Friday, September 19, 2008

बिहार: सुनहरा अतीत, अंधकारमय भविष्य-2 (शिक्षा के क्षेत्र में)

हमने कल लिखा था कि किस तरह से आजादी के पूर्व से ही सत्ता संरक्षित अपराध ने बिहार को अपने पैरों तले रौंदा। हमने आपसे यह भी वादा किया था कि आने वाले दिनोंं में बिहार की बदहाली या सुखहाली में वर्तमान रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव का कितना योगदान रहा है। इसके बारे में चर्चा करेंगे। लेकिन फिर हमने सोचा कि वर्ष 1990 के पूर्व तक राजनीति के अलावा और किन-किन संस्थाओं में अपना कहर बरपाया। कानूनों को अपने पैरों तले रौंदा। इसी सोच के साथ हमने आज बिहार में शिक्षा माफियाओं पर चर्चा की है।
दुुनिया भर के छात्र प्राचीन मगध के नालंदा व विक्रमशीला विश्वविद्यालय में शिक्षा ग्रहण करते के लिए आया करते थे। आज भी राजगीर व आसपास के इलाकों में उसके भग्नावशेष दिख जाते हैं। कहा जाता है कि अंग्रेजों ने नालंदा विश्वविद्यालय में आग लगा दी। पुस्तकालय व अन्य विभागों से आग की धधक लगातार छह महीनों तक आती रही। उसके बाद फिर कभी बिहार, शिक्षा के क्षेत्र में कोई विशेष उपलब्धि हासिल नहीं कर सका। आजादी के बाद भी यहां के छात्रों का पलायन दिल्ली व दक्षिण भारत के राज्यों में होते रहा। शिक्षा के विकास के नाम पर सूबे में हुक्मरानों व शिक्षा माफियाओं की दुकानदारी फलती-फूलती रही। नेतरहाट विद्यालय, सैनिक स्कूल, केन्द्रीय विद्यालय आदि की बात अगर न की जाय तो प्रदेश में शिक्षा का धंधा खूब चला। पटना विश्वविद्यालय को अगर छोड़ दिया जाए तो प्रदेश के अधिकांश विश्वविद्यालयों का गठन भी जातीय आधार पर हुए। इसकी चर्चा बाद में करूंगा।
वर्ष 1970 आते-आते प्रदेश में जातीय आधार पर खुलने वाले शिक्षक संस्थानों की बाढ़ आ गई। सामाजिक सरोकार के नाम पर खोले जा रहे स्कूल व कॉलेज राजनीति का निजी अड्डा बनने लगा। इससे खीज कर उस समय एक कुलपति ने कहा था-"जो लोग अपने ही जीवनकाल में अपने नाम पर स्कूल कॉलेज-खोलते हैं। दरअसल इस भ्रष्ट नेताओं को इस बात का भरोसा ही नहीं कि उनके निधन के बाद श्रद्धावश उनकी याद में कोई व्यक्ति शिक्षण-संस्थान खोलने में आस्था रखेगा।'
शेरे बिहार की उपाधि से नवाजे गये प्रदेश के चर्चित नेता रामलखन सिंह यादव के नाम पर 60 से अधिक स्कूल-कॉलेज खोले गयेतो तत्कालीन शिक्षा मंत्री नागेन्द्र झा के विधायक बेटा मदन मोहन झा ने अपने पिता नागेन्द्र झा के नाम से एक महिला कॉलेज खोलकर वहीं से शिक्षा की दुकानदारी चलाते रहे। जब नागेन्द्र झा विश्वविद्यालय शिक्षा परिषद के सचिव बने तो बेटे ने इंडियन इंस्ट्‌ीच्यूट ऑफ मैंनेजमेंट नामक संस्था खोला और पिता की कृपादृष्टि से इंटर कौंसिल के सारे डाटा प्रोसेसिंग का काम अपने जिम्मे में ले लिया। यही नहीं, उन्होंने इस काम को पटना के एक बिना निबंधित कंपनी के जिम्मे दे दिया। उन पर सैंकड़ों अवैध बहालियांें का आरोप लगा। तब प्रदेश में डा.जगन्नाथ मिश्र की सरकार थी। कहा जाने लगा कि मैथिल ब्राहणों ने शिक्षा को रोगग्रस्त बना दिया है।
प्रदेश में रामलखन सिंह यादव इकलौते ऐसे नेता नहीं हैं जिन्होंने अपने नाम पर शिक्षा की दुकानदारी चलाई। बल्कि इसी लाइन में शामिल हैं-पूर्व मुख्यमंत्री डा. जगन्नाथ मिश्र, पूर्व सांसद स्व.राजो सिंह, पूर्व मंत्री रघुनाथ झा, पूर्व विधानसभा अध्यक्ष राधानंदन झा, पूर्व मंत्री उमा पांडेय समेत दर्जनांें जनप्रिय नेता। जिनके नामों पर प्रदेश के विभिन्न इलाकों में शिक्षा की दुकानदारी चलती रही। अपने नाम से कॉलेज खुलवाने में पूर्व मुख्यमंत्री सत्येन्द्र नारायण सिन्हा भी पीछे नहीं रहे। लेकिन उन्होंने शिक्षण-संस्थाओं को दुकान नहीं बनाई। श्री सिन्हा ने भी अपने व अपने परिवार के अन्य सदस्यों के नाम से राजधानी पटना समेत दो दर्जन से अधिक कॉलेज खुलवाए।
अस्थावा से विधायक रहे स्व.आरपी शर्मा के किस्से तो नायाब रहे हैं। वर्तमान समय में इनके नाम पर पटना में ही दर्जनभर शिक्षण संस्थान चल रहे हैं। स्व.शर्मा पटना स्थित टीपीएस कॉलेज में दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर थे। बावजूद इसके उनकी कॉलेज प्राचार्य कुटेश्वर प्रसाद सिंह से कभी नहीं बनी। इसी विवाद में उन्होंने पटना में शिक्षा का साम्राज्य खड़ा करने को ठानी। धून के पक्के आरपी शर्मा इस काम में लगे सो फिर कभी उन्होंने पीछे मुडकर नहीं देखा। अपने ही जीवन काल में उन्होंने पटना में आरपीएस कॉलेज, टे्रनिंग कॉलेज, महिला कॉलेज, लॉ कॉलेज, इंजीनियरिंग कॉलेज, हाई स्कूल आदि शिक्षण संस्थानों की बाढ़ ला दी।
सूबे में शिक्षा माफियाओं के बढ़ते हौंसले को देखते हुए इस जरसी गाय रूपी धंधे की शुरुआत में आने वाले लोगों की लाइन बड़ी होती चली गई। इसी लाइन में खड़े हुए सचिवालय से वर्ष 1970 में निलंबित कर्मचारी रामावतार वात्स्यायन। इनके किस्से भी कम दिलचस्प नहीं हैं। शिक्षा माफिया बनने के पहले ये रामावतार सिंह थे। निलंबन के बाद इनके सामने भूखमरी की समस्या आ गई। सो इन्होंने सोचा कि क्यों नहीं, धंधा किया जाए और इसी सोच के साथ ये शिक्षा के धंधे में लग गये। पहले इन्होंने पटना में जेडी वीमेंस कॉलेज खोला। फिर हाई स्कूल। पटना के अलावा इन्होंने रांची, रामगढ़ व जमशेदपुर में ही शिक्षा का साम्राज्य फैलाया। सरकार ने जब जेडी वीमेंस कॉलेज व हाई स्कूल को अधिग्रहण कर लिया तो उन्होंने बौद्ध धर्म अपना लिया। विश्व बौद्ध धर्म की स्थापना की और पटना में ही सिद्धार्थ महिला कॉलेज, शिक्षक प्रशिक्षण कॉलेज, संत एमजी हाई स्कूल, रांची में संघमिश्रा महिला कॉलेज आदि की स्थापना की। आश्चर्य तो यह शिक्षा का अलख जगाने वाले वात्स्यायन पर सिद्धार्थ महिला कॉलेज की शिक्षिकाओं ने यौनाचार तक का आरोप लगाया।
लौह नगरी जमशेदपुर भला इस धंधे में कैसे पीछे रहता? यहां के ए.रवि नामक एक व्यक्ति ने बौद्ध एजुकेशन सोसायटी की स्थापना की और इस धंधे में लग गये। इन्होंने अपने संस्था का नाम रखा-गौतम बुद्ध कॉलेज ऑफ एजुकेशन। इसके तहत बीइएड ट्रेनिंग कॉलेज समेत दर्जनभर शिक्षण संस्थानों की स्थापना की। जमशेदपुर में चल रहे शिक्षा के इस दुकानदारी को बंद करने के लिए जमशेदपुर के नागरिक कल्याण परिषद के महामंत्री वैदेही शरण सिंह ने इसकी लिखित शिकायत जिला प्रशासन से की।
और फिर दरभंगा। देश के शिक्षा के नक्शे में इसे शायद ही भुलाया जा सके। यहां वर्षों तक फर्जी विश्वविद्यालय चलता रहा। सत्ता से गंठजोर के लिए जिले में चर्चित हो चुके दिनराज शांडिल्य नामक व्यक्ति ने इसकी नींव डाली। इसमें दक्षिण भारत के हजारों छात्रों ने फर्जी डिग्रियां हासिल की। भला खुलेआम चल रहे फर्जी विश्वविद्यालय की खबर से सरकार अनभिज्ञ रही, यह कैसे हो सकता है। लेकिन सामरथ के नहीं दोष गोसाई की तर्ज पर बिहार में सबकुछ चलता रहा।
बिन्देश्वरी दूबे शासनकाल की बात है। मुख्यमंत्री के आवास पर भोज का आयोजन हुआ था। इस भोज की व्यवस्था शिक्षा मंत्री लोकेश्वर नाथ झा को करनी थी। लेकिन उन्हें सूझ नहीं रहा था कि भोज में खर्च होने वाले लाखों रुपयों का इंतजाम इतना जल्दी कहां से किया गया। अभी वे उधेड़-बुन में फंसे ही हुए थे कि मुख्यमंत्री ने कहा-पैसे की कमी है तो क्यों नहीं किसी कॉलेज को मान्यता (एफजिएशन) दे देते हैं। तुरंत पैसे हो जाएंगे। मुख्यमंत्री के इस एक बयान से ही समझा जा सकता है कि सूबे में सरकार संरक्षित शिक्षा की दुकानदारी किस तरह से फल-फूल रही थी।
शिक्षक से मुख्यमंत्री बने डा.जगन्नाथ मिश्र के समय में 36 कॉलेजों को रातोरात मंजूरी दे दी गई। इस पर काफी विवाद हुआ। औने-पौने दामों के लिए दर्जनों लोगों को व्याख्याता बना दिया गया। सैंकड़ों लोग कॉलेज कर्मचारी बनाये गये। इनमें नियमों की जिस तरह से धज्जियां उड़ी। उससे बिहारवासियों को वाकिफ होना चाहिए। इन कॉलेजों में सबसे चर्चित मामले सर्व नारायण सिंह कॉलेज, सहरसा, गुरू गोविन्द सिंह कॉलेज, पटना सिटी, डीएन कॉलेज, मसौढ़ी के रहे। इन कॉलेजों में शासी निकाय को अंधेरे में रखकर रातोरात दर्जनों व्याख्याता के पद सृजित कर दिये गये। 26 सितंबर, 1986 को छह महीने के भीतर ही सर्व नारायण सिंह, कॉलेज, सहरसा में 42 से बढ़ाकर 72 पद सृजित कर दिये गये। लाख टके का सवाल यह है कि क्या मात्र छह महीने में ही छात्रों की इस तरह से वृद्धि हुई कि दुगीनी सीट बढ़ाने की नौबत आ गई। यही भागलपुर विश्वविद्यालय के कोऑडिनेटर प्रो. रामेश्वर प्रसाद सिंह ने अपनी पत्नी का नाम खगड़िया महिला कॉलेज में जुड़वा लिया।
समाज के प्रबुद्ध लोगों के कारनामों से मगध, रांची, मिथिला विश्वविद्यालय भी अछूता नहीं रहा। सत्ता के शीर्ष से जुड़े लोगों ने प्रदेश में 250 वित्तरहित कॉलेजों के सहारे अपनी दुकानदारी चलाते रहे।
ऐसी बात नहीं है कि शिक्षा के क्षेत्र में राजनीतिक दखलअंजादी अचानक शुरू हो गयी। बल्कि इसकी शुरुआत 1965 से ही हो चुकी थी। जब प्रदेश के सिहासन पर महामाया प्रसाद सिन्हा बैठे तो उन्होंने छात्रों को अपने संबोधन में जिगर के टुकड़े कहा। इसके बाद से छात्र राजनीति में राजनीतिक दलों की बेतहासा दखलअंदाजी हुई जो फिर थमने का नाम नहीं लिया। हालांकि परीक्षाओं में लगातार जारी कदाचार व शिक्षण संस्थाओं में जारी भ्रष्टाचार को रोकने के लिए वर्ष 1972 में मुख्यमंत्री बने केदार पांडेय के शासनकाल में रोकने का असफल प्रयास हुआ। फिर भी शिक्षा में गुणात्मक सुधार व व्याप्त भ्रष्टाचार को रोेकने के लिए 1966 में गठित एसपी सिंह कमीशन की रिपोर्ट गतलखाने में डाल दिया गया। यही नहीं, उसके बाद गठित जस्टिस केके बनर्जी कमीशन, पाटणकर कमीशन, केएसवी रमण कमीशन, अब्राहम, जब्बार हुसेन के साथ ही वीएस झा का प्रतिवेदन भी ठंढ़े बस्ते में डाल दिया गया।
कल लिखेंगे प्राकृतिक संपन्नता के बावजूद 1990 आते-आते बिहार कैसे विपन्नता का शिकार हुआ।

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