्तरी बेगम के आह्वान पर बिहार की करीब 225 विधवाओं ने सधवा बनने की सामूहिक इच्छा व्यक्त करके सबको चौका दिया है। एकल नारी संघर्ष समिति के बैनर तले एकजुट हुई एकल महिलाओं ने एक स्वर में समाज के दकियानूसी चेहरे को उतार फेंकने का संकल्प लिया है। गांधीवादी विचारधारा से प्रभावित बेगम कहती हैं, " बात चाहे हिन्दू की हो या फिर मुिस्लम की, एकल महिलाओं की जिंदगी एक जैसी है। दोनों समुदाय की महिलाएं पति की गैरमौजूदगी में नारकीय जिंदगी जी रही हैं। इससे निजात पाने का एक ही तरीका है और वह है, आर्थिक आत्मनिर्भरता।'<br />बीते महीने पटना के पंचायत भवन में मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों के सामने जब इन महिलाओं ने माथे में सिंदूर, कलाई में चुड़ी-लहठी, और नाखूनों पर नेल पालिश लगायी तो इसका मतलब साफ था कि वे विधवा के पहनावे-ओढ़ावे की बंदिशों को मानने से इंकार कर रही हैं। विधवा होने के बावजूद संकेत में ही इन महिलाओं ने समाज के ठेकेदारों को अपनी मंशा जता दीं। इनमें से अधिकांश की आयु 15 से 40 वर्ष के बीच है। एक सुर में सभी ने कहा कि हम लोग समाज और परिवार को कलंकित करने नहीं, बिल्क खुद के जीवन को संवारने आये हैं। लगातार तीन दिनों तक पटना में इसे लेकर गहरा विचार-मंथन होता रहा। अधिकांश विधवाएं अपने इरादों पर पूरी तरह से अडिग दिखीं। आखिर हो भी क्यों नहीं? वर्षों की घुटनभरी जिंदगी, कई तरह के सामाजिक और पारिवारिक लांछन! फिर भी मौन स्वीकारोक्ति। और तो और, जलालत भरी जिंदगी जीने के बावजूद न तो परिवार के किसी सदस्य का कोई साया और न ही बच्चों की शिक्षा-चिकित्सा की कोई गारंटी। इससे भी नहीं बन पाया तो सुदूर देहाती इलाकों में कभी किसी महिला को डायन, तो कहीं-कहीं चुड़ैल बताकर मार डालने तक की घटनाएं सामने आ चुकी हैं। बावजूद इसके तथाकथित सभ्य समाज मौन बना रहता है। ऐसी महिलाओं पर चरित्रहीनता का आरोप तो सरेआम लगते रहे हैं। रोज-रोज के ताने सुनते हुए बदहवास हो चुकी ऐसी विधवाओं में से एक है, <span>पटना</span> जिले के म्सौर्धि आईडी की रहने वाली पिंकी। तो अन्य हैं नालंदा जिले की सुनीता और लड़कनिया टोला (कटिहार) की सुमन सिंह। हजारों महिलाओं की दर्दभरी दास्तान के साथ ही इन महिलाओं की जिंदगी भी दुखभरी है। पिंकी के पति कुछ वर्ष पहले अपराधियों के गोलियों के शिकार हो गये, तो सुमन सिंह का दाम्पत्य जीवन टूटने के कगार पर है। कारण यह है कि सुमन का पति नशेड़ी है। उसे न तो बच्चों की फिक्र है और ही पत्नी की। सुनीता के पति पिछले छह सालों से लापता हैं, जिसके कारण सुनीता के कंधे पर अपने बच्चों की परवरिश की जिम्मेदारी आ गयी है। लेकिन लाचार सुनीता इस जिम्मेदारी की बोझ को कैसे उठाये ? उसे कोई उपाय नहीं सूझ रहा। इन महिलाओं के सामने एक जैसी समस्याएं है। पारिवारिक दायित्वों के अलावा एक बड़ी जिम्मेदारी यह भी कि बाल-बच्चों की शिक्षा-चिकित्सा कैसे हो। चौखट से बाहर आते ही तथाकथित सभ्य समाज के ठेकेदार चिल्ला उठते हैं कि बिना मरद (मर्द) के बाहर कैसे जाओगी? इज्जत बची रहेगी तो किसी न किसी तरह गुजारा हो ही जाएगा। यह है सभ्य समाज का साफ-सुथरा चेहरा, जहां महिलाओं पर चाैखट से बाहर आते ही चरित्रहीनता का आरोप मढ़ दिया जाता है।<br />ये तो बानगी है, पूरी तस्वीर इससे भी ज्यादा भयावह है। जहानाबाद की किरण और सरस्वती, हरिहरपुर (भोजपुर) की लक्ष्मी समेत न जाने कितनी ऐसी महिलाएं हैं जो गुमनाम जिंदगी जीने को विवश हैं। नक्सल पचरम लहराने वाले बिहार में वैसे भी कभी जातीय सेना तो कभी नक्सली हिंसा के शिकार हजारों महिलाओं अपने सीने में पति खोने का दर्द समेटे हुई हैं। एकल महिलाओं की दुर्दशा से चिंतित राजस्थान से बिहार पहुंचीं सामाजिक कार्यकर्ता डा. जिन्नी श्रीवास्तव बताती हैं, "समाज में एकल जिंदगी जी रही महिलाओं को अबला न समझा जाये। महिलाएं शुरू से ही सबल रही हैं और अगर उन्हें समाज और परिवार की बंदिशों से मुक्त कर दिया जाये, तो आज भी वे सबल ही हैं।'<br />सवाल उठता है कि आखिर विधवा और परित्यक्ता महिलाओं के साथ समाज में ऐसे दोयम दर्जे का व्यवहार क्यों हो रहा है? इस बाबत मानवाधिकार कार्यकर्ता और बिहार राज्य मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष जिस्टस एसएन झा बताते हैं कि जब तक महिलाएं अपने पैरों पर खुद खड़ी नहीं होंगी तबतक इनके प्रति समाज का दकिनयानूसी व्यवहारों में कोई खास कमी नहीं होगी।<br />आंकड़ों पर गौर करें तो देश भर में विधवा महिलाओं की संख्या जहां आठ फीसद है वहीं विदुर पुरुष मात्र 2.5 फीसदी हैं। जबकि 67 फीसद महिलाएं ससुराल में रहती हैं। इनमें से अधिकतर ससुराल वालों की प्रताड़ना से परेशान हैं। ऐसी परििस्थतियों में विधवा पुनर्विवाह के इस अभियान का महत्व काफी बढ़ जाता है। लेकिन यह अभियान तब ही अपना लक्ष्य प्राप्त करने में सफल होगा जब इसमें अशिक्षित और गरीब महिलाओं के साथ-साथ शिक्षित और आर्थिक रूप से संपन्न महिलाएं भी हिस्सा लेंगी। </div>श्याम सुन्दरhttp://www.blogger.com/profile/16320869658773019790noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-7195851944555982826.post-22143731790250436452009-05-27T00:36:00.000-07:002009-05-27T00:37:59.785-07:00सात फेरों से वंचित मांएं<div align="justify"></div><p align="justify"><strong>पहाड़िया जनजाति की हजारों लड़कियां बिना विवाह के मां बनने को विवश हैं और विवाह की रस्म का इंतजार कर रही हैं।<br /></strong>बामू पहाड़िया की उम्र करीब 50 वर्ष है। इनके छह बच्चे हैं। वर्षों पहले अमड़ापाड़ा ब्लॉक के बाघापाड़ा गांव में भोज खाने गये बामू पहाड़िया अपने साथ एक लड़की को लेते आये थे। दोनों बताैर पति-पत्नी हरिणडूबा गांव में रहने लगे। बामू मां बनती गयी पर सुहागन नहीं बन पायी है। कमोबेश यही कहानी है शिबू पहाड़िया के परिवार की। इनका एक बच्चा गोद में आैर दूसरा की छाती से चिपका हुुआ। तीसरे आैर चाैथे बच्चे की उम्र कोई आठ आैर दस साल। जबकि पांचवें ने अपना घर बसा लिया है। न मां सुहागन बनी आैर न ही बहू।<br />पाकुड़ जिला मुख्यालय से 10 किलोमीटर दक्षिण-पिश्चम पहाड़ पर बसे हरिणडूबा गांव में ऐसी अन ब्याही 40 से अधिक मां बन चुकी युवतियां हैं जबकि उनकी शादी की रस्म अदायगी तक नहीं हो पायी है। अधिकांश लड़कियां (महिलाएं) बिना विवाह के ही अधेड़ हो चुकी हैं। हरिणडूबा गांव में पहाड़िया जनजाति के 60 परिवार रहते हैं। इन्हीं में से एक है शिबू पहाड़िया का परिवार। बाप-बेटे (दोनांें) अपना घर बसा चुके हैं। दोनों को आशा है कि एक दिन जब घर की माली हालत सुधरेगी तभी मंडप सजेगा। एक ही मंडप में सास आैर बहू दोनों माथे पर सिंदूर लगायेंगी। चूड़ियां पहनेंगी। गांव में भोज का आयोजन होगा। ग्राम प्रधान की माैजूदगी में रस्म अदायगी के बाद सुहागन बनने का सपना पूरा होगा।<br />बिना सुहाग के ही पहाड़िया जनजाति की सैकड़ों लड़कियों के मां बनने की कहानी दिलचस्प है। समाज ने इसे "हरण विवाह' नाम दिया है। इलाके में लगने वाले हाट आैर मेले में जब लोग यानी लड़के-लड़कियां जाते हैं, तो वहीं अपनी क्षेत्रीय भाषा में साथ-साथ रहने की बातें करते हैं। जब बातचीत पक्की हो जाती है, तब लड़की का हाथ पकड़कर तेजी से लड़का हाट से बाहर निकलता है आैर सीधे अपने गांव की ओर रवाना होता है। गांव वाले किसी अनजान लड़की को देखकर गंाव प्रधान को खबर करते हैं। उसी समय पंचायत बैठती है आैर साथ रहने की इजाजत मिल जाती है। फिर लड़की मां भी बनती है आैर समाज में वे बताैर पति-पत्नी रहने लगते हैं।<br />यह कहानी सिर्फ हरिणडूबा गांव की ही नहीं है। संथालपरगना प्रमंडल के अधिकांश पहाड़िया जनजाति के सुदूर गांवों में गरीबी का दंश झेल रही सैकड़ों लड़कियां काफी कम उम्र में बिन ब्याही मां बन रही हैं। ऐसी ही हजारों महिलाओं में से 125 महिलाएं कुछ महीने पहले सुहागन बनीं। पाकुड़ जिला मुख्यालय से करीब 50 किलोमीटर दक्षिण-पिश्र्चम िस्थत अमड़ापाड़ा प्रखंड के पकलो-सिंगारसी गांव में जब सुहागन बनने के लिए महिलाओं का जमावड़ा लगा, तो सभ्य समाज आैर धर्म के ठेकेदार किंकर्तव्यविमूढ़ नजर आये। वहीं स्थानीय प्रशासन भी सकते में था। सुहागन बनने पहुंची महिलाओं में से किसी के चार बच्चे हैं, तो कोई दो बच्चों की मां है। दो दर्जन ऐसी भी युवतियां पहुंचीं, जिनकी उम्र करीब 15 की रही होगी आैर गोद में अपने नवजात शिशु को लेकर अिग्न के सात फेरे लगा रही थीं। दर्जनों ऐसी भी महिलाएं थीं, जो अपनी बहू आैर बेटी के साथ मंडप में सिंदूर दान की रस्म अदायगी के लिए बैठी थीं।<br />इस इलाके में आगे भी इस तरह की सामूहिक विवाह के आयोजन की तैयारी चल रही है। जून तक करीब 250 बिन ब्याही मांओं की सिंदूर दान की रस्म अदायगी होने की संभावना है। आखिर इस समुदाय की लड़कियां बिन ब्याही मां क्यों बनती हैं। इस बाबत पूर्व सैनिक आैर सामाजिक कार्यकर्ता विश्र्वनाथ भगत बताते हैं, "गरीबी की वजह से भोज देने के लिए पैसे नहीं रहने आैर फिर शिक्षा का अभाव आैर खुला समाज होने की वजह से वे (लड़कियां) घर बसाने को तैयार हो जाती हैं। परंपरागत शादी (जिसमें लड़की के घर बारात जाती है) का प्रचलन धीरे-धीरे गरीबी की ही वजह से सुदूर इलाके से खत्म होता जा रहा है।'<br />जंगलों आैर पहाड़ों के बीच रहने वाली इस जनजाति की माली हालात किसी से छुपी नहीं है। पहाड़ों पर िस्थत झीलों आैर तालाबों का पानी पीना आैर जंगली कंदमूल खाकर जीवनयापन करना ही इनकी नियति हो गयी है। हालांकि, बाजारवाद का असर भी कहीं-कहीं देखने को मिलता है, जहां इस समुदाय के युवक जंगली लकड़ियों को स्थानीय हाट में मामूली पैसे पर बेचते हैं आैर जरूरी सामानों की खरीद-बिक्री करते हैं।<br />अंग्रेजों ने पहा़िडया समुदाय की वीरता को देखते हुए 1782 में पहाड़िया सैनिक दल का गठन किया, मिजाज से स्वाभिमानी पहाड़िया जनजाति ने कभी अंग्रेजों की अधीनता नहीं स्वीकारी। इससे आजीज आकर ब्रिटिश सरकार ने 1833 में पहाड़िया समुदाय को 1338 वर्गमील की सीमा में कैद कर दिया। इस क्षेत्र को "दामिन-इ-कोह' क्षेत्र घोषित किया गया। इस इलाके में 26 दामिन बाजार स्थापित किये गये तो आजाद भारत की सरकार ने इनकी संस्कृति के साथ ही गरीबी को देखते हुए 1954 में विशिष्ठ पहाड़िया कल्याण विभाग का गठन किया। पहाड़ों पर स्कूल बनाये गये। कहीं-कहीं चिकित्सा की भी व्यवस्था की गयी। आदिवासियों की अिस्मता के नाम पर बंटा बिहार आैर नवोदित झारखंड की सरकार अपने आठ साल के कार्यकाल के बावजूद इनकी नियति सुधारने में नाकाम साबित हुई है। हालांकि, नक्सलियों से मुकाबले के लिए अर्जुन मंडा की सरकार ने ब्रिटिश सरकार की तर्ज पर पहाड़िया बटालियन बनाने की रूपरेखा तैयार की थी, लेकिन बाद की सरकारों ने इस ओर ध्यान नहीं दिया। यही नहीं, वर्ष 2002 की जनगणना के अनुसार पहाड़िया जनजाति के करीब एक लाख 70 हजार, 309 की आबादी को आबाद करने के लिए प्रतिवर्ष करोड़ों रुपये विश्र्व बैंक के साथ ही केंद्र सरकार से सहायता के रूप में मिलते हैं। हालांकि स्थानीय लोग सरकार के इस आंकड़े को झूठा मानते हैं। इस जनजाति के लोगों का कहना है कि संथाल परगना प्रमंडल में ही 57 गांवों का न तो सर्वे हो पाया है आैर न ही मतदाता सूची में ही नाम दर्ज कराया गया है। सच्चाई चाहे जो भी हो। बावजूद इसके, पहाड़िया समाज बदहाल बना हुआ हैै। संथाल परगना प्रमंडल के बोरियो, अमरापाड़ा आैर लिट्टीपाड़ा समेत अन्य कई इलाके के ग्रामीण 8 किलोमीटर की दूरी तय कर पीने का पानी लाने को विवश हंै। जंगलों आैर पहाड़ों पर बिषैले सांप-बिच्छू का खतरा भी बराबर मंडराता रहता है। कई इलाके मलेरिया जोन घोषित किये गये हंै। बावजूद इसके इलाके में जन स्वास्थ्य सुविधाओं का घोर अभाव है। स्थानीय भाजपा कार्यकर्ता आैर पहाड़िया समुदाय के शिवचरण मालतो बताते हैं, "गरीबी आैर अशिक्षा का फायदा रांची आैर दुमका में बैठे अधिकारी उठा रहे हैं।' आदिवासी कल्याण आयुक्त डॉ नितिन मदन कुलकर्णी बताते हैं कि सरकार की ओर से उनकी दशा सुधारने के लिए सार्थक प्रयास किये जा रहे हैं। कई सारी योजनाएं उनके कल्याण आैर विकास के लिये चलायी जा रही हैं।<br />वैसे तो सारे पहाड़िया समुदाय की िस्थति कमोबेस एक जैसी ही है, फिर भी माल पहाड़िया के बीच शिक्षा का विकास हुआ है। वहीं साैरिया आैर कुमारभाग पहाड़िया समुदाय अब भी पहाड़ों पर ही डेरा डाले हुए है। कभी राज परिवार रहे आैर गुरिल्ला युद्ध में निपुण रहे इस समुदाय की आर्थिक िस्थति इतनी बदतर कैसे हो गयी, इस बाबत सामाजिक कार्यकर्ता दयामणि बारला बताती हैं, "प्रकृति पर निर्भर रहने वाले इस समुदाय के पास आजादी के पहले तक जंगलों पर पूरा अधिकार था, लेकिन आजादी के बाद वनों आैर पहाड़ों पर माफिया का राज स्थापित होने लगा जो बदस्तूर जारी है। फिर आैद्योगीकरण की वजह से प्रदूषण का प्रभाव पड़ा आैर अनावृिष्ट आैर अतिवृिष्ट की वजह से सारा कुछ बर्बाद हो गया। परिणामत: यह समाज धीरे-धीरे गरीबी की दलदल में फंसता चला गया।' एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि बिन ब्याही मांओं को इस समाज में भी मान्यता नहीं मिली है। फिर भी गरीबी की वजह से वे ऐसा कर रहे हैं, जिसे किसी भी परििस्थति में जायज नहीं ठहराया जा सकता।'</p>श्याम सुन्दरhttp://www.blogger.com/profile/16320869658773019790noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7195851944555982826.post-60050496979884318122009-05-22T00:32:00.000-07:002009-05-22T00:33:52.920-07:00अकेली औरतें सामुहिक पहल<div align="justify">अठारह साल की उम्र में विधवा हो चुकी विभा अपने परिजनों के साथ ही समाज के ठेकेदारों से पूछती है, "आखिर सफेद कपड़ों में पूरी जिंदगी कैसे कटेगी? कब तक कुलक्षणी होने का लांछन लगता रहेगा ?' लेकिन समाज के पास इसका कोई जवाब नहीं है। विभा, पटना जिले के मदारपुर (पुनपुन) गांव की रहने वाली हैं। 15 वर्ष की आयु में उसकी शादी हुई थी और मात्र तीन साल के बाद ही वह विधवा हो गयी। उसके पति को अपराधियों ने गोलियों से भून दिया था। भरी जवानी में विधवा होने का दर्द क्या होता है, यह कोई विभा से पूछे। आगे की जिंदगी उसके सामने डरावने सवाल की तरह खड़ी थी और विभा के पास कोई जवाब नहीं था। ससुराल के साथ-साथ मैके से भी आये दिन ताने सुनने पड़ रहे थे। ऐसी विकट परिस्थितयों का सामना करने के लिए उसने पुनर्विवाह का निर्णय ले लिया। हालांकि उसके इस क्रांतिकारी फैसले से परिवार में कोहराम मचा हुआ है। कमोवेश ऐसी ही पीड़ा गया जिले के बाराचट्टी गांव की कमला की है। नक्सलियों ने कुछ वर्ष पहले उसके पति को पुलिस का मुखबिर बताकर गोली मार दी थी तो दूसरी ओर, पुलिस मुठभेड़ में मारे गये नक्सली लालमोहन यादव उर्फ नटवर की पत्नी हेमलता (काल्पनिक नाम), समस्तीपुर की पूजा, मुजफ्फरपुर की अर्चना, नालंदा जिले की सुनीता, बेगूसराय की रमावती आदि की कहानी भी एक जैसी है। समाज में विधवाओं की लंबी सूची है जो पति की गैरमौजूदगी में कुंठित जिंदगी जी रही हैं और इस सामाजिक अभिशाप से मुक्ति चाहती हैं।<br />महिला सशक्तिकरण के नाम पर भले ही देश में हर वर्ष करोड़ों रुपये खर्च किये जा रहे हों, लेकिन विधवा और परित्यक्ता महिलाओं का कल्याण और सशक्तिकरण शायद सरकारी दायरे से बाहर ही हैं। अकेली जिंदगी गुजार रहीं विधवा और परित्यक्तता महिलाओं की घुटनभरी जिंदगी की दास्तान किसी से छिपी हुई नहीं है। घर के भीतर कुलक्षणी, तो बाहर उन्हें अपशकून माना जाता है। सामाजिक ताने-बाने और पारिवारिक मर्यादा का ऐसा ढोंग सामाजिक और धार्मिक ठेकेदारों ने रच रखा है कि उससे आजीज आकर विधवाओं ने रूढ़िवादी परंपराओं को तिलांजलि देते हुए सधवा (सुहागन) बनने की मुहिम ही छेड़ दी है। विचारों की शान पर विधवाओं की आवाज कितनी तेज होती है और कितनी दूर तक पहुंचती है, इस बारे में तत्काल कुछ कहना जल्दबाजी होगी। लेकिन राजधानी पटना में विधवा और परित्यक्ता महिलाओं ने विधवा पुनर्विवाह की वकालत करके सामाजिक तौर पर एक नया विवाद तो छेड़ ही दिया है।<br />इतिहास बताता है कि लोकतंत्र की जननी रहा बिहार राष्ट्रीय स्तर पर हमेशा क्रांतिकारी प्रतीक खड़ा करता रहा है और देश की सामाजिक-राजनीतिक हलचलों में अहम भूमिका निभाते आ रहा है । बात चाहे अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह की हो या फिर आजाद भारत में इंदिरा गांधी की तानाशाही और सामंती जुर्म के खिलाफ बगावत की हो, बिहार ने सदा ही अग्रणी भूमिका निभायी है। एक बार फिर सामाजिक ठेकेदारों और रूढ़िवादी परंपराओं को चुनौती देते हुए कनाडाई मूल की राजस्थानी महिला डॉ. जिन्नी श्रीवास्तव की पहल और मुस्लिम महिला अख्तरी बेगम के आह्वान पर बिहार की करीब 225 विधवाओं ने सधवा बनने की सामूहिक इच्छा व्यक्त करके सबको चौंका दिया है। एकल नारी संघर्ष समिति के बैनर तले एकजुट हुई एकल महिलाओं ने एक स्वर में समाज के दकियानूसी चेहरे को उतार फेंकने का संकल्प लिया है। गांधीवादी विचारधारा से प्रभावित बेगम कहती हैं, " बात चाहे हिन्दू की हो या फिर मुस्लिम की, एकल महिलाओं की जिंदगी एक जैसी है। दोनों समुदाय की महिलाएं पति की गैरमौजूदगी में नारकीय जिंदगी जी रही हैं। इससे निजात पाने का एक ही तरीका है और वह है ,आर्थिक आत्मनिर्भरता।'<br />बीते महीने पटना के पंचायत भवन में मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों के सामने जब इन महिलाओं ने माथे में सिंदूर, कलाई में चुड़ी-लहठी, और नाखूनों पर नेल पालिश लगायी तो इसका मतलब साफ था कि वे विधवा के पहनावे-ओढ़ावे की बंदिशों को मानने से इंकार कर रही हैं। विधवा होने के बावजूद संकेत में ही इन महिलाओं ने समाज के ठेकेदारों को अपनी मंशा जता दीं। इनमें से अधिकांश की आयु 15 से 40 वर्ष के बीच है । एक सुर में सभी ने कहा कि हम लोग समाज और परिवार को कलंकित करने नहीं, बल्कि खुद के जीवन को संवारने आये हैं। लगातार तीन दिनों तक पटना में इसे लेकर गहरा विचार-मंथन होता रहा। अधिकांश विधवाएं अपने इरादों पर पूरी तरह से अडिग दिखीं। आखिर हो भी क्यों नहीं ? वर्षों की घुटनभरी जिंदगी, कई तरह के सामाजिक और पारिवारिक लांछन ! फिर भी मौन स्वीकारोक्ति । और तो और, जलालत भरी जिंदगी जीने के बावजूद न तो परिवार के किसी सदस्य का कोई साया और न ही बच्चों की शिक्षा-चिकित्सा की कोई गारंटी । इससे भी नहीं बन पाया तो सुदूर देहाती इलाकों में कभी किसी महिला को डायन, तो कहीं-कहीं चुड़ैल बताकर मार डालने तक की घटनाएं सामने आ चुकी हैं। बावजूद इसके तथाकथित सभ्य समाज मौन बना रहता है। ऐसी महिलाओं पर चरित्रहीनता का आरोप तो सरेआम लगते रहे हैं । रोज-रोज के ताने सुनते हुए बदहवास हो चुकी ऐसी विधवाओं में से एकहै, पटना जिले के मसौढी की रहने वाली पिंकी । तो अन्य हैं नालंदा जिले की सुनीता और लड़कनिया टोला (कटिहार) की सुमन सिंह। हजारों महिलाओं की दर्दभरी दास्तान के साथ ही इन महिलाओं की जिंदगी भी दुखभरी है। पिंकी के पति कुछ वर्ष पहले अपराधियों के गोलियों के शिकार हो गये, तो सुमन सिंह का दाम्पत्य जीवन टूटने के कगार पर है। कारण यह है कि सुमन का पति नशेड़ी है। उसे न तो बच्चों की फिक्र है और ही पत्नी की । सुनीता के पति पिछले छह सालों से लापता हैं, जिसके कारण सुनीता के कंधे पर अपने बच्चों की परवरिश की जिम्मेदारी आ गयी है। लेकिन लाचार सुनीता इस जिम्मेदारी की बोझ को कैसे उठाये ? उसे कोई उपाय नहीं सूझ रहा। इन महिलाओं के सामने एक जैसी समस्याएं हैं। पारिवारिक दायित्वों के अलावा एक बड़ी जिम्मेदारी यह भी कि बाल-बच्चों की शिक्षा-चिकित्सा कैसे हो। चौखट से बाहर आते ही तथाकथित सभ्य समाज के ठेकेदार चिल्ला उठते हैं कि बिना मरद (मर्द) के बाहर कैसे जाओगी ? इज्जत बची रहेगी तो किसी न किसी तरह गुजारा हो ही जाएगा। यह है सभ्य समाज का साफ-सुथरा चेहरा, जहां महिलाओं पर चौखट से बाहर आते ही चरित्रहीनता का आरोप मढ़ दिया जाता है।<br />ये तो बानगी है, पूरी तस्वीर इससे भी ज्यादा भयावह है। जहानाबाद की किरण और सरस्वती, हरिहरपुर (भोजपुर) की लक्ष्मी समेत न जाने कितनी ऐसी महिलाएं हैं जो गुमनाम जिंदगी जीने को विवश हैं। नक्सल पचरम लहराने वाले बिहार मेें वैसे भी कभी जातीय सेना तो कभी नक्सली हिंसा के शिकार हजारों महिलाओं अपने सीने में पति खोने का दर्द समेटे हुई हैं। एकल महिलाओं की दुर्दशा से चिंतित राजस्थान से बिहार पहुंचीं सामाजिक कार्यकर्ता डा. जिन्नी श्रीवास्तव बताती हैं, "समाज में एकल जिंदगी जी रही महिलाओं को अबला न समझा जाये। महिलाएं शुरू से ही सबल रही हैं और अगर उन्हें समाज और परिवार की बंदिशों से मुक्त कर दिया जाये, तो आज भी वे सबल ही हैं।'<br />सवाल उठता है कि आखिर विधवा और परित्यक्ता महिलाओं के साथ समाज में ऐसे दोयम दर्जे का व्यवहार क्यों हो रहा है ? इस बाबत मानवाधिकार कार्यकर्ता और बिहार राज्य मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष जस्टिस एसएन झा बताते हैं कि जब तक महिलाएं अपने पैरों पर खुद खड़ी नहीं होंगी तबतक इनके प्रति समाज का दकिनयानूसी व्यवहारों में कोई खास कमी नहीं होगी।<br />आंकड़ों पर गौर करें तो देश भर में विधवा महिलाओं की संख्या जहां आठ फीसद है वहीं विदुर पुरुष मात्र 2.5 फीसदी हैं। जबकि 67 फीसद महिलाएं ससुराल में रहती हैं । इनमें से अधिकतर ससुराल वालों की प्रताड़ना से परेशान हैं। ऐसी परिस्थितियों में विधवा पुनर्विवाह के इस अभियान का महत्व काफी बढ़ जाता है। लेकिन यह अभियान तब ही अपना लक्ष्य प्राप्त करने में सफल होगा जब इसमें अशिक्षित और गरीब महिलाओं के साथ-साथ शिक्षित और आर्थिक रूप से संपन्न महिलाएं भी हिस्सा लेंगी। </div>श्याम सुन्दरhttp://www.blogger.com/profile/16320869658773019790noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7195851944555982826.post-92023986201231514022009-04-30T05:53:00.000-07:002009-04-30T05:54:04.210-07:00तिकड़ी नेताओं की अिग्नपरीक्षा<p align="justify">सियासत आैर गंगा नदी का पुराना रिश्ता रहा है। कभी बिहार की कुर्सी पर विराजमान होने को लालायित सियासतदान मुख्यमंत्री की कुर्सी हथियाने के लिए गंगा में फेंकवाने की धमकी विधायकों को दिया करते थे। लेकिन पंद्रहवीं लोकसभा चुनाव में उल्टा हो रहा है। परिसीमन के बाद बदली हुई परििस्थति में दियारा इलाके के मतदाता सियासी चाल चलने वाले नेताओं को धमकाते फिर रहे हैं। संयोग से सूबे के चाैथे चरण में होने वाले पाटलिपुत्र, पटना साहिब आैर नालंदा लोकसभा सीटेंे गंगा के दियारा को छूता हुआ आगे बढ़ते हंै। इन तीनों सीटों पर देश की निगाहें टिकी हुई हैं। वह इसलिए कि पाटलिपुत्र सीट से रेल मंत्री आैर राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव अपनी किस्मत आजमा रहे हैं। इन्हें कड़ी चुनाैती दे रहे हैं जदयू के प्रत्याशी डॉ. रंजन प्रसाद यादव। कभी लालू के जिगरी दोस्त रहे रंजन यादव मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के विकास रथ पर सवार होकर सियासी बैतरणी पार करने की फिराक में हैं। छह विधानसभा क्षेत्रों से मिलकर बना यह क्षेत्र यादव बहुल माना जाता है। इसमें दानापुर, जहां भाजपा का कब्जा है, के अलावा फुलवारीशरीफ, बिक्रम, मनेर, पालीगंज आैर मसाैढ़ी विधानसभा क्षेत्र को शामिल किया गया है। फुलवारीशरीफ राजद प्रवक्ता श्याम रजक का क्षेत्र है तो बिक्रम आैर दानापुर से पूर्व सांसद रामकृपाल यादव बराबर बढ़त बनाते रहे हैं। लालू प्रसाद को भरोसा है कि भले ही दानापुर सीट भाजपा के खाते में चला गयी हो, लेकिन यहां िस्थत अपनी खटाल से राजनीति करने का फायदा उन्हें मिल सकता है। लालू के साथ ही राबड़ी देवी भी अपने पटना प्रवास के दाैरान अधिकांश समय गाैशाला में ही बीताती हैं। बावजूद इसके लालू का रास्ता आसान नहीं दिख रहा है। इसी साल होली के दिन इस सीट से चुनाव लड़ने का प्रस्ताव देने वाले पूर्व राज्यसभा सदस्य आैर स्थानीय नेता विजय सिंह यादव एन माैके पर पलट गये आैर कांग्रेस से अपनी किस्मत आजमाने के लिए मैदान में कूद गये। दियारा इलाके में इनकी अच्छी पकड़ बतायी जा रही है। वैसे मुिस्लम मतदाताओं पर भी इन्हें भरोसा है। राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि प्रथम चरण में ही "माय' (मुिस्लम-यादव) समीकरण में दरार आ गयी है। हालांकि यह कहना अभी जल्दबाजी होगी। फिर राजद सुप्रीमो का कांग्रेस के खिलाफ हताशा-भरे बयान एक ही साथ बहुत कुछ कह जाते हंै। कभी किंगमेकर की भूमिका में रहे लालू प्रसाद को इस सीट पर कड़ी मेहनत करनी पड़ रही है।<br />एक ओर जहां पाटलिपुत्र सीट पर तीन यादवों की भिड़ंत है वहीं दूसरी ओर पटना साहिब लोकसभा इलाका दो कायस्थों का अखाड़ा बन गया है। बिहारी बाबू के नाम से चर्चित सिने अभिनेता शत्रुघ्न सिन्हा भाजपा से अपनी किस्मत आजमा रहे हैं, तो अचानक छोटे पर्दे के स्टार अभिनेता शेखर सुमन कांग्रेस पार्टी के टिकट पर मैदान में हैं। इस क्षेत्र के शहरी इलाकों में कायस्थों के अलावा बड़ी आबादी मुसलमानों की है। थोड़े-बहुत सिख मतदाता भी हैं। शेखर सुमन को कांग्रेस कैडर के अलावा मुसलमानों के साथ ही स्वजातीय वोट बैंक पर भरोसा है । हालांकि बिहारी बाबू नीतीश कुमार की विकास-छवि, सुशासन के नारों आैर भाजपा के साथ ही अतिपिछड़ा आैर महादलितों पर भरोसा कर रहे हैं जबकि ग्रामीण इलाके मसलन बख्तियारपुर, फतुहा, दीघा विधानसभा सीटों के मतदाताओं की बदाैलत राजद उम्मीदवार विजय साहू भी सफलता की उम्मीद पाले हुए हैं। राजद सुप्रीमो को मुसलमान मतदाताओं पर भी भरोसा बना हुआ है। राजद खेमे को उम्मीद है कि दो कायस्थों की लड़ाई का फायदा राजद उम्मीदवार विजय साहू को मिल सकता है। लेकिन यह तो आने वाला समय ही बतायेगा कि उन्हें इस समीकरण से लाभ हुआ या फायदा। वैसे सवर्णों की राजनीतिक सोच अब वोटकटवा की नहीं रही है। इस सीट पर वाम मोर्चा भी अपनी किस्मत आजमा रहा है , लेकिन उसका प्रभाव झुग्गी-झोपड़ियों तक ही सीमित दिख रहा है।<br />कुर्मी बहुल नालंदा सीट पर नीतीश कुमार के साथ ही उनकी सरकार की अिग्नपरीक्षा है। विकास का नारा देते फिर रहे नीतीश कुमार के इस परंपरागत सीट पर तीन कुर्मियों की जोर-आजमाइश से मुकालबा दिलचस्प हो गया है। इसी का फायदा जातीय राजनीति से दूर रहने वाले शशि यादव को मिलने के कयास लगाये जा रहे हैं। यहां 17 लाख मतदाताओं में से 3.75 लाख कुर्मी, 2.75 लाख यादव, 1.25 लाख कुशवाहा आैर 1.65 लाख मुिस्लम मतदाता हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में यहां नीतीश कुमार ने एक लाख से अधिक मतों से लोजपा प्रत्याशी डॉ. पुष्परंजन को हराया था। इस सीट पर तीन कुर्मियों के बीच कड़ा मुकाबला दिख रहा है। वर्ष 2006 में जदयू के टिकट पर उपचुनाव जीते रामस्वरूप प्रसाद कांग्रेस से भाग्य आजमा रहे हैं तो पूर्व विधायक सतीश प्रसाद लोजपा से मैदान में हैं। लव-कुश सम्मेलन की सफलता से सूबे की राजनीति में धाक जमाने वाले सतीश कुमार का भी वही वोट बैंक है जो नीतीश कुमार का है। वहीं जदयू ने नये चेहरे काैशलेंद्र कुमार को मैदान में उतारकर सारे गिला-शिकवा को खत्म करने की कोशिश की है। वहीं वाम मोर्चा से शशि यादव मैदान में डटी हैं। पारंपरिक चुनाव प्रचार अभियान में जुटी शशि आैर भाकपा (माले) लिबरेशन के महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य ने अपनी पूरी ताकत इस इलाके में झोंक दी है। वहीं बसपा की हाथी पर सवार होकर देवकुमार राय क्षेत्र में अपनी पहचान बनाते फिर रहे हैं।<br /> </p>श्याम सुन्दरhttp://www.blogger.com/profile/16320869658773019790noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7195851944555982826.post-9638356792930055982009-04-30T05:47:00.000-07:002009-04-30T05:51:06.136-07:00बंदूक नहीं, बैलेट से मिलेगी मुिक्त : रंजन यादव<div align="justify">केश्वर यादव उर्फ दिनकर यादव उर्फ रंजन यादव नक्सल आंदोलन का जाना-पहचाना चेहरा है। कभ्ाी झारखंड आैर छत्त्ाीसगढ पुलिस के लिए सिरदर्द बना रंजन यादव चतरा लोकसभाा सीट से पंद्रहवें लोकसभा चुनाव में,"सत्त्ाा बंदूक की नली से निकलती है' के नारे को तिलांजलि देेते हुए संसदीय रास्ते को मुिक्त का मार्ग चुना है। लातेहार जेल से भाकपा (माले) लिबरेशन के झंडे तले चुनावी समर में अपनी किस्मत आजमा रहे रंजन यादव को जनता पर पूरा भरोसा है आैर उन्हें उम्मीद है कि 16 मई को सारे महारथी चित हो जायेंगे। जेल में उनसे <strong>द पब्लिक एजेंडा</strong> की ओर से <strong>श्याम सुंदर</strong> ने एक्सक्लुसिव बातचीत की । प्रस्तुत है बातचीत के प्रमुख अंश ः<br /><strong>15 वर्षों तक बंदूक की राजनीति करने के बाद आखिर आपने जेल से चुनाव लड़ने का फैसला कैसे किया?<br /></strong>बहुत दिनों से मन में विचार चल रहा था । 15 वर्षों के लंबे संघर्ष से जो अनुभव मिला उसके अनुसार, अभी जनता बंदूकके सहारे सत्त्ाा हथियाने को तैयार नहीं हुई है। इसलिए हमने सोचा कि जब लड़ाई जनता के लिए ही लड़ी जा रही है तब फिर क्यों नहीं जनता की भावनाओं का कद्र करते हुए संसदीय रास्ते को ही अपना लिया जाये ताकि सही मायने में गरीबों को उनका हक-हुकूक मिल सके।<br /><strong>आपके पुराने साथियों यानी नक्सलियों ने इस फैसले का विरोध नहीं किया ?<br /></strong>चाैतरफा विरोध हुआ। उन्होंने (नक्सलियों ने ) माैत का फरमान जारी किया। कई इलाकों मसलन मनिका, पीपरा, हेहेगड़ा आदि में चुनाव बहिष्कार के साथ ही नक्सलियों ने हिंसक तेवर अख्तियार किया। दूसरी ओर, सामंती तत्वों की छाती पर सांप लोटने लगे कि कैसे गरीब का बेटा भारतीय संसद की शोभा बढ़ायेगा। बावजूद इसके हमें जनता का व्यापक समर्थन मिला।<br /><strong>हिंसक राजनीति से संसदीय राजनीति अपनाने के पीछे क्या कारण रहे ?<br /></strong>हिंसा आैर अहिंसा को परिभाषित करना बहुत मुिश्कल है। जब इलाके में जमींदारों का जुल्म था तब जनता की गोलबंदी सामंतों के खिलाफ हुइर् । परिणामस्वरूप 90 फीसदी जमींदार नक्सलियों की गोली के शिकार हुए । इसे मैं हिंसा नहीं मानता । बिहार आैर झारखंड में होने वाले गैंगवार आैर माफिया राज हिंसा नहीं है, क्या ? फिर क्यों , सरकार गरीबों की लड़ाई को हिंसक लड़ाई मानती है? बीते वर्षों में गुजरात में हुए सांप्रदायिक हिंसा (जो अभी भी विवाद में है) के साैदागरों को सियासत करने की खुली छूट मिलती है, तब कोई सवाल क्यों नहीं खड़ा किया जाता ?<br /><strong>भाकपा (माले) लिबरेशन से दोस्ती के पीछे का क्या राज है ?<br /></strong>इसके पीछे कोई राज नहीं, बिल्क मुझे अभी भी विश्वास है कि लाल झंडा ही सामंती व्यवस्था के खिलाफ लड़ाई लड़ सकती है। इसलिए मैंने दो साल पहले जेल में ही माले की सदस्यता ग्रहण की थी।<br /><strong>क्या आपको लगता है कि लातेहार, पलामू में सामंतवाद का खात्मा हो गया ?<br /></strong>पलामू समेत झारखंड के कई इलाकों में सामंती धाक बचा हुआ है। सामंती धाक को खत्म करने के लिए लाल झंडा संघर्षरत है।<br /><strong>संसदीय व्यवस्था में आने की प्रेरणा आपको किनसे आैर कैसे मिली ?<br /></strong>श्री श्रीरविशंकर जी महाराज। लातेहार जेल में उनसे हमारी मुलाकात हुई। उन्होंने मुख्य मार्ग की राजनीति करने को प्रेरित किया। सच तो यह है कि रविशंकर जी भले ही देशव्यापी भाजपा को मदद करते हैं लेकिन हमें उनसे पूरी मदद मिली है।<br /><strong>महंगी चुनाव व्यवस्था में पैसे का इंतजाम आपने कहां से किया ?<br /></strong>जन समर्थन आैर चंदा के पैसे ही चुनाव जीताने के लिए काफी है। मैं बाहुबलियों की तरह धनबल के प्रदर्शन का शाैक नहीं रखता, इसलिए कार्यकर्ताओं के बीच कभी पैसे की कमी नहीं हुई।</div>श्याम सुन्दरhttp://www.blogger.com/profile/16320869658773019790noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7195851944555982826.post-56498848313552498952009-04-30T05:39:00.000-07:002009-04-30T05:44:45.915-07:00ग्रामीणों पर पुलिसिया कहर<div align="justify">झारखंड का लातेहार जिला नक्सलियों के आतंक से हमेशा सुर्खियों में रहा है। एक बार फिर यह जिला सुर्खियों में है। लेकिन इस बार दो कारणों से चर्चा में आया है। पहला यह कि छत्त्ाीसगढ़ राज्य कमेटी का सदस्य आैर उत्त्ारी सरगुजा स्पेशल एरिया कमेटी का प्रभारी कामेश्वर यादव उर्फ रंजन यादव बंदूक की वोट बहिष्कार के नारे को तिलांजली देते हुए संसदीय रास्ते को अख्तियार कर लिया है। जिले के मंडल कारा से चुनावी मैदान में अपनी किस्मत आजमा रहे हैं आैर दूसरा कारण यह कि जिस चतरा लोकसभा सीट से रंजन चुनावी मैदान में डटे हैं वह पूरा इलाका प्रथम चरण के चुनाव के दो दिन पहले से ही हिंसक वारदातों का अखाड़ा बना रहा। एक ओर जहां सीआरपीएफ के 14वीं बटालियन पर यह आरोप लगा कि नक्सलियों की बारुदी सुरंग विस्फोट के बाद हुए दोनों ओर से (नक्सली-सीआरपीएफ) अंधाधुंध फायरिंग में मारे गये अपने दो साथियों के खून देखकर खाैफलाये जवानों ने बढ़निया गांव के सुमरा टोला के पांच निर्दोष लोगों, जिसमें 50 वर्षीय सुपाय बोदरा (सीएमपीडीआइ, रांची का कर्मचारी), इनके इकलाैते बेटे आैर संत पॉल कॉलेज, रांची का विद्यार्थी संजय बोदरा (20 वर्ष), पड़ोसी सुपाय बोदरा (जो राजा मेदिनीराय इंटर कॉलेज, बरवाडीह) आैर 8वीं कक्षा का छात्र रहा मसी बोदरा (दोनों सगे भाई) के साथ ही अपने खपड़ैल घर की मरम्मत कर रहे 50 वर्षीय पिताय मुंडू को गोलियों से भून दिया वहीं माओवादियों के कड़े तेवर से 10 दिनों तक संपूर्ण झारखंड अस्त-व्यस्त रहा। माओवादियों ने निर्दोष ग्रामीणों के मारे जाने के विरोध में बताैर मुआवजा 10 लाख रुपये आैर पीड़ित परिवार को नाैकरी की मांग को लेकर बंद का फरमान जारी किया। बंद के दाैरान चतरा लोकसभा क्ष्ोत्र के हेहेगड़ा रेलवे स्टेशन के समीप माओवादियों ने बरवाडीह-मुगलसराय पैसेंजर ट्रेन को चार घंटों तक बंधक बनाये रखा। फिर भी प्रशासनिक अधिकारियों ने हिम्मत नहीं जुटा सकी कि नक्सलियों की गिरफ्त में फंसे पैसेंजर को निकालने की पहल की जाये। दूसरी घटन्ाा इसी क्षेत्र के लादूप में हुई जहां सीआरपीएफ की बस को माओवादियों ने सुरंग विस्फोट कर उड़ा दिया। पड़ोस का पलामू लोकसभा सीट से भी बिहार आैर पूर्वी उत्त्ार प्रदेश का कुख्यात माओवादी आैर पांच लाख का इनामी कामेश्वर बैठा झारखंड मुिक्त मोर्चा के टिकट पर चुनावी समर में कूदा है। हालांकि बैठा इसके पहले भी संसदीय राजनीति में अपनी किस्मत आजमा चुके हैं। दो बड़े माओवादियों का चुनावी समर में कूदना नक्सलियों के बंदूक की राजनीति पर प्रश्नचिह्न लगाता है। आखिर क्या वजह है कि एक-एक कर माओवादी संसदीय रास्ते की ओर रूख कर रहे हैं। इसके पहले एमसीसी के नेता रामाधार सिंह बिहार के गुरुआ से चुनाव लड़कर नक्सली राजनीति को चुनाैती दे चुके हैं।<br />इधर बढनिया कांड के विरोध को लेकर प्रशासनिक बयानबाजी थमने का नाम नहीं ले रहा है। शुरू में अधिकारियों ने मारे गये लोगों को नक्सली करार दिया। लेकिन जनदबाव बढने लगा तब प्रक्षेत्रीय पुलिस महानिदेशक (आइजी) रेजी डुंगडुंग ने 23 अप्रैल को ग्रामीणों के मारे जाने की बात स्वीकारी। हालांकि, गृह सचिव जेबी तुबिद ने पूरे मामले पर "द पिब्लक एजेंडा' से कहा कि जबतक जांच रिपोर्ट नहीं आ जाती तब तक कुछ भी कहना जल्दबाजी होगी। वहीं राज्य पुलिस प्रवक्ता एसएन प्रधान का कहना है कि काैन लोग मारे गये हैं, इस संबंध में गृह सचिव ही कुछ बोल सकते हैं। बयानबाजी में फंस चुका यह मामला कई मायनों में पेचीदा बन चुका है। इस मामले में पुलिस के इरादे शुरू से ही विवादित रहे। मसलन पोस्टमार्टमर की वीडियोग्राफी तक नहीं करायी गयी। इस बात की खबर ग्रामीणों को बरवाडीह में किसी फोटाग्राफर से मिली।<br />पूरे मामले को करीब से देख रहे ग्रामीण महिला फुलमनी बोदरा आैर जग्गा कंडुलना (जिसने पुलिसिया दबिश में पांचों ग्रामीणों को सड़क की ओर दाैड़ते हुए देखा था) की मानें तो बाैखलाये जवानों की मंशा को भांपते हुए पांचों की खोजबीन शुरू की तो भयावह तस्वीर सामने आयी। इसे संयोग ही कहेंगे कि जंगल के रास्ते हुंटार कोलियरी होते हुए बरवाडीह पहुंचे ग्रामीणों की किसी फोटोग्राफर से मुलाकात हो गयी। इधर, घर लाैटने का इंतजार कर रही मृतक सुपाय बोदरा की तीनों बेटियां आैर 80 वर्षीय बूढ़ी मां के साथ ही पूरी तरह से विक्षिप्त उनकी पत्नी को अभी भी भरोसा नहीं हो रहा है कि सीपीएमडीआइ के काम कर रहे कर्मी आैर उसके भाई को जवानों ने क्यों निशाना बनाया। वहीं नउरी बोदरा का पूरा परिवार ही उजड़ गया। गोलियों के शिकार इनके दोनों बेटे भी बने।<br />पुलिस ने नाटकीय तरीके से मामले को रफा-दफा करने के लिए पहले ग्रामीणों को नक्सली बताया। लेकिन, जब इस बात का खुलासा हो गया कि मारे गये सारे लोग ग्रामीण हैं आैर नक्सलियों से मृतकों का कोई लेना-देना नहीं आैर खुद नक्सली भी इस गांव में जाने की जुर्रत नहीं करते, तब पसोपेश में फंसा पुलिस महकमा नित्य नये बयान देने लगा। नक्सलियों के तेवर भी तभी गर्म हुए जब एक साथ पांच लोगों की हत्याएं हो गयीं। जबकि, दो महीने पहले ही खूंटी जिले के मूरहू में सीआरपीएफ के जवानों ने महुआ चुन रहे 12 वर्षीय एक बच्चे को इसलिये गोली मार दी थी, क्योंकि उसने यह बताने से इनकार कर दिया था कि इस इलाके में नक्सली भी आते हैं। वहीं अड़की इलाके में भी कुछ दिन पहले एक किसान की अद्धसर्ैनिक बलों ने नक्सली बताकर हत्या कर दी थी। राज्य में लगातार खाैफनाक होता जा रहा पुलिस का चेहरा इस राज्य को किस हाल में छोड़ेगा, फिलहाल कहना मुिश्कल है।<br />इधर, भाकपा माओवादी के पूर्वी रिजनल ब्यूरो के अनिमेष ने अपने ही संगठन के अभय को कड़ी फटकार लगायी है आैर कहा है कि अभय ने बिना केंद्रीय कमेटी की इजाजत के ही कई दिनों तक लगातार बंद का ऐलान कर दिया, जिससे जनता को भारी परेशानी उठानी पड़ी। दूसरी ओर, बिहार, झारखंड, छत्त्ाीसगढ़ के प्रवक्ता गोपाल ने सिर्फ एक दिन ही बंदी का समर्थन किया था। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि बढ़निया कांड को लेकर माओवादियों के साथ ही प्रशासन का आंतरिक ढांचा चरमरा गया है।</div>श्याम सुन्दरhttp://www.blogger.com/profile/16320869658773019790noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7195851944555982826.post-26273273255618863842009-04-12T06:35:00.000-07:002009-04-14T05:31:53.299-07:00माओवादियों का अर्थशास्त्र<div align="justify"><span style="font-size:+0;">विश्वव्यापी </span>छायी मंदी ने जहां लोगों को जीना मुहाल कर दिया है वहीं देश में सक्रिय माओवादी विद्रोहियों का अर्थतंत्र इस मंदी से कोसों दूर है। न तो यहां छंटनी का खौफ है और न ही खर्चों में कटौती ही हो रही है। भाकपा (माओवादी) की गुरिल्ला आर्मी संगठन को आर्थिक मजबूती देने के लिए बतौर कमीशन लेवी वसूली में लगी हुई है। वैसे तो आज के समय में देश के अधिकांश हिस्से नक्सलियों की धधक से खौफजदा हैं फिर भी पशुपतिनाथ से तिरूपतिनाथ तक लाल गलियाना बनाने का सपना देख रहे नक्सलियों ने करीब १०५०० वर्ग लोमीटर क्षेत्र में अपनी हुकूमत स्थापित कर ली है जहां सरकार की नहीं, नक्सलियों की तूती बोलती है। बिहार, झारखंड, उड़ीसा और छतीसगढ़ के दर्जनों जिलों में वे अपनी जनवादी सरकार स्थापित करने का दावा कर रहे हैं। उन इलाकों में पहले सरकारी हुक्मरान जाने से कतराते थे। इस वजह से नक्सल इलाकों में वर्षों तक लोक निर्माण कार्य ठप रहा। लेकिन अब नक्सली मांद में सरकारी नुमाइंदे बेधड़क आवाजाही कर रहे हैं और सरकारी योजनाओं को अमलीजामा पहना रहे है। उन इलाकों में पुलिस भी सक्रिय दिख रही है। इसके कई मायने निकाले जा रहे हैं। एक ओर जहां सरकार इसे नक्सलियों का घटता जनाधार मान रही है वहीं सूत्रों का कहना है कि नक्सली खेमा एक सोची-समझी रणनीति के तहत ही लोक निर्माण के कामों को करने की इजाजत दे रहा है ताकि उनका बजट सरप्लस हो सके। नक्सल आंदोलन से सहानुभूति रखने वाले लोगों का कहना है कि आधार इलाका तैयार करने की बात करने वाले नक्सली अब छापामार जोन बनाने में लगे हैं ताकि पुलिसिया दबिश का प्रभाव गुरिल्ला आर्मी पर नहीं पड़े। इंस्टिट्यूट ऑफ डिफेंस स्टडीज़ एंड अनालिसिस के पीवी रमना का कहना है कि प्रत्येक वर्ष माओवादी विभिन्न स्रोतों से 1500 करोड़ रुपये राजस्व की उगाही कर रहे हैं।<br />नक्सली दस्तावेजों से मिली जानकारी के अनुसार बिहार समेत देश के <span style="font-size:+0;">दस </span>राज्यों के नक्सल प्रभावित इलाकों में खोले गये इंर्ट चिमनी भठ्ठा से प्रतिवर्ष 25हजार रुपये लिये जा रहे हैं। खनन विभाग के अनुसार सिर्फ में ही आैसतन 760 इंर्ट भठ्ठे हैं। इस हिसाब से नक्सलियों के खाते में सूबे के चिमनी भठ्ठे से ही एक करोड़ 90हजार रुपये जमा हो रहे हैं। बालू घाटों से भी प्रति वर्ष करोड़ों रुपये की वसूली हो रही है। पेट्रोल पंप से पहले वे आमदनी के अनुसार पैसे वसूला करते थे लेकिन अब नक्सलियों की गुरिल्ला आर्मी हाइवे के पेट्रोल पंपों से प्रतिवर्ष 30 हजार और ग्रामीण इलाकों के पंपों से 15 हजार रुपये की वसूली कर रही है। देहाती इलाकों में बन रहे मोबाइल टावर भी नक्सलियों की कमाई का अच्छा जरिया साबित हो रहा है। बीते महीने नक्सलियो ने बिहार के गया और औरंगाबाद के साथ ही झारखंड के देहाती इलाकों में स्थापित तीन दर्जन टावरों को इसलिए उड़ा दिया था ताकि वे समय पर लेवी दे दिया करें। लोक निर्माण के कामों में कमीशनखोरी की बात से भले ही प्रशासनिक अधिकारी इंकार करते रहें लेकिन सच्चाई यह है कि बिना नक्सलियों को लेवी दिये एक भी काम संपन्न नहीं हो रहा है। लेवी की रकम 5 से 20 फीसदी और किसी-किसी में 30 फीसदी तक निर्धारित है। जिन ठेकेदारों ने लेवी देने से इंकार किया उनकी योजनाएं तो खटाई में मिली ही वे भी नक्सलियों की गोली के शिकार हुए। जंगल तो नक्सलियों के लिए महफूज है ही। खुफिया सूत्रों का कहना है कि नक्सलियों के रहमोकरम पर ही वन विभाग के कर्मचारी और अधिकारी सुरक्षित हैं। जंगलों में लड़की से लेकर कत्था तस्करों की चांदी बिना नक्सलियों की सहमति के संभव ही नहीं है। इससे भी प्रति वर्ष करोड़ों रुपये की आमदनी हो रही है। उड़ीसा के मयूरभंज जिले में कार्यरत एक अधिकारी का कहना है कि अकेले बांस के फूल से ही करोड़ों रुपये की उगाही नक्सली कर रहे हैं जबकि छतीसगढ़ और झारखंड में केंदू पत्ता ठेकेदार अच्छी कमाई का जरिया साबित हो रहे है।<br />वैसे तो हाल के वर्षों में जमीन आंदोलन से नक्सलियों ने अपना ध्यान खींच लिया है फिर भी उनका दावा है कि बिहार-झारखंड के करीब 17 हजार एकड़ जमीन पर जनवादी खेती हो रही है। इस जमीन की उपज का एक-चौथाई हिस्सा नक्सलियों के खजाने में जा रहा है। बिहार-झारखंड की सीमाई इलाकों में धान और गेहूं के बदले गांजा, भांग और अफीम की खेती इस बात का गवाह है कि समतामूलक समाज निर्माण की बात करने वाले माओवादी पैसे की उगाही के लिए किस तरह के तरकीब अपना रहे हैं। हालांकि सीधे-सीधे इसकी खेती के लिए माओवादियों को दोषी नहीं माना जा सकता फिर भी एक सवाल तो उठता ही है कि आखिर उन्हीं इलाकों में अफीम की खेती क्यों फल-फूल रही है,जो कभी माओवादियों का आधार क्षेत्र था। मजे की बात तो यह है कि इसकी खेती करने वालों में से अधिकांश नक्सलियों के हार्डनाइनर रहे हैं। चतरा में कार्यरत लाल दस्ता का सदस्य उमेश कहता है कि सरकार ने रोजगार के सारे साधन छीन लिये परिणामत: नक्सली समर्थक भी पेट की भूख मिटाने के लिए गलत धंधों में लिप्त हो गये हैं। अपने दस्तावेजों में नशा विरोधी अभियान की बात करने वाले नक्सलियों के पास इस बात का जवाब नहीं है कि आखिर अधिकांश नक्सल प्रभावित गांवों में ही क्यों अवैध शराब (महुआ) तैयार हो रहा है? वर्ग विहीन समाज निर्माण की बात करने वाले नक्सलियों के पास क्या इस बात का जवाब है कि वह किस तरीके का समाज स्थापित करना चाहते हैं?<br />पूर्व खुफिया ब्यूरो और फिलहाल छतीसगढ़ में कार्यरत एक अधिकारी का कहना है कि सिर्फ जबरन वसूली से ही नक्सलियों को प्रति वर्ष 1500 करोड़ रुपये की आमदनी हो रही है। वैसे तो aउओधोगिक आैद्योगिक घराने नक्सलियों को लेवी देने की बात से इंकार करते हैं लेकिन सच्चाई ठीक इसके विपरीत है। आन्ध्र के एक पेपर मिल कंपनी पिछले पांच वर्षों से प्रतिवर्ष 5 करोड़ रुपये दे रही है तो वहीं की रेयॉन कंपनी प्रतिवर्ष 10 लाख रुपये नक्सलियों को पहुंचा रही है। झारखंड में जब बुंडू का उपचुनाव हो रहा था तब इस बात की अफवाह थी कि झामुमो सुप्रीमो शिबू सोरेन ने माओवादियों को खुश करने के लिए करोड़ों रुपये दिये हैं। हालात ऐसे हो गये हैं कि जिन परियोजनाओं में नक्सलियों की कोई रूचि नहीं है वैसी स्कीम सरकार के लाख प्रयास के बावजूद अधर में लटक जा रहा है। बात चाहे झारखंड के नेटरहाट िस्थत फील्ड फायरिंग रेंज की हो या बंगाल के सिंगूर आैर नंदीग्राम की। जिसमें मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने कहा था कि विस्थापन विरोधी मोर्चा की आड़ में माओवादी इस आंदोलन को हवा दे रहे हैं। उड़ीसा का पोस्को (साउथ कोरिया की इस्पात उद्योग) समेत दर्जनों ऐसी परियोजनाएं हैं जिनका विरोध माओवादियों ने पर्दे के पीछे से किया आैर वे परियोजनाएं खटाई में पड़ गयीं। हाल ही में आन्ध्र प्रदेश का हार्डकोर माओवादी अन्ना शंकर की गिरफ्तारी जब बोकारो में हुई तब इस की पुिष्ट भी हो गयी कि किस तरह से नक्सलियों की जमात देश के विभिन्न भागों में विस्थापन विरोधी आंदोलन को हवा देते फिर रहे हैं।<br />समता आैर न्याय के तर्क आैर तकाजे के साथ जिन लोगों ने बंगाल के नक्सलबाड़ी नामक स्थान से 1967 में बंदूक उठायी थी उन लोगों की हमदर्दी गरीबों के प्रति झलकती थी आैर वे सीलिंग की फालतू जमीन को भूमिहीनों के बीच बांटने के हिमायती थे। आज भी नक्सलियों की जमात भूमिहीनों को जमीन दिये जाने की वकालत तो करती है लेकिन उनका अधिकांश जोर लेवी वसूली पर जान पड़ता है। हालांकि इसकी शुरुआत कैसे हुई? इसकी सही जानकारी तो नक्सलियों के पास भी नहीं है फिर भी, द पिब्लक एजेंडा की तहकीकात से जानकारी मिली की कि नक्सली आंदोलन को गति आैर पैसे की कमी को दूर करने के लिए एमसीसी आैर पीपुल्स वार गु्रप अपने-अपने आधार इलाकों में जमींदारों की तिजोरियां लूटा करते थे। फिर भी आर्थिक संकट खत्म नहीं हो रहा था तब तत्कालीन एमसीसी की केंद्रीय कमिटी ने लेवी वसूली का प्रस्ताव पास किया। आठवें दशक में कूप (जले लकड़ी से बनी कोयला) आैर खैर के कारोबारियों से मामूली रकम की वसूली की जाने लगी। एमसीसी के बिहार-बंगाल स्पेशल एरिया कमिटी के सचिव आैर पूर्व विधायक रामाधार सिंह बताते हैं,"बाद के दिनों में सिंचाई परियोजनाओं से लेकर लोक निर्माण के कामों में भी लेवी लेने का प्रावधान पास हुआ, जो बढ़ता ही गया।' बीते महीने जब उत्त्ार प्रदेश के सोनभद्र इलाके में हार्डकोर महिला माओवादी बबिता की गिरफ्तारी हुई तब इस बात का खुलासा हुआ कि माओवादियों की आक्रमक ताकत हथियार बटोरने आैर धन उगाही में लगी हुई है।<br />कंपनियों से लेवी वसूली की सूची बाद में दी जाएगी।<br /> </div>श्याम सुन्दरhttp://www.blogger.com/profile/16320869658773019790noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7195851944555982826.post-13151547793659395542009-04-12T06:33:00.001-07:002009-04-12T06:33:57.078-07:00तीखे होंगे छापामार संघर्ष<div align="justify">एमसीसी के संस्थापक सदस्य व बिहार-बंगाल स्पेशल एरिया कमिटी के तीन-तीन बार सचिव रह चुके पूर्व विधायक रामाधार सिंह फिलहाल बंदी मुिक्त संघर्ष समिति के बैनर तले माओवादी राजनीति में सक्रिय हैं। उन्होंने द पिब्लक एजेंडा से देश में चल रहे नक्सली आंदोलन पर अपनी बेबाक टिप्पणी की। पेश है बातचीत के प्रमुख अंश---<br />आप शिक्षक से नक्सल राजनीति (दरमिया आैर बघाैरा-दलेलचक नरसंहार समेत आधा दर्जन नरसंहारों के आरोपी रहे) में आये। फिर वहां से आपकी दिलचस्पी खत्म हुई आैर संसदीय रास्ता अपनाते हुए विधानसभा में पहुंचे। आखिर क्या कारण रहा कि मुख्यधारा की राजनीति को तिलांजलि देते हुए पुन: नक्सली गतिविधियों में शामिल हो गये हैं।<br />मैं शिक्षक के साथ-साथ भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का सदस्य भी था। देखा कि क्रांति के नाम पर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी जमींदारों के साथ सांठगांठ करने में लगी है। फिर आैरंगाबाद के इलाके में जमींदारों के खिलाफ एमसीसी (अति चरम वामपंथी संगठन) का बगावती नेतृत्व अपनी ओर आकर्षित किया। इससे प्रभावित होकर मैंने भी बंदूक थाम ली। लेकिन एमसीसी की नरसंहार की राजनीति से मन उब गया आैर फिर संसदीय रास्ता अख्तियार कर लिया। लेकिन विधासभा के अंदर देखा कि किस तरह से गरीबों के पैसे पर नव जमींदार (विधायक आैर मंत्री) मटरगस्ती कर रहे हैं। उससे एक बार फिर लगा कि अगर गरीबों के लिए लड़ाई लड़नी है तो नक्सल आंदोलन से अच्छा कोई विकल्प नहीं हो सकता। इसी ख्याल से पुन: नक्सल आंदोलन को गति देने में लगा हूं।<br />पिछले चार वर्षों में दर्जनों कुख्यात माओवादी या तो गिरफ्तार कर लिये गये या फिर पुलिस मुठभेड़ में मारे गये। इसका माओवादी पार्टी पर क्या असर दिख रहा है?<br />देखिये, फर्जी मुठभेड़ में नक्सलियों के मारे जाने से माओवादियों की ताकत बढ़ने वाली नहीं है। क्योंकि पुलिस मुठभेड़ में मारे जाने वाले नक्सली अपने जमात में शहीद कहे जाते हैं। रही बात गिरफ्तारी की, तो नक्सलियों ने मुखबिरों के खिलाफ कार्रवाई (माैत के घाट) की शुरुआत कर दी है।<br />तो इसके क्या मायने निकाले जायें?<br />माओवाद एक विज्ञान है जिसका सिद्धांत कहता है कि दुश्मन से निपटने के लिए एक कदम आगे बढ़ना चाहिए जबकि दुश्मन की ताकत को भांपते हुए दो कदम पीछे भ्ाी हटना चाहिए। इसी सिद्धांत को मानते हुए नक्सलियों ने आन्ध्र के पड़ोसी राज्यों मसलन उड़ीसा, छत्त्ाीसगढ़, केरल आैर तमिलनाडू में अपना फैलाव शुरू कर दिया है ताकि पुलिसिया दमन होने पर जनता को इसका खामियाजा नहीं भुगतना पड़े वहीं दूसरी ओर आधार इलाके से सुरक्षित छापामार लड़ाई को तेज किया जा सके।<br />आन्ध्र प्रदेश के राज्य सचिव ने हाल ही में किसी केंद्रीय कमिटी के नेता पर मनमानी का आरोप लगाते हुए केरल पुलिस के सामने आत्मसमर्पण कर दिया। इसका पार्टी पर कैसा प्रभाव पड़ेगा?<br />पार्टी छोड़ने वाले से माओवादी राजनीति पर कोई खास असर तो नहीं पड़ेगा। लेकिन जनता पर इसका बुरा प्रभाव पड़ सकता है। ऐसी िस्थ्ाति में केंद्रीय नेतृत्व को चाहिए कि वे माओवादी दर्शन से जनता को शिक्षित करे।<br />भाकपा (माओवादी) बंदूक के सहारे सत्त्ाा पर कब्जा करने बात करता है जबकि दंडकारण्य स्पेशल कमिटी ने छत्त्ाीसगढ़ सरकार से शांतिवात्त्र्ाा का प्रस्ताव रखा है। क्या माओवादी पार्टी कमजोर हो गयी है इस कारण सरकार से शांतिवात्त्र्ाा की अपील की है या इसके कुछ आैर मायने हैं।<br />यह नक्सलियों की कमजोरी नहीं है। बिल्क छत्त्ाीसगढ़ में बदले हालात का नतीजा है। वहां पर भाजपा सरकार आदिवासियों से आदिवासियों को लड़वाने की फिराक में है। इसीलिये नक्सलियों ने संघर्ष का अपना तरीका बदलते हुए सरकार से शांतिवात्त्र्ाा की शत्त्र्ा (प्रतिबंध हटाने) रखी है ताकि माओवादी राजनीति को जनसंगठन के माध्यम से जनता के बीच ले जाया जा सके।<br />बिहार-झारखंड के नक्सल प्रभावित सीमाई इलाकों में अफीम की खेती घड़ल्ले से हो रही है। क्या नक्सली नशाखोर समाज निर्माण में लगे हुए हैं?<br />यह आरोप सरासर गलत है। रूस आैर चीन में भी कई इलाके नशाखोरों की चपेट में थे जहां आंदोलन चल रहे थे। जिसे लाल फाैज ने कुशलता के साथ बिना एक बूंद खून बहे ही खत्म कर दिया था। यहां भी जरूरत है उस तरह के आंदोलन छेड़ने की। अगर ऐसा नहीं हुआ तो दलालों की ही संख्या बढेगी। इसकी रोकथाम के लिए पार्टी गंभीरता से विचार कर रही है। गया आैर चतरा के कई इलाकों में नक्सलियों ने अफीम उगाने वाले किसानों के खिलाफ आंदोलन छेड़ रखा है।<br />फिर भी अफीम उगाने वाले किसानों की संख्या क्यों बढ़ती जा रही है?<br />जोनल कमांडरों में राजनैतिक चेतना का अभाव है। यही कारण है कि नक्सल प्रभावित इलाकों में अवैध धंधे फल-फूल रहे हैं। इसकी रोकथाम के लिए पार्टी गंभीरता से विचार कर रही है।<br />अचानक नक्सलियों ने जमीन आंदोलन से अपना ध्यान हटा दिया है? क्या माओवादी पार्टी अपने पुराने सिद्धांतों से हट गयी है?<br />ऐसी कोई बात नहीं है, अपने पुराने सिद्धंातों पर पार्टी आज भी कायम है।<br />नक्सलियों के नाम पर झारखंड में आधा दर्जन नक्सली समूह तैयार हो गये हैं जो आये दिन आपराधिक घटनाओं को अंजाम देते फिर रहे हैं। क्या ऐसे गिरोहों की माकपा (माओवादी) से सांठगांठ है।<br />नहीं, विकृत मानसिकता के क्रांति विरोधी लोग ही नक्सलवाद के आदर्श सिद्धांतों के खिलाफ हैं जिसका खामियाजा भाकपा (माओवादी) को भुगतना पड़ रहा है जबकि सच्चाई यह है कि माओवादियों ने अबतक चार दर्जन से अधिक टीपीसी समेत अन्य आपराधिक गिरोह के सदस्यों मार गिराया है।<br />भाकपा (माओवादी) की आगे की रणनीति होगी?<br />माओवादियों की रणनीति किसी से छुपी हुई नहीं है। फिर भी छत्त्ाीसगढ, महाराष्ट्र, उड़ीसा आैर आन्ध्र प्रदेश के कुछ हिस्सों में सक्रिय नक्सली संगठन भाकपा माले (जनशिक्त) से विलय के लिए वार्ता चल रही है। अगर परििस्थति ने साथ दिया तो जल्द ही भाकपा (माओवादी) में जनशिक्त का विलय हो जायेगा। अगर यह संभव हुआ तो देश मंेंं छापामार लड़ाई आैर तीखी होगी।<br />आसन्न लोकसभा चुनाव में नक्सलियों की कैसी रणनीति होगी?<br />क्रांति का रास्ता साफ है। अब आर-पार की लड़ाई शुरू हो गयी है जिसमें एक जगह संसदीय रास्ते हैं तो दूसरे रास्ते की लड़ाई माओवादी दिखा रहे हैं। इस बार के चुनाव में पार्टी जनता के बीच जायेगी आैर नेताओं के ढपोरशंखी घोषणाओं आैर उनके दागदार चेहरे को बेनकाम करेगी।<br /> </div>श्याम सुन्दरhttp://www.blogger.com/profile/16320869658773019790noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7195851944555982826.post-61372950016951581002009-04-12T06:02:00.000-07:002009-04-12T06:11:16.451-07:00तार-तार होती दोस्तियां<div align="justify">अवसरवादी राजनीति का नायाब उदाहरण बन गया है झारखंड। सियासतदानों ने चुनावी रण-घोषणा के साथ ही गठबंधन की सिद्धांतविहीन राजनीति शुरू कर दी है। पूरी तरह से नक्सलियों की चपेट में होने के बावजूद चुनावी सभाओं में नक्सलवाद का मुद्दा गायब है। न तो चुनावी अभियानों में बिजली, पानी मुद्दा बन रहा है आैर न ही सड़क, स्कूल, अस्पताल जैसी आधारभूत सुविधाओं की बातें उठ रही हैं। आश्चर्य तो यह कि लोकसभा चुनाव की अधिसूचना जारी होने तक झारखंडी नेता जहां गठबंधन राजनीति की मजबूती की दुहाई देते फिर रहे थे। वहीं प्रथम चरण की अधिसूचना जारी होते ही यूपीए की दोस्ती तार-तार हो गयी। राजद ने लोजपा के साथ चुनावी बैतरनी पार करने का मन बनाया तो झामुमो ने कांग्रेस का हाथ थाम लिया। फिर भी कांग्रेस ने समझाैते को दरकिनार करते हुए हजारीबाग से साैरभ नारायण सिंह को टिकट देकर यह साफ संदेश दिया है कि इस चुनाव में कांग्रेस की कोई मजबूरी नहीं है। बिल्क झामुमो ही अपनी साख बचाने के लिए कांग्रेस के सहारे अपना बेहतर प्रदर्शन कर सकता हैै। पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने बेहतर प्रदर्शन करते हुए 6 सीटों पर अपना कब्जा जमाया था वहीं झामुमो की झोली में 4 सीटें आयी थीं।<br />ऐसी बात नहीं घमासान सिर्फ यूपीए में ही मचा है बल्कि एनडीए भी इससे अछूता नहीं रहा। समझाैते के अनुसार चतरा आैर पलामू सीट जदयू के खाते में चला गया। फिर क्या था? बगावती तेवर तीखे हो गये। हुआ यह कि सूबे की इकलाैती अनुसूचित जाति की सीट पलामू जदयू के खाते मेंं चला गया फिर चतरा लोकसभा सीट से जदयू ने भाजपा के जिला अध्यक्ष अरुण कुमार यादव को अपनी पार्टी में मिलवाया आैर चुनाव चिह्न थमा दिया। इससे बाैखलाये भाजपा विधायक सत्यानंद भोक्ता के नेतृत्व में सैकड़ों कार्यकर्ता प्रदेश कार्यालय पहुंचे आैर प्रदेश नेतृत्व के खिलाफ जमकर नारेबाजी शुरू की। प्रदेश कार्यालय में ताला जड़ दिये गये। प्रदेश अध्यक्ष रघुवर दास समेत सारे पदाधिकारी बंदी बना लिये गये। सामूहिक इस्तीफे की मांग उठी। समझाैता भंग करने की मांग करते हुए भोक्ता ने "द पिब्लक एजेंडा' से कहा, "जदयू नेतृत्व के हाथों भाजपा को गिरवी रख दिया गया है। पलामू की सीट को जदयू के खाते में डालकर भाजपा ने दलितों के साथ अन्याय किया है।' वहीं प्रदेश अध्यक्ष रघुवर दास का कहना है, "गठबंधन धर्म की अपनी मजबूरी होती है। इसी मजबूरी के तहत दोनों सीटें जदयू को दिया गया है।' जबकि जदयू के प्रदेश अध्यक्ष जलेश्वर महतो ने द पिब्लक एजेंडा से कहा, "भाजपाइयों की इस नाैटंकी से प्रदेश प्रभारी सुषमा स्वराज को अवगत करा दिया गया है। एक-दो दिनों में सारा मामला पटरी पर आ जायेगा।' प्रदेश नेतृत्व चाहे जो भी तर्क दें लेकिन सच्चाई यह कि भाजपा एक ही साथ दोहरे घाटे का दंश झेल रहा है। पहला यह कि अपने कारनामों से खुद ही अरुण कुमार यादव जैसा समर्पित कार्यकर्ता खो दिया दूसरा इंदरसिंह नामधारी जैसा कद्दावर नेता भी चाहे-अनचाहे हाथ से निकल गये।<br />सूबे में गठबंधन की राजनीति से अपने को अबतक झारखंड विकास मोर्चा (प्रजातांित्रक) ही अलग किये हुए है। शायद यह निर्णय पार्टी सुप्रीमो आैर प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी ने हवा का रुख देखकर ही लिया है। तभी तो उन्होंने तीसरे मोर्चे में भी शामिल होने से साफ ताैर पर इंकार करते हुए कहा कि चुनाव पूर्व गठबंधन दर्द ही पैदा करते हैंजबकि चुनाव बाद हुए गठबंधन आंनददायी होता है। उन्होंने सभी सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारने की घोषणा की है। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से अपनी राजनीतिक का सफर शुरू करने वाले मरांडी का वही वोट बैंक है, जो भाजपा का है। यह मरांडी की अिग्नपरीक्षा भी है। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि भाजपा में आंतरिक कलह की वजह से ही पिछले चुनाव में 33.01 फीसदी वोट पाने के बावजूद मात्र एक ही सीट से संतोष करना पड़ा था। बिहार में हुए वाम एकता से उत्साहित कम्युनिस्टों ने यहां भी वही उम्मीद पाल रखी थी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। जब मैं खबर लिखने बैठा था। भाकपा माले के महासचिव दीपाकंर भट्टाचार्य कोडरमा में अपनी चुनावी सभा को संबोधित करते हुए वाम बिखराव के लिए सारा दोष सीपीएम आैर सीपीआइ पर दे रहे थे। आरोप-प्रत्यारोप के इस दाैर में एक बार फिर प्रदेश की राजनीति दलदल में फंसी हुई है। फैसला जनता के हाथों में है। </div>श्याम सुन्दरhttp://www.blogger.com/profile/16320869658773019790noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7195851944555982826.post-53869245103978743172009-04-12T05:57:00.000-07:002009-04-12T06:01:08.265-07:00चुनाव बहिष्कार कितना कारगर<div align="justify">लातेहार जिले के पोचरा गांव के लोग संसदीय लोकतंत्र और माओवादी जनवाद बीच चल रहे सत्ता संघर्ष के भंवर में फंसे हैं। उन्हें यह नहीं सूझ रहा कि आखिर क्या किया जाये? लोकतंत्र के चुनावी उत्सव में शामिल हुआ जाये या फिर नक्सलियों की बातों पर यकीन करते हुए वैकल्पिक जनसत्ता के निमार्ण में पूरी ताकत झोंक दी जाये। विदित हो कि माओवादियों ने पूरे गांव को चुनाव बहिष्कार के पोस्टर से पाट दिया है। ऐसी दुविधा सिर्फ पोचरा गांव के मतदाताओं की ही नहीं है बल्कि नक्सल प्रभावित बिहार के 19, झारखंड, छत्तीसगढ, उड़ीसा के अधिकांश लोकसभाई क्षेत्र, महाराष्ट्र के चार, पश्चिम बंगाल के पुरुलिया समेत तीन, पूर्वांचल के चार, उत्तराखंड के दो औरकर्नाटक के एक लोकसभाई क्षेत्रों के मतदाताओं के बीच बनी हुई है। इन क्षेत्रों में नक्सलियों ने संसदीय व्यवस्था के खिलाफ जोरदार प्रचार अभियान चला रखा है। खुफिया सूत्रों के अनुसार देश के 210 जिलों में माओवादियों ने राजनैतिक-सांगठनिक ढांचा तैयार कर लिया है जिमसें 53 जिले अतिसंवेदनशील हैं जबकि आंशिक रूप से प्रभावित 68, औसतन प्रभावित 20 जिले हैं। 70 जिलों मेंे माओवादी गुरिल्ला जोन में बदलने की फिराक में हैं। नक्सली सूत्रों का कहना है कि इन्हीं इलाकों में से 90 लोकसभाई क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर चुनाव बहिष्कार की तैयारी है जबकि अन्य इलाकों में सिर्फ चुनाव बहिष्कार के लिए प्रचार अभियान चल रहा है।<br />पिछले बिहार विधानसभा चुनाव में माओवादियों ने मतदाताओं की भावनाओं को दरकिनार करते हुए जिस हिंसक तेवर के साथ गया के देहाती इलाके में भाजपा के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष वैकेंया नायडू के हेलीकॉप्टर को जलाकर राख कर दिया था। इमामगंज विधानसभा क्षेत्र के लोजपा प्रत्याशी राजेश कुमार को गोलियों से भून दिया था। दो दर्जन से अधिक चुनाव प्रचार वाहनों में आग लगा दी थी। दो दर्जन से अधिक राजनैतिक कार्यकर्ताओं से इस्तीफा दिलवाकर संसदीय व्यवस्था के खिलाफ बगावती तेवर दिखाने का संकल्प करवाया था जबकि झारखंड में चार कार्यकर्ताओं के हाथ काट डाले थे। हालांकि बिहार-झारखंड में इस बात की भी चर्चा जोरों पर है कि संसदीय धारा के कई व्यक्तियों से नक्सलियों की गहरी दोस्ती है जिसका फायदा वे मतदान के दौरान लेते रहे हैं। बीते तमाड़ उपचुनाव में ही इस बात की अफवाह थी कि झारखंड मुक्ति मोर्चा के साथ ही एनोस एक्का की झारखंड पार्टी से नक्सलियों का सांठगांठ है। वहीं बिहार में राजद से माओवादियों की दोस्ती की भी चर्चा गाहे-बगाहे होती रही है।<br />कमोवेश यही स्थिति झारखंड और छत्तीसगढ़ में दिखा था। उससे सहमे राजनैतिक कार्यकर्ता इस बार देहाती इलाकों में जाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं। कमोवेश यही स्थिति छत्तीसगढ़ के बस्तर, दांतेवारा, कांकेर, बीजापुर समेत आठ जिले, उड़ीसा के कंधमाल, मयूरभांज, आन्ध्रप्रदेश के करीमनगर समेत संपूर्ण दण्कारण्य क्षेत्र, महाराष्ट्र के गढ़चिरौरी समेत अन्य नक्सल प्रभावित देहाती इलाकों की है जहां के ग्रामीणों ने अबतक राजनैतिक दलों के प्रचार वाहन नहीं देखा है। बीते दिनों दांतेवाड़ा इलाके में माओवादियों की गोलियों के शिकार दो भाजपा कार्यकर्ता बन चुके हैं। इन इलाकों की दीवारों पर चुनाव बहिष्कार के पोस्टर चस्पे देखे जा सकते हैं। झारखंड के चतरा, पलामू, खूंटी, जमशेदपुर, गुमला के साथ ही छत्तीसगढ़ के दांतेवाड़ा, बस्तर, बिहार के गया, नवादा आदि इलाकों में वहीं तक राजनैतिक दलों का प्रचार वाहन जा रहा है जहां तक सुरक्षा बलों की तैैनाती है। मसलन अधिकांश ग्रामीण इलाकों में चुनावी उत्सव का नामोनिशान नहीं है जबकि देश के अन्य भागों में चुनाव की अधिसूचना जारी होते ही राजनीतिक सरगर्मी दिनोंदिन तेज होती जा रही है।<br />हालांकि छत्तीसगढ़ के अबूझमाड़ इलाके से कुछ दूसरी ही खबर आ रही है। बताया जाता है कि इस इलाके को मुगल शासकों से लेकर आज तक किसी ने नहीं बूझा। नक्सलियों के लिए यह इलाका 70 के दशक से ही महफूज रहा है। लेकिन सूत्रों का कहना है कि इन दिनों माओवादी वहां अस्तित्व की अंतिम लड़ाई लड़ रहे हैं। इस इलाके में अर्द्धसैनिक बल तेजी से आगे बढ़ता जा रहा है। बात दीगर है कि इसी इलाके से अगस्त, 2008 को एक हेलीकॉप्टर गायब हो गया था। सुरक्षा एजेंसियों को आशंका है कि गायब हुआ हेलीकॉप्टर नक्सलियों के पास है जबकि नक्सली इससे इंकार करते रहे हैं। उसे खोजने में अर्द्धसैनिक बल नाकाम रहा है।<br />नक्सलियों के चुनाव बहिष्कार के मद्देनजर सलवा जुडूम कैंपों को ही मतदान केंद्र में तब्दील किया जा रहा है। इस बाबत नाम नहीं छापने की शर्त पर एक स्थानीय हिन्दी समाचार पत्र के संपादक बताते हैं कि भले ही माओवादियों की हिंसक तेवर से चुनाव आयोग सहमा हो लेकिन सच्चाई यह है कि नक्सलियों की हिंसक कार्रवाई से आम जनता ऊ ब चुकी है। नक्सली सिर्फ हिंसक वारदातों को अंजाम देकर अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं।<br />इधर राजनैतिक कार्यकर्ताओं के बीच उस वक्त सनसनी फैल गयी जब छत्तीसगढ़ के जशपुर इलाके में 17 मार्च को 5 टन विस्फोटक के साथ हथियारों का जखीरा पकड़ाया। केंद्रीय जांच ब्यूरो के अधिकारियों का कहना है कि यह दांतेवाड़ा इलाके में ले जाया जा रहा था जहां से नक्सली हिंसक वादरातों को अंजाम देने के लिए अपने प्रभाव वाले इलाकों में बांटते।<br />बात दीगर है कि बंदूक के सहारे चुनाव बहिष्कार की धमकी देने वाले नक्सली इस बार जनवाद की बात कर रहे हैं और हिंसक तेवर से परहेज करने को कहा है। पहली बार नक्सलियों ने चुनाव बहिष्कार के औचित्य को सही ठहराते हुए आठ पन्नों का वैकल्पिक जनसत्ता निर्माण चुनावी घोषणा पत्र जारी किया है और मतदाताओं से चुनाव बहिष्कार की मार्मिक अपील की है। भाकपा (माओवादी) के बिहार-झारखंड- छत्तीसगढ़ स्पेशल एरिया कमिटी के प्रवक्ता गोपाल का कहना है कि मौजूदा सरकार विकास के नाम पर सिर्फ बयानबाजी कर रही है और अराजकता को बढ़ावा दे रही है। उनके अनुसार पांच साल के कुशासन के बाद एक बार फिर संसदीय चुनाव हो रहे हैं। इसके बाद जो सरकार बनेगी उससे लोकतंत्र की मजबूती के नाम पर फायदा भले ही किसी और को होगा लेकिन इस चुनाव में लिया जानेवाला जनादेश अगले पांच साल तक जनता पर जुल्म ढाने, बेरोजगारी और भुखमरी पैदा करने वाली नीतियों की ही पोषक होगी। अपने पर्चे में माओवादियों ने कहा है कि वैश्विक भुखमरी के सूचकांक के अनुसार 118 देशों में भारत का 94वां स्थान है जो पाकिस्तान और इथोपिया से भी नीचे है। गोपाल के अनुसार, "तथाकथित आजादी के 61 वर्षों और भारतीय गणतंत्र के 48 वर्षों के बाद भी देश अर्द्धसामंती-अर्द्धऔपनिवेशिक बना हुआ है। अमीरी-गरीबी के बीच खायी चौड़ी होती जा रही है। देश के विभिन्न भागों में चल रहे राष्ट्रीयता के आंदोलन को बेरहमी से कुचला जा रहा है। भारतीय संसद पूंजीपतियों की पोषक है जिसे साम्राज्यवाद पूरी तरह से अपनी मुट्टी में जकड़ लिया है। इससे बचने का एक मात्र रास्ता वैकल्पिक सत्ता का निर्माण ही है। नक्सलियों ने भारतीय को गणराज्य बनाने के लिए लोकयुद्ध तेज करने और सामंतवाद-साम्राज्यवाद से मुक्ति के लिए वोट नहीं, चोट की जरूरत पर बल दिया है। माओवादियों का मानना है कि बिना पीपुल्स गुरिल्ला लिबरेशन आर्मी में शामिल हुए क्रांतिकारी सरकार का निर्माण संभव ही नहीं है।<br />हालांकि यह कोई पहला मौका नहीं है जब नक्सलियों ने संसदीय व्यवस्था को जनवाद के लिए धोखा बताया है। बल्कि आज से करीब 40 साल पहले 14 मार्च, 1968 को ऑल इंडिया कमिटी ऑफ कम्युनिस्ट रिव्यूसनरीज के संयोजक एस रॉय चौधुरी ने चुनाव को छलावा बताते हुए पहली बार इसके बहिष्कार की घोषणा की थी। तब से चुनाव बहिष्कार का यह नारा एक लंबा सफर तय कर चुका है। हर लोकसभा और विधानसभा चुनाव के समय नक्सली संसदीय व्यवस्था के बहिष्कार की घोषणा करते हैं। बावजूद इसके कुछ इलाके के छोड़ अधिकांश क्षेत्रों में मतदाता इस नारे को खारिज ही करते रहे हैं। प्रधानमंत्री भले ही नक्सलियों की हिंसक ताकत को देखते हुए इसे नक्सलवादी वायरस की संज्ञा दें लेकिन सच्चाई यह है कि अब भी देश का आम अवाम माओवादियों की जनवाद की ओर आकर्षित नहीं हो रहा है। हालात ऐसे उत्पन्न हो गये हैं कि छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित इलाकों में मतदाताओं ने नक्सली फरमान को दरकिनार करते हुए भाजपा के पक्ष में जमकर मतदान किया था। परिणामत: छत्तीसगढ़ में भाजपा की सरकार बन गयी।<br />संसदीय व्यवस्था और माओवादियों के बीच चल रहे द्वंद के बीच कभी चुनाव बहिष्कार का मुखर विरोध करने वाला नक्सलियों की जमात में से एक भाकपा (माले) लिबरेशन स्वयं ही संसदीय व्यवस्था का अंग बन गया है और वैकल्पिक जनसत्ता की बात कर रहे भाकपा (माओवादी) को अराजकतावादी घोषित कर दिया है। दूसरी ओर नक्सलबाड़ी मेें संसदीय व्यवस्था के खिलाफ विद्रोह करने वालों में से एक मृत्यु शैय्या पर पड़े कानू सान्याल ने माओवादियों की हर कार्रवाई को आतंकवादी कार्रवाई घोषित कर चुके हैं। रही बात सीपीआइ (एमएल) न्यू डेमोक्रेसी, रेड फ्लैग समेत अन्य नक्सलपंथी समूहों की। तो इनमें से अधिकांश समूहों में अभी जनवादी क्रांति के रास्ते को लेकर भ्रम बना हुआ है। हां इतना जरूर है कि सारे नक्सलपंथी समूह वर्तमान व्यवस्था को खारिज करते हैं। यह तो समय ही बतायेगा कि माओवादियों की बातों पर मतदान किस रूप में भरोसा करता है। वे वैकल्पिक जनसत्ता निर्माण में नक्सलियों के साथ खड़े होते हैं या वर्तमान व्यवस्था को ही सही जनवाद मानते हैं।<br /> </div>श्याम सुन्दरhttp://www.blogger.com/profile/16320869658773019790noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7195851944555982826.post-47581633916602250752009-03-17T23:28:00.000-07:002009-05-01T04:32:35.874-07:00तीखे होंगे छापामार संघर्ष<div></div><span id="0" class=" transl_class" title="Click to correct">एमसीसी</span> के संस्थापक सदस्य व बिहार-बंगाल स्पेशल एरिया कमिटी के <span id="1" class=" transl_class" title="Click to correct">तीन</span> बार सचिव रह चुके पूर्व विधायक रामाधार सिंह फिलहाल बंदी <span id="2" class=" transl_class" title="Click to correct">मुक्ति</span> संघर्ष समिति के बैनर तले माओवादी राजनीति में सक्रिय हैं। उन्होंने <em>द <span id="3" class=" transl_class" title="Click to correct">पब्लिक</span> एजेंडा </em><span id="4" class=" transl_class" title="Click to correct">से</span> देश में चल रहे नक्सली आंदोलन पर अपनी बेबाक टिप्पणी की। पेश है बातचीत के प्रमुख अंश---<br /><strong>आप शिक्षक से नक्सल राजनीति (दरमिया <span id="5" class=" transl_class" title="Click to correct">और</span> <span id="6" class=" transl_class" title="Click to correct">बघौरा-</span>दलेलचक समेत आधा दर्जन नरसंहारों के आरोपी रहे) में आये। फिर वहां से आपकी दिलचस्पी खत्म हुई <span id="7" class=" transl_class" title="Click to correct">और</span> संसदीय रास्ता अपनाते हुए विधानसभा में पहुंचे। आखिर क्या कारण रहा कि मुख्यधारा की राजनीति को तिलांजलि देते हुए पुन: नक्सली गतिविधियों में शामिल हो गये <span id="8" class=" transl_class" title="Click to correct">हैं</span>।<br /></strong>मैं <span id="9" class=" transl_class" title="Click to correct">शिक्षक</span> के साथ-साथ भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का सदस्य भी था। देखा कि क्रांति के नाम पर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी जमींदारों के साथ सांठगांठ करने में लगी है। फिर <span id="10" class=" transl_class" title="Click to correct">औरंगाबाद</span> के <span id="11" class=" transl_class" title="Click to correct">ग्रामीण</span> इलाके में जमींदारों के खिलाफ एमसीसी (अति चरम वामपंथी संगठन) का बगावती नेतृत्व अपनी ओर आकर्षित किया। इससे प्रभावित होकर मैंने भी बंदूक थाम ली। लेकिन एमसीसी की नरसंहार की राजनीति से मन उब गया <span id="12" class=" transl_class" title="Click to correct">और</span> फिर संसदीय रास्ता अख्तियार कर लिया। लेकिन विधासभा के अंदर देखा कि किस तरह से गरीबों के पैसे पर नव जमींदार (विधायक <span id="13" class=" transl_class" title="Click to correct">और</span> मंत्री) मटरगस्ती कर रहे हैं। उससे एक बार फिर लगा कि अगर गरीबों के लिए लड़ाई लड़नी है तो नक्सल आंदोलन से अच्छा कोई विकल्प नहीं हो सकता। इसी ख्याल से पुन: नक्सल आंदोलन को गति देने में लगा हूं।<br /><strong>पिछले चार वर्षों में दर्जनों कुख्यात माओवादी या तो गिरफ्तार कर लिये गये या फिर पुलिस मुठभेड़ में मारे गये। इसका माओवादी पार्टी पर क्या असर दिख रहा है?</strong><br />देखिये, फर्जी मुठभेड़ में नक्सलियों के मारे जाने से माओवादियों की ताकत <span id="16" class=" transl_class" title="Click to correct">घटने</span> वाली नहीं है। क्योंकि पुलिस मुठभेड़ में मारे जाने वाले नक्सली अपने जमात में शहीद कहे जाते हैं। रही बात गिरफ्तारी की, तो नक्सलियों ने मुखबिरों के खिलाफ कार्रवाई (<span id="17" class=" transl_class" title="Click to correct">मौत</span> के घाट) की शुरुआत कर दी है।<br /><strong>तो इसके क्या मायने निकाले जायें?</strong><br />माओवाद एक विज्ञान है जिसका सिद्धांत कहता है कि दुश्मन से निपटने के लिए एक कदम आगे बढ़ना चाहिए जबकि दुश्मन की ताकत को भांपते हुए दो कदम पीछे <span id="18" class=" transl_class" title="Click to correct">भी</span> हटना चाहिए। इसी सिद्धांत को मानते हुए नक्सलियों ने आन्ध्र के पड़ोसी राज्यों मसलन उड़ीसा, <span id="21" class=" transl_class" title="Click to correct">छातीश्गढ़</span>, केरल <span id="22" class=" transl_class" title="Click to correct">और</span> तमिलनाडू में अपना फैलाव शुरू कर दिया है ताकि पुलिसिया दमन होने पर जनता को इसका खामियाजा नहीं भुगतना पड़े वहीं दूसरी ओर आधार इलाके से सुरक्षित छापामार लड़ाई को तेज किया जा सके।<br /><strong><span id="23" class=" transl_class" title="Click to correct">आन्ध्र</span> प्रदेश के राज्य सचिव ने हाल ही में किसी केंद्रीय कमिटी के नेता पर मनमानी का आरोप लगाते हुए केरल पुलिस के सामने आत्मसमर्पण कर दिया। इसका पार्टी पर कैसा प्रभाव पड़ेगा?<br /></strong>पार्टी छोड़ने वाले से माओवादी राजनीति पर कोई खास असर तो नहीं पड़ेगा। लेकिन जनता पर इसका बुरा प्रभाव पड़ सकता है। ऐसी <span id="26" class=" transl_class" title="Click to correct">स्थिति</span> में केंद्रीय नेतृत्व को चाहिए कि वे माओवादी दर्शन से जनता को शिक्षित करे।<br /><strong>भाकपा (माओवादी) बंदूक के सहारे stta सत्त्ाा पर कब्जा करने बात करता है जबकि दंडकारण्य स्पेशल कमिटी ने छतीश्गढ़ सरकार से shantivarta शांतिवात्त्र्ाा का प्रस्ताव रखा है। क्या माओवादी पार्टी कमजोर हो गयी है इस कारण सरकार से शांतिवात्त्र्ाा की अपील की है या इसके कुछ आैर मायने हैं।<br /></strong>यह नक्सलियों की कमजोरी नहीं है। बिल्क छत्त्ाीसगढ़ में बदले हालात का नतीजा है। वहां पर भाजपा सरकार आदिवासियों से आदिवासियों को लड़वाने की फिराक में है। इसीलिये नक्सलियों ने संघर्ष का अपना तरीका बदलते हुए सरकार से शांतिवात्त्र्ाा की शत्त्र्ा (प्रतिबंध हटाने) रखी है ताकि माओवादी राजनीति को जनसंगठन के माध्यम से जनता के बीच ले जाया जा सके।<br /><strong>बिहार-झारखंड के नक्सल प्रभावित सीमाई इलाकों में अफीम की खेती घड़ल्ले से हो रही है। क्या नक्सली नशाखोर समाज निर्माण में लगे हुए हैं?<br /></strong>यह आरोप सरासर गलत है। रूस आैर चीन में भी कई इलाके नशाखोरों की चपेट में थे जहां आंदोलन चल रहे थे। जिसे लाल फाैज ने कुशलता के साथ बिना एक बूंद खून बहे ही खत्म कर दिया था। यहां भी जरूरत है उस तरह के आंदोलन छेड़ने की। अगर ऐसा नहीं हुआ तो दलालों की ही संख्या बढेगी। इसकी रोकथाम के लिए पार्टी गंभीरता से विचार कर रही है। गया आैर चतरा के कई इलाकों में <span id="27" class=" transl_class" title="Click to correct">नक्सलियों</span> ने अफीम उगाने वाले किसानों के खिलाफ आंदोलन छेड़ रखा है।<br />फिर भी अफीम उगाने वाले किसानों की संख्या क्यों बढ़ती जा रही है?<br />जोनल कमांडरों में राजनैतिक चेतना का अभाव है। यही कारण है कि नक्सल प्रभावित इलाकों में अवैध धंधे फल-फूल रहे हैं। इसकी रोकथाम के लिए पार्टी गंभीरता से विचार कर रही है।<br />अचानक नक्सलियों ने जमीन आंदोलन से अपना ध्यान हटा दिया है? क्या माओवादी पार्टी अपने पुराने सिद्धांतों से हट गयी है?<br />ऐसी कोई बात नहीं है, अपने पुराने सिद्धंातों पर पार्टी आज भी कायम है।<br />नक्सलियों के नाम पर झारखंड में आधा दर्जन नक्सली समूह तैयार हो गये हैं जो आये दिन आपराधिक घटनाओं को अंजाम देते फिर रहे हैं। क्या ऐसे गिरोहों की माकपा (माओवादी) से सांठगांठ है।<br />नहीं, विकृत मानसिकता के क्रांति विरोधी लोग ही नक्सलवाद के आदर्श सिद्धांतों के खिलाफ हैं जिसका खामियाजा भाकपा (माओवादी) को भुगतना पड़ रहा है जबकि सच्चाई यह है कि माओवादियों ने अबतक चार दर्जन से अधिक टीपीसी समेत अन्य आपराधिक गिरोह के सदस्यों मार गिराया है।<br />भाकपा (माओवादी) की आगे की रणनीति होगी?<br />माओवादियों की रणनीति किसी से छुपी हुई नहीं है। फिर भी छत्त्ाीसगढ, महाराष्ट्र, उड़ीसा आैर आन्ध्र प्रदेश के कुछ हिस्सों में सक्रिय नक्सली संगठन भाकपा माले (जनशिक्त) से विलय के लिए वार्ता चल रही है। अगर परििस्थति ने साथ दिया तो जल्द ही भाकपा (माओवादी) में जनशिक्त का विलय हो जायेगा। अगर यह संभव हुआ तो देश मंेंं छापामार लड़ाई आैर तीखी होगी।<br />आसन्न लोकसभा चुनाव में नक्सलियों की कैसी रणनीति होगी?<br />क्रांति का रास्ता साफ है। अब आर-पार की लड़ाई शुरू हो गयी है जिसमें एक जगह संसदीय रास्ते हैं तो दूसरे रास्ते की लड़ाई माओवादी दिखा रहे हैं। इस बार के चुनाव में पार्टी जनता के बीच जायेगी और नेताओं के ढपोरशंखी घोषणाओं और उनके दागदार चेहरे को बेनकाम करेगी।<br /> श्याम सुन्दरhttp://www.blogger.com/profile/16320869658773019790noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7195851944555982826.post-10170131214396642712009-03-17T23:10:00.000-07:002016-12-02T05:02:49.243-08:00माओवादियों का बदला नेता!<div align="justify">"आप मजदूर हैं और आपकी मेहनत के सहारे ही देश आगे बढ़ता है। आपके खून-पसीने को मलाई में बदलकर मालिक-सरकार जमकर मौज उड़ाते हैं और आप अंधेरे में रहते हैं। इसलिये एक वर्ग की सरकार में बगैर हिस्सेदारी के भी रणनीति के तौर पर कैसे लाभ उठाया जाये, इसे समझना होगा। नहीं तो हम सभी मारे जाएंगे।'<br />नक्सलियों के सबसे बड़े नेता गणपति का यह बयान मुंबई हमले के बाद आया है। एक ओर सरकार देशी-विदेशी आतंकियों से निपटने के लिए फेडरल एजेंसी बनाने की पहल कर रही है वहीं दूसरी ओर गणपति ने यह बयान देकर नक्सली जमातों के साथ ही प्रशासनिक खेमे में भूचाल ला दिया है। बंदूक के सहारे सत्ता हथियाने की वकालत करने वाले गणपति को आखिर ऐसी कौन सी मजबूरी आ गयी कि उन्होंने सरकार में हिस्सेदारी के बगैर ही लाभ उठाने की समझौतावादी लाइन को अख्तियार करने की बात कह डाली। गणपति की मानें तो आजादी के बाद देश का बड़ा हिस्सा विकास की रोशनी से कोसों दूर रहा है। इसलिए संसदीय राजनीति के अंतरविरोधों और जनता के आक्रोश को गोलबंद कर ही उसका लाभ उठाया जा सकता है।<br />इधर नक्सली जमातों से लेकर प्रशासनिक महकमों तक में यह खबर जंगल में आग की तरह फैल रही है कि नक्सली प्रमुख मुपल्ला लक्ष्मण राव उर्फ गणपति लंबे समय से बीमार चल रहे हैं। इस वजह से संगठन के कामों में वे विशेष रूचि नहीं ले रहे हैं। परिणामत: संगठन की जिम्मेदारी आन्ध्रप्रदेश - उड़ीसा स्पेशल एरिया कमिटी के सचिव सब्यसाची पांडा को मिल गयी है। हालांकि इसकी पुष्टि न तो नक्सली खेमा कर रहा है और ही केंद्रीय खुफिया ब्यूरो को इस बात की सही जानकारी है। एमसीसी खेमे से आने वाले 40 वर्षीय पांडा के बारे में बताया जाता है कि उन्होंने वर्ष 1996 में पार्टी की सदस्यता ग्रहण की। 2006 में कोटापुर जेलब्रेक को अंजाम देने वाले पांडा ने तब 774 पुलिस रायफलें लूटकर माओवादी खेमे में अपना महत्वपूर्ण स्थान बना लिया था। नयागढ़ जेलब्रेक में भी रणनीति के तौर पर उनकी भूमिका मानी जाती है। आन्ध्रा पुलिस ने उन पर १० लाख रुपये का इनाम घोषित कर रखा है। राजनीतिक परिवार से आने वाले पांडा के पिता और भाई पहले माकपा के सदस्य थे लेकिन कुछ वर्ष पहले ही उन लोगों ने बीजू जनता दल का दामन थाम लिया।<br />छनकर आ रही खबरों के मुताबिक इन दिनों भाकपा (माओवादी) के अंदर संघर्ष के तरीकों को लेकर गहरी बहस छिड़ी हुई है और वे नये सिरे से भारतीय उपमहाद्वीप को परिभाषित करने में लगे हुए हैं। विदित हो कि आजादी के बाद से लेकर अबतक माओवादी इस देश को अर्द्धसामंती और अर्द्धऔपनिवेशिक देश मानते रहे हैं। लेकिन माओवादियों की कर्नाटक इकाई देश की अर्द्धसामंती चेहरे कोे सिरे से खारिज कर दिया है जबकि इसी सामंतवाद की बुनियाद पर साठ के दशक में पश्चिम बंगाल के गांवों में जन्मा नक्सलवाद धुर विप्लवी वामपंथी माओवादी विचारकों चारु मजूमदार और कानू सान्याल समेत दर्जनभर कम्युनिस्टों के जेहन से निकलकर साहित्यकार महाश्वेता देवी की "हजार चौरासी की मां' के कथानक तक विस्तृत हो गया है। कभी कानून-व्यवस्था की समस्या बन चुना नक्सलवाद अब घोषित तौर पर सामाजिक -आर्थिक प्रक्रिया में बदलाव का हामी हो गया है और उसका घटिया संस्करण सबके सामने है। शायद तभी गणपति का सूर भी बदला नजर आ रहा है।<br />माओवादी राजनीति में एक ही साथ कई समस्याएं उठ खड़ी हुई हैं। मसलन कभी दक्षिण एशिया में माओवादी आंदोलन को हवा देने वाला नक्सलियों का अगुवा नेपाल संसदीय रास्ता अख्तियार कर लिया है और दुनिया के माओवादियों के बीच यह संदेश दे रहा है कि वर्तमान समय में बंदूक के सहारे सत्ता हथियाने का रास्ता बंद हो चुका है। सूत्रों का कहना है कि माओवादियों की एक बड़ी जमात नेपाल के प्रचंड लाइन का मौखिक समर्थन कर रहा है। ऐसे में माओवादियों के बीच इस बात की बहस चल पड़ी है कि जब चीन में ही माओत्सेतुग्ड अप्रसांगिक हो गये तो फिर विविधताओं से भरे भारत में बंदूक के सहारे सत्ता कैसे हासिल की जा सकती है? वैसे ही लोग इस बात की वकालत कर रहे हैं कि जरूरत है अतीत की विरासत, वर्तमान के अनुभव और भविष्य की आकांक्षाओं को ध्यान में रखकर ही नयी विचारधारा और परिर्वतन की रणनीति बनाने की।<br />नौंवे दशक में अचानक उत्तर भारत में दलित और पिछड़े संसदीय नेताओं का राजनीति में उभार होना भी नक्सलियोंं के अस्तित्व को खतरे में डाल दिया है। यही कारण है वोट बहिष्कार को तिलांजलि देते हुए नक्सल समर्थक लोग अब जमकर मतदान में हिस्सा ले रहे हैं। बिहार, झारखंड, उड़ीसा समेत नक्सल प्रभावित अन्य राज्यों के गांवों से बड़े जोतदारों और जमींदारों का पलायन हो चुका है। यानी उन लोगों ने नक्सलियों की हुकूमत स्वीकार कर ली है।<br />केंद्रीय नेतृत्व इन सारी बातों पर आत्ममंथन ही कर रहा था कि अचानक छत्तीसगढ़ राज्य इकाई की दंडकारण्य कमिटी ने सरकार से शांति वार्ता का प्रस्ताव रख डाला। मजे की बात यह है कि इसबात की जानकारी केंद्रीय नेतृत्व तक को नहीं है। यही नहीं, आन्ध्र प्रदेश इकाई के राज्य सचिव और केंद्रीय कमिटी के सदस्य सांबासिवुदू ने आत्मसमर्पण करके नेतृत्व की कुशलता पर ही सवाल उठाया है। खबर है कि माओवादियों के शीर्ष नेतृत्व से उनकी अनबन चल रही थी। ये वही माओवादी हैं जिन्होंने अक्तूबर, 2003 में तत्कालीन मुख्यमंत्री चन्द्रबाबू नायडू पर हमले की योजना बनायी थी। इन्होंने 1993 में महमूदनगर जिले से भूमिगत माओवादी राजनीति की शुरुआत की थी। तब से वह लगातार माओवादी राजनीति को फैलाने में लगे रहे। उनके आत्मसमर्पण से माओवादियों के अंदर चल रहे अंतरविरोध खुलकर सामने आ गया है। यह तो बानगी मात्र है। सच्चाई तो यह है बीते चार वर्षों में आन्ध्र से लेकर बिहार तक दर्जनों हार्डकोर माओवादियों ने आत्मसमर्थन किया है। आखिर क्या कारण है कि एक जज्बे के साथ नक्सली बनने वाले हार्डकोर कैडर आत्मसमर्पण करने पर मजबूर हो रहे हैं? इसका मंथन माओवादियों की केंद्रीय कमिटी ने जब शुरू की तो विवाद गहरा गया। जबकि कई ऐसे भी हैं जो नेतृत्व को अनदेखा करते हुए रॉबिनहुड बनने के चक्कर में गिरफ्तार हो चुके हैं। नक्सलियों की लगातार हो रही गिरफ्तारी पर केंद्रीय नेतृत्व भी सकते में है और गंभीर आत्मचिंतन में लगा हुआ है। खबर है कि बीते साल बिहार और झारखंड के सीमाई इलाकों के घने जंगलों में आयोजित केंद्रीय कमिटी की बैठक में जब दो धारी संघर्ष (टू लाइन स्ट्रगल) शुरू हुआ तो पार्टी सकते में आ गयी और आनन-फानन में कई ऐसे फैसले ले लिये जिसे अगर सार्वजनिक कर दिया जाये तो नक्सल आंदोलन में भूचाल आये बिना नहीं रहेगा। बताया जाता है कि भारतीय समाज का विश्लेषण कर रहे माओवादियों की सर्वोच्च संस्था अब पीपुल्स गुरिल्ला लिबरेशन आर्मी हो गयी है जबकि इसके पहले पार्टी सर्वोच्च संस्था हुआ करती थी। बदले विश्व परिदृश्य में संयुक्त मोर्चा के महत्व को भी नक्सलियों ने समझा है। जबकि इसके पहले नक्सलियों की जमात संयुक्त मोर्चा को सिरे से खारिज करती थी। बंदूक के सहारे समतामूलक समाज निर्माण करने के हिमायती माओवादियों ने अपने 40 वर्षों के संघर्ष में पहली बार संयुक्त मोर्चा में गांधीवादियों से लेकर लोकतंत्रप्रेमियांें के साथ मोर्चा बनाने का निर्णय लिया है ताकि छोटे स्तर के नक्सली वाम भटकाव की ओर अग्रसर नहीं हों।<br />यही नहीं, पश्चिम बंगाल के गांवों से 1967 में सही किसानों के हाथों में जमीन और किसान कमिटी के हाथों में हुकूमत के हिमायती नक्सलियों ने आधार इलाका बनाने की बात भी फिलहाल स्थगित कर दी है और वे छापामार जोन बनाने पर जोर दे रहे हैं ताकि सरकार से संघर्ष तीखा होने की स्थिति में पुलिस के दमन से आधार इलाके की जनता को बचाया जा सके । इसका परिणाम भी सामने दिखने लगा है। बात चाहे महाराष्ट्र के गढचिरौली जिले में 15 पुलिसकर्मियों को पत्थर से कूच-कूचकर हत्या करने की हो या झारखंड के राहे पुलिस पिकेट के पांच जवानों को चाकू गोदकर मारने की। बिहार के नवादा स्थित कौआकोल में तो नक्सलियों ने हद ही कर दी जहां पीएलजीए की गुरिल्ला आर्मी की महिला दस्ता ने 15 पुलिसकर्मियों के हथियार छिनने के बाद हत्या कर दी। आगे नक्सलियों का कहर कहां बरपेगा, यह कहना मुश्किल है। विदित हो कि पिछले साल केंद्रीय कमिटी के सदस्य और मारक दस्ते का मास्टरमाइंड प्रमोद मिश्र की जब धनबाद में गिरफ्तारी हुई तब इस बात का खुलासा भी हुआ था कि नक्सलियों ने अपनी रणनीति बदल दी है और अब वे भारतीय सेना से लड़ाई करने के पक्ष में आ गये हैं। बात दीगर है कि अबतक सेना को नक्सली इलाकोें में नहीं उतारा गया है।<br />आर्थिक सुधारवाद के इस जमाने में नक्सलियों का मानना है कि दलाल पूंजीपतियों के सहयोग से साम्राज्यवादी पूंजी गांवों तक अपनी पैठ बना रही है। इससे निपटने और इसके खतरों से जनता को अवगत कराने के लिए गांधीवादियों से लेकर अन्य समाजवादियों से सांठगांठ कर रही है।<br /> </div>श्याम सुन्दरhttp://www.blogger.com/profile/16320869658773019790noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7195851944555982826.post-46390161784583830052009-03-04T03:06:00.000-08:002016-12-02T05:02:22.054-08:00कम नहीं आंकिये बसपा कोहालांकि उत्तर प्रदेश को छोड़कर कहीं भी बहुजन समाज पार्टी की सरकार नहीं है और न किसी दूसरे राज्यों में वह सरकार बनाने की ही स्थिति में है। बावजूद इसके आगामी आम चुनाव में बसपा राष्ट्रीय राजनीति में निर्णायक दबदबा बनाने में कामयाब हो सकता है। कुछ महीने पूर्व हुए चार राज्यों के विधानसभा चुनाव परिणामों को देखते हुए बड़े दलों मसलन भाजपा और कांग्रेस इसे नकार कर नहीं चल सकते।<br />बसपा की सोशल इंजीनियरिंग को देखते हुए कांग्रेस और भाजपा समेत वाम दलों ने भी इसे बतौर सत्ता प्रेम दलितों को पटाने में लगी है। हालांकि ऊ परी तौर पर दोनों दल यह दिखाने की फिराक में हैं कि फिलहाल बसपा से डरने की जरूरत नहीं है। लेकिन इन दलों के अंदर झांकने पर तस्वीर कुछ दूसरी उभरकर आ रही है। इसका गवाह केंद्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली ही है जहां कभी बसपा ने दो सीटों (8.5 फीसदी) से खाता खोला था वहां बीते विधानसभा चुनाव में उसे14 फीसदी वोट मिले। कमोवेश यही हाल मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में दिखा जहां पिछले विधासनभा चुनाव में अपना वोट बैंक बढ़ाने में कामयाब रहा। एक ओर बसपा ने जहां मध्य प्रदेश में दो सीटों की बढ़ोतरी करते हुए वर्तमान विधानसभा में सात विधायकों को भेजने में सफल रहा वहीं छत्तीसगढ़ में वोट प्रतिशत 6.00 कर लिया। हाथी की मस्त चाल से राजों-रजवाड़ों का गढ़ राजस्थान भी अछूता नहीं रहा। यहां सत्ता की बागडोर भले ही कांग्रेस पार्टी ने संभाली हो लेकिन बसपा ने 4 अतिरिक्त सीटें जीतकर अपना 6 फीसदी वोट बढ़ा लिया। कभी "वोट से लेंगे पीएम-सीएम और मंडल से लेंगे एसपी-डीएम' का राग अलापने वाली बसपा इन दिनों न सिर्फ उत्तर भारत में बल्कि अखिल भारतीय राजनैतिक वजूद बचाने में कामयाब हुई है। विदित हो कि कांशीराम ने जब अपनी नौकरी छोड़कर बामसेफ और डी-फोर के रास्ते बसपा बनाया था उसी समय उन्होंने नया हिन्दुस्तान का सपना भी देखा था उस समय उनका स्पष्ट विचार था कि दलितों और पिछड़ों का भला तब तक नहीं होने वाला जबतक सत्ता पर उनका (दलितों और पिछड़ों) कब्जा नहीं होगा।<br />वैसे तो बहुत लोगों को यह भ्रम है कि बसपा दलितों की पार्टी है। लेकिन इसके गिरेबां में झांकने पर यह स्पष्ट होता है कि यह दलितों की पार्टी नहीं, बल्कि भारतीय संविधान पर खरा उतरने वाली एकमात्र पार्टी है जिसके संस्थापक कांशीराम ने 1987 में ही हरियाणा विधानसभा में पिछड़ों को आरक्षण देने की वकालत की थी। तब मंडल कमीशन की रिपोर्ट केंद्रीय सचिवालय में धूल खा रही थी। उसी समय कांशीराम ने आजादी के बाद के हुक्मरानों पर तरस के साथ ही आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा था कि आखिर क्या कारण रहा कि इतने दिनों के बाद भी अनुसूचित जाति, जनजाति के साथ ही पिछड़ों को न तो सामाजिक मान्यता ही मिली और न ही कोई अधिकार ही दिये गये।<br />यही नहीं, सीएसडीएस की ओर से जारी किये गये आंकड़ों के अनुसार 1999 में 13 फीसदी गैर-यादवों के वोट बसपा को मिली। कहने का तात्पर्य यह कि कांशीराम ने बसपा में दलितों के साथ ही पिछड़ों और मुसलमानों को भी जोड़ने का प्रयास किया। एक कदम आगे बढ़ते हुए वर्ष 2007 में पार्टी सुप्रीमो मायावती ने बसपा में सवर्णों में ब्राहणों के साथ ही वैश्यों को जोड़कर एक नया कीर्तिमान स्थापित किया और सोशल इंजीनियर बन गयी। कमाल करते हुए मायावती ने प्रदेश में 30 फीसदी वोट और 206 सीटें पाकर अपने दम पर सरकार बना ली। अगर सबक ुछ ठीकठाक रहा तो आगामी लोकसभा चुनाव में वह 40-50 सीट आसानी से जीत सकती है। अगर ऐसा हुआ तो बिना बसपा के सहयोग के केंद्र की सरकार चलाना मुश्किल होगी। फिर गठबंधन की राजनीति उन्हें प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठा दे तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी, क्योंकि देश की बड़ी वामपंथी पार्टी सीपीएम पहले ही मायावती के पक्ष में खड़ा हो चुकी है। वहीं सांप्रदायिकता के नाम पर भाजपा विरोध अभी भी वामपंथियों का जारी है। फिर दिल्ली, राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ समेत अन्य राज्यों में जिस तरीके से हाथी मस्तानी चाल चली है उसका भी संकेत सकारात्मक ही है।श्याम सुन्दरhttp://www.blogger.com/profile/16320869658773019790noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7195851944555982826.post-82084849800347580762009-03-03T22:50:00.000-08:002009-03-03T22:55:03.942-08:00...और ओबामा ने बाजी मार ली<div align="left">...और अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के अंतिम वाकयुुद्ध में 46 वर्षीय डेमोक्रेट्स उम्मीदवार बराक ओबामा ने बाजी मार ली। अंतिम बहस के बाद न्यूयार्क टाइम्स व सीबीएस की ओर से कराये गये जनमत सर्वेक्षण में बराक अपने प्रतिद्वंदी 76 वर्षीय रिपब्लिकन उम्मीदवार जॉन मैक्केन से 14 फीसदी मतों से आगे चल रहे थे। जबकि 22 अक्टूबर को वॉल स्ट्रीट जनरल व एनबीसी न्यूज की ओर से कराये गये सर्वेक्षण में भी ओबामा 52 फीसदी मतदाताओं के पसंदीदा बन गये हैं वहीं मैक्केन के समर्थकों का आंकड़ा 42 फीसदी है। दो हफ्ते पहले की गयी रायशुमारी के नतीजों में ओबामा को 4 फीसदी की बढ़त मिल गयी है। फिर भी, इन सर्वेक्षणों का अंतिम प्रतिफल 4 नवंबर को राष्ट्रपति चुनाव के लिए होने वाले मतदान के बाद ही आएगा, जिसका दुनिया बेसब्री से इंतजार कर रही है।<br />16 अक्टूबर को न्यूयार्क के लंबे-चौड़े भू-भाग में फैले होपस्ट्रा विश्वविद्यालय परिसर के बहस हॉल में दोनों प्रत्याशियों ने आमने-सामने एक-दूसरे पर तीखे प्रहार किये। शब्दवाणों की झड़ी से एक ओर जहां रिपब्लिकन उम्मीदवार मैक्केन बार-बार झल्लाये वहीं डेमोक्रेट्स प्रत्याशी व्यक्तिगत हमला झेलने के बावजूद गंभीर बने रहे और शालीनता के साथ मुद्दों को उठाते रहे।<br />वैसे तो चुनावी माहौल में ओछी राजनीति कोई नई बात नहीं है। एशिया, अफ्रीका समेत दुनिया के अधिकांश देश इस रोग से संक्रमित हैं। लेकिन इस बार अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव अभियान में प्रत्याशियों की बयानबाजी ने सारी सीमाओं को लांघ दिया। डेमोक्रेट्स उम्मीदवार आतंकी बताए गये तो डेमोक्रेट समर्थकों ने रिपब्लिक उम्मीदवार को हिंसक बताया और कहा कि मैक्केन युद्ध की मानसिकता से ग्रस्त हैं।<br />अमेरिकी चुनावी इतिहास में शायद ऐसा पहली बार हुआ है जब पूरे चुनावी अभियान से एकतरफा मुद्दे गायब दिख रहे हैं। आर्थिक सुनामी की मार झेल रहे अमेरिका समेत तीसरी दुनिया के देश व्यक्तिगत बयानबाजी व ओछी राजनीति से हतप्रभ हैं। हद तो यह कि आर्थिक नीतियों पर चर्चा करने की बजाय पूरे चुनावी अभियान में रिपब्लिकन उम्मीदवार मैक्केन हताशा भरी राजनीति करते दिख रहे हैं। चुनावी सर्वेक्षणों के परिणामों से हताश हो चुके मैक्केन ने बिना साक्ष्य जुटाए ही यह प्रचारित करने का भरसक प्रयास किया कि बराक ओबामा का संबंध आतंकवादियों से रहा है। उन्होंने कहा कि बराक सातवें दशक में वियतनाम युद्ध के समय आतंकी संगठन "वेदर अंडरग्राउंड' के संस्थापक सदस्यों में से एक विलियम एयर्स (उस दौरान बम विस्फोटों में नाम आया था) के साथ रहे हैं। रिपब्लिकन उप राष्ट्रपति पद की उम्मीदवार सारा पेलेन ने भी इस बात का जोर-जोर से प्रचार किया कि बराक का संबंध आतंकवादियों से रहा है।<br />हालांकि इतने तीखे आरोप के बावजूद बराक शालीनता के साथ चुनावी अभियान में डटे हुए हैं। रिपब्लिकन पार्टी के व्यक्तिगत हमले से आहत बराक ने सफाई देते हुए मतदाताओं से कहा कि इन दिनोें विलियम एयर्स शिकागो के एक महाविद्यालय में व्याख्याता के पद पर कार्यरत हैं। उन्होंने मैक्केेन व सारा के इस आरोप को तथ्यहीन बताया और कहा कि आज से 40 साल पहले, जिस वक्त के आरोप हम पर लग रहे हैं उस समय हमारी उम्र मात्र आठ साल की थी। क्या आठ साल का मासूम बालक आतंकवादियों से संबंध रख सकता है? उन्होंने जोर देकर कहा कि अगर वाकई एयर्स आतंकवादी होते तो पूर्व राष्ट्रपति रोनाल्ड रेगन के पूर्व राजदूतों व उनके नजदीकी सहयोगियों से उस बोर्ड को आर्थिक मदद नहीं मिलती, जिसमें आज से 10 साल पहले मैं और एयर्स दोनों शामिल थे। फिर भी, बराक ने इस आरोप का जवाब एक इलेक्ट्रॅानिक विज्ञापन के माध्यम से दिया है। इस विज्ञापन में दिखाया गया है कि जब वॉल स्ट्रीट ढह रहा था, उस वक्त मैक्केन बहुत ही लापरवाह थे। मतदाताओं को इसमें बताया जा रहा है कि अमेरिका की गिरती अर्थव्यवस्था व 750 हजार बेरोजगार अमेरिकियों का ध्यान हटाने के लिए ही ओबामा पर व्यक्तिगत प्रहार किये गये हैं। हालांकि अमेरिकी जनता चुनाव पूर्व हुए सर्वेक्षणों में मैक्केन के इस बेतुका आरोप को सिरे से खारिज कर दिया है।<br />अपने तूफानी चुनावी अभियान के अंतिम चरण में ओबामा ने सरकार की नीतियों पर प्रहार करते हुए कहा- अगर किसी भी हालत में मैक्केन जीत जाते हैं तो वे भी जॉर्ज बुश की ही तरह अमेरिका का कबाड़ा निकाल देंगे। व्यंग्यात्मक लहजे में ओबामा ने कहा कि मैं अमेरिकी जनता की बेहतरी के लिए कुछ दिन और व्यक्तिगत हमले बर्दाश्त कर ले रहा हूं, लेकिन नहीं चाहता कि अमेरिकी जनता अगले चार साल तक नाकामयाब आर्थिक नीतियों के भरोसे चले। इतना सुनते ही मैक्केन गुस्से में आ गये और डेमोक्रेट्स प्रत्याशी को चेताते हुए कहा-"सीनेटर ओबामा, आप संभलकर बात करें, मैं जॉर्ज बुश नहीं हूं।' इतना सुनते ही तपाक से बराक बोले-"बुश की नीतियों को अगर मैं आपकी नीति मानता हूं तो इसमें गलत क्या है? क्योंकि विश्वव्यापी आर्थिक संकट के बावजूद आप अभी भी बुश की आर्थिक नीतियों जो टैक्स, ऊर्जा, खर्च आदि से संबंधित है, का समर्थन कर रहे हैं। मैक्केन का कहना है कि ओबामा वर्गयुद्ध की नीति पर चल रहे हैं।<br />बीते दिनों जिस तरह से पूरा भारतीय संसद राहुल गांधी के उस भाषण पर ठहर सा गया था जिसमें उन्होंने उड़ीसा के किसी गांव की लीलावती-कलावती की चर्चा की गयी थी। ठीक उसी तरह से ओबामा ने अंतिम बहस में "द प्लंबर' की रोचक गाथा सुनायी। मानों पूरी बहस ही "जो' नामक एक ऐसे प्लंबर पर आकर टिक गई जो ओहियो में ओबामा से मिला था और इनके टैक्स प्रस्ताव से बर्बाद होने का अंदेशा जताया था। मैक्केन ने उसी "जो' को मध्यवर्गीय अमेरिकी प्रतिनिधि का चेहरा मानते हुए कोई ग्यारह बार नाम लिया। शुरू में तो यह रोचक लगा लेकिन बाद में उसका उल्लेख उबाऊ होने लगा। कुछ भी हो लेकिन इन दिनों भारतीय कलावती-लीलावती की ही तरह अमेरिका में "जो' द प्लंबर भी मशहूर हो चुका है।<br />अंतिम बहस के दौरान दोनों नेताओंं ने जोर-शोर से हिस्सा लिया। एक ओर रिपब्लिकन उम्मीदवार ने जहां अनुभव के अस्र चलाये वहीं डेमोक्रेट प्रत्याशी ने धैर्य से आर्थिक सुनामी का तांडव झेल रही जनता के साथ ही अपने समर्थकों का भी ढांढस बंधाया।<br />---------------------------<br />विशेषज्ञों का आकलन<br />न्यूयॉर्क में बहस से एक दिन पहले के रुझान :<br />ओबामा: 49.9 फीसदी- (इलेक्टोरल कॉलेज के 313 वोटों की बढ़त )<br />मैक्केन: 42 फीसदी-सिर्फ 158 पर रूक गए।<br />15 अक्टूबर, तीसरी व निर्णायक बहस (स्थान-न्यूयॉर्क के लांग आईलैंड स्थित हाफ्स्डा विश्वविद्यालय के परिसर में)<br />विषय-वित्तीय संकट<br />जॉन मैक्केन<br />पहले 30 मिनट<br />· जबरदस्त हावी रहे। धाराप्रवाह बोले। चुन-चुन कर आरोप मढ़े।<br />दूसरे 30 मिनट<br />· पहले तो हावी होने का भरोसा खुद पर भारी पड़ने लगा। फिर गड़बड़ा गए। आरोप लगाने लगे।<br />तीसरे 20 मिनट<br />· एकदम दिशा खो बैठे। निजी प्रहार करने करने। माखौल उड़ाने लगे।<br />बराक ओबामा<br />पहले 30 मिनट<br />· शुरुआत गड़बड़ा गई। शायद भौंचक रह गए कि मैक्केन ऐसा कर सकते हैं। ये, देखिए..मेरी बात तो सुनिए..जैसे शब्दों का इस्तेमाल करने लगे।<br />दूसरे 40 मिनट<br />· तेजी से संभले। गलती न हो जाए, इसलिए शांत थे। सिर्फ मुद्दों पर ही बोले।<br />तीसरे 20 मिनट<br />· संयमित और अविचलित रहे। खूब अच्छा बोले।<br />बहस के बाद रुझान:<br />· ओबामा-53 फीसदी<br />·<br /> </div>श्याम सुन्दरhttp://www.blogger.com/profile/16320869658773019790noreply@blogger.com0