Monday, September 29, 2008

सशंकित उद्यमी : पूंजी निवेश की धीमी रफ्तार
भूषण स्टील कंपनी के कर्मचारियों के साथ हुई बदसलूकी ने राज्य के औद्योगिक विकास की संभावनाओं पर नये सिरे से सवाल खड़े कर दिये हैं। अब उद्योगपति सरकारी मंशा को भांपने में लगे हैं।
पश्चिम बंगाल के नंदीग्राम में इंडोनेशिया के रासायनिक कंपनी सलीम गु्रप के खिलाफ महासंग्राम, इसी राज्य में टाटा के लिए गहरी समस्या बन चुका सिंगूूूूूूूूूूूूूूूूर, उड़ीसा में पोस्को के खिलाफ अवाम का प्रदर्शन और अब झारखंड में एक स्टील कंपनी के कर्मचारियों के साथ बदसलूकी...। अगली पंक्ति में कौन होगा फिलहाल कहना मुश्किल है। अंतर सिर्फ इतना है कि दूसरे राज्यों में आधारभूत संरचनाएं झारखंड के मुकाबले बेहतर स्थिति में हैं। झारखंड गठन के बाद से राज्य औद्योगिक विकास के लिए सिर्फ तैयारियों में ही जुटा है। इस स्थिति में औद्योगिक समूह के कर्मचारियों के साथ पुलिस और प्रशासन की उपस्थिति में दुर्व्यहार इसके रास्ते में रोड़े अटका रही है। बीते दिनों जमशेदुपर के पोटका प्रखंड के ग्रामीणों ने पुलिस-प्रशासन की मौजूदगी में भूषण स्टील कंपनी के लिए काम कर रहे द सर्वेयर एंड एलायड इंजीनियरिंग कंपनी के कर्मचारियों के साथ जिस तरह का सलूक किया उससे सरकार की मंशा साफ हो जाती है।
देसी-विदेशी कंपनियों के लिए देश में कोई प्रोजेक्ट शुरू करना एवरेस्ट की चढ़ाई के समान है। हर जगह मुद्दा जमीन अधिग्रहण का है। कई कंपनियां ने तो अपनी परियोजनाओं से हाथ भी खींच लिया है। आखिर इसके लिए जिम्मेवार कौन है? और गलतियां किससे हो रही हैं...। कंपनियों से या फिर अदूरदर्शी सरकारों से? या फिर उद्योग स्थापना के नाम पर सिर्फ सस्ते दर पर जमीन लेने की एक नई प्रथा चल पड़ी है, जिसमें लोग उद्योग लगाते तो नहीं अलबत्ता इसी बहाने पानी के भाव जमीन हासिल कर लेते हैं।
रांची से करीब 150 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है पोटका प्रखंड। इसी प्रखंड के सरमंदा व रोलाडीह गांव में भूषण स्टील कंपनी के लिए काम करने गये द सर्वेयर एंड एलायड इंजीनियरिंग कंपनी के तीन कर्मचारियों, युसूफ अहमद, सहदेव सिंह व शीतल कुमार भारद्वाज को पहले ग्रामीणों ने बंधक बनाया। उसके बाद स्थानीय झामुमो विधायक अमूल्य सरदार के समर्थकों ने उन्हें जूते का हार पहनाकर करीब चार किलोमीटर तक तपती धूप मेंं घुमाया। नंगे पाव दहशत में घूम रहे कर्मचारियों के पैरों में छाले पड़ गये। वहीं एक-दूसरे के गालों पर थप्पड़ भी मारे गये। फिर कभी इस इलाके में नहीं आने की कसम खिलवायी। तब जाकर सर्वेयरों की जान बख्शी गयी।
इधर, घटना के विरोध में निवेशक बौखला गये। राजधानी रांची में विरोध प्रदर्शन का दौर शुरू हुआ। मुख्यमंत्री शिबू सोरेन को उत्पन्न स्थिति से निपटने के लिए हस्तक्षेप करना पड़ा। तब जाकर मामला शांत हुआ। हालांकि अभी भी निवेशकों में भय व्याप्त है। घटना के विरोध में भूषण स्टील कंपनी समेत अन्य नये उद्यमियों ने फिलहाल काम ठप कर दिया है।
यह पहला मौका नहीं है जब उद्योगपतियों को इस तरह की बेइज्जती का सामना करना पड़ा हो। इसके पहले भी सूबे की ओर आकर्षित होने वाले निवेशकों को सरकार की ओर से परेशानियां उठानी पड़ी हैं। यही कारण है कि खनिज संपदाओं से भरपूर होने के बावजूद सूबे में अबतक बड़े निवेशकों में से एक कोहिनूर स्टील कंपनी (चांडिल) को ही धरातल पर उतारने में सरकार कामयाब हो पाई है। हालांकि गत वर्ष इस कंपनी के कर्मचारियों को भी केंदरा के समीप पीटा गया था।
भूषण स्टील कंपनी व सरकार के बीच वर्ष 2006 में ही एक सहमति पत्र पर हस्ताक्षर हुआ था। दोनों के बीच इस बात पर सहमति बनी थी कि कंपनी के लिए 70 फीसदी जमीन का इंतजाम सरकार करेगी। अन्य जमीन कंपनी स्वयं ही किसानों से खरीदेगी। इसी जमीन अधिग्रहण के सिलसिले में सर्वेक्षकों की टीम वहां गयी थी। कंपनी का इरादा सूबे में 10,500 करोड़ रुपये निवेश करने की है। इनमें तीन स्टील प्लांट व एक मेगा पावर प्लांट होंगे। कंपनी को अपने स्टील प्लांट के लिए 3,400 एकड़ जमीन का अधिग्रहण करना है। लेकिन अब तक मात्र सौ एकड़ जमीन का ही अधिग्रहण हो पाया है। कंपनी ने वर्ष 2010 तक उत्पादन का लक्ष्य भी रखा है। ऐसी स्थिति में एक सवाल यह भी उठता है कि क्या कंपनी अपने निर्धारित समय से अपना लक्ष्य पूरा कर पाएगी? उद्योग मंत्री सुधीर महतो बताते हैं कि प्रदेश में उद्यमियों को पूरी सुरक्षा दी जाएगी। उनका कहना है कि भूषण कंपनी के सर्वेक्षकों को पहले स्थानीय प्रशासन को सूचना देनी चाहिए थी। तब मौके पर जाना चाहिए था। लेकिन उनके पास इसका कोई जवाब नहीं है कि दो थानों की पुलिस व प्रशासन की मौजूदगी में ही सारी वारदातें क्यों हुई? वह कहते हैं कि यह सारा नाटक सरकार को बदनाम करने की साजिश है। हालांकि इस मामले में सौ लोगों के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज करायी गयी है लेकिन अबतक किसी की गिरफ्तारी नहीं हुई है। इस बाबत पूछने पर स्थानीय विधायक का कहना है कि भूषण कंपनी के कर्मचारियों के साथ सिर्फ धक्का-मुक्की हुई है।
लाख टके का सवाल यह है कि आखिर खनिज संपदाओं से भरपूर होने के बावजूद सूबे की ओर उद्यमी क्यों नहीं आकर्षित हो रहे हैं? जबकि निवेशकों को आकर्षित करने के लिए ही पिछली मधु कोड़ा सरकार ने नयी पुनर्वास नीति की घोषणा भी की थी। जिसमें एक बात पर जोर दिया गया था कि निवेशक सीधे किसानों के पास जाकर जमीन का मोल-भाव करेंगे और उन्हें उचित मुआवजा देंगे। नीति के अनुसार रोजगार में स्थानीय लोगों को प्राथमिकता दी जाएगी। वहीं कंपनियां ही स्थानीय गांवों के विकास की चिंता भी करेंगी। किसान भी स्वेच्छा से ही जमीन देंगेे। लेकिन हाल के दिनों में भूषण स्टील कंपनी व उसके दो दिनों केे बाद ही जूपीटर स्टील कंपनी के कर्मचारियों के साथ जो सलूक किया गया, उससे साफ हो जाता है कि सरकार की नीति व नीयत में कितनी खोट है। भूषण कंपनी के निदेशक एचसी वर्मा बताते हैं कि कंपनी के कर्मचारियों के साथ बदसलूकी राजनीतिक संरक्षण में हुआ है। यह वही कंपनी है जिसका स्टील प्लांट चंडीगढ़, डेराबस्ती, कोलकाता व उड़ीसा में स्थापित हो चुके हैं।
एक समय ऐसा भी था जब दुनिया के उद्योगपति संयुक्त बिहार के दक्षिणी हिस्से यानी आज के झारखंड में निवेश करने को लालायित रहते थे। आजादी के पहले से ही दुनिया भर के कोयला, लोहा, बाक्साइड, अबरख, लाह समेत अन्य उद्योगों से जुड़े हुए निवेशकों ने यहां पूंजी लगायी लेकिन आज हालात ऐसे हैं कि पुराने निवेशक भी यहां से कहीं दूसरी जगह स्थानांतरित होना चाहते हैं।
फिलहाल उद्यमी सरकार के मूड भांपने में लगे हैं। सूबे में 50 परियोजनाएं सरकार की नीतियों का इंतजार कर रही हैं। कोई 93 उद्यमी सहमति-पत्र पर हस्ताक्षर करने के बावजूद आनन-फानन में पूंजी फंसाने की फिराक में नहीं हैं। इनमें टाटा, अर्सेलर-मित्तल, जेएसडब्ल्यू, जिंदल, एस्सार स्टील कंपनी आदि हैं।
वैसे तो सरकार का दावा है कि प्रदेश के निर्माण के साथ ही निवेशकों की लंबी लाइन लग चुकी है लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि चांडिल स्थित कोहिनूर स्टील कंपनी ने ही सहमति-पत्र के अनुसार 300 करोड़ रुपये का पूंजी निवेश किया है। इनका सहमति-पत्र पर समझौता 35,000 करोड़ रुपये का हुआ है। अन्य निवेशकों का काम सिर्फ कागजों पर ही चल रहा है। वहीं समझौते के अनुसार सरकार विभिन्न परियोजनाओं के लिए 109225.7 एकड़ देने का समझौता कर चुकी है। अब सवाल यह है कि सरकार किसानों की इस जमीन को उद्योगपतियों के लिए कैसे मुहैया कराएगी?
प्राकृतिक संपदाओं से भरपूर इस प्रदेश में कोई स्पष्ट औद्योगिक नीति नहीं बनी है। वर्तमान औद्योगिक नीति की समय-सीमा वर्ष 2005 में ही खत्म हो चुकी है। नयी नीति कैसी होगी और कब लागू होगी? फिलहाल सरकार का ध्यान इस ओर नहीं दिख रहा है। नयी पुनर्वास व राहत नीति को अगर छोड़ दिया जाए तो निवेशकों को प्रोत्साहित करने के लिए सरकार की अन्य कोई नीतियां नहीं दिख रही हैं। दूसरी बड़ी समस्या कानून-व्यवस्था की है। सूबे में नक्सलियों का आतंक जिस कदर बढ़ रहा है उससे निवेशकों में भय व्याप्त है। इसके लिए जरूरत है भयमुक्त समाज निर्माण की। लेकिन सरकार दिनों-दिन नक्सलियों के साथ ही भू-माफियाओं व बिचौलियों से घिरती जा रही है।
झारखंड चेंबर ऑफ कॉमर्स के अध्यक्ष मनोज नरेडी बताते हैं कि प्रदेश के अधिकांश इलाके नक्सलियों की चपेट में हैं। उनके डर से प्रशासन भी सहमी रहती है फिर बाहर से आने वाले निवेशकों की क्या बिसात कि वे नक्सलियों से टक्कर लेकर अपना उद्योग लगाएं? कानून-व्यवस्था की बाबत पूछे जाने पर उन्होंने दावे के साथ कहा कि कुछ जनप्रतिनिधि नक्सलियों के सहयोग से ही विधानसभा पहुंचते हैं। यही कारण है कि सरकार नक्सलियों के सफाये के लिए कोई कारगार नीति नहीं बना पा रही है।
नया राज्य बनते ही सूबे में भू-माफियाओं की सक्रियता भी उद्यमियों के मनोबल को तोड़ रही है। हालात ऐसे हो गये हैं कि बिना बिचौलियों के निवेशक जमीन का अधिग्रहण कर ही नहीं सकते। बिचौलियों के सहयोग से अगर भूषण कंपनी के सर्वेक्षक वहां जाते तो शायद यह घटना नहीं घटती।
बिजली की किल्लत भी देसी-विदेशी उद्योगपतियों को आकर्षित करने में व्यवधान पैदा कर रही है। फिलहाल प्रदेश की बिजली की जरूरत का अधिकांश हिस्सा सेंट्रल पुल से खरीदा जा रहा है। वैसे झारखंड अपने कोटे की पूरी बिजली भी लेने की स्थिति में नहीं है। राज्य के तीन बिजली उत्पादन संयंत्रों से औसतन चार सौ मेगावाट बिजली ही तैयार होती है। जबकि यहां 3600 मेगावाट बिजली क्षमता की जरूरत है। कई अन्य कंपनियां भी प्रदेश में पूंजी लगाना चाहती हैं। समझौते के अनुसार अगर वे सभी यहां निवेश करने लगे तो उस स्थिति में सूबे में करीब 5000 मेगावाट बिजली की जरूरत होगी। इसके लिए सरकार के पास कोई योजना नहीं दिख रही है। कहने के लिए सूबे में तेनुघाट व पतरातु पनबिजली परियोजनाएं काम कर रही हैं लेकिन सच्चाई यह है कि वहां क्षमता से काफी कम बिजली का उत्पादन हो रहा है। सरकार की इच्छाशक्ति सूबे का विकास करने की है तो सरकार को ऊ र्जा संयंत्रों के निर्माण पर जोर देना चाहिए। सिर्फ जिंदल कंपनी ही 15-20 पावर प्लांट लगाने की मंशा जाहिर कर चुकी है। अब यह सरकार की इच्छाशक्ति पर निर्भर करता है कि यहां जिंदल की पावर प्लांट योजना कैसे सफल होगा।
यही नहीं, प्रदेश की राजनीतिक अस्थिरता भी निवेशकों को हतोत्साहित कर रही है। सूबे में मात्र आठ साल में ही पांच मुख्यमंत्री आए और गये। कोई एक साल के लिए बना तो कोई तीन साल के लिए। किसी के एजेंडे में हिन्दुत्व रहा तो किसी को केंद्र सरकार की कृपा से कुर्सी मिली। कोई नक्सलवाद को असली समस्या मानते रहे। किसी मुख्यमंत्री की इच्छा निवेशकों को आकर्षित करने की रही भी तो उनके सामने कानून-व्यवस्था समेत अन्य नीतियों का अभाव दिखा। वैसे तो शिबू सोरेन इसके पहले भी नौ दिनों (2 मार्च से लेकर 10 मार्च, 2005 तक) के लिए प्रदेश की सत्ता संभाल चुके हैं। इस बार वे प्रदेश के छठें मुख्यमंत्री के रूप में सत्तासीन हुए हैं। झारखंडी अस्मिता के लिए सदा संघर्षशील रहे सोरेने के सत्ता में आते ही भूषण स्टील व जूपीटर स्टील कंपनी के कर्मचारियों के साथ हुई बदसलूकी इस बात का गवाह है कि झारखंडी मिट्टी को समझने वाले शिबू सोरेन भी अन्य मुख्यमंत्रियों से अलग नहीं हैं। हालांकि भूषण कंपनी के अधिकारियों के साथ आयोजित बैठक में उन्होंने इस बात का भरोसा दिलाया है कि आगे से निवेशकों के हितों का भरपूर ध्यान रखा जाएगा। अब आगे देखना है कि मुख्यमंत्री की बातों में कितना दम है।
पुनर्वास नीति की विशेषताएं
जिस परिवार की जमीन किसी परियोजना के लिए अधिगृहीत की जाएगी। उस परिवार के सदस्यों को नौकरी में प्राथमिकता दी जाएगी।
प्रभावित परिवार के सदस्यों को नौकरी में 10 साल की छूट दी जाएगी।
नौकरी के अलावा कंपनी अपने लाभांश का एक फीसदी हिस्सा प्रभावित ग्रामीणों के बीच बांटेगी, जो अधिग्रहण के हिसाब से तय होगा।
आवासीय क्षेत्र के अधिग्रहण की स्थिति में कंपनी ग्रामीण क्षेत्रों में 10 डिसमिल व शहरी क्षेत्रों में 5 डिसमिल की जमीन पर मकान बनाकर देगी।
विस्थापितों के स्थानांतरण के लिए प्रति परिवार 15 हजार रुपये की व्यवस्था कंपनी करेगी।
कंपनी की ओर से प्रभावित परिवारों के समर्थ लोगों को दक्षता विकास व छात्रवृत्ति की सुविधा दी जाएगी।
कुछ बड़े निवेशकों की सूची
बर्नपुर सीमेंट इंडस्ट्रीज, पतरातू-500 करोड़ रुपये
रांची इंटीग्रेटेड स्टील लिमिटेड, सिल्ली-5,452 करोड़ रुपये
जिंदल साउथ वेल्थ स्टील लिमिटेड-3,5000 करोड़ रुपये
जिंदल स्टील व पावर लिमिटेड, सरायकेला-11,500 करोड़ रुपये
मित्तल स्टील लिमिटेड, रांची-40,000 करोड़ रुपये
वीएस डेम्पो एंड कंपनी लिमिटेड, मोहनपुर-1016 करोड़ रुपये
टाटा स्टील लिमिटेड, सरायकेला-42,000 करोड़ रुपये
कल्याणी स्टील लिमिटेड, रांची-1,883 करोड़ रुपये
भूषण स्टील लिमिटेड, जमशेदपुर-6,510 करोड़ रुपये
एचवाई ग्रेड पेलेट्‌स लिमिटेड, चाईबासा-4,285 करोड़ रुपये
हिंडाल्को इंडस्ट्रीज प्राइवेट लिमिटेड, लातेहार-7,800
बीएमडब्ल्यू इंडस्ट्रीज लिमिटेड, सरायकेला-591 करोड़ रुपये
रूंगटा माइंस, चाईबासा-517 करोड़ रुपये
अनिन्दिता ट्रेडर्स एंड इंवेस्टमेंट लिमिटेड, हजारीबाग-94 करोड़ रुपये
नरबेहराम गैस प्वाइंट लिमिटेड, सरायकेला-200 करोड़ रुपये
गोल स्पंज लिमिटेड, सरायके ला-67 करोड़ रुपये
कोहिनूर स्टील लिमिटेड, सरायकेला-410 करोड़ रुपये

सशंकित उद्यमी : पूंजी निवेश की धीमी रफ्तार

भूषण स्टील कंपनी के कर्मचारियों के साथ हुई बदसलूकी ने राज्य के औद्योगिक विकास की संभावनाओं पर नये सिरे से सवाल खड़े कर दिये हैं। अब उद्योगपति सरकारी मंशा को भांपने में लगे हैं।
पश्चिम बंगाल के नंदीग्राम में इंडोनेशिया के रासायनिक कंपनी सलीम गु्रप के खिलाफ महासंग्राम, इसी राज्य में टाटा के लिए गहरी समस्या सिंगुर , उड़ीसा में पोस्को के खिलाफ अवाम का प्रदर्शन और अब झारखंड में एक स्टील कंपनी के कर्मचारियों के साथ बदसलूकी...। अगली पंक्ति में कौन होगा फिलहाल कहना मुश्किल है। अंतर सिर्फ इतना है कि दूसरे राज्यों में आधारभूत संरचनाएं झारखंड के मुकाबले बेहतर स्थिति में हैं। झारखंड गठन के बाद से राज्य औद्योगिक विकास के लिए सिर्फ तैयारियों में ही जुटा है। इस स्थिति में औद्योगिक समूह के कर्मचारियों के साथ पुलिस और प्रशासन की उपस्थिति में दुर्व्यहार इसके रास्ते में रोड़े अटका रही है। बीते दिनों जमशेदुपर के पोटका प्रखंड के ग्रामीणों ने पुलिस-प्रशासन की मौजूदगी में भूषण स्टील कंपनी के लिए काम कर रहे द सर्वेयर एंड एलायड इंजीनियरिंग कंपनी के कर्मचारियों के साथ जिस तरह का सलूक किया उससे सरकार की मंशा साफ हो जाती है।
देसी-विदेशी कंपनियों के लिए देश में कोई प्रोजेक्ट शुरू करना एवरेस्ट की चढ़ाई के समान है। हर जगह मुद्दा जमीन अधिग्रहण का है। कई कंपनियां ने तो अपनी परियोजनाओं से हाथ भी खींच लिया है। आखिर इसके लिए जिम्मेवार कौन है? और गलतियां किससे हो रही हैं...। कंपनियों से या फिर अदूरदर्शी सरकारों से? या फिर उद्योग स्थापना के नाम पर सिर्फ सस्ते दर पर जमीन लेने की एक नई प्रथा चल पड़ी है, जिसमें लोग उद्योग लगाते तो नहीं अलबत्ता इसी बहाने पानी के भाव जमीन हासिल कर लेते हैं।
रांची से करीब 150 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है पोटका प्रखंड। इसी प्रखंड के सरमंदा व रोलाडीह गांव में भूषण स्टील कंपनी के लिए काम करने गये द सर्वेयर एंड एलायड इंजीनियरिंग कंपनी के तीन कर्मचारियों, युसूफ अहमद, सहदेव सिंह व शीतल कुमार भारद्वाज को पहले ग्रामीणों ने बंधक बनाया। उसके बाद स्थानीय झामुमो विधायक अमूल्य सरदार के समर्थकों ने उन्हें जूते का हार पहनाकर करीब चार किलोमीटर तक तपती धूप मेंं घुमाया। नंगे पाव दहशत में घूम रहे कर्मचारियों के पैरों में छाले पड़ गये। वहीं एक-दूसरे के गालों पर थप्पड़ भी मारे गये। फिर कभी इस इलाके में नहीं आने की कसम खिलवायी। तब जाकर सर्वेयरों की जान बख्शी गयी।
इधर, घटना के विरोध में निवेशक बौखला गये। राजधानी रांची में विरोध प्रदर्शन का दौर शुरू हुआ। मुख्यमंत्री शिबू सोरेन को उत्पन्न स्थिति से निपटने के लिए हस्तक्षेप करना पड़ा। तब जाकर मामला शांत हुआ। हालांकि अभी भी निवेशकों में भय व्याप्त है। घटना के विरोध में भूषण स्टील कंपनी समेत अन्य नये उद्यमियों ने फिलहाल काम ठप कर दिया है।
यह पहला मौका नहीं है जब उद्योगपतियों को इस तरह की बेइज्जती का सामना करना पड़ा हो। इसके पहले भी सूबे की ओर आकर्षित होने वाले निवेशकों को सरकार की ओर से परेशानियां उठानी पड़ी हैं। यही कारण है कि खनिज संपदाओं से भरपूर होने के बावजूद सूबे में अबतक बड़े निवेशकों में से एक कोहिनूर स्टील कंपनी (चांडिल) को ही धरातल पर उतारने में सरकार कामयाब हो पाई है। हालांकि गत वर्ष इस कंपनी के कर्मचारियों को भी केंदरा के समीप पीटा गया था।
भूषण स्टील कंपनी व सरकार के बीच वर्ष 2006 में ही एक सहमति पत्र पर हस्ताक्षर हुआ था। दोनों के बीच इस बात पर सहमति बनी थी कि कंपनी के लिए 70 फीसदी जमीन का इंतजाम सरकार करेगी। अन्य जमीन कंपनी स्वयं ही किसानों से खरीदेगी। इसी जमीन अधिग्रहण के सिलसिले में सर्वेक्षकों की टीम वहां गयी थी। कंपनी का इरादा सूबे में 10,500 करोड़ रुपये निवेश करने की है। इनमें तीन स्टील प्लांट व एक मेगा पावर प्लांट होंगे। कंपनी को अपने स्टील प्लांट के लिए 3,400 एकड़ जमीन का अधिग्रहण करना है। लेकिन अब तक मात्र सौ एकड़ जमीन का ही अधिग्रहण हो पाया है। कंपनी ने वर्ष 2010 तक उत्पादन का लक्ष्य भी रखा है। ऐसी स्थिति में एक सवाल यह भी उठता है कि क्या कंपनी अपने निर्धारित समय से अपना लक्ष्य पूरा कर पाएगी? उद्योग मंत्री सुधीर महतो बताते हैं कि प्रदेश में उद्यमियों को पूरी सुरक्षा दी जाएगी। उनका कहना है कि भूषण कंपनी के सर्वेक्षकों को पहले स्थानीय प्रशासन को सूचना देनी चाहिए थी। तब मौके पर जाना चाहिए था। लेकिन उनके पास इसका कोई जवाब नहीं है कि दो थानों की पुलिस व प्रशासन की मौजूदगी में ही सारी वारदातें क्यों हुई? वह कहते हैं कि यह सारा नाटक सरकार को बदनाम करने की साजिश है। हालांकि इस मामले में सौ लोगों के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज करायी गयी है लेकिन अबतक किसी की गिरफ्तारी नहीं हुई है। इस बाबत पूछने पर स्थानीय विधायक का कहना है कि भूषण कंपनी के कर्मचारियों के साथ सिर्फ धक्का-मुक्की हुई है।
लाख टके का सवाल यह है कि आखिर खनिज संपदाओं से भरपूर होने के बावजूद सूबे की ओर उद्यमी क्यों नहीं आकर्षित हो रहे हैं? जबकि निवेशकों को आकर्षित करने के लिए ही पिछली मधु कोड़ा सरकार ने नयी पुनर्वास नीति की घोषणा भी की थी। जिसमें एक बात पर जोर दिया गया था कि निवेशक सीधे किसानों के पास जाकर जमीन का मोल-भाव करेंगे और उन्हें उचित मुआवजा देंगे। नीति के अनुसार रोजगार में स्थानीय लोगों को प्राथमिकता दी जाएगी। वहीं कंपनियां ही स्थानीय गांवों के विकास की चिंता भी करेंगी। किसान भी स्वेच्छा से ही जमीन देंगेे। लेकिन हाल के दिनों में भूषण स्टील कंपनी व उसके दो दिनों केे बाद ही जूपीटर स्टील कंपनी के कर्मचारियों के साथ जो सलूक किया गया, उससे साफ हो जाता है कि सरकार की नीति व नीयत में कितनी खोट है। भूषण कंपनी के निदेशक एचसी वर्मा बताते हैं कि कंपनी के कर्मचारियों के साथ बदसलूकी राजनीतिक संरक्षण में हुआ है। यह वही कंपनी है जिसका स्टील प्लांट चंडीगढ़, डेराबस्ती, कोलकाता व उड़ीसा में स्थापित हो चुके हैं।
एक समय ऐसा भी था जब दुनिया के उद्योगपति संयुक्त बिहार के दक्षिणी हिस्से यानी आज के झारखंड में निवेश करने को लालायित रहते थे। आजादी के पहले से ही दुनिया भर के कोयला, लोहा, बाक्साइड, अबरख, लाह समेत अन्य उद्योगों से जुड़े हुए निवेशकों ने यहां पूंजी लगायी लेकिन आज हालात ऐसे हैं कि पुराने निवेशक भी यहां से कहीं दूसरी जगह स्थानांतरित होना चाहते हैं।
फिलहाल उद्यमी सरकार के मूड भांपने में लगे हैं। सूबे में 50 परियोजनाएं सरकार की नीतियों का इंतजार कर रही हैं। कोई 93 उद्यमी सहमति-पत्र पर हस्ताक्षर करने के बावजूद आनन-फानन में पूंजी फंसाने की फिराक में नहीं हैं। इनमें टाटा, अर्सेलर-मित्तल, जेएसडब्ल्यू, जिंदल, एस्सार स्टील कंपनी आदि हैं।
वैसे तो सरकार का दावा है कि प्रदेश के निर्माण के साथ ही निवेशकों की लंबी लाइन लग चुकी है लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि चांडिल स्थित कोहिनूर स्टील कंपनी ने ही सहमति-पत्र के अनुसार 300 करोड़ रुपये का पूंजी निवेश किया है। इनका सहमति-पत्र पर समझौता 35,000 करोड़ रुपये का हुआ है। अन्य निवेशकों का काम सिर्फ कागजों पर ही चल रहा है। वहीं समझौते के अनुसार सरकार विभिन्न परियोजनाओं के लिए 109225.7 एकड़ देने का समझौता कर चुकी है। अब सवाल यह है कि सरकार किसानों की इस जमीन को उद्योगपतियों के लिए कैसे मुहैया कराएगी?
प्राकृतिक संपदाओं से भरपूर इस प्रदेश में कोई स्पष्ट औद्योगिक नीति नहीं बनी है। वर्तमान औद्योगिक नीति की समय-सीमा वर्ष 2005 में ही खत्म हो चुकी है। नयी नीति कैसी होगी और कब लागू होगी? फिलहाल सरकार का ध्यान इस ओर नहीं दिख रहा है। नयी पुनर्वास व राहत नीति को अगर छोड़ दिया जाए तो निवेशकों को प्रोत्साहित करने के लिए सरकार की अन्य कोई नीतियां नहीं दिख रही हैं। दूसरी बड़ी समस्या कानून-व्यवस्था की है। सूबे में नक्सलियों का आतंक जिस कदर बढ़ रहा है उससे निवेशकों में भय व्याप्त है। इसके लिए जरूरत है भयमुक्त समाज निर्माण की। लेकिन सरकार दिनों-दिन नक्सलियों के साथ ही भू-माफियाओं व बिचौलियों से घिरती जा रही है।
झारखंड चेंबर ऑफ कॉमर्स के अध्यक्ष मनोज नरेडी बताते हैं कि प्रदेश के अधिकांश इलाके नक्सलियों की चपेट में हैं। उनके डर से प्रशासन भी सहमी रहती है फिर बाहर से आने वाले निवेशकों की क्या बिसात कि वे नक्सलियों से टक्कर लेकर अपना उद्योग लगाएं? कानून-व्यवस्था की बाबत पूछे जाने पर उन्होंने दावे के साथ कहा कि कुछ जनप्रतिनिधि नक्सलियों के सहयोग से ही विधानसभा पहुंचते हैं। यही कारण है कि सरकार नक्सलियों के सफाये के लिए कोई कारगार नीति नहीं बना पा रही है।
नया राज्य बनते ही सूबे में भू-माफियाओं की सक्रियता भी उद्यमियों के मनोबल को तोड़ रही है। हालात ऐसे हो गये हैं कि बिना बिचौलियों के निवेशक जमीन का अधिग्रहण कर ही नहीं सकते। बिचौलियों के सहयोग से अगर भूषण कंपनी के सर्वेक्षक वहां जाते तो शायद यह घटना नहीं घटती।
बिजली की किल्लत भी देसी-विदेशी उद्योगपतियों को आकर्षित करने में व्यवधान पैदा कर रही है। फिलहाल प्रदेश की बिजली की जरूरत का अधिकांश हिस्सा सेंट्रल पुल से खरीदा जा रहा है। वैसे झारखंड अपने कोटे की पूरी बिजली भी लेने की स्थिति में नहीं है। राज्य के तीन बिजली उत्पादन संयंत्रों से औसतन चार सौ मेगावाट बिजली ही तैयार होती है। जबकि यहां 3600 मेगावाट बिजली क्षमता की जरूरत है। कई अन्य कंपनियां भी प्रदेश में पूंजी लगाना चाहती हैं। समझौते के अनुसार अगर वे सभी यहां निवेश करने लगे तो उस स्थिति में सूबे में करीब 5000 मेगावाट बिजली की जरूरत होगी। इसके लिए सरकार के पास कोई योजना नहीं दिख रही है। कहने के लिए सूबे में तेनुघाट व पतरातु पनबिजली परियोजनाएं काम कर रही हैं लेकिन सच्चाई यह है कि वहां क्षमता से काफी कम बिजली का उत्पादन हो रहा है। सरकार की इच्छाशक्ति सूबे का विकास करने की है तो सरकार को ऊ र्जा संयंत्रों के निर्माण पर जोर देना चाहिए। सिर्फ जिंदल कंपनी ही 15-20 पावर प्लांट लगाने की मंशा जाहिर कर चुकी है। अब यह सरकार की इच्छाशक्ति पर निर्भर करता है कि यहां जिंदल की पावर प्लांट योजना कैसे सफल होगा।
यही नहीं, प्रदेश की राजनीतिक अस्थिरता भी निवेशकों को हतोत्साहित कर रही है। सूबे में मात्र आठ साल में ही पांच मुख्यमंत्री आए और गये। कोई एक साल के लिए बना तो कोई तीन साल के लिए। किसी के एजेंडे में हिन्दुत्व रहा तो किसी को केंद्र सरकार की कृपा से कुर्सी मिली। कोई नक्सलवाद को असली समस्या मानते रहे। किसी मुख्यमंत्री की इच्छा निवेशकों को आकर्षित करने की रही भी तो उनके सामने कानून-व्यवस्था समेत अन्य नीतियों का अभाव दिखा। वैसे तो शिबू सोरेन इसके पहले भी नौ दिनों (2 मार्च से लेकर 10 मार्च, 2005 तक) के लिए प्रदेश की सत्ता संभाल चुके हैं। इस बार वे प्रदेश के छठें मुख्यमंत्री के रूप में सत्तासीन हुए हैं। झारखंडी अस्मिता के लिए सदा संघर्षशील रहे सोरेने के सत्ता में आते ही भूषण स्टील व जूपीटर स्टील कंपनी के कर्मचारियों के साथ हुई बदसलूकी इस बात का गवाह है कि झारखंडी मिट्टी को समझने वाले शिबू सोरेन भी अन्य मुख्यमंत्रियों से अलग नहीं हैं। हालांकि भूषण कंपनी के अधिकारियों के साथ आयोजित बैठक में उन्होंने इस बात का भरोसा दिलाया है कि आगे से निवेशकों के हितों का भरपूर ध्यान रखा जाएगा। अब आगे देखना है कि मुख्यमंत्री की बातों में कितना दम है।
पुनर्वास नीति की विशेषताएं
जिस परिवार की जमीन किसी परियोजना के लिए अधिगृहीत की जाएगी। उस परिवार के सदस्यों को नौकरी में प्राथमिकता दी जाएगी।
प्रभावित परिवार के सदस्यों को नौकरी में 10 साल की छूट दी जाएगी।
नौकरी के अलावा कंपनी अपने लाभांश का एक फीसदी हिस्सा प्रभावित ग्रामीणों के बीच बांटेगी, जो अधिग्रहण के हिसाब से तय होगा।
आवासीय क्षेत्र के अधिग्रहण की स्थिति में कंपनी ग्रामीण क्षेत्रों में 10 डिसमिल व शहरी क्षेत्रों में 5 डिसमिल की जमीन पर मकान बनाकर देगी।
विस्थापितों के स्थानांतरण के लिए प्रति परिवार 15 हजार रुपये की व्यवस्था कंपनी करेगी।
कंपनी की ओर से प्रभावित परिवारों के समर्थ लोगों को दक्षता विकास व छात्रवृत्ति की सुविधा दी जाएगी।
कुछ बड़े निवेशकों की सूची
बर्नपुर सीमेंट इंडस्ट्रीज, पतरातू-500 करोड़ रुपये
रांची इंटीग्रेटेड स्टील लिमिटेड, सिल्ली-5,452 करोड़ रुपये
जिंदल साउथ वेल्थ स्टील लिमिटेड-3,5000 करोड़ रुपये
जिंदल स्टील व पावर लिमिटेड, सरायकेला-11,500 करोड़ रुपये
मित्तल स्टील लिमिटेड, रांची-40,000 करोड़ रुपये
वीएस डेम्पो एंड कंपनी लिमिटेड, मोहनपुर-1016 करोड़ रुपये
टाटा स्टील लिमिटेड, सरायकेला-42,000 करोड़ रुपये
कल्याणी स्टील लिमिटेड, रांची-1,883 करोड़ रुपये
भूषण स्टील लिमिटेड, जमशेदपुर-6,510 करोड़ रुपये
एचवाई ग्रेड पेलेट्‌स लिमिटेड, चाईबासा-4,285 करोड़ रुपये
हिंडाल्को इंडस्ट्रीज प्राइवेट लिमिटेड, लातेहार-7,800
बीएमडब्ल्यू इंडस्ट्रीज लिमिटेड, सरायकेला-591 करोड़ रुपये
रूंगटा माइंस, चाईबासा-517 करोड़ रुपये
अनिन्दिता ट्रेडर्स एंड इंवेस्टमेंट लिमिटेड, हजारीबाग-94 करोड़ रुपये
नरबेहराम गैस प्वाइंट लिमिटेड, सरायकेला-200 करोड़ रुपये
गोल स्पंज लिमिटेड, सरायके ला-67 करोड़ रुपये
कोहिनूर स्टील लिमिटेड, सरायकेला-410 करोड़ रुपये






Friday, September 19, 2008

बिहार: सुनहरा अतीत, अंधकारमय भविष्य-2 (शिक्षा के क्षेत्र में)

हमने कल लिखा था कि किस तरह से आजादी के पूर्व से ही सत्ता संरक्षित अपराध ने बिहार को अपने पैरों तले रौंदा। हमने आपसे यह भी वादा किया था कि आने वाले दिनोंं में बिहार की बदहाली या सुखहाली में वर्तमान रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव का कितना योगदान रहा है। इसके बारे में चर्चा करेंगे। लेकिन फिर हमने सोचा कि वर्ष 1990 के पूर्व तक राजनीति के अलावा और किन-किन संस्थाओं में अपना कहर बरपाया। कानूनों को अपने पैरों तले रौंदा। इसी सोच के साथ हमने आज बिहार में शिक्षा माफियाओं पर चर्चा की है।
दुुनिया भर के छात्र प्राचीन मगध के नालंदा व विक्रमशीला विश्वविद्यालय में शिक्षा ग्रहण करते के लिए आया करते थे। आज भी राजगीर व आसपास के इलाकों में उसके भग्नावशेष दिख जाते हैं। कहा जाता है कि अंग्रेजों ने नालंदा विश्वविद्यालय में आग लगा दी। पुस्तकालय व अन्य विभागों से आग की धधक लगातार छह महीनों तक आती रही। उसके बाद फिर कभी बिहार, शिक्षा के क्षेत्र में कोई विशेष उपलब्धि हासिल नहीं कर सका। आजादी के बाद भी यहां के छात्रों का पलायन दिल्ली व दक्षिण भारत के राज्यों में होते रहा। शिक्षा के विकास के नाम पर सूबे में हुक्मरानों व शिक्षा माफियाओं की दुकानदारी फलती-फूलती रही। नेतरहाट विद्यालय, सैनिक स्कूल, केन्द्रीय विद्यालय आदि की बात अगर न की जाय तो प्रदेश में शिक्षा का धंधा खूब चला। पटना विश्वविद्यालय को अगर छोड़ दिया जाए तो प्रदेश के अधिकांश विश्वविद्यालयों का गठन भी जातीय आधार पर हुए। इसकी चर्चा बाद में करूंगा।
वर्ष 1970 आते-आते प्रदेश में जातीय आधार पर खुलने वाले शिक्षक संस्थानों की बाढ़ आ गई। सामाजिक सरोकार के नाम पर खोले जा रहे स्कूल व कॉलेज राजनीति का निजी अड्डा बनने लगा। इससे खीज कर उस समय एक कुलपति ने कहा था-"जो लोग अपने ही जीवनकाल में अपने नाम पर स्कूल कॉलेज-खोलते हैं। दरअसल इस भ्रष्ट नेताओं को इस बात का भरोसा ही नहीं कि उनके निधन के बाद श्रद्धावश उनकी याद में कोई व्यक्ति शिक्षण-संस्थान खोलने में आस्था रखेगा।'
शेरे बिहार की उपाधि से नवाजे गये प्रदेश के चर्चित नेता रामलखन सिंह यादव के नाम पर 60 से अधिक स्कूल-कॉलेज खोले गयेतो तत्कालीन शिक्षा मंत्री नागेन्द्र झा के विधायक बेटा मदन मोहन झा ने अपने पिता नागेन्द्र झा के नाम से एक महिला कॉलेज खोलकर वहीं से शिक्षा की दुकानदारी चलाते रहे। जब नागेन्द्र झा विश्वविद्यालय शिक्षा परिषद के सचिव बने तो बेटे ने इंडियन इंस्ट्‌ीच्यूट ऑफ मैंनेजमेंट नामक संस्था खोला और पिता की कृपादृष्टि से इंटर कौंसिल के सारे डाटा प्रोसेसिंग का काम अपने जिम्मे में ले लिया। यही नहीं, उन्होंने इस काम को पटना के एक बिना निबंधित कंपनी के जिम्मे दे दिया। उन पर सैंकड़ों अवैध बहालियांें का आरोप लगा। तब प्रदेश में डा.जगन्नाथ मिश्र की सरकार थी। कहा जाने लगा कि मैथिल ब्राहणों ने शिक्षा को रोगग्रस्त बना दिया है।
प्रदेश में रामलखन सिंह यादव इकलौते ऐसे नेता नहीं हैं जिन्होंने अपने नाम पर शिक्षा की दुकानदारी चलाई। बल्कि इसी लाइन में शामिल हैं-पूर्व मुख्यमंत्री डा. जगन्नाथ मिश्र, पूर्व सांसद स्व.राजो सिंह, पूर्व मंत्री रघुनाथ झा, पूर्व विधानसभा अध्यक्ष राधानंदन झा, पूर्व मंत्री उमा पांडेय समेत दर्जनांें जनप्रिय नेता। जिनके नामों पर प्रदेश के विभिन्न इलाकों में शिक्षा की दुकानदारी चलती रही। अपने नाम से कॉलेज खुलवाने में पूर्व मुख्यमंत्री सत्येन्द्र नारायण सिन्हा भी पीछे नहीं रहे। लेकिन उन्होंने शिक्षण-संस्थाओं को दुकान नहीं बनाई। श्री सिन्हा ने भी अपने व अपने परिवार के अन्य सदस्यों के नाम से राजधानी पटना समेत दो दर्जन से अधिक कॉलेज खुलवाए।
अस्थावा से विधायक रहे स्व.आरपी शर्मा के किस्से तो नायाब रहे हैं। वर्तमान समय में इनके नाम पर पटना में ही दर्जनभर शिक्षण संस्थान चल रहे हैं। स्व.शर्मा पटना स्थित टीपीएस कॉलेज में दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर थे। बावजूद इसके उनकी कॉलेज प्राचार्य कुटेश्वर प्रसाद सिंह से कभी नहीं बनी। इसी विवाद में उन्होंने पटना में शिक्षा का साम्राज्य खड़ा करने को ठानी। धून के पक्के आरपी शर्मा इस काम में लगे सो फिर कभी उन्होंने पीछे मुडकर नहीं देखा। अपने ही जीवन काल में उन्होंने पटना में आरपीएस कॉलेज, टे्रनिंग कॉलेज, महिला कॉलेज, लॉ कॉलेज, इंजीनियरिंग कॉलेज, हाई स्कूल आदि शिक्षण संस्थानों की बाढ़ ला दी।
सूबे में शिक्षा माफियाओं के बढ़ते हौंसले को देखते हुए इस जरसी गाय रूपी धंधे की शुरुआत में आने वाले लोगों की लाइन बड़ी होती चली गई। इसी लाइन में खड़े हुए सचिवालय से वर्ष 1970 में निलंबित कर्मचारी रामावतार वात्स्यायन। इनके किस्से भी कम दिलचस्प नहीं हैं। शिक्षा माफिया बनने के पहले ये रामावतार सिंह थे। निलंबन के बाद इनके सामने भूखमरी की समस्या आ गई। सो इन्होंने सोचा कि क्यों नहीं, धंधा किया जाए और इसी सोच के साथ ये शिक्षा के धंधे में लग गये। पहले इन्होंने पटना में जेडी वीमेंस कॉलेज खोला। फिर हाई स्कूल। पटना के अलावा इन्होंने रांची, रामगढ़ व जमशेदपुर में ही शिक्षा का साम्राज्य फैलाया। सरकार ने जब जेडी वीमेंस कॉलेज व हाई स्कूल को अधिग्रहण कर लिया तो उन्होंने बौद्ध धर्म अपना लिया। विश्व बौद्ध धर्म की स्थापना की और पटना में ही सिद्धार्थ महिला कॉलेज, शिक्षक प्रशिक्षण कॉलेज, संत एमजी हाई स्कूल, रांची में संघमिश्रा महिला कॉलेज आदि की स्थापना की। आश्चर्य तो यह शिक्षा का अलख जगाने वाले वात्स्यायन पर सिद्धार्थ महिला कॉलेज की शिक्षिकाओं ने यौनाचार तक का आरोप लगाया।
लौह नगरी जमशेदपुर भला इस धंधे में कैसे पीछे रहता? यहां के ए.रवि नामक एक व्यक्ति ने बौद्ध एजुकेशन सोसायटी की स्थापना की और इस धंधे में लग गये। इन्होंने अपने संस्था का नाम रखा-गौतम बुद्ध कॉलेज ऑफ एजुकेशन। इसके तहत बीइएड ट्रेनिंग कॉलेज समेत दर्जनभर शिक्षण संस्थानों की स्थापना की। जमशेदपुर में चल रहे शिक्षा के इस दुकानदारी को बंद करने के लिए जमशेदपुर के नागरिक कल्याण परिषद के महामंत्री वैदेही शरण सिंह ने इसकी लिखित शिकायत जिला प्रशासन से की।
और फिर दरभंगा। देश के शिक्षा के नक्शे में इसे शायद ही भुलाया जा सके। यहां वर्षों तक फर्जी विश्वविद्यालय चलता रहा। सत्ता से गंठजोर के लिए जिले में चर्चित हो चुके दिनराज शांडिल्य नामक व्यक्ति ने इसकी नींव डाली। इसमें दक्षिण भारत के हजारों छात्रों ने फर्जी डिग्रियां हासिल की। भला खुलेआम चल रहे फर्जी विश्वविद्यालय की खबर से सरकार अनभिज्ञ रही, यह कैसे हो सकता है। लेकिन सामरथ के नहीं दोष गोसाई की तर्ज पर बिहार में सबकुछ चलता रहा।
बिन्देश्वरी दूबे शासनकाल की बात है। मुख्यमंत्री के आवास पर भोज का आयोजन हुआ था। इस भोज की व्यवस्था शिक्षा मंत्री लोकेश्वर नाथ झा को करनी थी। लेकिन उन्हें सूझ नहीं रहा था कि भोज में खर्च होने वाले लाखों रुपयों का इंतजाम इतना जल्दी कहां से किया गया। अभी वे उधेड़-बुन में फंसे ही हुए थे कि मुख्यमंत्री ने कहा-पैसे की कमी है तो क्यों नहीं किसी कॉलेज को मान्यता (एफजिएशन) दे देते हैं। तुरंत पैसे हो जाएंगे। मुख्यमंत्री के इस एक बयान से ही समझा जा सकता है कि सूबे में सरकार संरक्षित शिक्षा की दुकानदारी किस तरह से फल-फूल रही थी।
शिक्षक से मुख्यमंत्री बने डा.जगन्नाथ मिश्र के समय में 36 कॉलेजों को रातोरात मंजूरी दे दी गई। इस पर काफी विवाद हुआ। औने-पौने दामों के लिए दर्जनों लोगों को व्याख्याता बना दिया गया। सैंकड़ों लोग कॉलेज कर्मचारी बनाये गये। इनमें नियमों की जिस तरह से धज्जियां उड़ी। उससे बिहारवासियों को वाकिफ होना चाहिए। इन कॉलेजों में सबसे चर्चित मामले सर्व नारायण सिंह कॉलेज, सहरसा, गुरू गोविन्द सिंह कॉलेज, पटना सिटी, डीएन कॉलेज, मसौढ़ी के रहे। इन कॉलेजों में शासी निकाय को अंधेरे में रखकर रातोरात दर्जनों व्याख्याता के पद सृजित कर दिये गये। 26 सितंबर, 1986 को छह महीने के भीतर ही सर्व नारायण सिंह, कॉलेज, सहरसा में 42 से बढ़ाकर 72 पद सृजित कर दिये गये। लाख टके का सवाल यह है कि क्या मात्र छह महीने में ही छात्रों की इस तरह से वृद्धि हुई कि दुगीनी सीट बढ़ाने की नौबत आ गई। यही भागलपुर विश्वविद्यालय के कोऑडिनेटर प्रो. रामेश्वर प्रसाद सिंह ने अपनी पत्नी का नाम खगड़िया महिला कॉलेज में जुड़वा लिया।
समाज के प्रबुद्ध लोगों के कारनामों से मगध, रांची, मिथिला विश्वविद्यालय भी अछूता नहीं रहा। सत्ता के शीर्ष से जुड़े लोगों ने प्रदेश में 250 वित्तरहित कॉलेजों के सहारे अपनी दुकानदारी चलाते रहे।
ऐसी बात नहीं है कि शिक्षा के क्षेत्र में राजनीतिक दखलअंजादी अचानक शुरू हो गयी। बल्कि इसकी शुरुआत 1965 से ही हो चुकी थी। जब प्रदेश के सिहासन पर महामाया प्रसाद सिन्हा बैठे तो उन्होंने छात्रों को अपने संबोधन में जिगर के टुकड़े कहा। इसके बाद से छात्र राजनीति में राजनीतिक दलों की बेतहासा दखलअंदाजी हुई जो फिर थमने का नाम नहीं लिया। हालांकि परीक्षाओं में लगातार जारी कदाचार व शिक्षण संस्थाओं में जारी भ्रष्टाचार को रोकने के लिए वर्ष 1972 में मुख्यमंत्री बने केदार पांडेय के शासनकाल में रोकने का असफल प्रयास हुआ। फिर भी शिक्षा में गुणात्मक सुधार व व्याप्त भ्रष्टाचार को रोेकने के लिए 1966 में गठित एसपी सिंह कमीशन की रिपोर्ट गतलखाने में डाल दिया गया। यही नहीं, उसके बाद गठित जस्टिस केके बनर्जी कमीशन, पाटणकर कमीशन, केएसवी रमण कमीशन, अब्राहम, जब्बार हुसेन के साथ ही वीएस झा का प्रतिवेदन भी ठंढ़े बस्ते में डाल दिया गया।
कल लिखेंगे प्राकृतिक संपन्नता के बावजूद 1990 आते-आते बिहार कैसे विपन्नता का शिकार हुआ।

बिहार: सुनहरा अतीत, अंधकारमय भविष्य

कोसी की कहर ने एक बार फिर बिहार को चर्चा में ला दिया है। इसे प्राकृतिक प्रलय की संज्ञा दी जाए या मानवीय त्रासदी। यह तो आने वाले दिनों में पता चलेगा, जब लोगों को अपना ठिकाना याद आएगा। अभी तो कोसीवासी इसकी विभिषिका को भूले भी नहीं हैं। इसलिए किसी को अपना आसियाना शायद याद नहीं आ रहा है।
आज का बिहार यानी कल का मगध साम्राज्य का स्वर्णीम इतिहास रहा है। बिहार की खूबसूरती, यहां की संस्कृति, लोगों का रहन-सहन, चाल-चलन व बोलचाल के साथ ही आपसी साहार्य को देखकर ही अंगेज लेखक सर जॉन हुल्टन ने अपनी पुस्तक "दी हर्ट ऑफ बिहार' में लिखा है-"हिन्दुस्तान की धड़कन अगर कोई है तो बिहार है, बिहार।' वाकई बिहार का अतीत गाैरवमयी रहा है। बिंबिसार व सम्राट अशोक का मगध साम्राज्य प्राचीन वर्षों के भारत का इतिहास रहा है। तब से लेकर आज तक बिहार ने शासन-प्रशासन के साथ ही राजनीतिक उथल-पुथल का लंबा सफर तय चुका है। इसी के साथ बिहार ने कई उतार-चढ़ाव भी देखा है। कभी बिहार, सर्वोच्च प्रशासनिक केन्द्र के रूप में देश में शुमार था लेकिन आज के समय में सबसे अधिक प्रशासनिक गिरावट इसी बिहार में देखने को मिलती है।
आखिर इसकी शुरुआत कब आैर कैसे हुई-कहना मुिश्कल है। फिर भी इतिहास के पन्नों की तहकीकात करने के ज्ञात होता है कि सत्त्ाा के केन्द्रीयकरण के साथ ही हिंसा का जो दाैर शुरू हुुआ वह फिर कभी थमने का नाम नहीं लिया। मगध सम्राट बिंबिसार ने अपने पिता को सत्त्ाा के लिए कारावास में डाल कर रखा तो दूसरी ओर सत्त्ाा संरक्षित महत्वाकांक्षा के आगे सम्राट अशोक ने अपने 99 भाईयों को एकमुश्त माैत के घाट उतार दिया। वैसे तो कबीलों के बारे में भी कहा जाता है कि वे लोग भी सत्त्ाा के लिए हिंसा पर उतारू रहते थे। हालांकि उनका कोई केन्द्रीकृत सत्त्ाा नहीं था इसलिए वह इतिहास के पन्नों में समेटा नहीं जा सका।
सभ्यता के विकास के साथ ही सत्त्ाा व हिंसा का अटूट रिश्ता बना रहा लेकिन जब आैद्योगिकीकरण का सिलसिला व्यविस्थत रूप से शुरू हुआ तो सत्त्ाा के लिए अहिंसक क्रियाओं को असहनीय माना जाने लगा। वे लोग बराबर मारे जाते रहे जिन्होंने सत्त्ाा में हिंसा के बेदखल का विरोध किया। फिर, यही माना जाने लगा कि राजनीति आैर सत्त्ाा के पास वही बैठ सकता है जिनके पास हिंसक तेवर हैं। कानून की मर्यादा भी उसी समय तक रही जबतक उसे बनाने वाले शासकों ने पूरी निष्ठा से उसका पालन किया। लेकिन जब से खुद शासकों ने खुलेआम कानून का उल्लंघन करना शुरू कर दिया तब से समाज आैर अंतत: राजनीति का अपराधीकरण शुरू हो गया।
राम द्वारा निर्दोष शंबूक की हत्या, राजा हिरण्यकश्यप व चेदि के राजा वसु की कथाएं आज के शासकों से कम भ्रष्ट नहीं दिखते। अगर आधुनिक विश्व की कल्पना करें तो चीन के क्रांतिकारी नेता व गणतांित्रक चीन के निर्माता माओत्सेतुंड ने एक कदम आगे बढ़कर सत्त्ाा में हिंसक तेवर को स्वीकारते हुए कहा-"सत्त्ाा का जन्म बंदूक की नली से होता है।' माओ के इस बयान से दुनिया में बलबली मच गयी। साथ ही, सत्त्ाा में हिंसा को नकारने वाली विश्व बिरादरी भाैचक रह गयी।
भारत के साथ ही दुनिया में सत्त्ाा संरक्षित हिंसा की चर्चा बाद में करेंगे। पहले गाैरवमयी अतीत संवारे बिहार में सत्त्ाा संरक्षित अपराध की चर्चा करते हैं। वैसे तो वर्ष 1990 के बाद सूबे में सत्त्ाा संरक्षित अपराध का ऐसा बोलबाला हुआ कि लोगों की जुबान में हमेशा यह बात निकलती रही कि बिहार को लालू प्रसाद यादव के दो साले साधु व सुभाष यादव चला रहे हैं। नरसंहारों का ऐसा दाैर चला कि सूबे मंें एक महीने में ही पांच-पांच नरसंहार हुए। हालांकि लालू-राबड़ी के शासनकाल में आैरंगाबाद जिले के बहुचर्चित मियांपुर नरसंहार के बाद यानी 16 जून, 1999 के बाद एक भी नरसंहार नहीं हुए। उस दौरान राजधानी पटना की सड़कों पर बेइंतहा कत्लेआम हुए। बैंक डकैती, अपहरण का ऐसा बोलबाला बढ़ा कि कब, काैन आैर कहां से अगवा कर लिया जाए-कहना मुिश्कल हो गया। नरसंहार का दाैर तो राबड़ी देवी शासनकाल में ही खत्म हो गया लेकिन बैंक डकैती, अपहरण, हत्याएं आदि आपराधिक घटनाओं में राबड़ी देवी के शासन के बाद सत्त्ााच्युत हुई नीतीश सरकार भी रोकने में पूरी तरह से सफल नहीं हुई है। हालांकि अपराधियों को स्पीडी ट्रायल के तहत सजा दिलवाने में जरूर सरकार राबड़ी देवी से बाजी मार ली है। फिर भी मैं मानता हूं कि बिहार को बेबस बनाने में न तो अकेले वर्ष 1990 में सत्त्ाा में आए लालू प्रसाद यादव जिम्मेवाद हैं आैर न ही नीतीश कुमार। बिल्क बिहार की सही तस्वीर जानने के लिए आजादी के चंद दिनों बाद से ही गहन अध्ययन करने की जरूरत है।
बात आजादी के थोड़े दिनों पहले की है। 28 मार्च, 1947 को महात्मा गांधी हजारीबाग से पटना आने वाले थे। उनकी अगवानी करने के लिए तत्कालीन प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष प्रो.अब्दुल बारी हजारीबाग से पटना आ रहे थे। फतुहा के पास तस्कर विरोधी दस्ते ने उनकी अम्बेस्डर कार को जांचना चाहा। लेकिन प्रो.बारी को जल्दी थी। सो, उन्होंने अपना परिचय दिया आैर कहा कि महात्मा गांधी चंद घंटों में पटना पहुंचने वाले हैं। कृपया करके आप बेवजह हमें विलम्ब नहीं करें। वे अभी अपनी बात भी खत्म नहीं किये थे कि तस्कर विरोधी दस्ता में से एक ने प्रो.बारी को गोली मार दी। वे वहीं ढेर हो गये। कहा जाता है कि प्रो.बारी हत्यारी राजनीति की बेदी पर चढ़ गये। बेहद ईमानदार व साफ छवि के प्रो.बारी की हत्या आखिर किन कारणों से हुई? आजतक यह जांच का विषय बना हुआ है। कहा जाता है कि उनके राजनीति में बढ़ते कद से प्रदेश नेतृत्व खफा रहता था।
12 अगस्त, 1955 बिहार के लिए विस्मरणीय दिन है। आज ही के दिन विधानसभा में तत्कालीन मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह ने कहा था-"आज हमारी एक बेटी विधवा हो गयी।' सचमुच विधवा हो चुकी पटना महिला कॉलेज की बीए-पाट्‌स-वन की छात्रा शांति पांडेय के पति व उभरते छात्र नेता दीनानाथ पांडेय भी हत्यारी राजनीति के शिकार हुए थे। पुलिस ने उन्हें बीएन कॉलेट परिसर में गोलियों से भून दिया था। हत्या के बाद उबल रहे बिहार को बचाने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु को हस्तक्षेप करना पड़ा था। तब जाकर मामला शांत हुआ था। बाद में विधवा शांति पांडेय एक चिकित्सक से शादी करके शांति पांडेय से शांति ओझा बन गयीं। फिलहाल पटना में महिलाओं के लिए स्वयं सहायता समूह चलाती हैं आैर जागो बहना नामक पित्रका की संपादक भी हैं।
आजादी के बाद दूसरी घटना पटना के गांधी मैदान के समीप घटी। 5 जनवरी, 1967 को 10 हजार की भीड़ पर पुलिस ने गोलियों की बरसात कर दी। इसमें 35 से अधिक लोग मारे गये। पुलिस ने 75 चक्र गोलियां चलाइंर्। जबकि सरकारी रिकार्ड के अनुसार मात्र नाै लोग ही मारे गये थे। एक ओर जहां इस जघन्य गोलीकांड से प्रदेश दहल गया था वहीं पटना के तत्कालीन जिलाधिकारी जे.एन. साहु ने इसे कांग्रेस की अंदरूनी कलह बताया था। गोलीकांड के समय जयप्रकाश नारायण जमशेदपुर में थे वहीं उन्होंने कहा था-"बिहार में निरंकुशता के मजबूत होते पंजे पता नहीं, इस संवेदनशील प्रदेश को कहां ले जाकर छोड़ेंगे।' सरकार मामले को निपटाने में लगी रही फिर भी नतीजा सिफर ही रहा था। वहीं सत्त्ाा से हटते ही पूर्व मुख्यमंत्री कृष्णवल्लभ सहाय की माैत एक सड़क दुर्घटना में हो गई। विपरीत दिशा से आ रही एक ट्रक राैंदते हुए सहाय की कार को पार कर गई। प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री की हत्या आैर शासन-प्रशासन बेखबर। तब से लेकर आज तक प्रशासनिक अधिकारी इस बात से अनभिज्ञ रहे कि सहाय की सड़क दुर्घटना में माैत एक साजिश थी या स्वाभाविक परिघटना।
13 अप्रैल, 1955 को बिहार विधानसभा का पूरा सदन तब सन्न रह गया था जब विरोधी दल के नेता एस.के.बागे ने श्रीकृष्ण सिंह पर लाए गये अविश्वास प्रस्ताव के समर्थन में बोल रहे थे। उन्होंने सदन को जानकारी दी कि देशभर में सबसे अधिक डकैतियां बिहार में हो रही हैं। वर्ष 1952 में उनके भी घर में डकैतोंं ने धावा बोलकर सबकुछ लूट लिया थाआैर पुलिस देखती रही थी। वहीं प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के नेता महामाया प्रसाद सिन्हा ने सदन को जानकारी दी कि बिहार विधान परिषद के उप सभापति के घर डकैती हुई। पुुलिस की ओर से तैयार आंकड़ों को पेश करते हुए नेताओं ने सदन को बताया कि वर्ष 1954 को बिहार में 1581 डकैतियां हुइंर् जबकि महाराष्ट्र में 575 व हैदराबाद में 344 डकैतियां हुइंर् थीं।
आजादी के पहले भारतीय जेलों में एक नारा गूंजता था-"यह झंडा तुमसे कहता है, दिन-रात जुल्म क्यों सहता है, खामोश सदा क्यों रहता है, उठ होश में आ आंधी बन जा।' लेकिन आजादी के बाद बिहार पुलिस के गुंडों ने इस क्रांतिकारी गाना गाने वाले को सदा के लिए गहरी नींद में सुला दिया था। इस गाने को इजात किया था शोषितों,मलजूमांें के नेता सूरज नारायण सिंह ने। गुलामी के दिनों में हजारीबाग केन्द्रीय कारा से जय प्रकाश नारायण समेत छह क्रांतिकारियों को अपने कंधे पर बिठाकर जेल से भागने वाले वीर बांकुरे सूरज बाबू 21 अप्रैल, 1973 को सत्त्ाा संरक्षित हत्यारी राजनीति के शिकार बन गये। रांची के टाटी सिलवे िस्थत उषा मार्टिन कंपनी के सामने मजदूरों की हक व हुकूक की लड़ाई लड़ रहे सूरज बाबू को कंपनी के गुंडों व रांची पुलिस ने उन्हें लाठी से पीट-पीटकर हत्या कर दी। हत्या के समय वे मधुबनी से सोशलिस्ट पार्टी के विधायक थे। सूरज बाबू की हत्या से आहत जयप्रकाश नारायण ने पटना के बांस घाट पर उनके अंतिम संस्कार के समय पत्रकारों से कहा था-"मैं अपनी पत्नी प्रभावती के निधन से उतना आहत नहीं हुआ जितना सूरज बाबू के निधन से हूं।'
उस समय अब्दुल गफ्फार विधान परिषद के सदस्य रहते हुए प्रदेश के मुख्यमंत्री बने थे। इसके पहले तक बिहार में विधानसभा के सदस्य ही मुख्यमंत्री हुआ करते थे। जिसे कांग्रेस नीति सरकार ने अपने पैरों तले कानून को राैंदा।
सूरज बाबू की खाली सीट पर हुए उप चुनाव में एक ओर सोशलिस्ट पार्टी की ओर से उनकी पत्नी चन्द्रकला देवी खड़ी थी जबकि कांग्रेस पार्टी की ओर से स्वयं मुख्यमंत्री अब्दुल गफ्फार। बताया जाता है कि कांग्रेसी गुंडों ने जबरदस्ती चन्द्रकला देवी को हरवा दिया था। उनकी हार से आहत जयप्रकाश ने कहा था-"अब आैर अधिक नहीं सहा जा सकता। लोकतंत्र की हत्या अब आैर बर्दाश्त नहीं कर सकता।' सचमुच लोकतंत्र प्रेमी लोग कांगे्रस नीत सरकार के कारनामों से आहत हो रहे थे। फिर भी सत्त्ाा संरक्षित अपराध थमने का नाम नहीं ले रहा था।
देश में किसी केन्द्रीय मंत्री के मारे जाने की पहली घटना बिहार में ही हुई। 3 जनवरी, 1975 को तत्कालीन रेलमंत्री व देश के तेजतर्रार नेता ललित नारायण मिश्र को अपराधियों ने समस्तीपुर रेलवे स्टेशन पर बम से उड़ा दिया। उनकी हत्या से आहत तत्कालीन प्रधानमंत्री इिन्दरा गांधी ने पत्रकारों से कहा था-"यह ललित बाबू की हत्या नहीं, बिल्क मेरी हत्या का पूर्वाभ्यास है।' सचमुच इिन्दरा गांधी की यह भविष्यवाणी 31 अक्टूबर, 1984 को उनके अंगरक्षकों को गोलियों से भून कर सही साबित कर दिया था।
निरंकुश शासन से देश लगातार भयभीत होते जा रहा था। अभी देशवासी ललित बाबू की हत्या को भूले भी नहीं थे कि 12 जून, 1975 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इिन्दरा गांधी के चुनाव को अवैध घोषित कर दिया। न्यायालय का फैसला आते ही हत्यारी राजनीति ने तथाकथित लोकतंत्र का गला भी घोंट लिया आैर 26 जून, 1975 को देशव्यापी आपातकाल लागू कर दिया गया। अखबारों के प्रकाशन पर प्रतिबंध लगा दिया गया। अभी देश में आपातकाल लागू ही था कि मटिहानी के कम्युनिस्ट विधायक सीताराम मिश्र की हत्या कांग्रेसी गुंडों ने कर दी।
बिहार के राजनीतिक इतिहास में वर्ष 1980 सदा याद किया जाता रहेगा। आपातकाल के दूसरे आम चुनाव में एक ही साथ अपराधियों की जमात बिहार विधानसभा में पहुंची। सूबे में पहली बार बुलेट के आगे बैलेट विवश दिखने लगा। निर्वाचित सदस्यों में से कोई हाथी पर सवार होकर विधानसभा पहुंचा तो कोई संगीनों के साये में। किसी पर तीन दर्जन हत्या के मामले दर्ज हैं तो कोई मुजफ्फरपुर से लेकर पटना तक जमीन हथियाने के लिए जाना जाता है। भोजपुर विधानसभा सीट से निर्दलीय वीर बहादुर सिंह जीते तो वैशाली जिले के जनदाहा विधानसभा सीट से वीरेन्द्र सिंह महोबिया। सरदार कृष्णा सिंह, काली पांडेय, विनोद सिंह समेत कुख्यात विधायकों की लंबी लाइन लग गई।
अपराध के सहारे सत्त्ाा के शीर्ष पर पहुंचे ये विधायक एक-एक कर अपराध के ही शिकार बनते गये। एक मई, 1987 को वीर बहादुर सिंह अपराधी राजनीति के शिकार बन गये। इनके किस्से दिलचस्प रहे हैं। एक बार टिकट मांगने वाले ठिकट कलेक्टर को इन्होंने चलती ट्रेन से बाहर फेंक दिया था। वहीं एक दर्जन इंजीनियरों से गाड़ी छिनने के आरोप भी इन पर लगे। सर्कस मैनेजर से बंदूक की नोक पर पैसे छीनने व नहीं देने पर मैनेजर को अगवा करने के किस्से खासे चर्चित रहे हैं। 22 से अधिक हत्याकांडों के संगीन आरोप में वीर बहादुर सिंह उत्त्ार भारत के अधिकांश जेलों में सजा काट चुके थे। करीब 80 आपराधिक मामलों के अभियुक्त पलामू जिले के विश्रामपुर विधानसभा क्षेत्र से विधायक बने विनोद सिंह की हुंकार से पटना की सियासत भी कांपती थी। वर्ष 1970 में एक दारोेगा की हत्या के बाद चर्चा में आए विनोद दर्जनों मासूम लेकिन कमजोर वर्ग की लड़कियों को अपनी हवस का शिकार बनाते रहे। उनके गुंडों के करतूतों से पूरा पलामू थर्राते रहता था। 25 जून, 1987 को चंदवा के समीप बिरसा गेस्ट हाउस में वे अपराधियों की गोलियों के शिकार हुए। हालांकि उनकी हत्या के वर्षों बाद तक इलाके में दहशत व्याप्त रहा। किसी को विश्वास ही नहीं हो रहा था कि वाकई विनोद सिंह मारे गये हैं। क्योंकि कई बार इस तरह की अफवाहें पहले भी उड़ती रही थीं। "वीर महोबिया क्राम-क्राम, वैशाली में धड़ाम-धड़ाम' के नारे 1980 से 1985 के दाैर में वैशाली में बराबर गूंजते थे। मुख्यमंत्री डा.जगन्नाथ मिश्र के अनन्य भक्त वीरेन्द्र सिंह महोबिया पर दर्जनों हत्या के मामले विभिन्न थानों में दर्ज थे। उन्हें पागल हाथी पालने का शाैक था। उनकी बेटी की शादी बिहार के चर्चित शादियों में एक थी। कहा जाता है कि लोक स्वास्थ्य अभियंत्रण विभाग की ओर से रातभर के लिए सैंकड़ों नल गड़वाये गये थे वहीं बारातियों के स्वागत के लिए रातभर हेलीकॉप्टर से फू ल बरसते रहा था। वर्ष 1980 में ही बिहारशरीफ से विधायक बने रामनरेश सिंह पर भी डकैती व हत्या के दर्जनों मामले दर्ज थे। इसी साल रघुनाथ पांडेय मुजफ्फरपुर जिले से विधायक निर्वाचित हुए। इनके कारनामे से एकबारगी व्यवसायी जगत थर्रा गया। मुजफ्फरपुर से लेकर पटना तक उन्होंने दर्जनों मकानों को अवैध रूप से कब्जाया आैर बाद में बंदूक का भय दिखाकर अपने सगे-संबंधियों के नाम पर आवंटित करा लिया।
25 जनवरी, 1981 को पटना से लेकर दिल्ली तक एक हत्या की चर्चा जोरों पर थी। हुआ यह था कि तत्कालीन केन्द्रीय पुनर्वास एवं आपूर्ति राज्य मंत्री भागवत झा आजाद के दिल्ली िस्थत सरकारी आवास-7 अकबर रोड में उनके आजाद के सुरक्षा गार्ड तेजपाल सिंह को गोली मारकर हत्या कर दी गई थी। पुलिस मामले की तहकीकात के इसे दबाने में लगी रही।
वर्ष 1981 में छात्र लोकदल नेता परमेश्वर यादव का खून हो गया। इसी वर्ष पटना में लोकदल नेता शिवनंदन चन्द्रवंशी मारे गये वहीं नालंदा में लोकदल कार्यकर्ता उपेन्द्र शर्मा का सिर कलम कर राजनीतिक हमलावारों ने उनका सिर देवी मंदिर में चढ़ा दिया।
लगातार हो रही राजनीतिक हत्याओं से बिहार का सूरत बिगड़ते जा रहा था। पुलिसिया सुस्ती का आलम यह था कि मानवीय विधायक तक सुरक्षा की गुहार लगाने लगे। विधायक अिश्वनी शर्मा ने अपनी सुरक्षा की गुहार मुख्यमंत्री से लेकर प्रधानमंत्री तक लगाई। सूबे में जारी हत्याओं के दाैर के उजागर करने के लिए सरकार मीडिया को दोषी मान रही थी। उन दिनों अखबार के पन्ने आए दिन राज्य में जारी हत्या, लूट, अपहरण, दुष्कर्म आदि से भरे रहते थे। इसकी रोकथाम के लिए राज्य में सत्त्ाारूढ़ कांग्रेसी सरकार के मुख्यमंत्री डा.जगन्नाथ मिश्र ने विवादास्पद प्रेस बिल घोषित किया। इससे पूरा पत्रकारिता जगत बाैखला गया वहीं बिल के माध्यम से सरकार ने अपनी निरंकुशता का साफ तेवर दिखलाया।
आैर फिर भागलपुर का बहुचर्चित आंखफोडवा कांड। इस कांड ने सत्त्ाा की चूले हिला दी। इसके किस्से राज्य क्या, देश में चर्चित हुए। फिलहाल उस किस्से को मैं दोहराना नहीं चाहता। उन्हीं दिनों जगन्नाथ मिश्र के गांव बलुआ से दो किलोमीटर की दूरी पर इलाके के चर्चित कम्युनिस्ट नेता कामरेड राजकिशोर झा की हत्या राजनीतिक अपराधियों ने कर दी। 11 फरवरी, 1983 को मधुबनी इलाके के तेजतर्रार नेता पीतांबर झा मारे गये। "बिहार का मास्को' कहा जाने वाला बेगुसराय में भी राजनीतिक हत्याओं का अंतहीन सिलसिला जारी रहा। सिर्फ 1983 में ही पुलिस आंकड़ों के अनुसार 53 विरोधी दल के कार्यकर्ताओं व नेताओं की हत्या कर दी गई। इन हत्याओं में बढ़चढ़ कर हिस्सा लेने का आरोप लगा डा.जगन्नाथ मिश्र का दाहिना हाथ कुख्यात तस्कर कामदेव सिंह पर। राजनीतिक हत्याओं की धधक से सीवान भी अछूता नहीं रहा। 27 अगस्त, 1983 को दो बार विधायक रहे राजाराम चाैधरी को बम से उड़ा दिया गया।
सेक्सजनित बॉबी हत्याकांड बिहार का एक ऐसा अध्याय है जिसे भुलाया नहीं जा सकता। बिहार विधानसभा के उपसभापति राजेश्वरी सरोज दास की दत्त्ाक पुत्री श्वेतनिशा उर्फ बॉबी को नेताओं के बिगड़ैल बेटे ने हवस का शिकार बनाकर माैत के घाट उतार दिया। इसमें बिहार विधानसभा के तत्कालीन अध्यक्ष राधानंदन झा के बेटा रघुवर झा का नाम उछला था। लेकिन उच्चस्तरीय राजनीतिक हस्तक्षेप के बाद मामले को सीबीआई के सुपुर्द कर दिया गया। इसका अभी भी पटना के तत्कालीन एसएसपी किशोर कुणाल को मलाल है कि इस मामले की सही जांच नहीं हो सकी। लोग इस हत्याकांड को भूले भी नहीं थे कि मनेर के कांग्रेसी विधायक रामनगीना सिंह गोलियों के शिकार हो गये। इनकी हत्या कैसे हुई? इसकी जांच आज तक नहीं हुई है फिर भी उन दिनों इस हत्याकांड में कांग्रेसी मंत्री बुद्धदेव सिंह का नाम आया था। उस दौरान पटना व आसपास के इलाकों में दर्जनभर नेताओं की हत्याएं हुई थीं। इसके पहले सुकन यादव, सरकारी बैंकों के अवैतनिक मंत्री जंगी सिंह, मनेर के बाहुबली ज्वाला सिंह समेत दर्जनों लोग मारे गये थे।
बिन्देश्वरी दुबे के शासनकाल में पूरा बिहार नरसंहार से कराह उठा। जातीय नरसंहारों का ऐसा दौर चला जो मियांपुर नरसंहार के बाद ही थमने का नाम लिया। दुबे शासनकाल में ही दिल दहला देने वाली घटना बिहार के चितौड़गढ़ औरंगाबाद के दलेलचक-बघौरा में घटी जहां चरमपंथी संगठन एमसीसी ने एकमुश्त 56 राजपूतों की हत्या कर दी थी। इसके पूर्व इसी जाति के रामनरेश सिंह (जो बाद में औरंगाबाद के सांसद भी चुने गये) के लठैतों ने छेनानी में पिछड़ी जाति के छह लोगों को गोलियों से भून दिया था। दुबे शासनकाल में दर्जनभर नरसंहार हुए। बिहार बेकाबू होते जा रहा था। उन्हीं दिनों, 8 अगस्त, 1987 को झामुमो नेता निर्मल महतो की हत्या जमशेदपुर में दुबे समर्थक लोगों ने कर दी। इसके पूर्व 25 मार्च, 1985 को झारखंड के बांझी इलाके में पूर्व सांसद फादर एंथोनी समेत छह लोगों को गोलियों से भून दिया गया। कैथोलिक फादर ने राजनीति में आने के लिए रोम के पोप से इजाजत ली थी। दुबे के शासनकाल में ही कोलियरी मजदूर संघ के नेता जगदीश नारायण सिंह को कर दी गई। उनकी हत्या पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए हजारीबाग के तत्कालीन सांसद दामोदर पांडेय ने इसे कांग्रेसी की अंदरूनी राजनीति बताया था।
सत्ता संरक्षित अपराधियों के बोलबाला से पूरा बिहार आक्रांत होते जा रहा था। वैसी ही स्थिति में बिहार की हुकूमत तेजतर्रार नेता भागवत झा आजाद के हाथों में सौंप दी गई। मजदूर नेता आजाद अपने ही मानस पुत्रों के करतूतों से बदनाम होते गये। कांग्रेस के छात्र संगठन एनएसयूवाई के छात्र नेताओं की जमात ने भागलपुर के चर्चित चिकित्सक की बेटी पापिया घोष का अपहरण शादी की नीयत से कर लिया था। इस अपहरण की गूंज देशभर में सुनाई पड़ी थी। अपहर्ताओं ने गुप्त स्थान से एक संवाददाता सम्मेलन आयोजित कर अपने को आजाद का मानस पुत्र घोषित किया था।
मानस पुत्रों की वजह से गद्दी गंवाये आजाद कुछ ही महीनों में दिल्ली तलब कर दिये गये थे। बिहारी नेताओं की वजह से देशव्यापी कांग्रेसियों की फजीहत हो रही थी। वैसी ही स्थिति में बिहार की बागडोर औरंगाबाद के सांसद सत्येन्द्र नारायण सिन्हा उर्फ छोटे साहब के हाथों में सौंप दिया गया। उन्होंने सत्ता संभालने के पूर्व 20 मार्च, 1989 को दिल्ली में आयोजित संवाददाता सम्मेलन में कहा-"माफिया सुंदर शब्द नहीं है। कौन है माफिया? जिन लोगों को बिहार में माफिया कहा जाता है वे तो हमारे सहकर्मी हैं। वे ही लोग सांसद और विधायक हैं। भला उन लोगों को माफिया कहना कहां तब जायज होगा! अगर इनमेें से कुछ लोगों ने सहकारिता पर अपना प्रभाव जमाया है तो उन्हें माफिया नहीं, मैनीपुलेटर कहा जा सकता है।' ऐसा रहा है बिहार में नेताओं का चरित्र। सूबे में अपराधियों को महिमामंडित करने वाले छोटे साहब कोई पहले मुख्यमंत्री नहीं रहे हैं। अन्य मुख्यमंत्रियों की चर्चा आने वाले दिनों में करेंगे। फिलहाल डूबते बिहार को उबारने का जिम्मा उठा रहे सत्येन्द्र नारायण सिन्हा के बारे में कर रहे हैं।
इनके शासनकाल की ही देन है कि कांग्रेस का पूरे देश से सफाया हो गया। भागलपुर का चर्चित साम्प्रदायिक दंगा इन्हीं के शासनकाल में हुआ। दंगों में क्या हुआ? यह किसी से छुपी हुई नहीं है। उन्हीं के शासनकाल में बिहार के चंबल के नाम से प्रसिद्ध बगहा के इंका विधायक त्रिलोकी हरिजन की हत्या उनके घर पर डकैती के दौरान कर दी गयी। इसके कुछ दिनों बाद 6 जुलाई, 1989 को धनहा के पूर्व विधायक रामनगीना यादव का अपहरण उस समय कर लिया गया जब वे अपनी बेटी की शादी में व्यस्त थे। कहा जाता है कि अपहर्ताओं ने दो लाख रुपये फिरौती की रकम लेने के बाद ही छोड़ा था। हालांकि पुलिस बराबर इस बात से इंकार करती रही।
10 मार्च, 1990 को बिहार की हुकूमत युवा नेता लालू प्रसाद यादव के हाथों में आया। लालू के शासन काल में क्या हुआ? "राज करब तो ठोक के करब' का राग अलापने वाले लालू ने लोकतंत्र को मजबूती दिया या डूबते बिहार में रसातल में ले जाने में सहायक का काम किये। आप कल पढ़ेंगे।

Tuesday, September 16, 2008

बैलेटे की तराजू पर देशवासियों की सुरक्षा

देश की सुरक्षा बैलेट की तराजू पर निर्भर करता है। तभी तो यहां हर सरकारी नीतिगत फैसले वोट बैंक को ध्यान में रखकर किया जाता है। 13 सितंबर को दिल्ली में हुए आतंकी बम धमाके भी इसी की एक कड़ी है। आम लोगों की मौत और उनके लहू से ही लिखी जा रही है सत्ता की इबादत। यही कारण है कि देश के हुक्मरान सिर्फ और सिर्फ आश्वासनों का पुलिंदा बांधने में लगे हुए हैं तो दूसरी ओर वोट के लालची नेताओं ने खुफिया व्यवस्था को समृद्ध बनाने की एक योजना अस्तित्व में आने से पहले ही दम तोड़ दिया।
देशवासियों को इस बात की जानकारी है या नहीं, फिर भी मैं उन्हें याद दिलाने का प्रयास कर रहा हूं कि जब 11 सितंबर, 2001 को दुनिया के सबसे शक्तिशाली देश अमेरिका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर आतंकी हमला हुआ था उसी समय भारत सरकार की ओर से सुरक्षा मामलों की कैबिनेट बैठक बुलवाई गयी थी, उस बैठक में इस बात का फैसला हुआ था कि देश के खुफिया तंत्र को धारदार बनाने के लिए मल्टी एजेंसी टास्क फोर्स के गठन किये जाने की जरूरत है। सरकार ने इसके गठन का निर्णय भी ले लिया था। केंद्रीय खुफिया ब्यूरो के अधीन बनायी जाने वाली इस टास्क फोर्स में रॉ, सेना खुुफिया के साथ ही राज्यों की खुफिया इकाईयों के प्रतिनिधित्व की रूपरेखा बनायी गयी थी। लेकिन पता नहीं, गठन के प्रस्ताव को पास हुए सात साल होने को है फिर भी क्यों नहीं अबतक इस योजना को अमलीजामा पहनाया गया। इसका जवाब गृह मंत्रालय के पास नहीं है। आश्चर्य तो यह कि विश्व की तेजी से बनते जा रहे आर्थिक शक्ति के बावजूद भारत में सरकार बदलते ही प्राथमिकताएं क्यों बदल जाती हैं।
हालांकि यह कहने की बात है। जब मल्टी एजेंसी टास्क फोर्स का गठन करने का निर्णय किया गया था उस समय केन्द्र में राजग की सरकार थी। उसके बाद भी ढाई वर्षों तक राजग सत्तारूढ रहा फिर भी यह अस्तित्व में नहीं आया। यानी आतंकवाद के मुद्दे पर राजग-यूपीए दोनों ने ही कोताही बरती। देश में अगर राजग के शासनकाल में अक्षरधाम मंदिर, संसद भवन समेत अन्य दूसरी जगहांंें पर हमले होते रहे वहीं यूपीए शासन काल भी इससे अछूता नहीं रहा। अगर उसी समय राजग सरकार इस निर्णय को अमलीजामा पहना देती तो शायद देश में एक के एक धमाके नहीं होते और न ही मासूमों की जानें ही जातीं।
वर्ष 1999 में जब कारगिल में पाकिस्तान समर्थित आतंकवादियों का गुरिल्ला घुसपैठ हो रहा था और वे बंकर बनाने मंें मस्त थे उस वक्त देश का खुफिया विभाग सोया हुआ था। धन्य हो उस चरवाहे का जिसने कड़ाके की ठंढ के बावजूद पाक के घुसपैठियों की गतिविधियों की जानकारी भारतीय सेना को दी। सरकार ने उसी समय देश की खुफिया एजेंसियों को मजबूर बनाने पर जोर दिया था। गृह मंत्रालय ने एक इंटेलीजेंस कोआर्डिनेशन ग्रुप और एक ज्वाइंट मिलीटरी इटेलीजेंस एजेंसी के गठन की योजना बनायी थी। यघपि बाद में ज्वाइंट इंटेलीजेंस कमेटी का गठन किया जरूर लेकिन यह भी एक तरह से सफेद हाथी ही साबित हुआ। इस कमेटी में केंद्र के सभी खुफिया तंत्र का प्रतिनिधित्व रखा गया है। बेहतर समन्वयन और राजनीतिक इच्छा शक्ति के अभाव में यह कमेटी भी महज खानापूर्ति करने का एक जरिया ही रह गयी है। भारत में जो खुफिया तंत्र का ढांचा है वह बिखरा हुआ है। इसलिए अमरीका की जांच एवं खुफिया एजेंसियों की तर्ज पर यहां भी एक संघीय एजेंसी की जरूरत महसूस की जा रही है। राज्य की खुफिया इकाईयों का केंद्रीय खुफिया तंत्र से कोई वास्ता ही नहीं है। सूचनाओं का आदान-प्रदान तक नहीं होता।

मनोरमा, तुम्हारी मौत पर हम शर्मिदा हैं।


मनोरमा, तुम्हारी मौत पर हम शर्मिदा हैं। सरकार ने तुम्हारी मौत के बाद भी न्याय नहीं दिला सकी। मनोरमा, तुम्हारी मौत की खबर से देश बौखला गया तहा। तब मणिपुर की सड़कों पर गिरे तुम्हारे खून के छींटों की दाग दिल्ली स्थित संसद भवन की दिवारों पर भी दिखी थी। उस समय देशव्यापी आंदोलन हुए थे। तुम्हारी मौत से बौखलाए नोबेल पुरस्कार विजेता शर्मिला टैगोर, सामाजिक कार्यकर्ता मेधा पाटकर समेत सैंकड़ों लोगों का हुजूम प्रधानमंत्री समेत तमाम हुक्मरानों से सवाल पूछ रहा था-"हमें बताते चलो कि आखिर मनोरमा का क्या कसूर था?' "चरमपंथियों पर लगाम कसने के बहाने आम लोगों का कत्लेआम कहां तक जायज है?' "आखिर तब तक बुलेट को दबाने के लिए बैलेटरूपी बूलेट का इस्तेमाल करती रहेगी सरकार?' तब से लेकर आजतक इन सवालों का जवाब देश के किसी हुक्मरान के पास नहीं है। आखिरकर, अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार संस्था "द ह्मूमन राइट्‌स वॉच' ने सरगर्मी दिखलाई और 15 सितंबर, 2008 को अपनी रिपोर्ट सौंपी। रिपोर्ट बेहद चौंकाने वाले हैं।
ह्मूमन राइट्‌स वॉच संस्था का कहना है कि मौत के बाद भी सरकार की ओर से मनोरमा को न्याय नहीं मिल सका है। मेरा मानना है कि मनोरमा, तुम्हारी मौत नहीं हुई है बल्कि तुमने मणिपुर के लोगों की हक और हुकूक के लिए शहादत दी है। मनोरमा, तुम जुर्म के खिलाफ लड़ने की आवाज बनी हो। तुझे विश्वास है कि एक न एक दिन तुम्हारी शहादत जरूर रंग लाएगी। बस इंतजार है तो उस दिन का। जिस दिन अपना वतन होगा। न किसी पर जुर्म होगा और न होगी इंतहा।
मनोरमा, अगर तुम्हारा कोई जुर्म था तो बस यही कि तुम आसाम राइफल्स को मिले विशेष सुरक्षा अधिकार का विरोध कर रही थी। जिसमें यह प्रावधान है कि सुरक्षाबल किसी को भी इस कानून के तहत उठा (गिरफ्तार) सकता है और उसे गोली मार सकता है। मनोरमा के साथ भी यही हुआ।
सुरक्षा बलों को अंदेशा था कि उसका संबंध चरमपंथियों से है। इसी आशंका के आधार से मनोरमा को वर्ष 2004 में उसके घर से गिरफ्तार किया गया। गिरफ्तारी के थोड़ी देर बाद ही उसका गोलियांें से छलनी शव सड़क किनारे मिला था। सुरक्षा बलों के इस कार्रवाई से पूरा देश स्पब्ध रह गया था। बेशर्म अधिकारियों ने तब भी दावा किया था कि मनोरमा का संबंध एक चरमपंथी गुट से है। लेकिन उसका खुलास आज तक नहीं किया गया। वहीं उसके परिजन भी सुरक्षाबलों के इस आरोप को खारिज करते रहे हैं। इसलिए हम शर्मिदा हैं।
मनोरमा, तुम भले ही सदा के लिए गहरी नींद में सो गयी हो लेकिन देश व दुनिया राजव्यवस्था की हर चाल पर नजर रखे हुए है। तुम्हारी मौत के बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह आक्रोशित लोगों को शांत करने व अमल-चैन बहाल करने के बाबत सूबे के एक दिवसीय दौरे पर आये थे। आक्रोशित लोगों को आश्वस्त करते हुए भरोसा दिलाया था कि किसी भी सूरत में दोषियों कोे बख्शा नहीं जाएगा। लेकिन अफसोस कि प्रधानमंत्री ने भी तुम्हें झूठा आश्वासन दिया। प्रधानमंत्रीजी तबतक लोगों से झूठे आश्वासन करते रहेंगे।
गिरफ्तारी के बाद सुरक्षाबलों ने तुम्हारे साथ क्या सलूक किया। इसका गवाह "द ह्यूमन राइट्‌स वॉच' है। अपनी रिपोर्ट में संस्था ने कहा है कि मनोरमा के साथ हत्या पूर्व संभावित बलात्कार हुए। इसे आसाम राइफल्स के जवानों ने अंजाम दिया। "द ह्यूमन राइट्‌स वॉच' की एक वरीय सदस्य मीनाक्षी गांगुली का कहना है कि मनोरमा की हत्या का दोषी चाहे कोई भी क्यों न हो अगर जांच एजेंसियां या सरकार के लोग सचेत रहते तो प्रदेश में आपराधिक घटनाओं पर लगाम लगता। लेकिन ऐसा नहीं होने से प्रदेश में अपराध बढ़ रहे हैं। उन्होंने कहा कि मनोरमा देवी की मौत के बाद सुरक्षा बलों के मानवाधिकार उल्लंघन के अनेक मामले सामने आए हैं।'
रिपोर्ट में भारत सरकार से अपील की गई है कि वह सेना, अर्द्धसैनिक बलों और पुलिस के उन लोगों को सज़ा दें जो मणिपुर में इस हत्या के ज़िम्मेदार हैं। रिपोर्ट का कहना है कि भारत की सरकार सेना और अर्द्धसैनिक बलों की हिरासत के दौरान होने वाली ज़्यादतियों को रोक पाने में विफल साबित हुई है। मीनाक्षी गांगुली ने कहा, "सुरक्षा बल क़ानून का पालन नहीं करते और चरमपंथी होने का शक होने पर न्यायाधीश के सामने लाने की बजाय उन्हें मार डालते हैं।'
गांगुली का कहना है कि राष्ट्रीय सुरक्षा और सेना के नाम की नैतिकता के नाम पर राज्य सरकार इन लोगों का बचाव करती है। इससे मणिपुर के निवासियों के पास न्याय पाने के लिए कोई रास्ता नहीं रहता। मणिपुर में अनेक विद्रोही गुट काम कर रहे हैं जिनमें से कई राज्य की स्वतंत्रता के लिए लड़ रहे हैं और कुछ स्वायत्त कबायली राज्य चाहते हैं। चरमपंथियों से लड़ने के लिए राज्य में बड़ी संख्या में सेना और अर्द्धसैनिक बल तैनात हैं। राज्य में तैनात इन बलों को सेना के विशेष कानून के तहत शक्ति मिली हुई है जिससे उन्हें सज़ा नहीं दी जा सकती। मानवाधिकार गुट काफ़ी समय से इस कठोर क़ानून को समाप्त करने की मांग करता आ रहा है।

Friday, September 5, 2008

फुलवरिया बांध बन गया बाधा

आजादी को शर्मसार करती है फुलवरिया जलाशय परियोजना से प्रभावित ग्रामीणों की कहानी। बांध ने करीब 20 हजार लोगों को ऐसा उजाड़ा कि वे जानवरों की जिंदगी जीने को मजबूर हैं। न खाने का ठिकाना और न ही रहने का आशियाना। शिक्षा-चिकित्सा की तो बात ही अलग है। पूरा इलाका तंगहाली में जी रहा है और इसकी सूध लेने वाला कोई नहीं है। महादलितों की इस आबादी की ओर न तो सरकार का ध्यान गया है और न ही अन्य कोई समाजसेवी ही इन गरीबों की ओर रूख किया है।
फुलवरिया जलाशय परियोजना के अिस्तत्व में आने के बाद इलाके के लगभग दो दर्जन गांव बाहरी दुनिया से कट गये हैं। ग्रामीणों को अपने ही प्रखंड मुख्यालय में जाने के लिए या तो उबाऊ नाैका यात्रा या थकाऊ पैदल यात्रा करनी पड़ती है।
नवादा जिले की हरदिया पंचायत में जहोरा नदी पर जब बांध नहीं बना था तब पूरा इलाका गुलजार था। इलाके में शिक्षा-चिकित्सा के बेहतर इंतजाम थे। बिजली की चकाचाैंध देखते ही बनती थी। सिनेमा देखने के लिए भानेखान गांव में रजाैली तक के लोग आते थे। वहां कभी अबरख (ढिबरा) का खान था। इस वजह से पूरे इलाके पर देश की नजर थी। लेकिन 1988 में फुलवरिया जलाश्ाय परियोजना के बनते ही पूरा इलाका देश-व-दुनिया से कट गया।इलाके के 20 हजार लोग अपने ही जिले, अनुमंडल व प्रखंड मुख्यालय से बेगाने हो गये हैं। जब कभी इन्हें प्रखंड मुख्यालय जाने की जरूरत होती है तो 70 किलोमीटर की दूरी तय कर पड़ोसी प्रदेश झारखंड के कोडरमा होकर वे रजाैली आते हैं, वह भी जंगल-पहाड़ के कंक्रीट व संकीर्ण रास्तों से। नहीं तो, डिलवा से गझंडी स्टेशन होते हुए गया के रास्ते। दोनों रास्ते जंगलों-पहाड़ों से घिरे हैं। इस वजह से बराबर विषैले सांप, भालू समेत अन्य जंगली जीव-जंतुओं के आक्रमण का खतरा बना रहता है। जबकि अगर सीधे सड़क मार्ग से इन गांवों को जोड़ दिया जाय तो दूरी मात्र 12 किलोमीटर ही पड़ेगी। तीसरा विकल्प है नदी मार्ग से। 179.20 वर्ग किलोमीटर में फैले फुलवरिया जलाश्ाय को ग्रामीण नाव से पार करते हैं। यह बेहद खर्चीला आवागमन है आैर समय भी अधिक लगता है। समय पर नाव मिल ही जाएगा, इसकी भी कोई गारंटी नहीं है। यही नहीं, जलाश्ाय के दो छोरों से नाव खुलती है। एक नाव भानेखान, मरमो आदि गांवों की ओर जाती है जबकि दूसरी नाव डिलवा समेत अन्य टोले व गांवों के लिए।
जलाश्ाय बनते ही यानी 20 वर्षों से हरदिया पंचायत की बड़ी आबादी "जल कैदी' की तरह रहने को विवश है। "जल कैदी' बने इन महादलितों को न तो जॉब कार्ड मिला है आैर न ही इिन्दरा आवास ही मय्यसर है। इलाके में शिक्षा-चिकित्सा का भी घोर अभाव है। ग्रामीणों को राष्ट्रीय गारंटी रोजगार योजना (नरेगा)के बारे में भी कुछ इल्म नहीं है।
ऐसी बात नहीं है कि ग्रामीणों की यह परेशानी सदियों पुरानी है। 1988 के पहले इलाके में सड़क संपर्क अच्छा था। चिरैला गांव में साप्ताहिक हाट लगती थी, यहां रजाैली तक के ग्रामीण बाजार करने आते थे। यहीं मध्य विद्यालय थाजिसमें आसपास के ग्रामीण बच्चे शिक्षा ग्रहण करते थे। भानेखाप में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र था जहां करमा टीबी अस्पताल के टीबी विशेषज्ञ बैठा करते थे। सिंगर के रामचरितर राजवंशी बताते हैं कि चिरैला से नवादा के लिए उस समय पावापुरी व रोहिणी नामक बसें खुला करती थीं। भानेखाप में अबरख खान की वजह से इलाके में संपन्नता थी। ग्रामीण इसी खान में नाैकरी किया करते थे। इसके अलावा केंदू पत्त्ाा व कत्था से भी ग्रामीणों की अच्छी आय हो जाया करती थी।
फुलवरिया जलाश्ाय परियोजना बनते ही 40 गांवों-टोले के ग्रामीणों का मानो सबकुछ लुट गया। जलाश्ाय ने पहले तो हरदिया पंचायत के 14 गांवों (चिरैला, सिंगर, मरमो, रनिमास, बिगहा, कमात, धुरीताड़, पीपरा, कांसतरी, जहुरा आदि) को डुबोया। इन ग्रामीणों को पटना-रांची हाइवे के बगल में बसाया गया है। इनमें से कुछ को मुआवजा मिला लेकिन अन्य ग्रामीण अभी भी विस्थापन के मुआवजे की लड़ाई लड़ रहे हैं। ऊंचाई वाले भानेखाप (कभी अबरख के लिए प्रसिद्ध), सुअरलेटी, कुंभियातरी, खिरकिया, चोरडीहा, डिलवा, कोसदरिया, झराही, परताैनिया, जमुंदाहा आदि गांव उसी हालात में छोड़ दिये गये। इन्हीं गांवों के ग्रामीण आदिम युग में जीने को मजबूर हैं आैर 20 वर्षों से "जल कैदी' बने हुए हैं।
पूर्ववर्ती सरकारों से लेकर वर्तमान सरकार ने दलितों के विकास के लिए खूब रोना रोया। पर उनका ध्यान इन महादलितों की बदहाली की ओर नहीं गया है। स्थानीय विधायक बनवारी राम स्वीकारते हैं कि ग्रामीणों को काफी परेशानी का सामना करना पड़ रहा है लेकिन जल्द ही इनकी समस्याएं दूर कर दी जाएंगी। उनका कहना है कि रजाैली के पास से धमनी होते हुए डिलवा स्टेशन तक सड़क के लिए योजना बनाई गई है। जल्द ही टेंडर होने वाला है।हरदिया पंचायत की मुखिया मुन्ना देवी (महादलित) बताती हैं कि पंचायत कोष में सड़क का कोई प्रावधान नहीं है। इलाके के विधायक व सांसद ग्रामीणों की समस्याओं पर ध्यान नहीं देते। टापू पर रह रही चिरैला की रजिया देवी बताती है कि वह कभी पांच बीघे की मालकिन थी, आज भूमिहीन हो गई है। विस्थापन का भी मुआवजा नहीं मिला। मरमो गांव के कृष्णा राजवंशी बताते हैं कि वतर्मान विधायक बनवारी राम दलित वर्ग से आते हैं फिर भी, आज तक उनका चेहरा ग्रामीणों ने नहीं देखा है।
बांध के उस पार 20 हजार की आबादी पर मात्र दो ही प्राथमिक विद्यालय हैं। आंगनबाड़ी भी कागजों पर ही चल रही है। दलितों के विकास के लिए बनी अन्य योजनाओं के लाभ से ग्रामीण वंचित हैं। मरमो गांव निवासी व मुखिया के समधी कृष्णा भुइंर्या बताते हैं कि दलितों में शिक्षा का नामोनिशान नहीं है। इस वजह से सरकारी योजनाओं का कुछ पता ही नहीं चलता।
समय पर नाव की उपलब्धता नहीं होने से इलाके के मासूम बच्चे शिक्षा से पूरी तरह से वंचित हो गये हैंे। सिंगर निवासी संजय बताता है कि नयी सिंगर में रहकर किसी तरह से 6वीं पास किया हूं। लेकिन अब आगे की पढ़ाई संभव नहीं हैं। पूछने पर बताता है कि एक तो समय पर नाव नहीं मिलती। अगर किसी दिन समय पर मिल भी गई तो नाव पर ही तीन घंटे समय लग जाते हैं, फिर पेट का सवाल है। घर में इतने पैसे नहीं हैं कि आगे की पढ़ाई जारी रखी जाय। वहीं सैंकड़ों मासूमों जिनके हाथों में कलम होनी चाहिए थी उनके हाथों में परििस्थति ने छेनी-हथाैड़ी थमा दी है।
जलाश्ाय बनाकर सरकार कितने किसानों को लाभािन्वत कर रही है। इसका तो अनुमान ही लगाया जा सकता है । लेकिन सरकार ने जाने-अनजाने ही पूरे इलाके को नक्सलियों के हवाले जरूर कर दिया है। जिला मुख्यालय से सीधा संपर्क मार्ग नहीं होने की वजह से इलाके में नक्सलियों की तूती बोलती है। कानून-व्यवस्था के लिए पुलिस भी होती है, यह बात अब ग्रामीण भूल चुके हैं। इलाके का कोई भी मामला (खनन को छोड़कर) पुलिस के पास नहीं पहुंचती। सीपीएम नेता व विस्थापितों के लिए संघर्षरत कृष्णा चंदेल बताते हैं कि रजाैली ब्लॉक व थाना मुख्यालय है। यहां आने के लिए लोगों को दो दिनों का समय आैर साै रुपये की जरूरत होती है। इस वजह से ग्रामीण कभी पुलिस के पास जाते ही नहीं हैं। फिर वहां न्याय मिलने में भी देर होती है। दूसरी ओर, जब भी कोई मामला नक्सलियों के पास पहुंचता है, फटाफट उसका समाधान नक्सली कर देते हैं। इसके कारण नक्सली ग्रामीणों के बीच पैठ बना चुके हैं।
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सरकार ने मछली मारने का भी हक छीना
सरकार महादलितों के कल्याण के लिए गंभीर तो दिखती है पर व्यावहारिक ताैर पर इस दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठाती। इसका उदाहरण है फुलवरिया जलाशय परियोजना। सरकार ने पहली बार अक्टूबर, 2007 में फुलवरिया जलाशय के लिए खुला निविदा (टेंडर) जारी किया था। लेकिन निविदा जारी करते वक्त फुलवरिया परियोजना के अभियंता ने राष्ट्रीय पुनर्वास एवं पुनस्र्थापन नीति-2007 का खयाल नहीं किया। उक्त नीति की कंडिका-सात में स्पष्ट उल्लेख है कि प्राथमिकता के आधार पर परियोजना से प्रभावित परिवार को ही मछली मारने का हक बनता है। इस क्षेत्र में ग्रामीणों के लिए रोजी-रोजगार का एक मात्र साधन मछली मारना ही बचा है।
जलाशय बनते ही खेतिहर जमीन डूब क्षेत्र में चला गया। विस्थापित ग्रामीण इसी नीति का हवाला देते हुए जिलाधिकारी से हस्तक्षेप की मांग कर रहे हैं। ग्रामीणों ने जिलाधिकारी को भेजे ज्ञापन में अनुरोध किया है कि खुला निविदा रद्द कर "नयी सिंगर मत्स्यजीवी स्वावलंबी समिति' (सहकरी समिति) के नाम से बंदोबस्त कर दिया जाय।

Thursday, September 4, 2008

सौदेबाजी के आगे राजनीति फेल/· कश्मीर में किसका चला डंडा


कश्मीर पर आखिर किसका चला डंडा? देशवासियों के जेहन में यह सवाल कौंध रहा है। आखिर क्यों दो महीनों तक पूरा जम्मू और कश्मीर जलता रहा और फिर अचानक ऐसी कौन सी नौबत आ गई कि सरकार के साथ ही जम्मूवासी समझौते पर राजी हो गये। एक ओर जहां दर्जनों बुद्धिजीवियों समेत कई संगठनों पर कश्मीरी हिमायती का चस्पा लगा वहीं राष्ट्रवादियों ने देश के दर्द का राग अलापा। तो फिर इसका जवाब कौन देगा। अगर आपके पास कोई जवाब है तो उसका जवाब देने की जल्दी कीजिए।
साथियों,
श्रीअमरनाथ श्राइन बोर्ड की जमीन ने ऐसी आग लगाई कि जम्मू और कश्मीर दोनों जगहों पर "पाकिस्तान जिंदाबाद,' "कश्मीर पर हिन्दुस्तानी हुकूमत नहीं चलेगी-नहीं चलेगी।' "आजाद करो-आजाद करो' आदि नारे गूंजते रहे और सुरक्षाकर्मी मूकदर्शक बनी रही। प्रदर्शनकारी सड़कों पर नंगा नाच करते रहे। 20 दिनों तक जारी आंदोलन ने पूरे देश का ध्यान अपनी ओर खींचा फिर भी मामला सुलझने के बजाय बढ़ता ही गया और अचानक एक राजनीतिक सौदेबाजी या समझौते के तहत "पाकिस्तान जिंदाबाद' के नारे लगाने वाले प्रदर्शनकारी राष्ट्रभक्त की तरह दिखने लगे। हिंदुओं और मुसलमानों के बीच उसी तरह का प्यार उमड़ा जिस तरह का प्यार वहां वर्षों से जारी था। पूरे आंदोलन का एक दिलचस्प पहलू यह रहा कि इस दौरान अमरनाथ यात्रा को किसी ने व्यवधान नहीं डाला। प्रदर्शनकारी सिर्फ और सिर्फ "लड़कर लेंगे पाकिस्तान' और "श्रीअमरनाथ श्राइन बोर्ड की जमीन रद?द करो-रद्द करो' के नारे लगा रहे थे। श्रीश्राइन बोर्ड जमीन और इसके आड़ में होने वाले प्रदर्शन के पीछे के कारणों पर भी गौर करने की जरूरत है।
प्रदेश में टीडीपी समर्थित कांग्रेस की सरकार सत्तारूढ थी। उसके पहले वहां कांग्रेस समर्थित टीडीपी की सरकार थी। तब मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती थी। लेकिन सत्ता हस्तांतरण के साथ ही प्रदेश की बागडोर गुलाम नबी आजाद के हाथों में चला गया। आजाद सरकार वहां के अल्पसंख्यक हिन्दुओं को पटाने में लग गई। वोट की राजनीति को सुरक्षित रखते हुए जम्मू में 40 एकड़ जमीन अस्थायी तौर पर श्राइन बोर्ड के नाम से आवंटित कर दी गयी। इससे टीडीपी घबरा गयी। पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती को लगा कि अगर कांग्रेस के नेतृत्व में आगामी विधानसभा चुनाव हुआ तो सब कुछ लूट जाएगा। इसी बात का ख्याल करते हुए महबूबा ने श्राइन बोर्ड की जमीन का विरोध करना शुरू किया। पहले तो कश्मीर की अस्मिता का मुद्दा बनाकर उसने सरकार गिरा दी।
इधर, 90 करोड़ की हिन्दू आबादी वाले देश में श्राइन बोर्ड की जमीन को वापस करना हिन्दूओं के लिए नाक कटाने जैसा दिखने लगा और देश के भावी प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी इसे राष्ट्रवाद बनाम अलगाववाद से जोड़कर देखने लगे। आडवाणी के मुताबिक प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी इस बात से सहमत हैं कि वाकई देश् में राष्ट्रवाद के खिलाफ अलगाववाद खड़ा है और उन्होंने कहा डाला कि अगर सहमति देश की है तो फिर समझौते की क्या जरूरत है। और फिर जो हुआ वह सबके सामने है। जम्मू के साथ-साथ कश्मीर में खुशी है। सरकार, श्राइन बोर्ड समिति के साथ ही प्रदर्शनकारियों के बीच समझौता हो गया है। अस्थायी ही सही, लेकिन 40 एकड़ जमीन श्राइन बोर्ड को दे दी जाएगी। घाटी में दो दिनों तक रंग-गुलाल हवा में उड़ते रहे। जम्मू व कश्मीर के लोग गुलाल उड़ाये भी तो क्यों नहीं, आखिर दो महीनों का संघर्ष जो रंग लाया है।
लेकिन लाख टके का सवाल है कि आखिर यह खुशी किसकी है। कौन खुश हो रहा है और क्यों खुश हो रहा है। सवाल उठता है कि क्या वे हिन्दू खुश हैं जो गला फाड़-फाड़कर चिल्ला रहा थे कि जब देश भर में मस्जिद-मकबरों को जमीन दी जा सकती है तोे बाबा भोले नाथ के लिये 800 कनाल जमीन क्यों नहीं दी जा सकती। क्या कश्मीरी पंडित खुश हैं जो दो दशकों के अपने दर्द को श्राइन बोर्ड की जमीन के नाम पर पहली बार जम्मू की सड़कों पर पाकिस्तान व मुसलमानों के खिलाफ नारे लगा रहे थे। कम से कम मैं इस बात से सहमत नहीं हूं कि इस समझौते से कोई कश्मीरी हिन्दू खुश है।
बात तो आर-पार की होनी थी फिर समझौता किसने कर लिया। एक अनुमान के मुताबिक सिर्फ जम्मू में ही दो महीनों में करीब सौ करोड़ से अधिक रुपयों का नुकसान व्याापारियों को उठाना पड़ा है। बताया जाता है कि जम्मू में जो व्यापारी है उनमें सिखों की संख्या बहुतायत है वहीं कश्मीर के बिचौलिये व्यापारियों मेंं भी पंजाबी समुदाय की संख्या अधिक बतायी जाती है। कहा जाता है कि जम्मू में आंदोलन खत्म कराने के लिए पंजाब सरकार पर भी समझौता के लिए काफी दबाव पड़ रहा था। गौरतलब है कि पंजाब में अकाली दल-भाजपा की सरकार है। इसमें दिलचस्प यह है कि भाजपा, आरएसएस कैडरों के साथ जिस तेवर में जम्मू में खड़ा होने की कोशिश कर रही थी वहीं भाजपा की राजनीति व उसका व्यापार उसे चेता रहा था कि एक हद से आगे वह आंदोलन ले जाने की गलती नहीं करे।
एक बार फिर भाजपा को कंेंद्रीय सत्ता दिखाई दे रही है। भाजपा के सत्ता में आते ही आरएसएस की महत्ता देश में दिखाई देने लगती है। देश, वाजपेयी शासनकाल में इसे महसूस भी किया है। आश्चर्य तो यह कि आरएसएस भी पूरे मामले पर खामोश रही। विदित हो कि प्रत्येक साल अमरनाथ यात्रा के समय जम्मू-कश्मीर व लद्दाख को अलग-अलग राज्य बनाने का मुद्दा उठाती रही है। एक बड़ा सवाल यह भी है कि जिस जमीन की राजनीति की शुरुआत कश्मीर की सियासत से शुरू हुई आखिर उसका पटाक्षेप जम्मू की सड़कों से कैसे हुई। कश्मीर में आजादी के नारे ने जम्मू को भड़काया और जम्मू के बंद व्यापार ने कश्मीर को भड़काने का काम किया। प्रदर्शनकारियों ने जम्मू से कश्मीर जाने वाले सारे रास्ते बंद कर यह जताने का प्रयास किया कि जम्मू के बगैर कश्मीर जन्नत नहीं हो सकती तो दूसरी ओर कश्मीर में पाक जिंदाबाद व कश्मीर की आजाादी का नारा लगाकर यह जताने का एहसास कराया गया कि जम्मू के रास्ते सिर्फ कश्मीर ही नहीं जाते बल्कि वे मुज्जफराबाद भी जा सकते हैं।
इसे संयोग ही कहा जाएगा कि सत्ता के मुनाफे पर टिकी राजनीति अब बाजार के मुनाफे में ज्यादा अधिक उम्दा दिखायी देने लगी है। शायद यही वजह है कि प्रदर्शनकारियों ने राष्ट्रवादी आंदोलन को सिरे से खारिज कर सौदेबाजी की राजनीति को अपनाया। कहा जा सकता है कि श्राइन बोर्ड की 40 एकड़ जमीन का समझौता उस राजनीति का सच है, जिसमंे समाज को बांट कर सुधार के उपाय वही संसदीय राजनीति अपनी जेब में रखना चाहती है जो अमरनाथ के जरिये राष्ट्रवाद को उभारती है...जो आजादी के नारे में अलगाववाद का उभरना देखती है।
अब आप इस सवाल को उठा सकते है कि समझौता हुआ तो शांति तो हुई। क्या समझौता न करके हालात बद से बदतर होने दिये जाते । यकीकन यह संभव नहीं है । लेकिन अगर आपको लगता है कि कश्मीरियों को पाठ पढ़ाना चाहिये...अगर आपको लगता है कश्मीर के लोग आंतकवादियों को पनाह देते है ..अगर आपको लगता है कि कश्मीरियों का दिल पाकिस्तान में है ...अगर आपको लगता है कि महबूबा मुफ्ती सरीखी नेता देश की नहीं, पाकिस्तानियों-आंतकवादियों की हिमायती है..तो फिर 40 एकड़ जमीन का समझौता क्यों । यह कैसे संभव है कि कश्मीर को लेकर हम एक बार पाकिस्तान का राग अलापे और दूसरी बार समझौते करके जीत का जश्न भी मनायें।
यकीन मानिये, अमरनाथ यात्रा की जमीन को लेकर किसी दल-संगठन की भावना हिचकोले नहीं मार रही थी और आप जो उसमें हिन्दुस्तान का बिगड़ता नक्शा देख रहे हैं, उन्हें समझना होगा कि धर्म और राज्य एक साथ नहीं चल सकते। इतिहास टटोलिये, भारत का नक्शा सबसे बड़ा और मजबूत कब था। मुगल काल में औरगंजेब और मौर्य काल में सम्राट अशोक के जमाने में। इन दोनों कालों में इनसे बड़ा शासक कोई दूसरा नहीं था । लेकिन दोनों का पतन तभी हुआ जब दोनों धर्म के प्रचार-प्रसार में लग गये । एक इस्लाम के तो दूसरा बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार में । धर्म और राजनीति के आसरे देश को न समझे तो ज्यादा अच्छा है।
देश में एक माहौल पैदा किया जा रहा है और दुष्प्रचारित किया जा रहा है कि आतंकवाद पड़ोसी देश पाकिस्तान से आ रहा है तो उसकी प्रयोगशाला देश में कश्मीर बन रहा है और इसके लिए सिर्फ और सिर्फ मुसलमान ही जिम्मेदार है। आजादी के 62वें वर्षगांठ के मौके पर तथ्यों को समझने की जरूरत है। देश में किसी भी राजनीतिक दल को 15 करोड़ वोट नहीं मिल पाते हैं तो फिर उसे बहुमत के पैमाने पर कैसे मापा जा सकता है। दूसरा तथ्य भी समझने की जरूरत है। इसी समय मुसलमानों के लिए पवित्र महीना रमजान शुरू हो रहा था। इस महीने में पूरा कश्मीर खामोश रहता है। इस पवित्र महीने में जम्मूवासी भी नहीं चाहते कि रमजान के महीने में हिंसा-प्रतिहिंसा का दौर जारी रहे।

Monday, September 1, 2008

झारखण्ड का क्या होगा बाबा!

झारखण्ड का क्या होगा बाबा!कहना मुस्किल है। बिहार बटवारे के आठ sआल होने को हैलेकिन गिश सूरत में झारखण्ड का विकाश होना चाहिया था नही हुआ। यह के स्थानिया नेता सत्तालोलुप्त हो गये और जनता भगवन भरोसेविचित्र स्थिति हैजिन नेताओ को राज्य के विकाश में अपना ध्यान लगाना चाहिया था वे लूट-खसोट में लग गये और जनता बेचारी बनकर रह गयी। कभी आदिवासियो के विकाशऔर कल्याण के लिए यहा ले नेताओ ने झारखण्ड को लालखंड में बदलने का आह्वान किया था लेकिन अफसोस की बिहार के बटवारे के साथ ही नेताओ में मुक्यमंत्री, मंत्री, बोर्ड-निगम के अध्यक्छा