Tuesday, September 16, 2008

बैलेटे की तराजू पर देशवासियों की सुरक्षा

देश की सुरक्षा बैलेट की तराजू पर निर्भर करता है। तभी तो यहां हर सरकारी नीतिगत फैसले वोट बैंक को ध्यान में रखकर किया जाता है। 13 सितंबर को दिल्ली में हुए आतंकी बम धमाके भी इसी की एक कड़ी है। आम लोगों की मौत और उनके लहू से ही लिखी जा रही है सत्ता की इबादत। यही कारण है कि देश के हुक्मरान सिर्फ और सिर्फ आश्वासनों का पुलिंदा बांधने में लगे हुए हैं तो दूसरी ओर वोट के लालची नेताओं ने खुफिया व्यवस्था को समृद्ध बनाने की एक योजना अस्तित्व में आने से पहले ही दम तोड़ दिया।
देशवासियों को इस बात की जानकारी है या नहीं, फिर भी मैं उन्हें याद दिलाने का प्रयास कर रहा हूं कि जब 11 सितंबर, 2001 को दुनिया के सबसे शक्तिशाली देश अमेरिका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर आतंकी हमला हुआ था उसी समय भारत सरकार की ओर से सुरक्षा मामलों की कैबिनेट बैठक बुलवाई गयी थी, उस बैठक में इस बात का फैसला हुआ था कि देश के खुफिया तंत्र को धारदार बनाने के लिए मल्टी एजेंसी टास्क फोर्स के गठन किये जाने की जरूरत है। सरकार ने इसके गठन का निर्णय भी ले लिया था। केंद्रीय खुफिया ब्यूरो के अधीन बनायी जाने वाली इस टास्क फोर्स में रॉ, सेना खुुफिया के साथ ही राज्यों की खुफिया इकाईयों के प्रतिनिधित्व की रूपरेखा बनायी गयी थी। लेकिन पता नहीं, गठन के प्रस्ताव को पास हुए सात साल होने को है फिर भी क्यों नहीं अबतक इस योजना को अमलीजामा पहनाया गया। इसका जवाब गृह मंत्रालय के पास नहीं है। आश्चर्य तो यह कि विश्व की तेजी से बनते जा रहे आर्थिक शक्ति के बावजूद भारत में सरकार बदलते ही प्राथमिकताएं क्यों बदल जाती हैं।
हालांकि यह कहने की बात है। जब मल्टी एजेंसी टास्क फोर्स का गठन करने का निर्णय किया गया था उस समय केन्द्र में राजग की सरकार थी। उसके बाद भी ढाई वर्षों तक राजग सत्तारूढ रहा फिर भी यह अस्तित्व में नहीं आया। यानी आतंकवाद के मुद्दे पर राजग-यूपीए दोनों ने ही कोताही बरती। देश में अगर राजग के शासनकाल में अक्षरधाम मंदिर, संसद भवन समेत अन्य दूसरी जगहांंें पर हमले होते रहे वहीं यूपीए शासन काल भी इससे अछूता नहीं रहा। अगर उसी समय राजग सरकार इस निर्णय को अमलीजामा पहना देती तो शायद देश में एक के एक धमाके नहीं होते और न ही मासूमों की जानें ही जातीं।
वर्ष 1999 में जब कारगिल में पाकिस्तान समर्थित आतंकवादियों का गुरिल्ला घुसपैठ हो रहा था और वे बंकर बनाने मंें मस्त थे उस वक्त देश का खुफिया विभाग सोया हुआ था। धन्य हो उस चरवाहे का जिसने कड़ाके की ठंढ के बावजूद पाक के घुसपैठियों की गतिविधियों की जानकारी भारतीय सेना को दी। सरकार ने उसी समय देश की खुफिया एजेंसियों को मजबूर बनाने पर जोर दिया था। गृह मंत्रालय ने एक इंटेलीजेंस कोआर्डिनेशन ग्रुप और एक ज्वाइंट मिलीटरी इटेलीजेंस एजेंसी के गठन की योजना बनायी थी। यघपि बाद में ज्वाइंट इंटेलीजेंस कमेटी का गठन किया जरूर लेकिन यह भी एक तरह से सफेद हाथी ही साबित हुआ। इस कमेटी में केंद्र के सभी खुफिया तंत्र का प्रतिनिधित्व रखा गया है। बेहतर समन्वयन और राजनीतिक इच्छा शक्ति के अभाव में यह कमेटी भी महज खानापूर्ति करने का एक जरिया ही रह गयी है। भारत में जो खुफिया तंत्र का ढांचा है वह बिखरा हुआ है। इसलिए अमरीका की जांच एवं खुफिया एजेंसियों की तर्ज पर यहां भी एक संघीय एजेंसी की जरूरत महसूस की जा रही है। राज्य की खुफिया इकाईयों का केंद्रीय खुफिया तंत्र से कोई वास्ता ही नहीं है। सूचनाओं का आदान-प्रदान तक नहीं होता।

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