Friday, September 19, 2008

बिहार: सुनहरा अतीत, अंधकारमय भविष्य

कोसी की कहर ने एक बार फिर बिहार को चर्चा में ला दिया है। इसे प्राकृतिक प्रलय की संज्ञा दी जाए या मानवीय त्रासदी। यह तो आने वाले दिनों में पता चलेगा, जब लोगों को अपना ठिकाना याद आएगा। अभी तो कोसीवासी इसकी विभिषिका को भूले भी नहीं हैं। इसलिए किसी को अपना आसियाना शायद याद नहीं आ रहा है।
आज का बिहार यानी कल का मगध साम्राज्य का स्वर्णीम इतिहास रहा है। बिहार की खूबसूरती, यहां की संस्कृति, लोगों का रहन-सहन, चाल-चलन व बोलचाल के साथ ही आपसी साहार्य को देखकर ही अंगेज लेखक सर जॉन हुल्टन ने अपनी पुस्तक "दी हर्ट ऑफ बिहार' में लिखा है-"हिन्दुस्तान की धड़कन अगर कोई है तो बिहार है, बिहार।' वाकई बिहार का अतीत गाैरवमयी रहा है। बिंबिसार व सम्राट अशोक का मगध साम्राज्य प्राचीन वर्षों के भारत का इतिहास रहा है। तब से लेकर आज तक बिहार ने शासन-प्रशासन के साथ ही राजनीतिक उथल-पुथल का लंबा सफर तय चुका है। इसी के साथ बिहार ने कई उतार-चढ़ाव भी देखा है। कभी बिहार, सर्वोच्च प्रशासनिक केन्द्र के रूप में देश में शुमार था लेकिन आज के समय में सबसे अधिक प्रशासनिक गिरावट इसी बिहार में देखने को मिलती है।
आखिर इसकी शुरुआत कब आैर कैसे हुई-कहना मुिश्कल है। फिर भी इतिहास के पन्नों की तहकीकात करने के ज्ञात होता है कि सत्त्ाा के केन्द्रीयकरण के साथ ही हिंसा का जो दाैर शुरू हुुआ वह फिर कभी थमने का नाम नहीं लिया। मगध सम्राट बिंबिसार ने अपने पिता को सत्त्ाा के लिए कारावास में डाल कर रखा तो दूसरी ओर सत्त्ाा संरक्षित महत्वाकांक्षा के आगे सम्राट अशोक ने अपने 99 भाईयों को एकमुश्त माैत के घाट उतार दिया। वैसे तो कबीलों के बारे में भी कहा जाता है कि वे लोग भी सत्त्ाा के लिए हिंसा पर उतारू रहते थे। हालांकि उनका कोई केन्द्रीकृत सत्त्ाा नहीं था इसलिए वह इतिहास के पन्नों में समेटा नहीं जा सका।
सभ्यता के विकास के साथ ही सत्त्ाा व हिंसा का अटूट रिश्ता बना रहा लेकिन जब आैद्योगिकीकरण का सिलसिला व्यविस्थत रूप से शुरू हुआ तो सत्त्ाा के लिए अहिंसक क्रियाओं को असहनीय माना जाने लगा। वे लोग बराबर मारे जाते रहे जिन्होंने सत्त्ाा में हिंसा के बेदखल का विरोध किया। फिर, यही माना जाने लगा कि राजनीति आैर सत्त्ाा के पास वही बैठ सकता है जिनके पास हिंसक तेवर हैं। कानून की मर्यादा भी उसी समय तक रही जबतक उसे बनाने वाले शासकों ने पूरी निष्ठा से उसका पालन किया। लेकिन जब से खुद शासकों ने खुलेआम कानून का उल्लंघन करना शुरू कर दिया तब से समाज आैर अंतत: राजनीति का अपराधीकरण शुरू हो गया।
राम द्वारा निर्दोष शंबूक की हत्या, राजा हिरण्यकश्यप व चेदि के राजा वसु की कथाएं आज के शासकों से कम भ्रष्ट नहीं दिखते। अगर आधुनिक विश्व की कल्पना करें तो चीन के क्रांतिकारी नेता व गणतांित्रक चीन के निर्माता माओत्सेतुंड ने एक कदम आगे बढ़कर सत्त्ाा में हिंसक तेवर को स्वीकारते हुए कहा-"सत्त्ाा का जन्म बंदूक की नली से होता है।' माओ के इस बयान से दुनिया में बलबली मच गयी। साथ ही, सत्त्ाा में हिंसा को नकारने वाली विश्व बिरादरी भाैचक रह गयी।
भारत के साथ ही दुनिया में सत्त्ाा संरक्षित हिंसा की चर्चा बाद में करेंगे। पहले गाैरवमयी अतीत संवारे बिहार में सत्त्ाा संरक्षित अपराध की चर्चा करते हैं। वैसे तो वर्ष 1990 के बाद सूबे में सत्त्ाा संरक्षित अपराध का ऐसा बोलबाला हुआ कि लोगों की जुबान में हमेशा यह बात निकलती रही कि बिहार को लालू प्रसाद यादव के दो साले साधु व सुभाष यादव चला रहे हैं। नरसंहारों का ऐसा दाैर चला कि सूबे मंें एक महीने में ही पांच-पांच नरसंहार हुए। हालांकि लालू-राबड़ी के शासनकाल में आैरंगाबाद जिले के बहुचर्चित मियांपुर नरसंहार के बाद यानी 16 जून, 1999 के बाद एक भी नरसंहार नहीं हुए। उस दौरान राजधानी पटना की सड़कों पर बेइंतहा कत्लेआम हुए। बैंक डकैती, अपहरण का ऐसा बोलबाला बढ़ा कि कब, काैन आैर कहां से अगवा कर लिया जाए-कहना मुिश्कल हो गया। नरसंहार का दाैर तो राबड़ी देवी शासनकाल में ही खत्म हो गया लेकिन बैंक डकैती, अपहरण, हत्याएं आदि आपराधिक घटनाओं में राबड़ी देवी के शासन के बाद सत्त्ााच्युत हुई नीतीश सरकार भी रोकने में पूरी तरह से सफल नहीं हुई है। हालांकि अपराधियों को स्पीडी ट्रायल के तहत सजा दिलवाने में जरूर सरकार राबड़ी देवी से बाजी मार ली है। फिर भी मैं मानता हूं कि बिहार को बेबस बनाने में न तो अकेले वर्ष 1990 में सत्त्ाा में आए लालू प्रसाद यादव जिम्मेवाद हैं आैर न ही नीतीश कुमार। बिल्क बिहार की सही तस्वीर जानने के लिए आजादी के चंद दिनों बाद से ही गहन अध्ययन करने की जरूरत है।
बात आजादी के थोड़े दिनों पहले की है। 28 मार्च, 1947 को महात्मा गांधी हजारीबाग से पटना आने वाले थे। उनकी अगवानी करने के लिए तत्कालीन प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष प्रो.अब्दुल बारी हजारीबाग से पटना आ रहे थे। फतुहा के पास तस्कर विरोधी दस्ते ने उनकी अम्बेस्डर कार को जांचना चाहा। लेकिन प्रो.बारी को जल्दी थी। सो, उन्होंने अपना परिचय दिया आैर कहा कि महात्मा गांधी चंद घंटों में पटना पहुंचने वाले हैं। कृपया करके आप बेवजह हमें विलम्ब नहीं करें। वे अभी अपनी बात भी खत्म नहीं किये थे कि तस्कर विरोधी दस्ता में से एक ने प्रो.बारी को गोली मार दी। वे वहीं ढेर हो गये। कहा जाता है कि प्रो.बारी हत्यारी राजनीति की बेदी पर चढ़ गये। बेहद ईमानदार व साफ छवि के प्रो.बारी की हत्या आखिर किन कारणों से हुई? आजतक यह जांच का विषय बना हुआ है। कहा जाता है कि उनके राजनीति में बढ़ते कद से प्रदेश नेतृत्व खफा रहता था।
12 अगस्त, 1955 बिहार के लिए विस्मरणीय दिन है। आज ही के दिन विधानसभा में तत्कालीन मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह ने कहा था-"आज हमारी एक बेटी विधवा हो गयी।' सचमुच विधवा हो चुकी पटना महिला कॉलेज की बीए-पाट्‌स-वन की छात्रा शांति पांडेय के पति व उभरते छात्र नेता दीनानाथ पांडेय भी हत्यारी राजनीति के शिकार हुए थे। पुलिस ने उन्हें बीएन कॉलेट परिसर में गोलियों से भून दिया था। हत्या के बाद उबल रहे बिहार को बचाने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु को हस्तक्षेप करना पड़ा था। तब जाकर मामला शांत हुआ था। बाद में विधवा शांति पांडेय एक चिकित्सक से शादी करके शांति पांडेय से शांति ओझा बन गयीं। फिलहाल पटना में महिलाओं के लिए स्वयं सहायता समूह चलाती हैं आैर जागो बहना नामक पित्रका की संपादक भी हैं।
आजादी के बाद दूसरी घटना पटना के गांधी मैदान के समीप घटी। 5 जनवरी, 1967 को 10 हजार की भीड़ पर पुलिस ने गोलियों की बरसात कर दी। इसमें 35 से अधिक लोग मारे गये। पुलिस ने 75 चक्र गोलियां चलाइंर्। जबकि सरकारी रिकार्ड के अनुसार मात्र नाै लोग ही मारे गये थे। एक ओर जहां इस जघन्य गोलीकांड से प्रदेश दहल गया था वहीं पटना के तत्कालीन जिलाधिकारी जे.एन. साहु ने इसे कांग्रेस की अंदरूनी कलह बताया था। गोलीकांड के समय जयप्रकाश नारायण जमशेदपुर में थे वहीं उन्होंने कहा था-"बिहार में निरंकुशता के मजबूत होते पंजे पता नहीं, इस संवेदनशील प्रदेश को कहां ले जाकर छोड़ेंगे।' सरकार मामले को निपटाने में लगी रही फिर भी नतीजा सिफर ही रहा था। वहीं सत्त्ाा से हटते ही पूर्व मुख्यमंत्री कृष्णवल्लभ सहाय की माैत एक सड़क दुर्घटना में हो गई। विपरीत दिशा से आ रही एक ट्रक राैंदते हुए सहाय की कार को पार कर गई। प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री की हत्या आैर शासन-प्रशासन बेखबर। तब से लेकर आज तक प्रशासनिक अधिकारी इस बात से अनभिज्ञ रहे कि सहाय की सड़क दुर्घटना में माैत एक साजिश थी या स्वाभाविक परिघटना।
13 अप्रैल, 1955 को बिहार विधानसभा का पूरा सदन तब सन्न रह गया था जब विरोधी दल के नेता एस.के.बागे ने श्रीकृष्ण सिंह पर लाए गये अविश्वास प्रस्ताव के समर्थन में बोल रहे थे। उन्होंने सदन को जानकारी दी कि देशभर में सबसे अधिक डकैतियां बिहार में हो रही हैं। वर्ष 1952 में उनके भी घर में डकैतोंं ने धावा बोलकर सबकुछ लूट लिया थाआैर पुलिस देखती रही थी। वहीं प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के नेता महामाया प्रसाद सिन्हा ने सदन को जानकारी दी कि बिहार विधान परिषद के उप सभापति के घर डकैती हुई। पुुलिस की ओर से तैयार आंकड़ों को पेश करते हुए नेताओं ने सदन को बताया कि वर्ष 1954 को बिहार में 1581 डकैतियां हुइंर् जबकि महाराष्ट्र में 575 व हैदराबाद में 344 डकैतियां हुइंर् थीं।
आजादी के पहले भारतीय जेलों में एक नारा गूंजता था-"यह झंडा तुमसे कहता है, दिन-रात जुल्म क्यों सहता है, खामोश सदा क्यों रहता है, उठ होश में आ आंधी बन जा।' लेकिन आजादी के बाद बिहार पुलिस के गुंडों ने इस क्रांतिकारी गाना गाने वाले को सदा के लिए गहरी नींद में सुला दिया था। इस गाने को इजात किया था शोषितों,मलजूमांें के नेता सूरज नारायण सिंह ने। गुलामी के दिनों में हजारीबाग केन्द्रीय कारा से जय प्रकाश नारायण समेत छह क्रांतिकारियों को अपने कंधे पर बिठाकर जेल से भागने वाले वीर बांकुरे सूरज बाबू 21 अप्रैल, 1973 को सत्त्ाा संरक्षित हत्यारी राजनीति के शिकार बन गये। रांची के टाटी सिलवे िस्थत उषा मार्टिन कंपनी के सामने मजदूरों की हक व हुकूक की लड़ाई लड़ रहे सूरज बाबू को कंपनी के गुंडों व रांची पुलिस ने उन्हें लाठी से पीट-पीटकर हत्या कर दी। हत्या के समय वे मधुबनी से सोशलिस्ट पार्टी के विधायक थे। सूरज बाबू की हत्या से आहत जयप्रकाश नारायण ने पटना के बांस घाट पर उनके अंतिम संस्कार के समय पत्रकारों से कहा था-"मैं अपनी पत्नी प्रभावती के निधन से उतना आहत नहीं हुआ जितना सूरज बाबू के निधन से हूं।'
उस समय अब्दुल गफ्फार विधान परिषद के सदस्य रहते हुए प्रदेश के मुख्यमंत्री बने थे। इसके पहले तक बिहार में विधानसभा के सदस्य ही मुख्यमंत्री हुआ करते थे। जिसे कांग्रेस नीति सरकार ने अपने पैरों तले कानून को राैंदा।
सूरज बाबू की खाली सीट पर हुए उप चुनाव में एक ओर सोशलिस्ट पार्टी की ओर से उनकी पत्नी चन्द्रकला देवी खड़ी थी जबकि कांग्रेस पार्टी की ओर से स्वयं मुख्यमंत्री अब्दुल गफ्फार। बताया जाता है कि कांग्रेसी गुंडों ने जबरदस्ती चन्द्रकला देवी को हरवा दिया था। उनकी हार से आहत जयप्रकाश ने कहा था-"अब आैर अधिक नहीं सहा जा सकता। लोकतंत्र की हत्या अब आैर बर्दाश्त नहीं कर सकता।' सचमुच लोकतंत्र प्रेमी लोग कांगे्रस नीत सरकार के कारनामों से आहत हो रहे थे। फिर भी सत्त्ाा संरक्षित अपराध थमने का नाम नहीं ले रहा था।
देश में किसी केन्द्रीय मंत्री के मारे जाने की पहली घटना बिहार में ही हुई। 3 जनवरी, 1975 को तत्कालीन रेलमंत्री व देश के तेजतर्रार नेता ललित नारायण मिश्र को अपराधियों ने समस्तीपुर रेलवे स्टेशन पर बम से उड़ा दिया। उनकी हत्या से आहत तत्कालीन प्रधानमंत्री इिन्दरा गांधी ने पत्रकारों से कहा था-"यह ललित बाबू की हत्या नहीं, बिल्क मेरी हत्या का पूर्वाभ्यास है।' सचमुच इिन्दरा गांधी की यह भविष्यवाणी 31 अक्टूबर, 1984 को उनके अंगरक्षकों को गोलियों से भून कर सही साबित कर दिया था।
निरंकुश शासन से देश लगातार भयभीत होते जा रहा था। अभी देशवासी ललित बाबू की हत्या को भूले भी नहीं थे कि 12 जून, 1975 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इिन्दरा गांधी के चुनाव को अवैध घोषित कर दिया। न्यायालय का फैसला आते ही हत्यारी राजनीति ने तथाकथित लोकतंत्र का गला भी घोंट लिया आैर 26 जून, 1975 को देशव्यापी आपातकाल लागू कर दिया गया। अखबारों के प्रकाशन पर प्रतिबंध लगा दिया गया। अभी देश में आपातकाल लागू ही था कि मटिहानी के कम्युनिस्ट विधायक सीताराम मिश्र की हत्या कांग्रेसी गुंडों ने कर दी।
बिहार के राजनीतिक इतिहास में वर्ष 1980 सदा याद किया जाता रहेगा। आपातकाल के दूसरे आम चुनाव में एक ही साथ अपराधियों की जमात बिहार विधानसभा में पहुंची। सूबे में पहली बार बुलेट के आगे बैलेट विवश दिखने लगा। निर्वाचित सदस्यों में से कोई हाथी पर सवार होकर विधानसभा पहुंचा तो कोई संगीनों के साये में। किसी पर तीन दर्जन हत्या के मामले दर्ज हैं तो कोई मुजफ्फरपुर से लेकर पटना तक जमीन हथियाने के लिए जाना जाता है। भोजपुर विधानसभा सीट से निर्दलीय वीर बहादुर सिंह जीते तो वैशाली जिले के जनदाहा विधानसभा सीट से वीरेन्द्र सिंह महोबिया। सरदार कृष्णा सिंह, काली पांडेय, विनोद सिंह समेत कुख्यात विधायकों की लंबी लाइन लग गई।
अपराध के सहारे सत्त्ाा के शीर्ष पर पहुंचे ये विधायक एक-एक कर अपराध के ही शिकार बनते गये। एक मई, 1987 को वीर बहादुर सिंह अपराधी राजनीति के शिकार बन गये। इनके किस्से दिलचस्प रहे हैं। एक बार टिकट मांगने वाले ठिकट कलेक्टर को इन्होंने चलती ट्रेन से बाहर फेंक दिया था। वहीं एक दर्जन इंजीनियरों से गाड़ी छिनने के आरोप भी इन पर लगे। सर्कस मैनेजर से बंदूक की नोक पर पैसे छीनने व नहीं देने पर मैनेजर को अगवा करने के किस्से खासे चर्चित रहे हैं। 22 से अधिक हत्याकांडों के संगीन आरोप में वीर बहादुर सिंह उत्त्ार भारत के अधिकांश जेलों में सजा काट चुके थे। करीब 80 आपराधिक मामलों के अभियुक्त पलामू जिले के विश्रामपुर विधानसभा क्षेत्र से विधायक बने विनोद सिंह की हुंकार से पटना की सियासत भी कांपती थी। वर्ष 1970 में एक दारोेगा की हत्या के बाद चर्चा में आए विनोद दर्जनों मासूम लेकिन कमजोर वर्ग की लड़कियों को अपनी हवस का शिकार बनाते रहे। उनके गुंडों के करतूतों से पूरा पलामू थर्राते रहता था। 25 जून, 1987 को चंदवा के समीप बिरसा गेस्ट हाउस में वे अपराधियों की गोलियों के शिकार हुए। हालांकि उनकी हत्या के वर्षों बाद तक इलाके में दहशत व्याप्त रहा। किसी को विश्वास ही नहीं हो रहा था कि वाकई विनोद सिंह मारे गये हैं। क्योंकि कई बार इस तरह की अफवाहें पहले भी उड़ती रही थीं। "वीर महोबिया क्राम-क्राम, वैशाली में धड़ाम-धड़ाम' के नारे 1980 से 1985 के दाैर में वैशाली में बराबर गूंजते थे। मुख्यमंत्री डा.जगन्नाथ मिश्र के अनन्य भक्त वीरेन्द्र सिंह महोबिया पर दर्जनों हत्या के मामले विभिन्न थानों में दर्ज थे। उन्हें पागल हाथी पालने का शाैक था। उनकी बेटी की शादी बिहार के चर्चित शादियों में एक थी। कहा जाता है कि लोक स्वास्थ्य अभियंत्रण विभाग की ओर से रातभर के लिए सैंकड़ों नल गड़वाये गये थे वहीं बारातियों के स्वागत के लिए रातभर हेलीकॉप्टर से फू ल बरसते रहा था। वर्ष 1980 में ही बिहारशरीफ से विधायक बने रामनरेश सिंह पर भी डकैती व हत्या के दर्जनों मामले दर्ज थे। इसी साल रघुनाथ पांडेय मुजफ्फरपुर जिले से विधायक निर्वाचित हुए। इनके कारनामे से एकबारगी व्यवसायी जगत थर्रा गया। मुजफ्फरपुर से लेकर पटना तक उन्होंने दर्जनों मकानों को अवैध रूप से कब्जाया आैर बाद में बंदूक का भय दिखाकर अपने सगे-संबंधियों के नाम पर आवंटित करा लिया।
25 जनवरी, 1981 को पटना से लेकर दिल्ली तक एक हत्या की चर्चा जोरों पर थी। हुआ यह था कि तत्कालीन केन्द्रीय पुनर्वास एवं आपूर्ति राज्य मंत्री भागवत झा आजाद के दिल्ली िस्थत सरकारी आवास-7 अकबर रोड में उनके आजाद के सुरक्षा गार्ड तेजपाल सिंह को गोली मारकर हत्या कर दी गई थी। पुलिस मामले की तहकीकात के इसे दबाने में लगी रही।
वर्ष 1981 में छात्र लोकदल नेता परमेश्वर यादव का खून हो गया। इसी वर्ष पटना में लोकदल नेता शिवनंदन चन्द्रवंशी मारे गये वहीं नालंदा में लोकदल कार्यकर्ता उपेन्द्र शर्मा का सिर कलम कर राजनीतिक हमलावारों ने उनका सिर देवी मंदिर में चढ़ा दिया।
लगातार हो रही राजनीतिक हत्याओं से बिहार का सूरत बिगड़ते जा रहा था। पुलिसिया सुस्ती का आलम यह था कि मानवीय विधायक तक सुरक्षा की गुहार लगाने लगे। विधायक अिश्वनी शर्मा ने अपनी सुरक्षा की गुहार मुख्यमंत्री से लेकर प्रधानमंत्री तक लगाई। सूबे में जारी हत्याओं के दाैर के उजागर करने के लिए सरकार मीडिया को दोषी मान रही थी। उन दिनों अखबार के पन्ने आए दिन राज्य में जारी हत्या, लूट, अपहरण, दुष्कर्म आदि से भरे रहते थे। इसकी रोकथाम के लिए राज्य में सत्त्ाारूढ़ कांग्रेसी सरकार के मुख्यमंत्री डा.जगन्नाथ मिश्र ने विवादास्पद प्रेस बिल घोषित किया। इससे पूरा पत्रकारिता जगत बाैखला गया वहीं बिल के माध्यम से सरकार ने अपनी निरंकुशता का साफ तेवर दिखलाया।
आैर फिर भागलपुर का बहुचर्चित आंखफोडवा कांड। इस कांड ने सत्त्ाा की चूले हिला दी। इसके किस्से राज्य क्या, देश में चर्चित हुए। फिलहाल उस किस्से को मैं दोहराना नहीं चाहता। उन्हीं दिनों जगन्नाथ मिश्र के गांव बलुआ से दो किलोमीटर की दूरी पर इलाके के चर्चित कम्युनिस्ट नेता कामरेड राजकिशोर झा की हत्या राजनीतिक अपराधियों ने कर दी। 11 फरवरी, 1983 को मधुबनी इलाके के तेजतर्रार नेता पीतांबर झा मारे गये। "बिहार का मास्को' कहा जाने वाला बेगुसराय में भी राजनीतिक हत्याओं का अंतहीन सिलसिला जारी रहा। सिर्फ 1983 में ही पुलिस आंकड़ों के अनुसार 53 विरोधी दल के कार्यकर्ताओं व नेताओं की हत्या कर दी गई। इन हत्याओं में बढ़चढ़ कर हिस्सा लेने का आरोप लगा डा.जगन्नाथ मिश्र का दाहिना हाथ कुख्यात तस्कर कामदेव सिंह पर। राजनीतिक हत्याओं की धधक से सीवान भी अछूता नहीं रहा। 27 अगस्त, 1983 को दो बार विधायक रहे राजाराम चाैधरी को बम से उड़ा दिया गया।
सेक्सजनित बॉबी हत्याकांड बिहार का एक ऐसा अध्याय है जिसे भुलाया नहीं जा सकता। बिहार विधानसभा के उपसभापति राजेश्वरी सरोज दास की दत्त्ाक पुत्री श्वेतनिशा उर्फ बॉबी को नेताओं के बिगड़ैल बेटे ने हवस का शिकार बनाकर माैत के घाट उतार दिया। इसमें बिहार विधानसभा के तत्कालीन अध्यक्ष राधानंदन झा के बेटा रघुवर झा का नाम उछला था। लेकिन उच्चस्तरीय राजनीतिक हस्तक्षेप के बाद मामले को सीबीआई के सुपुर्द कर दिया गया। इसका अभी भी पटना के तत्कालीन एसएसपी किशोर कुणाल को मलाल है कि इस मामले की सही जांच नहीं हो सकी। लोग इस हत्याकांड को भूले भी नहीं थे कि मनेर के कांग्रेसी विधायक रामनगीना सिंह गोलियों के शिकार हो गये। इनकी हत्या कैसे हुई? इसकी जांच आज तक नहीं हुई है फिर भी उन दिनों इस हत्याकांड में कांग्रेसी मंत्री बुद्धदेव सिंह का नाम आया था। उस दौरान पटना व आसपास के इलाकों में दर्जनभर नेताओं की हत्याएं हुई थीं। इसके पहले सुकन यादव, सरकारी बैंकों के अवैतनिक मंत्री जंगी सिंह, मनेर के बाहुबली ज्वाला सिंह समेत दर्जनों लोग मारे गये थे।
बिन्देश्वरी दुबे के शासनकाल में पूरा बिहार नरसंहार से कराह उठा। जातीय नरसंहारों का ऐसा दौर चला जो मियांपुर नरसंहार के बाद ही थमने का नाम लिया। दुबे शासनकाल में ही दिल दहला देने वाली घटना बिहार के चितौड़गढ़ औरंगाबाद के दलेलचक-बघौरा में घटी जहां चरमपंथी संगठन एमसीसी ने एकमुश्त 56 राजपूतों की हत्या कर दी थी। इसके पूर्व इसी जाति के रामनरेश सिंह (जो बाद में औरंगाबाद के सांसद भी चुने गये) के लठैतों ने छेनानी में पिछड़ी जाति के छह लोगों को गोलियों से भून दिया था। दुबे शासनकाल में दर्जनभर नरसंहार हुए। बिहार बेकाबू होते जा रहा था। उन्हीं दिनों, 8 अगस्त, 1987 को झामुमो नेता निर्मल महतो की हत्या जमशेदपुर में दुबे समर्थक लोगों ने कर दी। इसके पूर्व 25 मार्च, 1985 को झारखंड के बांझी इलाके में पूर्व सांसद फादर एंथोनी समेत छह लोगों को गोलियों से भून दिया गया। कैथोलिक फादर ने राजनीति में आने के लिए रोम के पोप से इजाजत ली थी। दुबे के शासनकाल में ही कोलियरी मजदूर संघ के नेता जगदीश नारायण सिंह को कर दी गई। उनकी हत्या पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए हजारीबाग के तत्कालीन सांसद दामोदर पांडेय ने इसे कांग्रेसी की अंदरूनी राजनीति बताया था।
सत्ता संरक्षित अपराधियों के बोलबाला से पूरा बिहार आक्रांत होते जा रहा था। वैसी ही स्थिति में बिहार की हुकूमत तेजतर्रार नेता भागवत झा आजाद के हाथों में सौंप दी गई। मजदूर नेता आजाद अपने ही मानस पुत्रों के करतूतों से बदनाम होते गये। कांग्रेस के छात्र संगठन एनएसयूवाई के छात्र नेताओं की जमात ने भागलपुर के चर्चित चिकित्सक की बेटी पापिया घोष का अपहरण शादी की नीयत से कर लिया था। इस अपहरण की गूंज देशभर में सुनाई पड़ी थी। अपहर्ताओं ने गुप्त स्थान से एक संवाददाता सम्मेलन आयोजित कर अपने को आजाद का मानस पुत्र घोषित किया था।
मानस पुत्रों की वजह से गद्दी गंवाये आजाद कुछ ही महीनों में दिल्ली तलब कर दिये गये थे। बिहारी नेताओं की वजह से देशव्यापी कांग्रेसियों की फजीहत हो रही थी। वैसी ही स्थिति में बिहार की बागडोर औरंगाबाद के सांसद सत्येन्द्र नारायण सिन्हा उर्फ छोटे साहब के हाथों में सौंप दिया गया। उन्होंने सत्ता संभालने के पूर्व 20 मार्च, 1989 को दिल्ली में आयोजित संवाददाता सम्मेलन में कहा-"माफिया सुंदर शब्द नहीं है। कौन है माफिया? जिन लोगों को बिहार में माफिया कहा जाता है वे तो हमारे सहकर्मी हैं। वे ही लोग सांसद और विधायक हैं। भला उन लोगों को माफिया कहना कहां तब जायज होगा! अगर इनमेें से कुछ लोगों ने सहकारिता पर अपना प्रभाव जमाया है तो उन्हें माफिया नहीं, मैनीपुलेटर कहा जा सकता है।' ऐसा रहा है बिहार में नेताओं का चरित्र। सूबे में अपराधियों को महिमामंडित करने वाले छोटे साहब कोई पहले मुख्यमंत्री नहीं रहे हैं। अन्य मुख्यमंत्रियों की चर्चा आने वाले दिनों में करेंगे। फिलहाल डूबते बिहार को उबारने का जिम्मा उठा रहे सत्येन्द्र नारायण सिन्हा के बारे में कर रहे हैं।
इनके शासनकाल की ही देन है कि कांग्रेस का पूरे देश से सफाया हो गया। भागलपुर का चर्चित साम्प्रदायिक दंगा इन्हीं के शासनकाल में हुआ। दंगों में क्या हुआ? यह किसी से छुपी हुई नहीं है। उन्हीं के शासनकाल में बिहार के चंबल के नाम से प्रसिद्ध बगहा के इंका विधायक त्रिलोकी हरिजन की हत्या उनके घर पर डकैती के दौरान कर दी गयी। इसके कुछ दिनों बाद 6 जुलाई, 1989 को धनहा के पूर्व विधायक रामनगीना यादव का अपहरण उस समय कर लिया गया जब वे अपनी बेटी की शादी में व्यस्त थे। कहा जाता है कि अपहर्ताओं ने दो लाख रुपये फिरौती की रकम लेने के बाद ही छोड़ा था। हालांकि पुलिस बराबर इस बात से इंकार करती रही।
10 मार्च, 1990 को बिहार की हुकूमत युवा नेता लालू प्रसाद यादव के हाथों में आया। लालू के शासन काल में क्या हुआ? "राज करब तो ठोक के करब' का राग अलापने वाले लालू ने लोकतंत्र को मजबूती दिया या डूबते बिहार में रसातल में ले जाने में सहायक का काम किये। आप कल पढ़ेंगे।

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