Wednesday, May 27, 2009

अकेली औरते, सामूहिक पहल

बिहार की कई विधवा और परित्यक्त महिलाओं ने समाज और धर्म की रूढ़ियों को तोड़ते हुए सुहागिन बनने का निर्णय लेकर एक मिसाल कायम की है।
अठारह साल की उम्र में विधवा हो चुकी विभा अपने परिजनों के साथ ही समाज के ठेकेदारों से पूछती है, "आखिर सफेद कपड़ों में पूरी जिंदगी कैसे कटेगी? कब तक कुलक्षणी होने का लांछन लगता रहेगा?' लेकिन समाज के पास इसका कोई जवाब नहीं है। विभा, पटना जिले के मदारपुर (पुनपुन) गांव की रहने वाली हैं। 15 वर्ष की आयु में उसकी शादी हुई थी और मात्र तीन साल के बाद ही वह विधवा हो गयी। उसके पति को अपराधियों ने गोलियों से भून दिया था। भरी जवानी में विधवा होने का दर्द क्या होता है, यह कोई विभा से पूछे। आगे की जिंदगी उसके सामने डरावने सवाल की तरह खड़ी थी और विभा के पास कोई जवाब नहीं था। ससुराल के साथ-साथ मैके से भी आये दिन ताने सुनने पड़ रहे थे। ऐसी विकट परििस्थतयों का सामना करने के लिए उसने पुनर्विवाह का निर्णय ले लिया। हालांकि उसके इस क्रांतिकारी फैसले से परिवार में कोहराम मचा हुआ है। कमोवेश ऐसी ही पीड़ा गया जिले के बाराचट्टी गांव की कमला की है। नक्सलियों ने कुछ वर्ष पहले उसके पति को पुलिस का मुखबिर बताकर गोली मार दी थी तो दूसरी ओर, पुलिस मुठभेड़ में मारे गये नक्सली लालमोहन यादव उर्फ नटवर की पत्नी हेमलता (काल्पनिक नाम), समस्तीपुर की पूजा, मुजफ्फरपुर की अर्चना, नालंदा जिले की सुनीता, बेगूसराय की रमावती आदि की कहानी भी एक जैसी है। समाज में विधवाओं की लंबी सूची है जो पति की गैरमौजूदगी कुंठित जिंदगी जी रही हैं और इस सामाजिक अभिशाप से मुक्ति चाहती है.
महिला सशिक्तकरण के नाम पर भले ही देश में हर वर्ष करोड़ों रुपये खर्च किये जा रहे हों, लेकिन विधवा और परित्यक्ता महिलाओं का कल्याण और सशिक्तकरण शायद सरकारी दायरे से बाहर ही है। अकेली जिंदगी गुजार रहीं विधवा और परित्यक्तता महिलाओं की घुटनभरी जिंदगी की दास्तान किसी से छिपी हुई नहीं है। घर के भीतर कुलक्षणी, तो बाहर उन्हें अपशकून माना जाता है। सामाजिक ताने-बाने और पारिवारिक मर्यादा का ऐसा ढोंग सामाजिक और धार्मिक ठेकेदारों ने रच रखा है कि उससे आजीज आकर विधवाओं ने रूढ़िवादी परंपराओं को तिलांजलि देते हुए सधवा (सुहागन) बनने की मुहिम ही छेड़ दी है। विचारों की शान पर विधवाओं की आवाज कितनी तेज होती है और कितनी दूर तक पहुंचती है, इस बारे में तत्काल कुछ कहना जल्दबाजी होगी। लेकिन राजधानी पटना में विधवा और परित्यक्ता महिलाओं ने विधवा पुनर्विवाह की वकालत करके सामाजिक तौर पर एक नया विवाद तो छेड़ ही दिया है।
इतिहास बताता है कि लोकतंत्र की जननी रहा बिहार राष्ट्रीय स्तर पर हमेशा क्रांतिकारी प्रतीक खड़ा करता रहा है और देश की सामाजिक-राजनीतिक हलचलों में अहम भूमिका निभाते आ रहा है। बात चाहे अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह की हो या फिर आजाद भारत में इंदिरा गांधी की तानाशाही और सामंती जुर्म के खिलाफ बगावत की हो, बिहार ने सदा ही अग्रणी भूमिका निभायी है। एक बार फिर सामाजिक ठेकेदारों और रूढ़िवादी परंपराओं को चुनौती देते हुए कनाडाई मूल की राजस्थानी महिला डॉ. जिन्नी श्रीवास्तव की पहल और मुस्लिम महिला अख्तरी बेगम के आह्वान पर बिहार की करीब 225 विधवाओं ने सधवा बनने की सामूहिक इच्छा व्यक्त करके सबको चौका दिया है। एकल नारी संघर्ष समिति के बैनर तले एकजुट हुई एकल महिलाओं ने एक स्वर में समाज के दकियानूसी चेहरे को उतार फेंकने का संकल्प लिया है। गांधीवादी विचारधारा से प्रभावित बेगम कहती हैं, " बात चाहे हिन्दू की हो या फिर मुिस्लम की, एकल महिलाओं की जिंदगी एक जैसी है। दोनों समुदाय की महिलाएं पति की गैरमौजूदगी में नारकीय जिंदगी जी रही हैं। इससे निजात पाने का एक ही तरीका है और वह है, आर्थिक आत्मनिर्भरता।'
बीते महीने पटना के पंचायत भवन में मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों के सामने जब इन महिलाओं ने माथे में सिंदूर, कलाई में चुड़ी-लहठी, और नाखूनों पर नेल पालिश लगायी तो इसका मतलब साफ था कि वे विधवा के पहनावे-ओढ़ावे की बंदिशों को मानने से इंकार कर रही हैं। विधवा होने के बावजूद संकेत में ही इन महिलाओं ने समाज के ठेकेदारों को अपनी मंशा जता दीं। इनमें से अधिकांश की आयु 15 से 40 वर्ष के बीच है। एक सुर में सभी ने कहा कि हम लोग समाज और परिवार को कलंकित करने नहीं, बिल्क खुद के जीवन को संवारने आये हैं। लगातार तीन दिनों तक पटना में इसे लेकर गहरा विचार-मंथन होता रहा। अधिकांश विधवाएं अपने इरादों पर पूरी तरह से अडिग दिखीं। आखिर हो भी क्यों नहीं? वर्षों की घुटनभरी जिंदगी, कई तरह के सामाजिक और पारिवारिक लांछन! फिर भी मौन स्वीकारोक्ति। और तो और, जलालत भरी जिंदगी जीने के बावजूद न तो परिवार के किसी सदस्य का कोई साया और न ही बच्चों की शिक्षा-चिकित्सा की कोई गारंटी। इससे भी नहीं बन पाया तो सुदूर देहाती इलाकों में कभी किसी महिला को डायन, तो कहीं-कहीं चुड़ैल बताकर मार डालने तक की घटनाएं सामने आ चुकी हैं। बावजूद इसके तथाकथित सभ्य समाज मौन बना रहता है। ऐसी महिलाओं पर चरित्रहीनता का आरोप तो सरेआम लगते रहे हैं। रोज-रोज के ताने सुनते हुए बदहवास हो चुकी ऐसी विधवाओं में से एक है, पटना जिले के म्सौर्धि आईडी की रहने वाली पिंकी। तो अन्य हैं नालंदा जिले की सुनीता और लड़कनिया टोला (कटिहार) की सुमन सिंह। हजारों महिलाओं की दर्दभरी दास्तान के साथ ही इन महिलाओं की जिंदगी भी दुखभरी है। पिंकी के पति कुछ वर्ष पहले अपराधियों के गोलियों के शिकार हो गये, तो सुमन सिंह का दाम्पत्य जीवन टूटने के कगार पर है। कारण यह है कि सुमन का पति नशेड़ी है। उसे न तो बच्चों की फिक्र है और ही पत्नी की। सुनीता के पति पिछले छह सालों से लापता हैं, जिसके कारण सुनीता के कंधे पर अपने बच्चों की परवरिश की जिम्मेदारी आ गयी है। लेकिन लाचार सुनीता इस जिम्मेदारी की बोझ को कैसे उठाये ? उसे कोई उपाय नहीं सूझ रहा। इन महिलाओं के सामने एक जैसी समस्याएं है। पारिवारिक दायित्वों के अलावा एक बड़ी जिम्मेदारी यह भी कि बाल-बच्चों की शिक्षा-चिकित्सा कैसे हो। चौखट से बाहर आते ही तथाकथित सभ्य समाज के ठेकेदार चिल्ला उठते हैं कि बिना मरद (मर्द) के बाहर कैसे जाओगी? इज्जत बची रहेगी तो किसी न किसी तरह गुजारा हो ही जाएगा। यह है सभ्य समाज का साफ-सुथरा चेहरा, जहां महिलाओं पर चाैखट से बाहर आते ही चरित्रहीनता का आरोप मढ़ दिया जाता है।
ये तो बानगी है, पूरी तस्वीर इससे भी ज्यादा भयावह है। जहानाबाद की किरण और सरस्वती, हरिहरपुर (भोजपुर) की लक्ष्मी समेत न जाने कितनी ऐसी महिलाएं हैं जो गुमनाम जिंदगी जीने को विवश हैं। नक्सल पचरम लहराने वाले बिहार में वैसे भी कभी जातीय सेना तो कभी नक्सली हिंसा के शिकार हजारों महिलाओं अपने सीने में पति खोने का दर्द समेटे हुई हैं। एकल महिलाओं की दुर्दशा से चिंतित राजस्थान से बिहार पहुंचीं सामाजिक कार्यकर्ता डा. जिन्नी श्रीवास्तव बताती हैं, "समाज में एकल जिंदगी जी रही महिलाओं को अबला न समझा जाये। महिलाएं शुरू से ही सबल रही हैं और अगर उन्हें समाज और परिवार की बंदिशों से मुक्त कर दिया जाये, तो आज भी वे सबल ही हैं।'
सवाल उठता है कि आखिर विधवा और परित्यक्ता महिलाओं के साथ समाज में ऐसे दोयम दर्जे का व्यवहार क्यों हो रहा है? इस बाबत मानवाधिकार कार्यकर्ता और बिहार राज्य मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष जिस्टस एसएन झा बताते हैं कि जब तक महिलाएं अपने पैरों पर खुद खड़ी नहीं होंगी तबतक इनके प्रति समाज का दकिनयानूसी व्यवहारों में कोई खास कमी नहीं होगी।
आंकड़ों पर गौर करें तो देश भर में विधवा महिलाओं की संख्या जहां आठ फीसद है वहीं विदुर पुरुष मात्र 2.5 फीसदी हैं। जबकि 67 फीसद महिलाएं ससुराल में रहती हैं। इनमें से अधिकतर ससुराल वालों की प्रताड़ना से परेशान हैं। ऐसी परििस्थतियों में विधवा पुनर्विवाह के इस अभियान का महत्व काफी बढ़ जाता है। लेकिन यह अभियान तब ही अपना लक्ष्य प्राप्त करने में सफल होगा जब इसमें अशिक्षित और गरीब महिलाओं के साथ-साथ शिक्षित और आर्थिक रूप से संपन्न महिलाएं भी हिस्सा लेंगी।

सात फेरों से वंचित मांएं

पहाड़िया जनजाति की हजारों लड़कियां बिना विवाह के मां बनने को विवश हैं और विवाह की रस्म का इंतजार कर रही हैं।
बामू पहाड़िया की उम्र करीब 50 वर्ष है। इनके छह बच्चे हैं। वर्षों पहले अमड़ापाड़ा ब्लॉक के बाघापाड़ा गांव में भोज खाने गये बामू पहाड़िया अपने साथ एक लड़की को लेते आये थे। दोनों बताैर पति-पत्नी हरिणडूबा गांव में रहने लगे। बामू मां बनती गयी पर सुहागन नहीं बन पायी है। कमोबेश यही कहानी है शिबू पहाड़िया के परिवार की। इनका एक बच्चा गोद में आैर दूसरा की छाती से चिपका हुुआ। तीसरे आैर चाैथे बच्चे की उम्र कोई आठ आैर दस साल। जबकि पांचवें ने अपना घर बसा लिया है। न मां सुहागन बनी आैर न ही बहू।
पाकुड़ जिला मुख्यालय से 10 किलोमीटर दक्षिण-पिश्चम पहाड़ पर बसे हरिणडूबा गांव में ऐसी अन ब्याही 40 से अधिक मां बन चुकी युवतियां हैं जबकि उनकी शादी की रस्म अदायगी तक नहीं हो पायी है। अधिकांश लड़कियां (महिलाएं) बिना विवाह के ही अधेड़ हो चुकी हैं। हरिणडूबा गांव में पहाड़िया जनजाति के 60 परिवार रहते हैं। इन्हीं में से एक है शिबू पहाड़िया का परिवार। बाप-बेटे (दोनांें) अपना घर बसा चुके हैं। दोनों को आशा है कि एक दिन जब घर की माली हालत सुधरेगी तभी मंडप सजेगा। एक ही मंडप में सास आैर बहू दोनों माथे पर सिंदूर लगायेंगी। चूड़ियां पहनेंगी। गांव में भोज का आयोजन होगा। ग्राम प्रधान की माैजूदगी में रस्म अदायगी के बाद सुहागन बनने का सपना पूरा होगा।
बिना सुहाग के ही पहाड़िया जनजाति की सैकड़ों लड़कियों के मां बनने की कहानी दिलचस्प है। समाज ने इसे "हरण विवाह' नाम दिया है। इलाके में लगने वाले हाट आैर मेले में जब लोग यानी लड़के-लड़कियां जाते हैं, तो वहीं अपनी क्षेत्रीय भाषा में साथ-साथ रहने की बातें करते हैं। जब बातचीत पक्की हो जाती है, तब लड़की का हाथ पकड़कर तेजी से लड़का हाट से बाहर निकलता है आैर सीधे अपने गांव की ओर रवाना होता है। गांव वाले किसी अनजान लड़की को देखकर गंाव प्रधान को खबर करते हैं। उसी समय पंचायत बैठती है आैर साथ रहने की इजाजत मिल जाती है। फिर लड़की मां भी बनती है आैर समाज में वे बताैर पति-पत्नी रहने लगते हैं।
यह कहानी सिर्फ हरिणडूबा गांव की ही नहीं है। संथालपरगना प्रमंडल के अधिकांश पहाड़िया जनजाति के सुदूर गांवों में गरीबी का दंश झेल रही सैकड़ों लड़कियां काफी कम उम्र में बिन ब्याही मां बन रही हैं। ऐसी ही हजारों महिलाओं में से 125 महिलाएं कुछ महीने पहले सुहागन बनीं। पाकुड़ जिला मुख्यालय से करीब 50 किलोमीटर दक्षिण-पिश्र्चम िस्थत अमड़ापाड़ा प्रखंड के पकलो-सिंगारसी गांव में जब सुहागन बनने के लिए महिलाओं का जमावड़ा लगा, तो सभ्य समाज आैर धर्म के ठेकेदार किंकर्तव्यविमूढ़ नजर आये। वहीं स्थानीय प्रशासन भी सकते में था। सुहागन बनने पहुंची महिलाओं में से किसी के चार बच्चे हैं, तो कोई दो बच्चों की मां है। दो दर्जन ऐसी भी युवतियां पहुंचीं, जिनकी उम्र करीब 15 की रही होगी आैर गोद में अपने नवजात शिशु को लेकर अिग्न के सात फेरे लगा रही थीं। दर्जनों ऐसी भी महिलाएं थीं, जो अपनी बहू आैर बेटी के साथ मंडप में सिंदूर दान की रस्म अदायगी के लिए बैठी थीं।
इस इलाके में आगे भी इस तरह की सामूहिक विवाह के आयोजन की तैयारी चल रही है। जून तक करीब 250 बिन ब्याही मांओं की सिंदूर दान की रस्म अदायगी होने की संभावना है। आखिर इस समुदाय की लड़कियां बिन ब्याही मां क्यों बनती हैं। इस बाबत पूर्व सैनिक आैर सामाजिक कार्यकर्ता विश्र्वनाथ भगत बताते हैं, "गरीबी की वजह से भोज देने के लिए पैसे नहीं रहने आैर फिर शिक्षा का अभाव आैर खुला समाज होने की वजह से वे (लड़कियां) घर बसाने को तैयार हो जाती हैं। परंपरागत शादी (जिसमें लड़की के घर बारात जाती है) का प्रचलन धीरे-धीरे गरीबी की ही वजह से सुदूर इलाके से खत्म होता जा रहा है।'
जंगलों आैर पहाड़ों के बीच रहने वाली इस जनजाति की माली हालात किसी से छुपी नहीं है। पहाड़ों पर िस्थत झीलों आैर तालाबों का पानी पीना आैर जंगली कंदमूल खाकर जीवनयापन करना ही इनकी नियति हो गयी है। हालांकि, बाजारवाद का असर भी कहीं-कहीं देखने को मिलता है, जहां इस समुदाय के युवक जंगली लकड़ियों को स्थानीय हाट में मामूली पैसे पर बेचते हैं आैर जरूरी सामानों की खरीद-बिक्री करते हैं।
अंग्रेजों ने पहा़िडया समुदाय की वीरता को देखते हुए 1782 में पहाड़िया सैनिक दल का गठन किया, मिजाज से स्वाभिमानी पहाड़िया जनजाति ने कभी अंग्रेजों की अधीनता नहीं स्वीकारी। इससे आजीज आकर ब्रिटिश सरकार ने 1833 में पहाड़िया समुदाय को 1338 वर्गमील की सीमा में कैद कर दिया। इस क्षेत्र को "दामिन-इ-कोह' क्षेत्र घोषित किया गया। इस इलाके में 26 दामिन बाजार स्थापित किये गये तो आजाद भारत की सरकार ने इनकी संस्कृति के साथ ही गरीबी को देखते हुए 1954 में विशिष्ठ पहाड़िया कल्याण विभाग का गठन किया। पहाड़ों पर स्कूल बनाये गये। कहीं-कहीं चिकित्सा की भी व्यवस्था की गयी। आदिवासियों की अिस्मता के नाम पर बंटा बिहार आैर नवोदित झारखंड की सरकार अपने आठ साल के कार्यकाल के बावजूद इनकी नियति सुधारने में नाकाम साबित हुई है। हालांकि, नक्सलियों से मुकाबले के लिए अर्जुन मंडा की सरकार ने ब्रिटिश सरकार की तर्ज पर पहाड़िया बटालियन बनाने की रूपरेखा तैयार की थी, लेकिन बाद की सरकारों ने इस ओर ध्यान नहीं दिया। यही नहीं, वर्ष 2002 की जनगणना के अनुसार पहाड़िया जनजाति के करीब एक लाख 70 हजार, 309 की आबादी को आबाद करने के लिए प्रतिवर्ष करोड़ों रुपये विश्र्व बैंक के साथ ही केंद्र सरकार से सहायता के रूप में मिलते हैं। हालांकि स्थानीय लोग सरकार के इस आंकड़े को झूठा मानते हैं। इस जनजाति के लोगों का कहना है कि संथाल परगना प्रमंडल में ही 57 गांवों का न तो सर्वे हो पाया है आैर न ही मतदाता सूची में ही नाम दर्ज कराया गया है। सच्चाई चाहे जो भी हो। बावजूद इसके, पहाड़िया समाज बदहाल बना हुआ हैै। संथाल परगना प्रमंडल के बोरियो, अमरापाड़ा आैर लिट्टीपाड़ा समेत अन्य कई इलाके के ग्रामीण 8 किलोमीटर की दूरी तय कर पीने का पानी लाने को विवश हंै। जंगलों आैर पहाड़ों पर बिषैले सांप-बिच्छू का खतरा भी बराबर मंडराता रहता है। कई इलाके मलेरिया जोन घोषित किये गये हंै। बावजूद इसके इलाके में जन स्वास्थ्य सुविधाओं का घोर अभाव है। स्थानीय भाजपा कार्यकर्ता आैर पहाड़िया समुदाय के शिवचरण मालतो बताते हैं, "गरीबी आैर अशिक्षा का फायदा रांची आैर दुमका में बैठे अधिकारी उठा रहे हैं।' आदिवासी कल्याण आयुक्त डॉ नितिन मदन कुलकर्णी बताते हैं कि सरकार की ओर से उनकी दशा सुधारने के लिए सार्थक प्रयास किये जा रहे हैं। कई सारी योजनाएं उनके कल्याण आैर विकास के लिये चलायी जा रही हैं।
वैसे तो सारे पहाड़िया समुदाय की िस्थति कमोबेस एक जैसी ही है, फिर भी माल पहाड़िया के बीच शिक्षा का विकास हुआ है। वहीं साैरिया आैर कुमारभाग पहाड़िया समुदाय अब भी पहाड़ों पर ही डेरा डाले हुए है। कभी राज परिवार रहे आैर गुरिल्ला युद्ध में निपुण रहे इस समुदाय की आर्थिक िस्थति इतनी बदतर कैसे हो गयी, इस बाबत सामाजिक कार्यकर्ता दयामणि बारला बताती हैं, "प्रकृति पर निर्भर रहने वाले इस समुदाय के पास आजादी के पहले तक जंगलों पर पूरा अधिकार था, लेकिन आजादी के बाद वनों आैर पहाड़ों पर माफिया का राज स्थापित होने लगा जो बदस्तूर जारी है। फिर आैद्योगीकरण की वजह से प्रदूषण का प्रभाव पड़ा आैर अनावृिष्ट आैर अतिवृिष्ट की वजह से सारा कुछ बर्बाद हो गया। परिणामत: यह समाज धीरे-धीरे गरीबी की दलदल में फंसता चला गया।' एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि बिन ब्याही मांओं को इस समाज में भी मान्यता नहीं मिली है। फिर भी गरीबी की वजह से वे ऐसा कर रहे हैं, जिसे किसी भी परििस्थति में जायज नहीं ठहराया जा सकता।'

Friday, May 22, 2009

अकेली औरतें सामुहिक पहल

अठारह साल की उम्र में विधवा हो चुकी विभा अपने परिजनों के साथ ही समाज के ठेकेदारों से पूछती है, "आखिर सफेद कपड़ों में पूरी जिंदगी कैसे कटेगी? कब तक कुलक्षणी होने का लांछन लगता रहेगा ?' लेकिन समाज के पास इसका कोई जवाब नहीं है। विभा, पटना जिले के मदारपुर (पुनपुन) गांव की रहने वाली हैं। 15 वर्ष की आयु में उसकी शादी हुई थी और मात्र तीन साल के बाद ही वह विधवा हो गयी। उसके पति को अपराधियों ने गोलियों से भून दिया था। भरी जवानी में विधवा होने का दर्द क्या होता है, यह कोई विभा से पूछे। आगे की जिंदगी उसके सामने डरावने सवाल की तरह खड़ी थी और विभा के पास कोई जवाब नहीं था। ससुराल के साथ-साथ मैके से भी आये दिन ताने सुनने पड़ रहे थे। ऐसी विकट परिस्थितयों का सामना करने के लिए उसने पुनर्विवाह का निर्णय ले लिया। हालांकि उसके इस क्रांतिकारी फैसले से परिवार में कोहराम मचा हुआ है। कमोवेश ऐसी ही पीड़ा गया जिले के बाराचट्टी गांव की कमला की है। नक्सलियों ने कुछ वर्ष पहले उसके पति को पुलिस का मुखबिर बताकर गोली मार दी थी तो दूसरी ओर, पुलिस मुठभेड़ में मारे गये नक्सली लालमोहन यादव उर्फ नटवर की पत्नी हेमलता (काल्पनिक नाम), समस्तीपुर की पूजा, मुजफ्फरपुर की अर्चना, नालंदा जिले की सुनीता, बेगूसराय की रमावती आदि की कहानी भी एक जैसी है। समाज में विधवाओं की लंबी सूची है जो पति की गैरमौजूदगी में कुंठित जिंदगी जी रही हैं और इस सामाजिक अभिशाप से मुक्ति चाहती हैं।
महिला सशक्तिकरण के नाम पर भले ही देश में हर वर्ष करोड़ों रुपये खर्च किये जा रहे हों, लेकिन विधवा और परित्यक्ता महिलाओं का कल्याण और सशक्तिकरण शायद सरकारी दायरे से बाहर ही हैं। अकेली जिंदगी गुजार रहीं विधवा और परित्यक्तता महिलाओं की घुटनभरी जिंदगी की दास्तान किसी से छिपी हुई नहीं है। घर के भीतर कुलक्षणी, तो बाहर उन्हें अपशकून माना जाता है। सामाजिक ताने-बाने और पारिवारिक मर्यादा का ऐसा ढोंग सामाजिक और धार्मिक ठेकेदारों ने रच रखा है कि उससे आजीज आकर विधवाओं ने रूढ़िवादी परंपराओं को तिलांजलि देते हुए सधवा (सुहागन) बनने की मुहिम ही छेड़ दी है। विचारों की शान पर विधवाओं की आवाज कितनी तेज होती है और कितनी दूर तक पहुंचती है, इस बारे में तत्काल कुछ कहना जल्दबाजी होगी। लेकिन राजधानी पटना में विधवा और परित्यक्ता महिलाओं ने विधवा पुनर्विवाह की वकालत करके सामाजिक तौर पर एक नया विवाद तो छेड़ ही दिया है।
इतिहास बताता है कि लोकतंत्र की जननी रहा बिहार राष्ट्रीय स्तर पर हमेशा क्रांतिकारी प्रतीक खड़ा करता रहा है और देश की सामाजिक-राजनीतिक हलचलों में अहम भूमिका निभाते आ रहा है । बात चाहे अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह की हो या फिर आजाद भारत में इंदिरा गांधी की तानाशाही और सामंती जुर्म के खिलाफ बगावत की हो, बिहार ने सदा ही अग्रणी भूमिका निभायी है। एक बार फिर सामाजिक ठेकेदारों और रूढ़िवादी परंपराओं को चुनौती देते हुए कनाडाई मूल की राजस्थानी महिला डॉ. जिन्नी श्रीवास्तव की पहल और मुस्लिम महिला अख्तरी बेगम के आह्वान पर बिहार की करीब 225 विधवाओं ने सधवा बनने की सामूहिक इच्छा व्यक्त करके सबको चौंका दिया है। एकल नारी संघर्ष समिति के बैनर तले एकजुट हुई एकल महिलाओं ने एक स्वर में समाज के दकियानूसी चेहरे को उतार फेंकने का संकल्प लिया है। गांधीवादी विचारधारा से प्रभावित बेगम कहती हैं, " बात चाहे हिन्दू की हो या फिर मुस्लिम की, एकल महिलाओं की जिंदगी एक जैसी है। दोनों समुदाय की महिलाएं पति की गैरमौजूदगी में नारकीय जिंदगी जी रही हैं। इससे निजात पाने का एक ही तरीका है और वह है ,आर्थिक आत्मनिर्भरता।'
बीते महीने पटना के पंचायत भवन में मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों के सामने जब इन महिलाओं ने माथे में सिंदूर, कलाई में चुड़ी-लहठी, और नाखूनों पर नेल पालिश लगायी तो इसका मतलब साफ था कि वे विधवा के पहनावे-ओढ़ावे की बंदिशों को मानने से इंकार कर रही हैं। विधवा होने के बावजूद संकेत में ही इन महिलाओं ने समाज के ठेकेदारों को अपनी मंशा जता दीं। इनमें से अधिकांश की आयु 15 से 40 वर्ष के बीच है । एक सुर में सभी ने कहा कि हम लोग समाज और परिवार को कलंकित करने नहीं, बल्कि खुद के जीवन को संवारने आये हैं। लगातार तीन दिनों तक पटना में इसे लेकर गहरा विचार-मंथन होता रहा। अधिकांश विधवाएं अपने इरादों पर पूरी तरह से अडिग दिखीं। आखिर हो भी क्यों नहीं ? वर्षों की घुटनभरी जिंदगी, कई तरह के सामाजिक और पारिवारिक लांछन ! फिर भी मौन स्वीकारोक्ति । और तो और, जलालत भरी जिंदगी जीने के बावजूद न तो परिवार के किसी सदस्य का कोई साया और न ही बच्चों की शिक्षा-चिकित्सा की कोई गारंटी । इससे भी नहीं बन पाया तो सुदूर देहाती इलाकों में कभी किसी महिला को डायन, तो कहीं-कहीं चुड़ैल बताकर मार डालने तक की घटनाएं सामने आ चुकी हैं। बावजूद इसके तथाकथित सभ्य समाज मौन बना रहता है। ऐसी महिलाओं पर चरित्रहीनता का आरोप तो सरेआम लगते रहे हैं । रोज-रोज के ताने सुनते हुए बदहवास हो चुकी ऐसी विधवाओं में से एकहै, पटना जिले के मसौढी की रहने वाली पिंकी । तो अन्य हैं नालंदा जिले की सुनीता और लड़कनिया टोला (कटिहार) की सुमन सिंह। हजारों महिलाओं की दर्दभरी दास्तान के साथ ही इन महिलाओं की जिंदगी भी दुखभरी है। पिंकी के पति कुछ वर्ष पहले अपराधियों के गोलियों के शिकार हो गये, तो सुमन सिंह का दाम्पत्य जीवन टूटने के कगार पर है। कारण यह है कि सुमन का पति नशेड़ी है। उसे न तो बच्चों की फिक्र है और ही पत्नी की । सुनीता के पति पिछले छह सालों से लापता हैं, जिसके कारण सुनीता के कंधे पर अपने बच्चों की परवरिश की जिम्मेदारी आ गयी है। लेकिन लाचार सुनीता इस जिम्मेदारी की बोझ को कैसे उठाये ? उसे कोई उपाय नहीं सूझ रहा। इन महिलाओं के सामने एक जैसी समस्याएं हैं। पारिवारिक दायित्वों के अलावा एक बड़ी जिम्मेदारी यह भी कि बाल-बच्चों की शिक्षा-चिकित्सा कैसे हो। चौखट से बाहर आते ही तथाकथित सभ्य समाज के ठेकेदार चिल्ला उठते हैं कि बिना मरद (मर्द) के बाहर कैसे जाओगी ? इज्जत बची रहेगी तो किसी न किसी तरह गुजारा हो ही जाएगा। यह है सभ्य समाज का साफ-सुथरा चेहरा, जहां महिलाओं पर चौखट से बाहर आते ही चरित्रहीनता का आरोप मढ़ दिया जाता है।
ये तो बानगी है, पूरी तस्वीर इससे भी ज्यादा भयावह है। जहानाबाद की किरण और सरस्वती, हरिहरपुर (भोजपुर) की लक्ष्मी समेत न जाने कितनी ऐसी महिलाएं हैं जो गुमनाम जिंदगी जीने को विवश हैं। नक्सल पचरम लहराने वाले बिहार मेें वैसे भी कभी जातीय सेना तो कभी नक्सली हिंसा के शिकार हजारों महिलाओं अपने सीने में पति खोने का दर्द समेटे हुई हैं। एकल महिलाओं की दुर्दशा से चिंतित राजस्थान से बिहार पहुंचीं सामाजिक कार्यकर्ता डा. जिन्नी श्रीवास्तव बताती हैं, "समाज में एकल जिंदगी जी रही महिलाओं को अबला न समझा जाये। महिलाएं शुरू से ही सबल रही हैं और अगर उन्हें समाज और परिवार की बंदिशों से मुक्त कर दिया जाये, तो आज भी वे सबल ही हैं।'
सवाल उठता है कि आखिर विधवा और परित्यक्ता महिलाओं के साथ समाज में ऐसे दोयम दर्जे का व्यवहार क्यों हो रहा है ? इस बाबत मानवाधिकार कार्यकर्ता और बिहार राज्य मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष जस्टिस एसएन झा बताते हैं कि जब तक महिलाएं अपने पैरों पर खुद खड़ी नहीं होंगी तबतक इनके प्रति समाज का दकिनयानूसी व्यवहारों में कोई खास कमी नहीं होगी।
आंकड़ों पर गौर करें तो देश भर में विधवा महिलाओं की संख्या जहां आठ फीसद है वहीं विदुर पुरुष मात्र 2.5 फीसदी हैं। जबकि 67 फीसद महिलाएं ससुराल में रहती हैं । इनमें से अधिकतर ससुराल वालों की प्रताड़ना से परेशान हैं। ऐसी परिस्थितियों में विधवा पुनर्विवाह के इस अभियान का महत्व काफी बढ़ जाता है। लेकिन यह अभियान तब ही अपना लक्ष्य प्राप्त करने में सफल होगा जब इसमें अशिक्षित और गरीब महिलाओं के साथ-साथ शिक्षित और आर्थिक रूप से संपन्न महिलाएं भी हिस्सा लेंगी।