Monday, November 27, 2017

कभी दुनिया को शांति और अहिंसा का पाठ पढ़ाने वाला बिहार आजादी के 20 वर्षों बाद ऐसा धधका जिसकी धमक लंबे  समय तक बना रहेगा। 60 के दशक से चले हिंसा-प्रतिहिंसा के दौर में हिंसक तत्वों को मिलता रहा सत्ता का संरक्षण। बिकता रहा कानून। जुल्मी खरीदते रहे न्याय। कराहता रहा बिहार। न्याय के लिये तड़पते रहे दलित-पिछड़े व अल्पसंख्यक। वासे तो लंबे समय से दलितों-पिछड़ों पर अत्याचार के किस्सों से भरा पड़ा है बिहारी समाज। लेकिन सामंतों की संगठित सेना का पहला हमला सत्तर के दशक में पूर्णिया जिले के रूपसपुर-चंदवा से शुरू होकर औरंगाबाद क् मियांपुर में खत्म होता सा दिख रहा है, हुआ नहीं है।बहरहाल, सत्तर के दशक में रूपसपुर-चंदवा में दो दर्जन आदिवासी जिंदा जला दिये गये तो 16 जून, 2000 को मियांपुर में 35 दलित-पिछड़ों को गोलियों से भून दिया गया। पहले में नाम आया तत्कालीन बिहार विधानसभा अध्यक्ष लक्ष्मी नारायण सुधांशु का। अभियुक्तों के पास पकड़ा गया था उनका दोनाली बंदूक। न्यायालय ने कहा-यह भरोसे लायक नहीं है कि सूबे के इतने बड़े सियासतदान और साहित्यकार का इस जघन्य हत्याकांड से कोई ताल्लुकात रहा होगा। बाइज्जत बरी कर दिये गये लक्ष्मी नारायण सुधांशु तो मियांपुर नरसंहार में नाम आया रणवीर सेना के स्वयंभू कमांडर ब्रम्हेश्वर मुखिया का। मुखिया भी साक्ष्य के अभाव में बरी हो गया। ये दोनों न्यायिक फैसले उदाहरण मात्र हैं। खून से लथपथ बिहार में सामंती जातीय स्वयंभू को बराबर बचाता रहा न्यायालय जबकि आजीवन कारावास व फांसी की सजा के हकदार बनाये जाते रहे दलित व सामाजिक रूप से पिछड़े जागरूक लोग। आज भी बिहार के जेल 80 फीसद दलित-पिछड़ों व अल्पसंख्यकों से भरे पड़े हैं जबकि सूबे में न तो दलितों का कोई संगठित आपराधिक गिरोह है और एकाध गिरोहों को छोड़ पिछड़ों का कोई संगठित आपराधिक गिरोह नहीं है। तो सवाल है कि इन सत्तर वर्षों में बदला क्या? सूबे की सियासत बदली। कांग्रेस की जगह जनता सरकार बनी। सामाजिक न्याय और न्याय के साथ विकास का राग अलापने वाली सरकार बनी। वर्ग संघर्ष के नाम पर जातीय हिंसा देखने को मिला। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और एकात्म मानवतावाद का उन्मादी चेहरा दिखा। सियासी चेहरे बदले। लेकिन नहीं बदला ते सत्ता का चरित्र और न्याय के मंदिर का मिजाज। बिहार में अबतक छोटे-बड़े 60 नरसंहार हुए। अकेले रणवीर सेना ने क्रूर तरीके से 22 नरसंहारों को अंजाम दिया। इनमें दलित,  पिछड़े व मुसलमानों के करीब तीन सौ चेहरे मार डाले गये। सूबे में अबतक का सबसे बड़ा नरसंहार अरवल जिले के लक्ष्मणपुर-बाथे गांव में अक दिसंबर, 1997 को हुआ। दरिंदगी की हद पार कर दरिंदों ने महिलाओं के गुप्तांग में गोली मारी। दूधमुंहे बच्चों को हवा में उछालकर गोलियों से भून दिया। बेजान हो चुके बुजुर्ग समेत दलित व पिछड़े समाज के 61 लोगों की हत्या बेरहमी से कर दी गयी। गर्भवती महिलाओं को यह कहकर मारा कि नक्सली पैदा करने की मशीन हैं ये महिलाएं। विशेष अदालत ने 16 दोषियों को फांसी और 10 को उम्र कैद की सजा सुनाई थी। लेकिन पटना हाईकोर्ट ने नौ अक्टूबर, 2013 को अपने फैसले में साक्ष्य के अभाव का हवाला देकर सभी अभियुक्तों को बरी कर दिया। न्यायालय को पूरा हक है किसी को निर्दोष साबित करने का। लेकिन सवाल है कि लक्ष्मणपुर-बाथे गांव में 61 लोगों को मौत के घाट उतारने वाला कौन था? आखिर माजरा क्या है? गुनाहगारों को क्यों नहीं ढूंढ पाया न्यायालय? देर-सबेर इसका जवाब सियासतदानों के साथ ही न्यायालय को भी देना होगा। फिर इसे हम कानून का राज कैसे कहेंगे? लोकतंत्र के मायने क्या हैं? सवाल है कि आजादी के सत्तर वर्षों बाद भी क्या न्यायपालिका अराजक है या सामंती गुंड़ों के इशारे पर नाच रहा है न्यायालय? नरसंहारों के ह्दयविदारक नजारा भले ही न्यायालय को न दीख रहा हो लेकिन कोबरा पोस्ट के एक स्टिंग आॅपरेशन ने कोर्ट के फैसले को चुनौती देते हुए कहा कि हां, मिला है नरसंहारी संगठन रणवीर सेना को नेताओं का संरक्षण। कोबरा पोस्ट ने भाजपा नेता सुशील कुमार मोदी, राजद नेता शिवानंद तिवारी,  रालोसपा नेता अरूण कुमार,  सीपी ठाकुर समेत दर्जनों नेताओं का सच सामने ला दिया। इसके पहले, 1996 में भोजपुर के बथानीटोला गांव में रणवीरों ने दलित-पिछड़े समुदाय के 22 लोगों को गोलियों से भूना था। बताया गया कि 1992 में घटित गया जिले के बारा गांव में मारे गये एक जाति विशेष के 32 लोगों की हत्या का बदला है बथानीटोला नरसंहार। दोनों घटनाओं में हुआ क्या? न्यायालय को बारा नरसंहार में साक्ष्य मिला। पांच को फांसी की सजा हुई। कुछ को आजीवन कारावास। वहीं निचली अदालत ने बथानाटोला के मुजरिमों में से तीन को फांसी जबकि 20 को आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी। फिर पता नहीं, पटना हाईकोर्ट को ऐसा क्या सबूत मिला कि बथानीटोला कांड के सभी अभियुक्त बरी कर दिये गये। कोर्ट के इस फैसले पर भारी प्रतिक्रिया हुई तो तत्कालीन बिहार सरकार के एक मंत्री ने चेतावनी देते हुए कहा कि सरकार उपरी अदालत में अपील करेगी तो सूबे का माहौल बिगड़ जाएगा। हद तो तब हो गयी जब शंकर बिगहा नरसंहार में निचली अदालत ने ही सभी 23 अभियुक्तों को बाइज्जत बरी कर दिया। बारा नरसंहार के पहले 1991 में पटना के तिस्सखोरा में 15 तो भोजपुर के देव-सहियारा में 15 दलित मार डाले गये। देश मौन रहा। अपने-आप को सभ्य समाज का नागरिक बताने वाले सामंतों के तेवर तल्ख हुए जब अरवल जिले के सेनारी गांव में महिला संरक्षण में पल रहे रणवीर सेना के गुंडों पर पुलिस ने धावा बोला। महिलाओं ऐर पुलिस में हिंसक झडप हुई। हिंसा-प्रतिहिंसा के दौर में पहली बार महिलाओं ने पुलिस पर धावा बोला, जिसे न्यायालय ने महिला अत्याचार माना और पुलिसिया जुर्म के खिलाफ स्वतः संज्ञान भी लिया। लेकिन मियांपुर नरसंहार में फैसले का वक्त आया तो पटना हाईकोर्ट ने 10 में से नौ अभियुक्तों को साक्ष्य के अभाव में बरी कर दिया। बहुत कम लोगों को याद है 1988 में घटी औरंगाबाद के छेछानी नरसंहार। महुआ चुनने के सवाल पर हुए विवाद में मदनपुर प्रखंड के छेछानी में पिछड़े समाज के दरिंदों ने मार दिया था।जनाधार बढ़ाने के फिराक में लगे एमसीसी इसी ताक में था और बदले की भावना से बगल के गांव दलेलचक-बघौरा में 1987 में 56 सामंती लठैतों को मौत के घाट उतार दिया। बिहार में हुए पहले सामंती नरसंहार से तब थर्रा गया था पूरा देश। छेछानी के मुजरिम खुलेआम घूमते रहे वहीं, साजिश के तहत फंसाये गये दलेलचक-बघौरा कांड में पिछड़ी जाति के आठ लोगों को सुप्रीम कोर्ट भी सजा बहाल रखा। नरसंहारों के सामाजिक पृष्ठभूमि के विश्लेषण के बाद जस्टिस डी बंद्धोपाध्याय ने चेतावनी भरे लहजे में कहा कि बिहार आज भी बारूद के ढेर पर टिका है, जो कभी भी बलास्ट कर सकता है। इसके मायने हैं। इसी बारूद के ढेर के बीच अपनों को ढूंढ़ रहे हैं भोजपुर के अकोढ़ी, नारायणपुर, नोंही-नागवान,बेलछी, दनवार-बिहटा समेत दर्जनों गांवों के सैकड़ों पीडि़त परिवार। दरअसल, देश का दूसरा राज्य बिहार है जहां कि 55 फीसदी आबादी भूमिहीन है जबकि सूबे की 14 फीसद दलित-आदिवासी आबादी में आधे से अधिक भूमिहीन है। यहां के मजदूर सत्तर और अस्सी के दशक तक ईस्ट इंडिया कंपनी के जमाने में तय मजदूरी पर पलते रहे। संघर्ष की शुरुआत भी यहीं से हुई। बहरहाल, कानून के राज की बात करने वालों से सीधा सवाल है कि जिस रणवीर सेना ने 22 नरसंहारों में तीन सौ लोगों का कत्लेआम किया हो, उस रणवीर सेना के स्वयंभू ब्रम्हेश्वर मुखिया के खिलाफ 16 मामलों में कोई सबूत नहीं मिला। चंद समय में ही छह मामलों मेॆ जमानत मिल गयी। वह कुख्यात भेड़िया जेल से बाहर तो आया न्याय के साथ विकास की बात करने वाली सरकार के समय। लेकिन सत्ता समीकरण में एक ओर जहां सामाजिक न्याय की सरकार में तांडव मचाने वाले ब्रम्हेश्वर मुखिया की गतिविधियों की जांच के लिये अमीरदास आयोग का गठन हुआ तो न्याय के साथ विकास की बात करने वाली सरकार ने सत्ता में आने के एक महीने के अंदर ही अमीरदास आयोग को भंग कर यह बता दिया कि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और एकात्म मानवतावाद की बात करने वालों के लिये रणवीर सेना की महत्ता है, अमीरदास आयोग की नहीं। जिस तरीके से अमीरदास आयोग की अकाल मृत्यु हुई। ठीक उसी तरीके से दलितों-पिछड़ों के खून से होली खेलने वाले ब्रम्हेश्वर मुखिया का अंत भी घिनौना हुआ। सामंती जुर्मों को संरक्षित करनेवाले इस लंपट भेड़िये की हत्या गोलियों से भूनकर कर दी गयी। संदेहास्पद तरीके से हुई हत्या की जांच सीबीआई कर रही है। तो सवाल है कि आजादी के सत्तर वर्षों के बाद भी दलित-पिछड़ों को सम्मान से जीने का रास्ता बचा है क्या? विधायिका सियासत कर रही है। कार्यपालिका भ्रष्टाचार में लिप्त है। न्यायपालिका जातिवादियों और सामंतियों की रखैल की तरह काम कर रहा है। लोकतंत्र का चौथा स्तंभ मीडिया पूंजीपतियों के इशारे पर नाच रहा है। तो फिर रास्ता क्या बचता है? अब भी कोई रास्ता बचा है क्या? तलाशने होंगे संभावनाएं। मिल-बैठकर करना होगा विचार। तोड़नी होंगी सामंती जकडने और करारा जवाब देना होगा ब्राह्मणवादियों को। यही सबकुछ होते रहा तो देश के लोकतांत्रिक समाज को खूनी लोकतंत्र में बदलते देर नहीं लगेगा।