Friday, December 2, 2016

भारत का विभाजन क्यों?

> मार्क्‍सवादी अमेरिकी इतिहासकार और चिंतक पैरी एंडरसन ने योरोप और विश्व इतिहास पर महत्वपूर्ण काम किया है। वह 1962 से न्यू लैफ्ट रिव्यू के संपादक हैं। एंडरसन ने इधर भारतीय इतिहास पर काम करना शुरू किया है। उनके भारत संबंधी लेखों का संग्रह द इंडियन आइडियालॉजी शीर्षक से प्रकाशित हुआ है। यह लेख पहले प्रसिद्ध ब्रितानवी पत्रिका लंदन रिव्यू आफ बुक्स में ‘व्हाई पार्टीशन’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ था। इस लंबे लेख का यह प्रारंभिक एक तिहाई अंश यथावत दिया जा रहा है। सन् 1945 तक गांधी का युग खत्म होकर नेहरू का जमाना शुरू हो गया था। दोनों के बीच के फर्कों पर बात करने की मानो परंपरा-सी रही है, पर इन फर्कों का स्वतंत्रता के संघर्ष के परिणाम से संबंध ज्यादातर अंधेरे में रहा है। न ही वे फर्क हमेशा साफ-साफ पकड़ में आते हैं। नेहरू एक पीढ़ी छोटे, देखने में सुंदर, काफी ऊंचे सामाजिक वर्ग से आए, पश्चिम की अभिजात शिक्षा प्राप्त, धार्मिक विश्वासों से रहित थे और उनके कई प्रेम-संबंध भी थे, ये बातें सभी को पता हैं। गांधी के साथ उनका अनोखा संबंध यहां राजनीतिक तौर पर ज्यादा प्रासंगिक है। राष्ट्रीय आंदोलन में अपने अमीर पिता, जो 1890 के दशक से ही कांग्रेस के स्तंभ थे, द्वारा भर्ती करवाए गए नेहरू पर गांधी का जादू तब चला जब वह तीस की उम्र के करीब थे और जब उनके अपने राजनीतिक विचार उतने विकसित नहीं हुए थे। एक दशक पश्चात् जब उन्होंने स्वतंत्रता और समाजवाद की संकल्पनाएं ग्रहण कर ली थीं जिनसे गांधी इत्तफाक नहीं रखते थे और लगभग चालीस के हो चुके थे तब भी वह गांधी को लिख रहे थे, ‘क्या मैं आप ही की राजनीतिक औलाद नहीं हूं, गो कि किसी कदर नाफरमां-बरदार और बिगड़ी औलाद?’ वल्दियत वाली बात अपनी जगह सही है; पर नाफरमानी (या अवज्ञा) दरअसल नाफरमानी कम, नखरा ज्यादा था। बहुतों की तरह 1922 में गांधी द्वारा असहयोग आंदोलन की हवा निकाल देने से हताश, 1932 में अछूतों का निर्वाचन मंडल शुरू करने के खिलाफ उनके अनशन से निराश, 1934 में सविनय अवज्ञा आंदोलन को स्थगित करने के गांधी के कारणों से चकित, नेहरू फिर भी हर बार अपने सरपरस्त के फैसले के आगे अपने आपको झुका देते। राष्ट्रीय आंदोलन का पवित्रीकरण? ‘हमारी राजनीति में इस धार्मिक तत्व के बढऩे से मैं कभी-कभी परेशान हो जाता,’ मगर ‘मुझे अच्छी तरह पता था कि उसमें कोई और चीज है, जो मनुष्यों की गहन आतंरिक लालसा की पूर्ति करती है।’ असहयोग आंदोलन की असफलता? ‘आखिर वह (गांधी) इसके लेखक और प्रवर्तक थे और वह आंदोलन क्या था और क्या नहीं इस बात का निर्णय उनसे बेहतर कौन कर सकता था। और उनके बिना हमारे आंदोलन का अस्तित्व ही कहां था?’ पूना का आमरण अनशन? ‘दो दिनों तक मैं अन्धकार में था और आशा की कोई किरण नहीं नजर आती थी, गांधीजी जो कर रहे थे उस काम के चंद परिणामों के बारे में सोच कर मेरा दिल बैठता जाता …फिर एक अजीब-सी बात हुई। एकदम भावनात्मक संकट जैसा हुआ और उसके बाद मुझे शांति महसूस हुई और भविष्य उतना अंधकारमय नहीं लगा। मनोवैज्ञानिक क्षण में सही चीज करने का अद्भुत कौशल गांधीजी के पास था और मुमकिन है कि उनके किए के – जिसे सही ठहराना मेरे दृष्टिकोण से नामुमकिन सा था- बहुत अच्छे परिणाम होंगे।’ और वह दावा कि बिहार में भूकंप भेज कर ईश्वर ने सविनय अवज्ञा आंदोलन के प्रति अप्रसन्नता दर्शाई थी? बापू की घोषणा ने नेहरू को उनके विश्वास के ‘लंगर से दूर खदेड़ दिया’ मगर यह मानकर कि उनके सरपरस्त का किया सही है उन्होंने ‘जैसे-तैसे समझौता कर लिया।’ क्योंकि ‘आखिरकार गांधीजी क्या ही अद्भुत व्यक्ति थे।’ ये सारी घोषणाएं 1936 के जमाने की हैं जब नेहरू अपने समूचे कैरियर के किसी भी कालखंड के मुकाबले राजनीतिक तौर पर सबसे ज्यादा रैडिकल थे। इतने कि साम्यवादी विचारधारा के प्रति झुकाव रखते थे। 1939 के आते-आते वे सीधे-सीधे यह प्रमाणित कर रहे थे, ‘भारत का उनके (गांधी के) बिना कुछ नहीं होगा।’ अप्रतिम अभिभावकी nehru-and-gandhiमनोवैज्ञानिक अवलंब की इस मात्रा में अलग-अलग सूत्र आपस में गुंथे हुए थे। नेहरू के गांधी के प्रति संतानवत विमोह में कुछ अनोखा नहीं था। मगर नेहरू के प्रति गांधी के अभिभावकीय स्नेह की गहराई – जो उन्होंने अपनी संतानों के प्रति विशेष सख्ती बरतते हुए अमूमन नहीं दिखाई- अप्रतिम थी। इन भावनात्मक बंधनों में परस्पर हितों का गणित भी समाविष्ट था। जब तक वह कांग्रेस के दायरे में रह कर काम करते रहे, गांधी नेहरू पर यह भरोसा कर सकते थे कि वह वयस्क राजनीतिक मुद्दे उनके समक्ष नहीं उठाएंगे, जबकि गांधी के प्रिय होने की वजह से नेहरू यह मान कर चल सकते थे कि वह कांग्रेस की अगुआई करने और आजादी के बाद देश पर राज करने में अपने प्रतिद्वंद्वियों को पीछे छोड़ देंगे। फिर भी उन दोनों के बीच क्या उतनी भी बड़ी बौद्धिक खाई थी ही नहीं? एक बुनियादी संदर्भ में वास्तव में एक खाई थी। गांधी के अलौकिक स्वप्नों और दुनियावी अप्रचलितों की खातिर नेहरू के पास वक्त नहीं था। उद्योगों और आधुनिकता के फायदों में उनका पूरी तरह लौकिक स्तर पर भरोसा था। फिर भी जब तक राजसत्ता पहुंच से दूर थी तब तक यह विभाजन रेखा उतनी महत्त्वपूर्ण न थी। जहां तक ब्रिटिश राज के तहत राष्ट्रीय आंदोलन के राजनीतिक नजरिए का संबंध है, तो गुरु और चेले में उनकी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के विभेद की बनिस्बत बहुत कम फर्क है। गांधी के यहां पुस्तकीय ज्ञान अधिक न था। लंदन में उन्हें कानून की अपनी पाठ्य-पुस्तकें रुचिपूर्ण लगीं- संपत्ति कानून पर आधारित पुस्तिका को पढऩा ‘उपन्यास पढऩे जैसा था’ – मगर बेंथम को समझना बेहद मुश्किल था। दक्षिण अफ्रीका में उन्हें इल्हाम हुआ रस्किन और टॉल्सटॉय की पुस्तकों का। भारत में जेल में वह इस नतीजे पर पहुंचे कि गिबन महाभारत का घटिया संस्करण है और यह कि वह स्वयं पूंजी को मार्क्‍स से बेहतर लिख सकते थे। जहां पर आकर उनकी दृष्टि जमी वह थी उन चंद पुस्तकें पर जो उन्होंने हिंद स्वराज लिखना शुरू करने से पहले तक पढ़ रखी थीं और कुछ गिने-चुने हिंदू क्लासिक्स। दक्षिण अफ्रीका छोड़ते समय दुनिया के बारे में उनके मूलभूत विचार मूलत: परवान चढ़ चुके थे। सत्य दूसरी किताबों में नहीं बल्कि खुद उनमें मौजूद था। एक भारतीय आलोचक ने ‘एक अधभरे दिमाग की ऐसी समाश्वस्तता’ के खतरों के प्रति आगाह करते हुए लिखा था कि ‘गांधी जैसी बेफिक्र स्वच्छंदता से प्रथम पुरुष का इस्तेमाल करने वाला, लगभग वैसी ही परिस्थितियों में रहा हुआ दूसरा कोई भी व्यक्ति बहुत खोजने पर भी मुझे नहीं मिला।’ गांधी को जो उच्च शिक्षा नहीं मिली थी वह नेहरू को हासिल हुई, और वह बौद्धिक विकास भी जिसमें अत्यधिक धार्मिक आस्था ने अड़ंगा नहीं डाला था। लेकिन इन सुअवसरों का जो प्रतिफलन हुआ वह अपेक्षा से कम था। प्रतीत होता है कि उन्होंने कैम्ब्रिज में बहुत कम सीखा, जैसे-तैसे प्राकृतिक विज्ञान में औसत डिग्री हासिल की जिसका बाद में नामोनिशां तक न रहा, वकालत के इम्तहानों में उनका प्रदर्शन ठीक नहीं रहा और लौटने पर अपने पिता के नक्शेकदम पर चलते हुए वकालत की प्रैक्टिस में भी उन्हें कोई खास सफलता नहीं मिली। कैम्ब्रिज में दर्शन के मेधावी छात्र रहे सुभाष चंद्र बोस, जो आई.सी.एस. (इंडियन सिविल सर्विस) के एलीट ओहदे की परीक्षा पास करने वाले और फिर देशभक्ति की वजह से उसमें प्रवेश करने से इनकार करने वाले पहले देशी थे, के साथ नेहरू का अंतरध्यान खींचता है। मगर एक मामूली किस्म का आगाज आगे आने वाली बहार को नहीं रोक सकता, और नेहरू समयानुसार एक समर्थ वक्ता और सफल लेखक बन गए। मगर फिर भी वह नाम मात्र की भी साहित्यिक अभिरुचि या बौद्धिक अनुशासन नहीं हासिल कर पाए। उनकी सबसे महत्त्वाकांक्षी कृति द डिस्कवरी ऑफ इंडिया (भारत की खोज), जो 1946 में प्रकाशित हुई थी, श्वेर्मराई (अति भावुकता) के वाष्प-स्नान जैसी है। अछूतों के नेता आम्बेडकर बौद्धिक स्तर में कांग्रेस के बहुत से नेताओं से काफी ऊपर थे और कुछ हद तक जिसका कारण लंदन स्कूल ऑफ इकॉनॉमिक्स और कोलंबिया विश्वविद्यालय में हुई उनकी गंभीर शिक्षा-दीक्षा थी। उनसे नेहरू की तुलना करना उचित नहीं होगा। आम्बेडकर को पढऩा मतलब किसी दूसरी दुनिया में प्रवेश करना है। द डिस्कवरी ऑफ इंडिया – और उसकी पूर्ववर्ती कृति द यूनिटी ऑफ इंडिया को तो रहने ही दीजिये- ये न केवल उनमें औपचारिक विद्वत्ता की कमी और रूमानी मिथकों के प्रति लत को दर्शाती हैं, बल्कि उससे भी कुछ गंभीर बात यह है कि ये बौद्धिक से ज्यादा मनोवैज्ञानिक सीमा दिखाती है। खुद को धोखा देने का ऐसा सामर्थ्य जिसके दूरगामी राजनीतिक परिणाम सामने आए। ‘भारत मेरे खून में था और उसमें ऐसा बहुत कुछ था जो सहज रूप से मुझे रोमांचित करता था,’ वह अपने पाठकों को बताते हैं। ”वह बहुत ही प्यारा है और उसकी संतानें उसे नहीं भुला सकतीं चाहे वे कहीं भी चले जाएं या उन पर कैसी भी विपत्तियां आएं। क्योंकि वह अपनी महानता और कमजोरियों में भी उनका हिस्सा है और उसकी संतानों का अक्स उसकी गहरी आंखों में है जिन्होंने बहुत कुछ जीवन का आवेग, हर्ष और मूर्खता को देखा है और ज्ञान के कुएं में भी झांका है।” समूची डिस्कवरी ऑफ इंडिया पुस्तक इस किस्म की बिलकुल नहीं है। मगर बारबरा कार्टलैंड (अपने रोमांटिक उपन्यासों के मशहूर बीसवीं सदी की एक प्रमुख अंग्रेज लेखिका) प्रवृत्ति-सतह से कभी दूर न थी: ”शायद अब भी हम प्रकृति के रहस्यों को अनुभव कर पाएं और उसके जीवन और सौंदर्य राग को सुन पाएं और उससे सत हासिल कर पाएं। यह राग चुनिंदा जगहों पर नहीं गाया जाता और अगर उसे सुन सकने वाले कान हमारे पास हों तो हम उसे लगभग कहीं भी सुन सकते हैं। मगर कुछ जगहें होती हैं जहां वह उन्हें भी लुभा लेता है जो उसके लिए तैयार नहीं होते और कहीं दूर बज रहे तेज वाद्य के गहरे स्वरों की तरह आता है। ऐसी ही पसंदीदा जगहों में है कश्मीर, जहां सुंदरता का बसेरा है और एक इंद्रजाल हमारे होश फाख्ता कर देता है।” ऐसा गद्य लिखने वाले दिमाग से राष्ट्रीय आंदोलन के सामने खड़ी कठिनाइयों के बारे में अधिक यथार्थवाद दिखाने की उम्मीद नहीं की जा सकती। आम्बेडकर का महत्व जब गांधी डॉ. आम्बेडकर को यह मांग स्वीकार करने के लिए ब्लैकमेल कर रहे थे कि अछूतों के साथ जाति व्यवस्था के परित्यक्तों की तरह नहीं बल्कि उसी के अंतर्गत निष्ठावान हिंदुओं के तौर पर बर्ताव किया जाएगा, तब नेहरू ने आम्बेडकर के समर्थन में या उनके प्रति एकजुटता दर्शाने वाला एक भी लफ्ज न कहा। गांधी अनशन पर थे और बावजूद इसके कि तब अछूतों का भविष्य एक गौण बात थी, जैसे कि नेहरू ने बड़े जोरदार तरीके से उसे खारिज कर दिया, उनका चुप रहना काफी था। हालांकि यहां पर, जिस किसी मुद्दे पर वह राजनीतिक स्टैंड लेते थे उसके विषय में गांधी के साथ असहमति प्रदर्शित करने को लेकर एक मामूली-सी अनिच्छा वाला मामला भर नहीं था। नेहरू, जैसा कि उन्होंने कई बार स्वयं माना है, आस्तिक नहीं थे। हिंदू धर्म के सिद्धांतों की उनकी नजर में बहुत कम या नहीं के बराबर कीमत थी। मगर गांधी की ही तरह एकदम सरल तौर पर वह धर्म को राष्ट्र से जोड़ते थे यह कहते हुए कि ‘हिंदू धर्म राष्ट्रवाद का प्रतीक बन गया था। वह वास्तव में राष्ट्रीय धर्म था जिसमें नस्ली और सांस्कृतिक, सभी गहन प्रवृत्तियों को आकर्षित करने की क्षमता थी और यही चीज आज हर तरफ राष्ट्रवाद की बुनियाद बनी है।’ उसके विपरीत बौद्ध धर्म भारत में उत्पन्न होने के बावजूद इसलिए पिछड़ गया क्योंकि वह ‘अनिवार्यत: अंतरराष्ट्रीय’ था। इस्लाम, जो भारत में उपजा भी नहीं था, तो और भी कम राष्ट्रीय था। इसका नतीजा यह हुआ कि जिस व्यवस्था के हिंदू धर्म की आधारशिला होने की बात पर गांधी जोर देते थे और जिसने इतिहास में उसे बिखरने से बचाया था, उसे सजीले रूप में पेश करना जरूरी था। बेशक जाति की अपनी विकृतियां (कुरूपताएं) थीं और गांधी को भी यह बात तस्लीम करनी पड़ी। नेहरू ने बतलाया था कि वृहत परिप्रेक्ष्य में मगर भारत को उसके लिए शर्मिंदा होने की जरूरत नहीं थी। ‘जाति कार्य और प्रयोजन पर आधारित एक समूह व्यवस्था थी। उसका मतलब था एक सर्व-समावेशी व्यवस्था जिसमें कोई साझा सिद्धांत न हो और हर समूह को पूरी स्वतंत्रता मिले।’ सौभाग्य से जिस चीज ने यूनानियों को अक्षम बनाया था वह इसमें नहीं थी और ‘यह निम्नतम स्तर वालों के लिए दासप्रथा के मुकाबले बहुत ज्यादा बेहतर थी। हर जाति के अंतर्गत समानता और कुछ हद तक स्वतंत्रता थी; हर जाति उपजीविकाजन्य थी और स्वयं को अपने विशिष्ट कार्य में प्रयुक्त करती थी। इस कारण दस्तकारी और शिल्पकारिता में ऊंचे दर्जे की विशेषज्ञता और कौशल पैदा हो पाया वह भी उस समाज व्यवस्था के अंतर्गत जो प्रतिस्पर्धात्मक और अर्जनशील नहीं थी।’ वास्तव में किसी पदानुक्रमता (हाइरार्की) के सिद्धांत को मूर्त रूप देने से बहुत दूर जाकर जाति ने ‘हर समूह में लोकतांत्रिक प्रवृत्ति बनाए रखी।’ बाद की पीढिय़ां, जिन्हें यह मानने में दिक्कत पेश आ रही होगी कि नेहरू ने ऐसी भयावह बातें लिखी हैं, उन परिच्छेदों की ओर इशारा कर सकती हैं जहां उन्होंने जोड़ा था कि ‘वर्तमान समाज के संदर्भ में – (कालखंड रहित) अतीत के विपरीत- जाति ‘प्रगति की अवरोधक’ बन गई थी, जो राजनीतिक या आर्थिक लोकतंत्र से सुसंगत नहीं थी। जैसा कि आम्बेडकर ने बड़े तीखेपन से नोट किया था, नेहरू ने अस्पृश्यता का कभी जिक्र भी नहीं किया था। यह मानना भूल होगी कि नेहरू द्वारा जाति को अलंकरण प्रदान करना रणनीतिक अथवा सिनिकल था। भारतीय चरित्र और दीगर चीजों पर बहु-सहस्त्राब्दिक ‘एकात्मता की छाप’ की उनकी खोज की ही भांति यह भी उसी ‘श्वेर्मराई’ का हिस्सा था। गांधी ने लिखा था कि इतिहास प्रकृति का व्यवधान है। और इस बात का प्रमाण अप्रासंगिक है। जिस बात का दावा गांधी ने स्वयं के लिए किया था, नेहरू ने उसका सामान्यीकरण कर दिया। नेहरू ने द डिस्कवरी ऑफ इण्डिया में लिखा, ‘सत्य क्या है। मैं निश्चित तौर पर नहीं जानता। मगर व्यक्ति मात्र के लिए सत्य कम से कम वह है जो वह खुद महसूस करता है और जानता है कि वह खरा है। इस व्याख्या के आधार पर अपने सत्य पर दृढ़ रहने वाला गांधी जैसा दूसरा नहीं देखा।’ राष्ट्र के कारज में ‘हमें ऊपर उठाने और सत्य के लिए बाध्य करने हेतु अविचल सत्य के प्रतीक के तौर पर गांधी सदैव उपस्थित थे।’ ऐसे ज्ञानमीमांसात्मक प्रोटोकालों के कारण ही नेहरू एक पृष्ठ पर जाति की समानता और स्वतंत्रता का भली भांति अनुमोदन कर सकते थे और दूसरे पन्ने पर उसके बीत जाने की उम्मीद भी जता सकते थे। एकाधिकारवादी मनोवृत्ति the-indian-ideologyअगर राष्ट्रीय धर्म और उसके मूलभूत संस्थानों के बारे में उनका यह मत था, तो उन धर्मों के मानने वालों की उनके दृष्टिकोण में क्या स्थिति थी जो न तो अपने उद्गम में राष्ट्रीय थे न विस्तारण में? राजनीतिक नेता के तौर पर नेहरू की पहली असली परीक्षा 1937 के चुनावों के साथ आई। अब वह गांधी के सहायक नहीं थे, जो 1934 के बाद नेपथ्य में चले गए थे। चुनावों में कांग्रेस की जीत और उसकी प्रथम क्षेत्रीय सरकारों के गठन के साल में वह कांग्रेस के अध्यक्ष थे। चुनाव परिणामों को लेकर शेखी बघारते हुए नेहरू ने घोषणा की कि भारत में महत्त्व रखने वाली अब दो ही शक्तियां हैं : कांग्रेस और अंग्रेज सरकार। इसमें जरा भी शक नहीं कि खुद को धोखा देने वाले घातक अंदाज में उन्हें इस बात पर भरोसा भी था। दरअसल यह एक इकबालिया जीत थी। इस समय तक कांग्रेस का सदस्यत्व 97 फीसदी हिंदू था। भारत भर के लगभग 90 फीसदी मुसलमान संसदीय क्षेत्रों में उसे खड़े होने के लिए मुसलमान उम्मीदवार तक नहीं मिले। नेहरू के अपने प्रांत उत्तर प्रदेश में, जो अब की तरह उस समय भी भारत का सबसे घनी आबादी वाला क्षेत्र था, कांग्रेस ने सभी हिंदू सीटें जीत ली थीं। मगर एक भी मुस्लिम सीट वह हासिल नहीं पर पाई थी। फिर भी, चुनाव प्रचार के दौरान तक कांग्रेस और मुस्लिम लीग के ताल्लुकात खराब नहीं थे और जब नतीजे आए तो लीग ने तब लखनऊ में बनने वाले मंत्रिमंडल में कुछ प्रतिनिधित्व हासिल करने के लिए दोनों पार्टियों के बीच गठबंधन करना चाहा। ‘निजी तौर पर मुझे पक्का यकीन है कि हमारे और मुस्लिम लीग के बीच कोई भी समझौता या गठबंधन बेहद हानिकारक होगा।’ तो नेहरू के आदेश पर मुस्लिम लीग को बड़ी रुखाई से बता दिया गया कि ऐसा कुछ चाहने से पहले वह अपने आप को कांग्रेस में विलीन कर दे। ऊंची जाति के हिंदुओं की मनोवृत्ति को आगे चलकर आम्बेडकर ने एकाधिकारवादी बताया था। इस सामान्यीकरण की वैधता चाहे जो हो, यकीनन संदेहास्पद है, मगर इस बात में कोई शक नहीं कि स्वतंत्रता संघर्ष की वैधता के एकाधिकार पर कांग्रेस का दावा उसका केंद्रीय वैचारिक तत्त्व था। फिर क्यों आम मुसलमानों ने, दीगर हिंदुस्तानियों की तरह पर्याप्त संख्या में कांग्रेस को वोट नहीं दिया? इस पर नेहरू का जवाब यह था कि उन्हें चंद मुस्लिम सामंतों ने बहकाया था और हिंदू भाइयों के साथ अपने साझा सामजिक हितों को जान जाने पर पर वे कांग्रेस के समर्थन में आ जाएंगे। उनके नेतृत्व में मुसलमानों को यह समझाने के लिए एक व्यापक जनसंपर्क अभियान चलाया गया था। मगर बोस के विपरीत नेहरू का जनता के साथ सहज संपर्क बेहद कम था और वह कोशिश जल्द ही ठप्प पड़ गई। जमीनी स्तर पर लामबंदी करने की वह उनकी आखिरी कोशिश थी। दो साल बाद जब वह कांग्रेस के अध्यक्ष नहीं थे, उन्होंने बोस को निकाल बाहर करने में सांठ-गांठ की। सैद्धांतिक तौर पर बोस पार्टी के वाम पक्ष में उनके हमराह थे मगर नेहरू के विपरीत गांधी के जादू से मुक्त थे और उन्हें गांधी का उत्तराधिकारी बनने से वंचित रखने में सक्षम प्रतिद्वंद्वी थे। नेहरू अब भी स्वतंत्र अभिनेता नहीं थे। नेहरू की जीवनीकार जूडिथ ब्राउन की तथ्यात्मक राय में वह पार्टी के पुराने खूसटों के ‘एकदम भरोसेमंद’ आधार बने रहे। दूसरा विश्व युद्ध छिड़ जाने पर कांग्रेस आलाकमान ने भारत की जनता से पूछे बिना वायसराय द्वारा जर्मनी के खिलाफ जंग छेड़ देने के विरोध में सभी प्रांतीय सरकारों को इस्तीफा देने का निर्देश दिया। इसका तुरंत असर यह हुआ कि एक राजनीतिक खालीपन तैयार हो गया जिसमें जिन्ना ने बड़ी दृढ़ता से अपने पैर जमा दिए। वह इस बात से बाखबर थे कि अपने सबसे महत्त्वपूर्ण साम्राज्य में लंदन को रियाया की वफादारी दिखाने की बेहद जरूरत थी। कांग्रेस मंत्रिमंडलों के अंत को ‘हश्र का दिन’ घोषित कर उन्होंने बिना समय खोये ब्रिटेन की मुश्किल घड़ी में उसके प्रति अपना समर्थन व्यक्त किया और उसके बदले में युद्धकालीन अनुग्रह हासिल कर लिया। लेकिन उनके सामने काम मुश्किल था। अब तक वह मुस्लिम लीग के निर्विवाद नेता बन चुके थे। मगर उपमहाद्वीप की दूर-दूर तक बिखरी हुई मुस्लिम अवाम बिलकुल एकजुट न थी। बल्कि वह पहेली के उन टुकड़ों की तरह थी जिन्हें साथ मिलाकर कभी एक नहीं किया जा सकता। मुस्लिम लीग की स्थिति Muhammad-Ali-Jinnahऐतिहासिक तौर पर मुस्लिम एलीट का सांस्कृतिक और राजनीतिक हृदय स्थल उत्तर प्रदेश में था, जहां लीग सबसे ज्यादा मजबूत स्थिति में थी बावजूद इसके कि एक तिहाई से भी कम आबादी मुसलमान थी। सुदूर पश्चिम में सिंध, बलूचिस्तान और उत्तर-पश्चिम सीमावर्ती प्रांत में मुस्लिम जबरदस्त रूप से बहुलता में थे। मगर अंग्रेजों के कब्जे में वे काफी बाद में आए और इस वजह से वे इलाके देहाती पिछड़े हुए क्षेत्र थे, जहां उन स्थानीय नामी-गिरामियों का वर्चस्व था जो न उर्दू जबान बोलते थे और न लीग के प्रति कोई वफादारी रखते थे, और न ही लीग की उन इलाकों में कोई सांगठनिक मौजूदगी थी। पंजाब और बंगाल में, जो भारत के संपन्नतम प्रांत थे और एक दूसरे से काफी दूर स्थित थे, मुसलमान बहुसंख्यक थे। पंजाब में उनका संख्याबल जरा ही अधिक था मगर बंगाल में अधिक मजबूत था। इन दोनों ही प्रांतों में लीग बहुत प्रभावशाली शक्ति नहीं थी। पंजाब में वह नगण्य थी। यूनियनिस्ट पार्टी जिसका पंजाब प्रांत पर नियंत्रण था, बड़े मुस्लिम जमींदारों और संपन्न हिंदू जाट किसानों का गठबंधन था और इन दोनों ही धड़ों के सेना से संबंध मजबूत थे और वे अंग्रेजी राज के प्रति वफादार भी थे। बंगाल में, जहां लीग के नेता प्रांत के पूर्वी हिस्से में बड़ी रियासतों के मालिक कुलीन जमींदार थे, राजनीतिक प्रभाव केपीपी (कृषक प्रजा पार्टी) का था जिसका आधार आम किसान वर्ग था। इस तरह प्रांतीय स्तर पर पर्यवेक्षक जहां भी नजर डालते, मुस्लिम लीग कमजोर नजर आती। हिंदू बहुल इलाकों में उसे कांग्रेस ने सत्ता से परे रखा हुआ था और मुस्लिम-बहुल क्षेत्रों में उसे उसके विरोधी संगठनों ने उपेक्षित कर रखा था। अखिल भारतीय स्तर पर आवश्यक कौशल और जीवट के साथ काम कर सकने वाले एकमात्र मुस्लिम नेता के तौर पर जिन्ना की प्रतिष्ठा ने लीग को बचा लिया। इसी वजह से यूनियनिस्ट, केपीपी और दीगर नेतृत्व अपनी-अपनी प्रांतीय जागीरें बनाए रखते हुए अंग्रेजों के साथ केंद्र में बातचीत की खातिर जिन्ना को अपना नुमाइंदा बनाने को राजी हुए। यह टुकड़ा-टुकड़ा और असंबद्ध आलम ही 1937 के चुनावों में कांग्रेस की हेकड़ी का एक कारण था। कांग्रेस आलाकमान के लिए लीग एक चुकी हुई ताकत थी जिसे नजर-अंदाज किया जा सकता था जबकि दीगर स्थानीय मुस्लिम पार्टियों को अपने सुभीते के अनुसार चुना जा सकता था और अपना सहयोगी बनाया जा सकता था। महायुद्ध ने इस संरचना को तेजी से बदल देना था। अंग्रेज, जो मुसलमानों को गदर के बाद अपनी रियाया का सबसे खतरनाक हिस्सा मानते आए थे, बीसवीं सदी के आते-आते उन्हें हिंदू राष्ट्रवाद के सबसे सुरक्षित प्रत्युत्तर के रूप में देखने लगे। अंग्रेजी राज के खिलाफ साझा संघर्ष में मुसलमान हिंदुओं के साथ गुट न बना लें यह सुनिश्चित करने के लिए अंग्रेजों ने उन्हें पृथक निर्वाचक मंडल भी प्रदान कर दिया। दूसरी तरफ वे यह भी नहीं चाहते थे कि उपमहाद्वीप में कानून और व्यवस्था कायम करने के उनके दावों की कलई सांप्रदायिक हिंसा खोल दे और न ही वे अपेक्षाकृत शक्तिशाली हिंदू समुदाय से, जिसमें उनके अनेक मित्रवत जमींदार और व्यापारी थे, बेजा दुश्मनी ही मोल लेना चाहते थे। सो उन्होंने ध्यान रखा कि वे अपने अनुग्रहों में एकदम पक्षपाती न हो जाएं। मगर कांग्रेस मंत्रिमंडलों के पद त्याग देने के बाद और जब लीग युद्ध कार्य में सरकार को जन समर्थन मुहैया करा रही थी, जिन्ना वायसराय के पसंदीदा संभाषी बन गए। जीवन पद्धति और दृष्टिकोण में पूर्णत: सेकुलर होने के बावजूद कांग्रेस ने जिन्ना को दशकों से अस्वीकार कर रखा था और कांग्रेस के समाजशास्त्रीय यथार्थ से वह भली-भांति परिचित थे। जैसा कि सीनियर नेहरू ने, जो अपने बेटे की तुलना में ज्यादा सुस्पष्ट या यूं कहें कि ज्यादा साफगोई वाले थे, ध्यान दिलाया था कि कांग्रेस अपनी संरचना में अनिवार्यत: एक हिंदू पार्टी थी और केंद्र में उसकी सत्ता के उसकी प्रांतीय सरकारों की बनिस्बत मुसलमानों के प्रति ज्यादा हमदर्द होने की सम्भावना कम थी। जिन्ना की मुश्किलें, नेहरू की मान्यताएं जिन्ना ने, जो अभी तक अपनी बुनियाद के कमजोर होने से वाकिफ थे और उस वजह से सीमित होने को राजी नहीं थे, अंग्रेजी राज के आगे कोई एकदम साफ-साफ मांगें रखना टाले रखा था। अब घटनाक्रम से हौसला पाकर उन्होंने नए कार्यक्रम का खुलासा किया। 1940 में लाहौर में उन्होंने घोषणा की कि उपमहाद्वीप में एक नहीं बल्कि दो राष्ट्र हैं और यह कि आजादी को उन दोनों के सह-अस्तित्व को इस स्वरूप में समायोजित करना होगा जो उन क्षेत्रों को स्वायत्तता और सार्वभौमिकता दे जिनमें मुसलमान बहुसंख्यक हैं। जिन्ना के निर्देशानुसार लीग ने जो प्रस्ताव पारित किया उसका शब्दांकन जानबूझ कर अस्पष्ट रखा गया; उसमें संघटक राज्यों के बारे में बहुवचन में बात की गई थी और ‘पाकिस्तान’ लफ्ज का इस्तेमाल नहीं किया गया था – जिसके बारे में जिन्ना ने बाद में शिकायत की थी कि कांग्रेस ने उन्हें ऐसा करने के लिए बाध्य किया था। उस पदबंध की अस्पष्टता के पीछे जिन्ना की अनसुलझी कशमकश थी। लगभग समान रूप से मुसलमान बाहुल्य वाले इलाकों को स्वतंत्र राष्ट्र के गठन के लिए संभव उम्मीदवार समझा जा सकता था। मगर क्या कम बाहुल्य वाले इलाकों में भी वही संभाव्यता थी? और सर्वोपरि यह कि बाहुल्य वाले इलाके कल्पित भारत से अगर अलग हो गए, तो पीछे रह जाने वाले उन अल्पसंख्यकों का क्या होगा जो जिन्ना का अपना राजनीतिक आधार थे? क्या उन्हें किसी प्रकार के व्यापक संघ की जरूरत न होगी जिसमें मुस्लिम अवाम बहुसंख्यक हिंदू मर्जी के मनमाने इस्तेमाल से अपना बचाव कर सकें? इन सारी दिक्कतों के मद्देनजर क्या नहीं कहा जा सकता कि जिन्ना स्वयं झांसा दे रहे थे – वास्तविक महत्तम हासिल करने के लिए अवास्तविक मांगों को सौदेबाजी के तौर पर सामने रख रहे थे? उस दौरान बहुत सारे लोगों को ऐसा ही लगा था और उसके बाद भी इस बात को मानने वाले कुछ कम नहीं हैं। लाहौर प्रस्ताव को चाहे जितना चमकाने की कोशिश की जाए, तब तक यह साफ हो चुका था कि आजादी अपने आप में उस शाश्वत एकता की गारंटी नहीं होगी जिसकी बात कांग्रेस के विचारक अक्सर किया करते थे। हिंदू और मुसलमान राजनीतिक अस्मिताओं की प्रतिद्वंद्विता ने उस एकता के लिए पैदा किया खतरा आसन्न और सुस्पष्ट था। नेहरू की प्रतिक्रिया क्या थी? 1935 में अपनी आत्मकथा के एक विशिष्ट परिच्छेद में उन्होंने भारत में एक मुस्लिम राष्ट्र के होने की संभावना को नकार दिया था, ‘राजनीतिक तौर पर यह विचार बेतुका है और आर्थिक रूप से खामख्याली; यह गौर किये जाने लायक है ही नहीं।’ 1938 में उनसे मिलने आए कुछ अमेरिकियों से उन्होंने कहा कि ‘भारत में कोई धार्मिक या सांस्कृतिक संघर्ष नहीं है और सदियों से चली आई उसकी अनिवार्य एकता भारत का अद्भुत और सारभूत तत्व है।’ अपने एक निबंध में उन्होंने दावा किया था कि ‘भारत की एकात्मकता के लिए कार्यरत ताकतें दुर्जेय और जबरदस्त हैं और कोई अलगाववादी प्रवृत्ति इस एकात्मकता को तोड़ डालेगी ऐसी कल्पना नहीं की जा सकती।’ लाहौर प्रस्ताव के बाद, 1941 में वह प्रवृत्ति उनके सामने मुंह बाए खड़ी थी मगर अपने उस निबंध को पुनर्प्रकाशित करते हुए उन्हें अपने इस दावे को बदलने की कोई जरूरत नहीं महसूस हुई। कांग्रेस के लिए खतरे की घंटी वेवल जो महायुद्ध के दौरान भारत में फौज के प्रधान सेनापति थे, 1945 के आते-आते वायसराय बन गए। वह जानते थे कि साम्राज्यवादी खेल खत्म हो गया है। उनकी टिप्पणी, ‘अपने खिलाफ बहुत भारी संख्या में खड़े विरोधी पक्ष को देखकर पीछे हटने को मजबूर होने वाली सैन्य शक्ति की जो हालत होती है वैसी ही हमारी वर्तमान स्थिति है।’ महायुद्ध के दौरान भारत छोड़ो आंदोलन छेडऩे के जुर्म में जेल में बंद नेहरू और उनके सहकारियों को जून में रिहा कर दिया गया और सर्दियों में प्रांतों और केंद्र के चुनाव हुए जो 1935 के मताधिकार पर ही आधारित थे। नतीजे कांग्रेस के लिए खतरे की घंटी की तरह थे और होने भी चाहिए थे। मुस्लिम लीग न सिमटी थी और न ओझल हुई थी। अपने संगठन को खड़ा करने के, उसकी सदस्यता बढ़ाने के, अपना दैनिक पत्र निकालने के और जिन प्रांतीय सरकारों से अब तक उन्हें दूर रखा गया था उनमें अपने कदम जमाने के कामों में जिन्ना ने महायुद्ध के दौर का इस्तेमाल किया था। 1936 में एक ठंडा पड़ चुका उबाल कहकर नकार दी गई मुस्लिम लीग ने 1945-46 में भारी जीत हासिल की। उसने केंद्र के चुनावों में हर एक मुस्लिम सीट और प्रांतीय चुनावों में 89 प्रतिशत मुस्लिम सीटें जीत लीं। मुसलमानों के बीच अब उनकी प्रतिष्ठा वैसी हो चली थी जैसी हिंदुओं में कांग्रेस की थी। आजादी के लिए सभी दलों को स्वीकार्य संवैधानिक ढांचे के बारे में बातचीत करने के लिए लेबर पार्टी की सरकार ने लंदन से कैबिनेट मिशन भेजा। जिस संघीय रचना का प्रस्ताव मिशन ने अंतत: रखा वह लाहौर में जिन्ना द्वारा सामने रखी गई व्यवस्थाओं से कुछ मिलता-जुलता था। हालांकि अब तक मुस्लिम लीग का रुख काफी कड़ा हो गया था, फिर भी दोनों पार्टियों ने पहलेपहल इस योजना के प्रति अपनी सम्मति दर्शाई। दो हफ्तों बाद नेहरू उस से मुकर गए और घोषणा की कांग्रेस अपने मन की करने के लिए स्वतंत्र है। राजनीतिक नेता के तौर पर यह उनका पहला विशुद्ध रूप से व्यक्तिगत निर्णय था। उनके कट्टरपंथी सहकर्मी वल्लभभाई पटेल तक ने उसे ‘जज्बाती अहमकपन’ करार दिया मगर कमान से निकला हुआ तीर वापिस नहीं आ सकता था। इसके जवाब में जिन्ना, जिन्होंने सड़कों पर किये जाने वाले विरोध प्रदर्शनों को भीड़ से की गई लापरवाह अपील मानते हुए हमेशा उनकी निंदा की थी, ने संसदीय तरीके को लेकर मुसलमानों का धैर्य अब टूट चुका है यह दर्शाने के लिए ‘सीधी कार्रवाई के दिन’ की घोषणा कर दी। अभिजात स्तर पर दांव खेलने में माहिर सियासतदां के तौर पर जिन्ना का जनसामूहिक कार्रवाई में कोई अनुभव नहीं था और उन्हें उसके संचालन और नियंत्रण का भी अंदाजा नहीं था। कलकत्ते में सांप्रदायिक मारकाट मच गई। मुस्लिम गुंडों द्वारा शुरू की गई यह मारकाट जब खत्म हुई तो दोनों समुदायों के सापेक्ष संख्याबल के मद्देनजर अपरिहार्य रूप से हिंदुओं की तुलना में कहीं ज्यादा मुसलमान मारे जा चुके थे। हर संभव तरीका अपनाकर देख लेने के बाद हार कर वेवल ने एक अंतरिम सरकार बनाई जिसकी अगुवाई प्रधानमंत्री के तौर पर नेहरू कर रहे थे और पटेल आतंरिक मंत्री थे। लीग द्वारा किये गए शुरुआती बहिष्कार के बाद जिन्ना के सहायक लियाकत अली खान अंतरिम सरकार में वित्त मंत्री बने। हर पार्टी दूसरी के आड़े आने पर आमादा थी। प्रांतीय चुनावों के नतीजों के आधार पर नामजद किये गए नुमाइंदों को लेकर बनी संविधान-सभा का लीग ने बहिष्कार किया। संविधान-सभा में कांग्रेस इस कदर हावी थी और इसके लिए सैद्धांतिक रूप से सरकार की ही जिम्मेदारी बनती थी, कि कांग्रेस ने लियाकत के संपत्ति कर के प्रस्ताव को इस आधार पर रोक दिया कि चूंकि ज्यादातर व्यापारी हिंदू हैं, ऐसा करना धार्मिक पक्षपात होगा। तो यह परिस्थिति थी जब फरवरी, 1947 में एटली सरकार ने घोषणा की कि जून, 1948 तक भारत को आजादी मिल जाएगी और हस्तांतरण के प्रभारी के तौर पर वायसराय का काम संभालने माउंटबेटन को रवाना किया। धार्मिक फूट और साम्राज्यवादी नीति माउंटबेटन के आगमन के साथ भारत में धार्मिक फूट को लेकर साम्राज्यवादी नीति का एक चक्र पूरा हुआ। 19 वीं सदी के दूसरे उत्तरार्ध में अंग्रेजी राज को यह शक था कि गदर में पेशकदमी करने वाले मुसलमान थे और हिंदुओं को ज्यादा भरोसेमंद समझा जाता था। बीसवीं सदी के पहले उत्तरार्ध में यह पसंदगी तब बदल गई जब हिंदू राष्ट्रवाद ज्यादा आग्रही हो गया और उसे रोकने के लिए मुस्लिम महत्वाकांक्षाओं को बढ़ावा दिया गया। अब अपने अंतिम चक्र में लंदन ने जबर्दस्त झटका देते हुए बहुसंख्यक समुदाय को अपना विशेषाधिकृत सम्भाषी चुन लिया। 1947 में इस भारी परिवर्तन की जज्बाती शिद्दत उभरी थी विचारधारा, रणनीति और शख्सियत के अचानक हुए संगम से। ब्रिटेन की लेबर पार्टी हुकूमत के लिए उनके अपने दृष्टिकोण से सबसे निकटतम भारतीय पार्टी कांग्रेस थी; नेहरू के साथ जुड़ी फेबियन कडिय़ां काफी पुरानी थीं। राष्ट्रीय स्वाभिमान जाकर भावनात्मक अपनेपन से मिल गया। ब्रिटेन ने एक छितरे हुए उपमहाद्वीप को इतिहास में सर्वप्रथम एक एकल राजनीतिक क्षेत्र बना डाला था। सही समझ वाले सारे अंग्रेज देशभक्त, जिनमें सिर्फ एटली जैसे साम्राज्यवादी शिक्षा के उत्पाद ही शामिल नहीं थे, इस बात को बड़े गर्व के साथ अपने साम्राज्य की सबसे उत्कृष्ट सृजनात्मक उपलब्धि मानते और उनकी रवानगी के वक्त उस में दरारें पडऩा उस उपलब्धि पर सवालिया निशान लगने जैसा होता। ब्रिटेन को अगर भारत छोडऩा है तो भारत को वैसे ही रहना होगा जैसा कि अंग्रेजों ने उसे गढ़ा था। ब्रिटेन के पास तब भी सिर्फ मलाया ही नहीं बल्कि एशिया में भी कीमती मिल्कियतें थीं – उनके सबसे फायदेमंद उपनिवेश जो जल्द ही कम्युनिस्ट विद्रोह की रंगभूमि बन जाने वाले थे और जिन्हें छोडऩे की ब्रिटेन को कोई जल्दी नहीं थी। उसी समय उत्तर-पश्चिम सीमा से थोड़ी ही दूर अंग्रेजी राज का पारंपरिक हौवा बैठा हुआ था जो अब सोवियत संघ के रूप में और भी भयंकर था। आला अफसरान इस बात पर एकमत थे कि उपमहाद्वीप के विभाजन से रूसियों को ही फायदा पहुंचेगा। अगर दक्षिण एशिया के दरवाजों को साम्यवाद के खिलाफ मजबूती के साथ बंद किया जाना था तो न सिर्फ ब्रिटेन बल्कि पश्चिम के भी रणनीतिक हितों को संयुक्त भारत के परकोटे की दरकार थी। ये सारी बातें इसी तरफ इशारा कर रही थीं कि मुस्लिम लीग, जो कभी अंग्रेजी राज का नीतिगत साधन हुआ करती थी, अब उसके मामलों के यथेष्ट निपटारे में एक प्रमुख अड़चन थी और उसका साक्षात रूप जिन्ना थे। कांग्रेस के नेता ब्रिटेन द्वारा उन्हें सौंपे जाने वाले विरसे की अखंडता का झंडा उठाये हुए थे और जिन्ना यह उम्मीद नहीं कर सकते थे कि उनके साथ समतुल्य बर्ताव किया जाएगा। मगर इस ढांचागत विषमता में एक असंतुलित व्यक्तिगत आत्मश्लाघिता को मिलाया गया और यह सम्मिश्रण घातक साबित हुआ। ‘वह झूठा, बौद्धिक रूप से सीमित और चालबाज शख्स’ – माउंटबेटन के इस अमिट पोट्रेट के लिए हमें एंड्रयू रॉबट्र्स का शुक्रगुजार होना चाहिए। दक्षिण-पूर्व एशिया में मित्र राष्ट्रों की सेना के प्रतीकात्मक कमांडर के तौर पर कोलम्बो में अपनी कैडिलैक की पिछली सीट पर बैठे-बैठे खयाली कारनामों में डूबे हुए माउंटबेटन जब दिल्ली आए तो इस बात से बेइंतहा खुश थे कि उन्हें ‘लगभग दिव्य शक्तियों से नवाजा गया है। मैंने महसूस किया कि मुझे दुनिया का सबसे ताकतवर आदमी बना दिया गया है।’ माउंटबेटन पहनावे और समारोह संबंधी आडम्बर का विकृत रूप थे और झंडों और झालरदार सूटों को लेकर उनका जूनून अक्सर राज्य के मामलों पर तरजीह पा जाता। उनके दो सर्वोपरि सरोकार थे: अंग्रेजी राज के अंतिम शासक के तौर पर एक ऐसी हस्ती बनना जो हॉलीवुड को शोभा दे और खासकर यह सुनिश्चित करना कि भारत राष्ट्रमंडल के अंतर्गत का ही एक राज्य बना रहे, ‘विश्व में प्रतिष्ठा और रणनीति दोनों को लेकर यूनाइटेड किंगडम के लिए यह अत्यधिक महत्त्व की बात होगी।’ माउंटबेटन और नेहरू के संबंध ऐसा माना गया था कि अगर ब्रिटिश राज का बंटवारा होना ही है तो बड़ा हिस्सा- जितना बड़ा उतना अच्छा – ब्रिटिश उद्देश्यों के लिए महत्त्व का होगा। उपमहाद्वीप के भविष्य की योजना बनाने में कांग्रेस अब पसंदीदा सहयोगी क्यों थी इस बात के पीछे के राजनीतिक कारणों में एक व्यक्तिगत कारण भी जुड़ गया था। नेहरू के रूप में माउंटबेटन को एक दिलचस्प साथी मिल गया था, एक से स्वभाव वाले वे दोनों ही सामाजिक तौर पर भी समकक्ष थे। गांधी ने अंग्रेजों के साथ हमेशा अच्छे संबंध बनाए रखना चाहा था। गांधी द्वारा नेहरू को उत्तराधिकारी चुने जाने का अंशत: कारण यह था कि वह अंग्रेजों के साथ अच्छे संबंध रखने के लिए सांस्कृतिक तौर पर सुसज्ज थे जबकि पटेल और अन्य उम्मीदवारों में वह चीज न थी। सारे संबंधित लोगों के लिए यह तसल्ली की बात थी कि कुछ ही हफ्तों में नेहरू वायसराय के न केवल खास दोस्त बन गए बल्कि जल्द ही उनकी बीवी के साथ हमबिस्तर भी हो गए। इस संबंध को लेकर भारतीय राज्य इतना संकोची रहा आया है कि पचास सालों के बाद भी वह इस विषय को छूने वाली एक अमरीकी फिल्म का प्रदर्शन रोकने में दखल दे रहा था। भारतीय राज्य के इतिहासकार भी इस विषय के बगल से चुपचाप निकल जाते हैं। दिल के मामले कदाचित ही हुकूमत के मामलों पर असर डालते हैं। मगर इस मामले में यह इमकान न था कि त्रिकोण के कामुक संबंध ब्रिटिश नीति को लीग के पक्ष में झुका देते। राजनयिकों को इससे कहीं कम गलतियों के लिए चलता कर दिया जाता है। फिर भी एक ऐसे दौर में जब ब्रिटेन प्रकट रूप से भारत में विभिन्न दलों को एक साथ लाने की कोशिश कर ही रहा था और कांग्रेस एकीकृत देश को आजादी की तरफ ले जाने की कोशिश कर रही थी, गौरतलब है कि तब जिन्ना के बारे में माउंटबेटन और नेहरू कैसी भाषा का इस्तेमाल कर रहे थे और एटली उसमें सुर मिला रहे थे। माउंटबेटन के लिए जिन्ना एक ‘पागल’, घटिया आदमी’ और ‘मनोरोगी केस’ थे; नेहरू के लिए वह एक ‘हिटलरी नेतृत्व और नीतियों’ वाली पार्टी की अगुआई कर रहे पैरेनोइड थे और एटली के लिए वह ‘गलतबयानी करने वाले’ थे। विभाजन की ओर माउंटबेटन जब आए तो पंजाब में सांप्रदायिक दंगे भड़के हुए थे। एक महीने के अंदर-अंदर उन्होंने फैसला कर लिया कि विभाजन अपरिहार्य है क्योंकि कांग्रेस और लीग के बीच का गतिरोध दूर नहीं हो पा रहा है। मगर समूचे इलाके का बंटवारा कैसे होना था? अनिवार्यत: बात पांच सवालों पर आकर टिक गई। बंगाल और पंजाब इन दो प्रमुख प्रांतों का क्या होगा जहां मुसलमान बहुसंख्यक तो थे मगर उनका संख्याबल उतना जबरदस्त नहीं था? रजवाड़ों के शासन वाले अंचलों को, जहां कांग्रेस और लीग दोनों की ही उपस्थिति नगण्य थी, कैसे आवंटित किया जाएगा? विभाजन के सिद्धांत के बारे में या सरहद कहां खड़ी की जाएगी इस बात को लेकर क्या जनता की राय पूछी जाएगी? विभाजन की प्रक्रिया का पर्यवेक्षण कौन करेगा? इस पर अमल कितनी समयावधि में किया जाएगा? इस मौके पर आकर कांग्रेस और लीग का हिसाब अदल-बदल हो गया। सारे राष्ट्र की नुमाइंदगी करने का कांग्रेस का दावा 1920 के दशक से ही उसकी विचारधारा का केंद्र रहा था। मुस्लिम निर्वाचन मंडल में लीग द्वारा अपनी ताकत दिखाए जाने पर यह दावा धराशायी हो गया था। मगर अपनी नई-नवेली ताकत का लीग क्या करने वाली थी? लाहौर प्रस्ताव के छह साल बीत जाने पर भी जिन्ना को हिंदू-बहुल प्रांतों में मुस्लिम अल्पसंख्यकों के संरक्षण के साथ-साथ मुस्लिम बाहुल प्रांतों की सार्वभौमिकता के लिए कोई संभाव्य समाधान नहीं मिला था। बस इतना भर हुआ था कि पाकिस्तान का नारा, जिसे उन्होंने 1943 में खारिज कर दिया था, मुसलमानों के बीच इतना मकबूल साबित हुआ कि बिना किसी स्पष्टीकरण के जिन्ना ने उसे अपना लिया और यह दावा किया कि लाहौर प्रस्ताव में ‘राज्य’ की जगह ‘राज्यों’ मुद्रण की अशुद्धि के कारण आया था। शायद उन्होंने यह हिसाब लगाया था कि चूंकि अंग्रेजों के सामने लीग और कांग्रेस के परस्पर विरोधी उद्देश्य हैं, वह आखिरकार अपने हिसाब से समय लगाकर दोनों पक्षों पर अपनी पसंद का परिसंघ थोप देंगे। उस परिसंघ में उपमहाद्वीप के मुस्लिम-बाहुल इलाके स्वशासी होंगे और केंद्रीय सत्ता न इतनी मजबूत होगी कि उन पर चढ़ सके और न ही इतनी कमजोर कि स्वशासी हिंदू-बहुल प्रक्षेत्रों में मुसलमान अल्पसंख्यकों की रक्षा भी न कर सके। अंतत: कैबिनेट मिशन ने जो योजना तैयार की वह जिन्ना के सोच (विजन) के काफी करीब थी। मगर कांग्रेस पार्टी ने हमेशा से एक शक्तिशाली केंद्रीकृत राज्य की आरजू की थी और नेहरू का मानना था कि भारतीय एकता को बचाए रखने के लिए यह जरूरी है। इसलिए ऐसी कोई स्कीम नेहरू के लिए विभाजन से भी खराब थी क्योंकि वह उनकी पार्टी को उस शक्तिशाली केंद्रीकृत राज्य से महरूम कर देती। राष्ट्रीय वैधता के ऊपर अपनी इजारेदारी पर कांग्रेस ने शुरू से जोर दिया था। यह दावा अब बिलकुल स्वीकार नहीं किया जा सकता था। लेकिन अगर बुरी से बुरी स्थिति भी हुई तो भारत के बड़े हिस्से में सत्ता के अबाधित एकाधिकार के मजे लेना अविभाजित भारत में उस सत्ता को बांटकर बंधे पड़े रहने से बेहतर था। इसलिए जब लीग तकसीम की बात कर रही थी तो जिन्ना परिसंघ के बारे में सोच रहे थे, और जब कांग्रेस संघ की बात कर रही थी, तो नेहरू बंटवारे की तैयारी कर रहे थे। कैबिनेट मिशन योजना की लुटिया हस्बे-दस्तूर डुबो दी गई। सारी निगाहें अब इस बात पर आ टिकीं कि लूट का बंटवारा कैसे होगा। अंग्रेज अब भी राजा थे: बंटवारा माउंटबेटन करेंगे। नेहरू इस बात से निश्चिंत थे कि उन पर इनायत जरूर होगी, मगर कितनी इसका अंदाजा पहले से होना मुश्किल था। ब्रिटिश राज से जो भी राज्य उभरेंगे उन्हें पुनर्नामित ब्रिटिश राष्ट्रमंडल के अंतर्गत बनाए रखना माउंटबेटन के लिए सबसे अहम बात थी। इसका मतलब था कि उन राज्यों को आजादी एक स्वतंत्र-उपनिवेश (डोमिनियन) के तौर पर स्वीकार करनी होगी। मुस्लिम लीग को इससे कोई आपत्ति नहीं थी। मगर लंदन में चलने वाली जालसाजियों के आगे भारत के नतमस्तक होने को कांग्रेस 1928 से ही सिद्धांतत: खारिज करती आई थी और इसमें डोमिनियन वाली बात भी जाहिरन शामिल थी। तो जिस छोटी कौम को माउंटबेटन विभाजन के लिए जिम्मेदार मानते थे, उसी कौम के राष्ट्रमंडल का सदस्य बन जाने की अवांछनीय संभावना माउंटबेटन के सामने इस कारण आ खड़ी हुई। वहीं बड़ी कौम जो उनके अनुसार न केवल अपेक्षाकृत दोषरहित थी बल्कि रणनीतिक और वैचारिक तौर पर अधिक महत्त्वपूर्ण भी थी, राष्ट्रमंडल से बाहर रहने वाली थी। इस पहेली को कैसे सुलझाया जाना था? इसे सुलझाया उस घड़ी के तारणहार वी पी मेनन ने। अंग्रेजों की नौकरशाही में केरल के उच्च-पदस्थ हिंदू अधिकारी मेनन माउंटबेटन के व्यकिगत अमले का हिस्सा थे और कांग्रेस के सांगठनिक बाहुबली सरदार पटेल के मित्र भी। क्यों न विभाजन सीधे-सीधे इस तरह हो कि कांग्रेस को बहुत बड़ा क्षेत्र और आबादी हासिल हो जाए जिसकी हकदार वह मजहब के आधार पर थी ही, और तो और अंग्रेजी राज की पूंजी और सैनिक एवं नौकरशाही तंत्र का भी बड़े से बड़ा हिस्सा मिल जाए – और इसके बदले में माउंटबेटन से राष्ट्रमंडल में भारत के प्रवेश का वायदा किया जाए? इतना ही नहीं, मुंह मीठा करने के लिए, मेनन ने रजवाड़ों को भी थाली में परोसने की सलाह दी जिससे कि जिन्ना को मिलने वाले हिस्से की क्षतिपूर्ति हो जाए। कुल मिलाकर रजवाड़े क्षेत्रफल और आबादी में भावी पाकिस्तान के बराबर थे और उस समय तक कांग्रेस ने उन्हें अलंघ्य मान रखा था। नेहरू और पटेल को मनाने में कोई मुश्किल नहीं हुई। अगर मालमत्ता दो महीनों के अंदर-अंदर हस्तांतरित हो जाता है, तो सौदा पूरा। इस रास्ते के हाथ लगने (ब्रेकथ्रू) की सूचना मिलने पर माउंटबेटन फूले नहीं समाये और फिर मेनन को उन्होंने लिखा, ‘बड़ी खुशकिस्मती रही कि आप मेरे स्टाफ में रिफोर्म्स कमिश्नर रहे, और इस तरह हम बहुत शुरुआती दौर में ही एक दूसरे के करीब आ गए, क्योंकि आप वह पहले आदमी थे जो डोमिनियन स्टेटस के मेरे विचार से पूर्णत: सहमत थे और आपने वह हल ढूंढ निकाला जिसके बारे में मैंने सोचा भी नहीं था और उसे सत्ता के अति शीघ्र हस्तांतरण से पहले ही स्वीकार्य बना दिया। इस निर्णय की इतिहास हमेशा बेहद कद्र करेगा और इस बात के लिए मैं आपका आभारी हूं।’ इतिहास उतना कद्रदान नहीं साबित हुआ जितनी उन्हें उम्मीद थी। आखिरी घड़ी में एक गड़बड़ हो गई। स्वतंत्रता और विभाजन का लंदन द्वारा स्वीकृत मसौदा शिमला में सभी पक्षों के आगे रखने से पहले माउंटबेटन को पूर्वबोध हुआ कि औरों के देखने से पहले उन्हें वह मसौदा गुप्त रूप से नेहरू को दिखा देना चाहिए। उसे देखकर नेहरू आग-बबूला हो गए: मसौदे में यह बात पर्याप्त रूप से साफ नहीं की गई थी कि भारतीय संघ अंग्रेजी राज का उत्तराधिकारी राज्य होगा और इस वजह से उसे सारी चीजें हासिल होंगी और यह भी कि पाकिस्तान उसे अलग हो रहा है। माउंटबेटन ने अपने अंतर्ज्ञान के लिए किस्मत का शुक्रिया अदा किया। उन्होंने कहा कि अगर वह मसौदा नेहरू को नहीं दिखाते तो खुद वह और उनके आदमी ‘देश की सरकार के सामने निरे अहमक साबित हो जाते कि उन्होंने सरकार को इस खुशफहमी में रखा था कि नेहरू मसौदा स्वीकार कर लेंगे’ और ‘डिकी माउंटबेटन बर्बाद हो गए होते और अपना बोरिया-बिस्तर बांध चुके होते’। मेनन का अमूल्य साथ तो था ही, और मुश्किल टल गई जब उन्होंने नेहरू की पसंद वाला मसौदा तैयार किया। जून के पहले हफ्ते में माउंटबेटन ने घोषणा की कि ब्रिटेन 14 अगस्त को सत्ता का हस्तांतरण कर देगा, उस तारीख को बाद में उन्होंने स्वयं ही ‘हास्यास्पद रूप से जल्दबाज’ बताया था। इस जल्दबाजी की वजह साफ थी, और वह बताने में माउंटबेटन ने कोई गोलमाल नहीं किया। ‘हम क्या कर रहे हैं? प्रशासकीय तौर पर एक पक्की इमारत बनाने और एक झोंपड़ी या तम्बू तानने में फर्क है। जहां तक पाकिस्तान की बात है, हम एक तंबू तान रहे हैं। इससे ज्यादा हम कुछ नहीं कर सकते।’ साभार: थ्री एसेज कंबाइन द्वारा प्रकाशित इंडियन आइडियोलॉजी से

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