Tuesday, December 30, 2008

पहले बाढ़, अब सुखाड़




एक ओर बाढ़ तो दूसरी ओर सुखाड़। बिहार के लोग कोसी की विभीषिका से अभी जूझ ही रहे थे कि राज्य का अधिकांश इलाका सूखे की चपेट में आ गया। लाखों हेक्टेयर में लगी धान की फसल सूख रही है। खरीफ फसल भी बर्बादी के कगार पर पहुंच गया है। सूबे में यह स्थिति सितंबर महीने में सामान्य से 43 फीसदी कम बारिश होने की वजह से उत्पन्न हुई है।
प्रदेश में 15 वृहद व 78 मध्यम नहर सिंचाई योजनाएं हैं। इनमें औरंगाबाद में 12, भागलपुर में 31, डेहरी में 4 व पटना जिले में 30 मध्यम योजनाएं हैं। अगर इन योजनाओं को ही सुचारू तरीके से चलाया जाए तो बहुत हद तक प्रदेश को सूखे से बचाया जा सकता था लेकिन इनका सही ढंग से क्रियान्वयन नहीं हो रहा है। मौसम की बेरुखी सेे पानी के लिए हाहाकार मचा हुआ है। हालांकि नीतीश सरकार के अस्तित्व में आते ही सूबे की तकदीर बदलने के लिए एक सार्थक प्रयास की शुरुआत की गयी थी लेकिन कोसी इलाके की बाढ़ व शेष इलाके में सुखाड़ ने सरकार के सारे प्रयासों को विफल कर दिया है। सूखे के कहर से प्रदेश के अधिकांश किसान त्राहिमाम कर रहे हैं।
बात चाहे सोन उच्चस्तरीय नहर के किनारे बसे औरंगाबाद जिले के ओबरा, दाउदनगर, अरवल व पटना के देहाती इलाके की हो या फिर उत्तरी कोयल सिंचाई परियोजना से सिंचित होने वाले औरंगाबाद, रफीगंज, नबीनगर, मदनपुर, बारूण (2 पंचायत), गुरूआ, गुरारू व टिकारी की। हर जगह पानी के लिए हाहाकर मचा हुआ है। "चावल का कटोरा' कहा जाने वाले कैमूर, भभुआ, भोजपुर व बक्सर के इलाके भी इससे अछूते नहीं रहे। धान की लहलहाती फसलें अंतिम पटवन के अभाव में मर रही हैं। कमोबेश यही स्थिति उत्तरी बिहार की गंडक परियोजना से लाभांवित होने वाले पूर्वी चंपारण, पश्चिमी चंपारण, सारण, सीवान, गोपालगंज, वैशाली, मुजफ्फरपुर, सीतामढ़ी व समस्तीपुर जिलों की भी है।
हालात ऐसे हैं कि जहानाबाद जिले के कुर्था,करपी, कांको, मखदुमपुर, कैमूर जिले के अधौरा, अरवल जिले के बैदराबाद, कलेर के निचले इलाके, जहानाबाद से सटे औरंगाबाद जिले के देवकुंड के साथ ही गोह के दक्षिणी इलाके, हमीदनगर पुनपुन बराज परियोजना के आसपास बसे गांव के साथ ही बक्सर जिले के चौसा इलाके के दर्जनों गांवों में पानी के लिए हिंसक झपड़ें तक हो चुकी हैं। किसानों के गुस्से का शिकार सासाराम में दो दिवसीय दौरे पर आईं केंद्रीय सामाजिक न्याय व अधिकारिता मंत्री मीरा कुमार को होना पड़ा। आलमगंज की सभा में किसानों ने करमचट सिंचाई परियोजना को लेकर जमकर हंगामा किया।
गोह प्रखंड की झिकटिया पंचायत के पूर्व मुखिया नंदलाल सिंह बताते हैं कि अंतिम पटवन नहीं होने की वजह से धान की लहलहाती फसल मारी गयी। उन्होंने बताया कि गोह व रफीगंज इलाके में उत्तरी कोयल व टिकारी माइनर के आसपास के दर्जनों गांवों में भीषण सुखाड़ हो गया है। अगर दशहरा तक बारिश नहीं हुई तो इस इलाके में रबी फसल की भी बुवाई नहीं हो सकेगी, क्योंकि खेतों में दरारें पड़ गयी हैं। बारिश नहीं होने की वजह से धान के उत्पादन में कितना अंतर आएगा, इस संबंध में जब हमने कृषि निदेशक बी. राजेन्द्र सेजानने की कोशिश की तो उन्होंने कुछ भी स्पष्ट कहने से इंकार कर दिया।
पूर्व जल संसाधन मंत्री जगदानंद सिंह का कहना है कि शुरू में अच्छी बारिश हुई जिससे धान की अच्छी उपज होने की उम्मीद थी लेकिन सितंबर के शुरू से ही बारिश ने धोखा दे दिया। वहीं दोषपूर्ण जल बंटवारे की वजह से सोन नहर से सिंचित होने वाले इलाकोें में भी सिर्फ एक पटवन के लिए धान की फसल मारी गयी।
नीतीश सरकार जुलाई महीने में ही कर रही थी कि अतिवृष्टि की वजह से राजधानी पटना डूबा है। अगर उन दिनों वाकई सरकार का यह बयान सही था तो फिर सितंबर आते ही आखिर कैसे अधिकांश सिंचाई योजनाओं में पानी की किल्लत हो गयी? किसानों का कहना है कि अगस्त के अंतिम दिनों से ही तीखी धूप होने की वजह से खेतों में पानी की जरूरत महसूस की जाने लगी थी। सितंबर के अंत तक इसने भयावह रूप ले लिया। राज्य सिंचाई कोषांग के निदेशक दिनेश कुमार चौधरी ने बताया कि अंतिम पटवन के अभाव में धान की फसलों को मरने नहीं दिया जाएगा। पानी के लिए मचे हाहाकार को देखते हुए ही सरकार उत्तर प्रदेश की रिहन्द सागर व मध्य प्रदेश की बांध सागर परियोजनाओं से प्रतिदिन 14275 क्यूसेक पानी खरीद रही है। यही पानी पश्चिमी सोन नहर में 9798 क्यूसेक व पूर्वी सोन नहर में 4477 क्यूसेक प्रतिदिन छोड़ा जा रहा है। जबकि गंडक परियोजना के मुख्य कैनाल में प्रतिदिन 12,000 क्यूसेक व पूर्वी कैनाल में 5700 क्यूसेक पानी छोड़ा जा रहा है। इससे उत्तर प्रदेश के भी कुछ हिस्सों में सिंचाई हो रही है।
सरकार के यह दावे अगर सही हैं तो फिर आखिर किन परिस्थितियों में सरकार ने सूबे के सभी हिस्सों के किसानों को अनुदान पर डीजल देने का ऐलान किया है। प्रधान सचिव विजय शंकर का कहना है कि 20 सितंबर को ही पानी के लिए मचे हाहाकार के मद्देनजर सरकार ने 63 करोड़, 16 लाख, 50 हजार रुपये जारी किये हैं। हालांकि जमीनी सच्चाई यह है कि घोषणा के 15 दिनों के बाद भी अबतक जिलाधिकारी को कोई आदेश नहीं मिले हैं। सवाल यह है कि इस अनुदान का लाभ किसानों को कब मिलेगा? नाम नहीं छापने की शर्त पर एक जिलाधिकारी ने बताया कि घोषणाएं पटना में हुई हैं। घोषणाओं को अमलीजामा पहनाने में महीनों लग सकते हैं।
प्रदेश में लघु सिंचाई योजनाएं भी कागजों पर ही दिखती हैं। अकेले बक्सर जिले में ही लगभग 120 पंपिंग सेट हैं लेकिन उनमें से अधिकांश बंद पड़े हैं। 15 पंपिंग सेट ठीक हालत में हैं भी तो खपत के अनुसार बिजली की आपूर्ति नहीं होने की वजह से ये पंप क्षमता के अनुसार पानी नहीं दे पा रहे हैं। स्थानीय बसपा विधायक हृदय नारायण सिंह बताते हैं कि पिछली राजद सरकार ने इलाके में सिंचाई की समस्या को दूर करने के लिए गंगा-चौसा पंप लाइन का निर्माण करवाया था लेकिन तीखी धूप के बावजूद सरकार जिले में औसत बिजली की आपूर्ति 32 के बजाय 15 मेगावाट कर रही है। इस वजह से सौ क्यूसेक पानी की क्षमता वाली यह परियोजना भी किसानों का साथ नहीं दे रही है। अधौरा प्रखंड में कर्मनाशा नदी पर बना पंप हाउस भी जंग खा रहा है। इससे लाभान्वित होेने वाले हजारों एकड़ जमीन में लगी फसल जल रही है। इधर 30 सितंबर को हुई बारिश से किसानों के चेहरे खिले दिख रहे हैं।
स्थिति की नजाकत इसी से समझी जा सकती है कि पानी बंटवारे को लेकर सूबे में पहली बार दो राज्यों के बीच विवाद खड़ा हो गया। औरंगाबाद के भाजपा विधायक रामाधार सिंह ने प्रदेश की 26 हजार हेक्टेयर जमीन में लगी धान की फसल को बचाने के लिए झारखंड प्रदेश के कुटकू बांध के समीप उत्तरी कोयल के मुख्य द्वार को ही काट दिया। इस संबंध में उन्होंने बताया कि वर्ष 2006 में हुए समझौते के अनुसार बिहार को 2500 क्यूसेक पानी मिलना चाहिए था लेकिन समझौते का उल्लंघन करते हुए झारखंड सरकार मात्र 1700 क्यूसेक पानी छोड़ रही थी जबकि उत्तरी कोयल को बिहार के एक लाख हेक्टेयर में सिंचाई करनी है।
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पानी से बिजली पर छिड़ी जंग
सूखे की चपेट में आए किसानों के दुख-दर्द को दूर करने के लिए पक्ष-विपक्ष के नेताओं में आरोप-प्रत्यारोप का दौर शुरू हो गया है। पानी की किल्लत का ठीकरा विपक्षी नेताओं ने बिजली विभाग पर फोड़ना शुरू कर दिया है। राजद नेता व पूर्व जल संसाधन मंत्री जगदानंद सिंह ने सरकार पर आरोप लगाते हुए कहा कि अतिवृष्टि के बावजूद सितंबर महीने में ही सारे नदी-नाले सूख गये। जिन इलाकांें के किसान पंपिंग सेट से खेतों में सिंचाई करते थे वहां बिजली नहीं देकर सरकार दूसरे राज्यों को बेच रही है। उनका कहना है कि वैसे तो अधिकांश बिहार पहले से ही अंधेरे में डूबा हुआ है लेकिन जहां बिजली है वहां भी सरकार देने में सक्षम नहीं है। केंद्रीय पुल की बिजली में से 300 मेगावाट प्रतिदिन उत्तर प्रदेश, हरियाणा समेत अन्य दूसरे राज्यों को बेची जा रही है। दूसरी ओर, जदयू के प्रदेश अध्यक्ष व सांसद राजीव रंजन उर्फ ललन सिंह का कहना है कि केन्द्र सरकार बिहार के कोटे के अनुसार भी बिजली नहीं दे रही है। उन्होंने कहा कि औसतन बिजली का आवंटन सूबे में करीब 1400 मेगावाट है जबकि यहां मिल रही है मात्र एक हजार मेगावाट। पक्ष-विपक्ष के आरोप के बीच सच्चाई चाहे जो भी हो इस बात से कौन इंकार कर सकता है कि सूबे के अधिकांश इलाकों में औसतन बिजली प्रतिदिन पांच से छह घंटे ही मिल रही है।
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वृहद सिंचाई योजनाएं लाभांवित जिले
सोन उच्चस्तरीय नहर------भोजपुर, रोहतास, पटना, जहानाबाद, गया, औरंगाबाद
बदुआ जलाशय योजना----भागलपुर, मुंगेर
चंदन जलाशय योजना---भागलपुर
मोरहर सिंचाई योजना---गया
किउल जलाशय योजना---मुंगेर
कोसी योजना----पूर्णिया, कटिहार, सहरसा, मधेपुरा, किशनगंज, सुपौल, अररिया
कुहिरा बांध-----कैमूर
मुसाखांड सिंचाई योजना---कैमूर
गंडक योजना-पूर्वी व पश्चिमी चंपारण, सारण, सीवान, गोपालगंज, वैशाली, मुजफ्फरपुर, समस्तीपुर
लिलाजन सिंचाई योजना---गया
सकरी सिंचाई योजना---गया, नवादा
उदेरास्थान सिंचाई योजना---जहानाबाद, गया, नवादा
अपर मोरहर सिंचाई योजना--गया, नवादा
कमला, बलान, त्रिशुला सिंचाई योजना---मधुबनी

क्यों जल रहा है बिहार?

नालंदा के गदीश प्रसाद का परिवार स्तब्ध, माैन आैर शोकसंतप्त है। ये वही जगदीश हैं, जिनकी इकलाैती संतान पवन उर्फ दीपू (24) को बेवजह आैर असमय नफरत की राजनीति की बलि वेदी पर चढ़ा दिया गया। जगदीश आैर उनके ही जैसे लाखों परिवारों को पता नहीं कि पेट की आग बुझाने के लिए दूसरे राज्यों की खाक छानने को कब गुनाह का दर्जा दिया गया। लेकिन, महाराष्ट्र में भड़की आग की लपट जिस तरह बिहार पहुंची, उसने यह बता दिया कि सिसायतदानों के मन में क्या है। पवन जैसे मासूमों की लाश की चाबी ही सत्त्ाा के द्वार खोलती है। हाल के वर्षों में सबसे सफल प्रयोग भाजपा की राम लहर थी, जिसने अन्य दलों को भी नकारात्मक राजनीति की दिशा दिखाई।
महाराष्ट्र से लेकर बिहार आैर यूपी तक राजनेताओं को इस उबलते मुद्दे के बीच इंतजार रहेगा, तो बस आम चुनाव का। इस पूरे प्रकरण की जिस तरह राजनीतिक साैदेबाज़ी होती दिखी, उसने यह संकेत दे दिया है कि बिहार आैर महाराष्ट्र में होनेवाले आम चुनाव में बाहरी-भीतरी का मुद्दा काफी अहम भूमिका अदा करेगा।
बिहार में राजद के लिए अभी एक चुनाैती यह है कि वह सत्त्ाा में नहीं। उसे चुनाव सिर्फ मुद्दों के आधार पर लड़ना है। चूंकि बिहार में नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली राजग सरकार है, इसलिए वह राज ठाकरे का ठीकरा राजग के बहाने नीतीश पर फोड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ रहा है। यद्यपि, राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद सीधे ताैर पर अपने राजनीतिक विरोधियों पर निशाना नहीं साध रहे, लेकिन उनकी पार्टी के श्याम रजक सरीखे नेता वार का एक भी माैका चूक नहीं रहे।
यही वजह है कि जब राज की गिरफ्तारी हुई, तो श्याम रजक ने कहा-"ऐसे लोगों के खिलाफ मारपीट का नहीं बल्कि देशद्राेह का भी मुकदमा चलना चाहिए।' वहीं दूसरी ओर जनता दल यूनाइटेड (जदयू) ने भी कांग्रेस पर निशाना साधने का मौका हाथ से नहीं जाने दिया। पार्टी प्रवक्ता विजय कुमार चौधरी ने कहा-" राज को गिरफ्तार करने में महाराष्ट्र सरकार ने देरी कर दी वरना बिहार के युवकों की पिटाई नहीं होती।'
नेतृत्वविहीन छात्रों का उग्र प्रदर्शन आगामी लोकसभा चुनाव में कुछ नया गुल खिलाएगा, यह अभी कहना मुिश्कल है। लेकिन जिस तरह पहली बार छात्रों की गोलबंदी हुई है, उससे 1974 के आंदोलन की उपज रेल मंत्री लालू प्रसाद से लेकर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार समेत अन्य नेताओं के सामने एक चुनाैती खड़ी हो गयी है।
राज्य प्रशासन छात्रों के उग्र तेवर भांप चुका था, लेकिन इसे राजनीतिक मजबूरी ही कहेंगे, जिसके चलते हिंसा का जवाब कठोरता से नहीं दिया गया। यह उसी तरह का मामला है, जैसा राज ठाकरे के साथ आज तक महाराष्ट्र में होता आया है। फरवरी 2008 में राज ठाकरे के भड़काऊ भाषणों से वैमनस्यता फैली थी, जिसके शिकार बिहार आैर यूपी के कई मासूम हुए थे। उस समय भी महाराष्ट्र सरकार की थू-थू हुई थी, लेकिन मराठी जनमानस की उपेक्षा से जो राजनीतिक नुकसान हो सकता है, उसकी शायद विलासराव देशमुख को अच्छी तरह से समझ है। यही वजह रही होगी कि उनकी सरकार ने उस समय राज पर इतना हल्का मुकदमा ठोंका कि उन्हें जेल से बाहर आने में सिर्फ दो घंटे आैर 15 हजार के मुचलके ज़ाया करने पड़े। अगस्त 2008 में भी एमएनएस कार्यकर्ताओं ने मराठी में दुकानों के नाम लिखने की हिदायत दी आैर तय समय से पहले ही व्यावसायिक प्रतिष्ठानों पर हमले बोल दिये। लाखों की संपित्त्ा का नुकसान हुआ। इस मामले में राज्य सरकार ने सिर्फ एक मामूली किस्म की जांच का आदेश दे दिया। जब व्यापारी हाइकोर्ट गये, तो वहां से सरकार को कड़े कदम उठाने के निर्देश मिले, पर अचरज की बात यह है कि कुछ ही दिनों के बाद कोर्ट में महाराष्ट्र सरकार ने एक शपथपत्र दायर कर यह बताया कि मनसे नेताओं का कोई कुसूर नहीं है। कुछ ऐसा ही इस बार भी हुआ। गिरफ्तारी आैर रिहाई के नाटक के बीच, जो कुछ हुआ उसे देश भर के करोड़ों लोगों ने टीवी पर देखा। आम आदमी के मन में एक आम धारणा यह ज़रूर बनी कि सत्य जितना जिखता है, उतना स्पष्ट नहीं होता। वैसे बिहार में भी उग्र आंदोलन के ज़रिए, जिस प्रकार एक-दूसरे पर निशाना साधा जा रहा है, वह समस्या के समाधान से ़़ज्यादा सियासी फायदा झपटने की तरकीब नज़र आ रहा है।
दूसरी ओर मुद्दे के चुनाव तक जिंदा रहने के भी कई प्रमाण मिल रहे हैं। मसलन, 23 अक्टूबर को हुई छात्रों की आपात बैठक में महाराष्ट्र के सारे उत्पादों के बहिष्कार का निर्णय लिया गया। छात्रों ने सभी दलों के नेताओं को कड़ी चेतावनी दी कि अगर इस बार नेता चुप रहते हैं तो वे आगामी लोकसभा चुनाव का बहिष्कार करेंगे। छात्रों ने जिस तरह से रेलवे को क्षति पहुंंचायी है उसे देख राजद प्रमुख व रेल मंत्री लालू प्रसाद खासे दबाव में दिख रहे हैं। उन्होंने भी दबी जबान ही सही, पर इस प्रतिहिंसा का सारा दोष राज्य सरकार पर मढ़ दिया है। लेकिन प्रदेश के राजग नेता इसे आक्रोश की अभिव्यिक्त मान रहे हैं। क्योंकि इसके पहले भी चार बार हिन्दी भाषियों के नाम पर बिहारी छात्र महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) के शिकार बने हैं। लाख टके का सवाल यह है कि आखिर हिन्दीभाषी के नाम पर बिहारियों को ही निशाना क्यों बनाया जाता है? आैर, अगर यूपी भी हिंदीभाषी प्रदेश है, तो वहां के नेता इस बर्बरता पर माैन क्यों रहे। जाहिर सी बात है, मायावती आैर मुलायम की महत्वाकांक्षा अब यूपी से बाहर निकल कर केंद्र तक पहुंच गयी है। ऐसी िस्थति में किसी एक प्रदेश की राजनीति के लिए मुद्दों को हथियाने की तीर गलत निशाने पर भी लग सकती है। यही वजह है कि आज बिहार अपने जख़्म खुद सी रहा है। कब तक सीना पड़ेगा, यह अनििश्र्चत है।

ऐसे ही नहीं बना चीन नंबर वन


बीजिंग ओलंपिक में चीन ऐसे ही नहीं बन गया दुनिया का बेताज बादशाह। इसके लिए उसने एड़ी-चोटी एक कर दी। पानी की तरह पैसे बहाया। खिलाड़ियों का मनोेबल बराबर ऊं च्चा रखा वहीं आम लोगों में इसके प्रति जज्बा भर दिया आैर राष्ट्रीय स्वाभिमान से जोड़कर देखा। तभी आज से 20 साल पहले सोल ओलंपिक में मात्र 20 मेडल लेने वाला चीन, इस बार दुनिया में सबसे अधिक मेडल लेने में कामयाब रहा। उसने कुल 51 स्वर्ण पदक लिये। लाख टके का सवाल यह है कि आखिर 20 वर्षों के भीतर चीन में ऐसा क्या बदलाव आया जिससे वह करिश्माई साबित हुआ। इसके लिए उसकी तैयारियों व समर्पण के साथ ही अन्य पहलुओं पर भी गाैर करना होगा।
चीन में 44,000 खेल विद्यालय हैं जहां 3, 72, 290 विद्यार्थियों को खेल का प्रशिक्षण दिया गया। इसी में से बीजिंग ओलंपिक के लिए खिलाड़ियों का चयन हुआ। वे पेशेवर खिलाड़ी तो बने ही, सरकर ने उन्हें वेतन भी देना शुरू कर दिया। इससे उनमें हाैसला अफजाई हुआ आैर उत्कृष्ट प्रदर्शन कर दिखाया। इन खिलाड़ियों को कड़ी आैर उच्चस्तर के प्रशिक्षण के लिए 25,000 पूर्णकालीन प्रशिक्षक मुहैया कराये गये। इसके बाद राष्ट्रीय स्पद्धर्ाओं के लिए 15,925 राष्ट्रीय खिलाड़ियों को चुना गया आैर अंत में अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में प्रदर्शन के आधार पर 3,222 एलीट एथलीटों को चुना गया जबकि अन्य खिलाड़ियों को ओलंपिक में भाग लेने की इजाजत नहीं मिली।
ऐसी बात नहीं है कि बीजिंग ओलंपिक की तैयारियां सिर्फ सरकारी स्तर तक ही सीमित रहा। बिल्क आम लोगों ने भी इसका भरपूर समर्थन किया। सरकारी इलीट सिस्टम के साथ ही मास स्पोर्ट्‌स सिस्टम चलाया गया। इसमें देश में अधिकांश बुिद्धजीवियों ने हिस्सा लिया। इस मद में भी कई अरब यूनान (चीनी मुद्रा) खर्च किये गये।
बीजिंग ओलंपिक पर चीनी सरकार द्वारा अपनाये गये उपाय-----
मैदान---------8,50,000
स्टेडियम------------6,20,000
स्पोर्ट्‌स मीट्‌स----------40,000 (हर साल)
खेल विद्यालय----------44,000
प्रशिक्षित खिलाड़ी---3,72,290
पेशेवर खिलाड़ी--------46,758
प्रशिक्षक---------------25,000
राष्ट्रीय खिलाड़ी----------15,924
अंतराष्ट्रीय खिलाड़ी-----3,222

ऑखों के सामने नाचती रही मौत

अंतर्राष्ट्रीय जल मार्ग के रास्ते अमेिरका के हुस्टन बंदरगाह से मुंबई के िलए रवाना हुए जहाज को सोमालिया के िनकट जल दस्युओं ने 15 िसतंबर को अपने कब्जे में ले िलया। लगातार दो महीनों तक जल दस्युओं के कब्जे में रहे लोगों के मन से भय अभी तक दूर नहीं हो पाया है।
"ये बहुत बुरा अनुभव था। हमें मानिसक प्रता़डना दी गयी। आंखों के सामने बराबर मौत नाचती रहती थी। फिर भी भगवान का शुिक्रया और परिवारजनों का प्यार और दुआओं ने आपलोगों के सामने खींच लाया। अपने पूरे दल के साथ देशवािसयों के बीच जो खुशी हो रही है उसे मैं शब्दों में बयां नहीं कर सकता।' यह कहना है सोमािनया में जल दस्युओं के कब्जे से मुक्त हुए जापानी मालवाहक जहाज स्टोल्ट वेलर (फ्लीटिशप मैनेजमेंट कंपनी, हांगकांग) के कैप्टन प्रभात गोयल का। श्री गोयल ने कहा-"हमें मानिसक तौर पर प्रताि़डत किया गया। लेिकन अंत में हम सुरिक्षत लौटने पर खुश हैं। मैं मििश्रत भावनाओं के साथ वापस पहुंचा हूं और मीिडया का धन्यवाद करना चाहता हूं। मुझे अपनी पत्नी पर गर्व है। अपह्त लोगों का कहना है िक अपहर्ता गोलीबारी किया करते थे तािक लोगों में दहशत व्याप्त रहे। यही बात चालक दल के सदस्य राजिंदर मलिक ने भी कही। मिलक कहते हैं-"अपराधी बराबर मानिसक प्रता़डना देते रहते थे। लगातार दो महीनों तक पानी व खाना के लिए वे तरसते रहे।'
वहीं पटना (िबहार) के रहने वाले चालक दल के सदस्य संतोष कुमार बताते हैं "वे दो महीने दहशत भरे थे। आंखों के सामने मौत नाचती रहती थी। कब, िकसकी मौत हो जाये, कहना मुश्िकल हो रहा था। भोजन भी खत्म होता जा रहा था। जहाज में ईंधन की भी कमी थी। एक-एक पल िबताना मुश्िकल हो रहा था। भगवान न करे िकसी दुश्मन को भी वैसे दिन देखने को िमले। परिवार से भी संपर्क टूट गया था। हमलोगों ने जिंदगी की आस ही छो़ड दी थी। मौत से जीतकर परिवार के बीच आने की जो खुशी हो रही है, उसे मैं शब्दों में बयां नहीं कर सकता'।
वे बताते हैं िक संतोष की मानें तो फ्लीटिशप कंपनी का यह जहाज 24 अगस्त को अमेिरका के हुस्टन बंदरगाह से रवाना हुआ था, उसे 19 िसतंबर को मुंबई पहुंचना था। 22-23 दिन बीत चुके थे। चालक दल के सभी सदस्य लंच की तैयारी में ही थे। स्वदेश पहुंचने की खुशी समुद्र की लहरों की तरह तरंगें मार रही थीं। अभी जहाज सोमालिया के िनकट पहुंचा ही था कि 15 िसतंबर को दोपहर करीब डे़ढ बजे अचानक जल दस्युओं ने हमला बोल िदया। दो स्पीड वोट पर सवार हिथयारबंद हमलावरों ने जहाज को अपने कब्जे में लेकर अंधाधुंध फायरिंग शुरू कर दी। लोग माजरे को समझ पाते, उसके पहले ही हमलावरों ने कैप्टन प्रभात कुमार गोयल समेत तीन सदस्यों को अपने कब्जे में ले िलया और धमकाते हुए इशारों में ही सोमालिया चलने को कहा। हालांिक वे नहीं जानते थे कि सोमालिया िकधर है? और न ही वे अंग्रेजी जानते थे। आपस में ही कुछ बातें करते थे। फिर क्या था? डरे-सहमे कैप्टन ने जहाज का रुख सोमालिया की ओर कर िदया। रास्ते भर अपह्र्ता गुस्साये स्वर में चालक दल के अन्य सदस्यों को धमकाते रहते। जब पूरी तरह से हमलोग उसके कब्जे में आ गये तब भी बराबर जगह बदलते रहे, शायद उन्हें भी डर था िक कहीं भारतीय नौसेना या अमेरिकी नेतृत्व वाली गठबंधन सेना उन पर हमला न कर दे। अंत में सुरक्षित ठिकाना समझकर हमलावरों ने आइल (सोमालिया) नामक स्थान पर सभी को िटकाये रखा। इस दौरान लगातार फिरौती के िलए दबाव बनाया जाता रहा। कैप्टन व चीफ इंजीिनयर के माध्यम से यागामारू टैंकर (मालवाहक जहाज का मािलक) के साथ ही फ्लीटिशप मैनेजमेंट कंपनी पर दबाव ब़ढता जा रहा था। शुरू में 6 मिलियन अमेरिकी डॉलर फिरौती की मांग की गयी जबकि िदल्ली में अखबारों से जानकारी मिली कि 2.5 मििलयन डॉलर पर कंपनी ने हमलोगों को छु़डाया। इस दौरान कई बार अमेरिकी नेतृत्व वाली गठबंधन सेना भी जहाज के नजदीक आती रही फिर भी मामला सुलझने की बजाय उलझता ही जा रहा था। भारतीय नौसेना का भी जहाज दूर में िदखाई देता था।
कैसे बीते वे िदन? इस पर उन्होंने कहा कि हमलावरों ने मानिसक प्रता़डना जरूर दी, कई बार ऐसी भी नौबत आई जब लगा िक अब जीना मुश्िकल है। वे इशारों-इशारों में ही गला काट लेने, गोिलयों से उ़डा देने आदि की धमिकयां देते रहे। 5 नवंबर को अपरािधयों ने कैप्टन गोयल, सेकेंड अफसर व चीफ इंजीिनयर को धमकाते हुए व्हील हाउस ले गये। थो़डी देर बाद ही गोिलयों की आवाज सुनी गयी। इससे सारे लोग सहम गये और िकसी अनहोनी की आशंका से भयभीत हो गये। इस दौरान सिफर् दाल व मछली खाकर अपनी जिंदगी गुजारी, क्योंिक खाना पहले ही खत्म हो चुका था, जो बचा था उसी में से शुरू के एक सप्ताह तक हमलावरों ने भी खाया।

मजबूत होते नक्सली

िसयासतदानों के भाषणों में नक्सलवाद को उखा़ड फेंकने के दावे तो कई बार किये गये पर यह उख़डने की बजाय तेजी से पसरता गया। िहन्दुस्तान के मानिचत्र पर 15 नवंबर,2000 को 28वें राज्य के रूप में झारखंड का उदय हुआ। झारखंड अब पूरे आठ साल का हो चुका है। इन आठ सालों में कई क्षेत्रों में बहुत कुछ बदला, लेकिन नहीं बदल सका तो वर्षों से चला आ रहा नक्सली आंदोलन का स्वरूप। उम्मीद तो यही की जा रही थी िक राज्य की िसयासतदान झारखंड में अपना नया रंग िदखाएंगे और खद्दर (खादी) के रास्ते नक्सलवाद धीरे-धीरे दम तो़ड देगा। लेिकन उम्मीद के उलट िपछले आठ सालों में मुख्यमंत्रियों के चार चेहरे बदले। लेकिन अफसोस की ये चारों मुख्यमंत्री झारखंड के नक्सली चेहरे को बदलने में नाकामयाब ही रहे। इन आठ सालोें में ही ऐसे हालात उत्पन्न हो गये िक नक्सिलयों की हिंसक तेवर से राजधानी रांची भी थर्राने लगी।
वैसे तो संयुक्त िबहार के झारखंड वाला िहस्सा पहले से ही नक्सलियों की िगरफ्त में रहा है लेकिन जिस तेजी से िपछले आठ सालों में नक्सलियों ने अपना दबदबा कायम िकया है। वह सरकार के िलए एक क़डी चुनौती बन गयी है। नवंबर, 2000 में प्रदेश के 18 िजलों में से 9 ही नक्सलियों की िगरफ्त मेंं थे, जहां उनकी अपनी अदालतें लगती थीं और नक्सिलयों की लाल सेना कानून को धत्त्ाा बताते हुए अपना फैसला सुनाया करती थी। तब नक्सिलयों का ध़डा भी बंटा हुआ था लेिकन नवंबर, 2004 में एमसीसी और पीपुल्सवार का िवलय हुआ और नयी माओवादी संगठन भाकपा (माओवादी) ब़डी ताकत के साथ उभरा। देखते ही देखते संपूर्ण झारखंड नक्सिलयों की आगोश में समा गया। आज हालात ऐसे हैं िक राज्य पुिलस के अलावा केन्द्रीय सुरक्षा बलों की तैनाती के बावजूद 24 में से 22 िजले नक्सलियों की िगरफ्त में आ गये हैं। इनमें से 16 िजलों में उनकी अपनी हुकूमत चल रही है। झारखंड का "चतरा' इलाका छत्त्ाीसग़ढ का "बस्तर' सािबत हो रहा है जहां के सुदूर इलाकों में दिन के उजाले में भी पुिलस जाने से कतराने लगी है। वहीं 120 से अिधक थाने नक्सलियों के ही रहमोकरम पर सुरिक्षत चल रहे हैं। मात्र आठ वर्षों में ही एक सांसद, दो विधायक, एक एसपी व दो डीएसपी समेत करीब 400 पुिलस व सुरक्षाबल नक्सलियों की गोलियों के िशकार हुए हैं। वहीं 900 आम नागरिक भी नक्सली हिंसा में मारे गये हैं। हालांिक नक्सिलयों के तांडव को रोकने के लिए सरकार ने भी दबिश बनाने की कोिशश की है। इस दौरान दर्जनों हार्डकोर नक्सली हिरासत में िलए गये हैं। फिर भी िजस तरीके से नक्सलियों का हिंसक तेवर िसयासतदानों को थर्रा रहा है उसके मुकाबले पुलिसिया दबिश बरसात में पानी के बुलबुले की तरह ही सािबत हो रही है।
आश्चर्य तो यह िक सरकार की सारी लोक-लुभावन घोषणाओें व योजनाओं को धत्त्ाा बताते हुए तेजी से मिहलाओं का भी नक्सिलयों के प्रित आकर्षण ब़ढा है। आिखर क्या कारण है िक इतने अल्प समय में ही ग्रामीण मिहलाएं व किशोर व्यवस्था को चुनौती देते फिर रहे हैं और अपनी आवाज हिंसक तेवर के साथ सुनाने को उतावले हैं। इस बाबत सामाजिक िवश्लेषक प्रो.रामदयाल मुंडा बताते हैं िक आठ साल बीतने के बावजूद सत्त्ाा की हुकूमत असली आदिवािसयों के हाथों में नहीं पहुंची है। चारों आेर लूट-खसोट मची हुई है। जबतक प्रदेश की हुकूमत साम्राज्यवादी पूंजी के इर्द-िगर्द मंडराती रहेगी, नक्सलवाद का वीभत्स चेहरा सामने आता जाएगा। प्रशासिनक उपेक्षाओं और पूंजीपितयों, ठेकेदारों और उद्योगपितयों के शोषण ने झारखंड के आिदवासी अंचलों में प्रितिक्रया के रूप में नक्सलवाद को सिक्रय होने का अवसर जुटाया है।
नक्सली िवद्रोह को सामाजिक-आिर्थक समस्या मानने वाले मुख्यमंत्री िशबू सोरेन एक ओर नक्सलियों को बातचीत के िलए खुला आमंत्रण देते फिर रहे हैं। वहीं दूसरी ओर झारखंड एवेन्यू, नारी मुिक्त संघ, क्रांितकारी किसान समिित व क्रांितकारी सांस्कृितक संघ जैसे लोकतांत्रिक अिधकारों की आवाज बुलंद करने वाले संगठनों को प्रितबंिधत करके कुछ दूसरा संदेश दे रहे हैं। पीयूसीएल के महासचिव शिशभूषण पाठक बताते हैं िक शुरू से ही शोिषतों, गरीबों की आवाज बंदूक के बल पर दबाया गया परिणामस्वरूप यहां के ग्रामीण भी हिथयार से लैस होते गये और अपनी आवाज बंदूक से सुना रहे हैं।
नक्सलियों के शिकार पुिलस व आम नागरिक (आंक़डों में)
वर्ष पुलिस आम नागरिक
2001---56
---------107
2002----69--------77
2003----20---------93
2004----45------106
2005----30------79
2006-----45-----93
2007------11-----175
2008(अक्तूबर तक)---34---124
क्षितग्रस्त सरकारी भवन
वर्ष
2002-----04
2003-----06
2004-----14
2005-----06
2006-----15
2007-----12
2008(अक्तूबर)----10
9 जुलाई,2008---झारखंड के बुरूहातू गांव में माओवािदयों ने पूर्व मंत्री व िवधायक रमेश सिंह मुंडा को गोली मार कर हत्या कर दी।
15 अप्रैल, 2008---माओवादी बंदी के दौरान झारखंड के चांिडल में दो आम लोगों की हत्या
26 अप्रैल, 2008---झारखंड के दुमका के िशकारीपा़डा इलाके मेें एक एएसआई, 3 पुलिसकर्मी मारे गये, 6 घायल।
8 अप्रैल,2008---माओवादी व शांितसेना के बीच आपसी झ़डप में शांितसेना के आठ लोग मारे गये। इसमें सेना प्रमुख भादो सिंह शामिल है।
एक अप्रैल, 2008---हजारीबाग के िबष्णुगढ इलाके में मुठभे़ड में 9 सीआरपीएफ मारे गये, 11 घायल वहीं दूसरी ओर, खूंटी िजले में 4 ग्रामीणों की हत्या माओवािदयों ने कर दी।
9 फरवरी, 2008---िगरीडीह के घने जंगलों में माओवािदयों ने परितांड थाने को उ़डा िदया वहीं सौ से अधिक पुलिसकर्मी दो दिनाें तक माओवादियों से िघरे रहे।
30 अगस्त, 2008---झारखंड के घाटिशला क्षेत्र में बारूदी सुरंग िवस्फोट में एक इंस्पेक्टर समेत 12 पुिलसकर्मी मारे गये।
(िशबू को सत्त्ाा संभालते ही माओवादियों ने िवस्फोट कर एक ब़डी चुनौती दी है। गौरतलब है कि माओवादियों ने यूपीए सरकार के न्यूक्लीयर डील के िवरोध मंें िहंसक वारदातों को अंजाम देने की पहले ही चेतावनी दे रखी है।)

छत्त्ाीसग़ढ में रमन प्रभाव

प्रदेश में न नक्सिलयों की चली और न ही कांग्रेसियों की बल्कि स्थानीय मुद्दों के सहारे भाजपा दूसरी बार सत्ता में लौटी है। 90 विधानसभा सीटों में से 50 सीटें भाजपा को मिली हैं। कांग्रेस की झोली में 37 सीटें गयी हैं। वैसे तो भाजपा को वर्ष 2003 के विधानसभा चुनाव में भी 50 सीटें हासिल हुई थीं और 39.26 फीसदी मत प्राप्त हुआ था वहीं इस बार उसका वोट बैंक ब़ढकर 40.36 फीसदी हो गया है। जबकि कांग्रेसी वोट बैंक में भी दो फीसदी की ब़ढोतरी हुई है। hलकी प्रदेश में सबसे अिधक मतों से जीतने वाले पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी ही रहे। मारवाही िवधानसभा सीट वे हैिट्रक बनाते हुए 42092 मतों से विजयी घोिषत हुए हैं। वहीं प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी ने भी अपनी उपस्िथित दर्ज कराने में सफल रही है। उसने दो सीटों पर अपना कब्जा जमाया है।
"चावल बाबा' के नाम से प्रिसद्ध हो चुके डा. रमन सिंह की राजनीति "चावल' के इर्द-िगर्द ही उफनती रही। "राम-कृष्ण हरे-हरे, कमल छाप घरे-घरे' के नारे लगाते हुए रमन मंत्रीमंडल ने गरीबों के लिए तीन रुपये के िहसाब से प्रितमाह 35 िकलोग्राम चावल देने का वायदा ही नहीं िकया बल्िक उसे पूरा भी किया। वहीं सरकार ने िकसानों के लिए अपनी पूरी झोली खोल दी और ब्याज दर 14 फीसदी से घटाकर तीन फीसदी कर दिया। इसका उसे फायदा भी हुआ। इसकेे अलावा महंगाई,गरीबों के साथ न्याय, गांवों के विकास व रोजगार के साथ ही नक्सलवाद का मुद्दा भी प्रभावी रहा। हालांिक कांग्रेस ने तीन रुपये के बदले दो रुपये चावल देने का वादा चुनावी घोषणा पत्र ने किया लेकिन भाजपा ने एक रुपये किलो चावल देने का गुगली फेंककर कांग्रेस को घेर लिया। वहीं रमन सिंह का सौम्य छवि भी कांग्रेस के िलए भारी प़डा। बतौर मुख्यमंत्री वे चुनावी सभाओं में गये जिसके सामने अजीत जोगी टिक नहीं सके। यही नहीं आपसी कलह की वजह से कांग्रेस न तो भ्रष्टाचार का मुद्दा सकी और न ही सत्त्ाा विरोधी लहर (एंटी इनकंबेन्सी ) का ही लाभ ले सकी। अनमने ढंग से ही सही लेिकन नक्सिलयों के मुद्दे पर मौन रहने वाली कांग्रेस पार्टी को नक्सल प्रभािवत क्षेत्रों में भी करारा झटका लगा और बस्तर, बीजापुर समेत अन्य क्षेत्रों में उसे मुंह की खानी प़डी। वहीं भाजपा के लिए सलवा जुडूम अिभयान रंग लाया। जहां उसे मतदाताओं का भरपूर समर्थन मिला। िवश्लेषकों का कहना है कि कांग्रेस ने मतदाताओं के सामने बेहतर िवकल्प पेश नहीं किया परिणामत: भाजपा को फायदा हुआ।
राज्य के इितहास मेें पहली बार बुलेट (नक्सली धमकी) पर बैलेट (लोकतंत्र) भारी रहा। सूबे के नक्सल प्रभािवत बस्तर, सरगुजा, बीजापुर व नारायणपुर समेत अन्य इलाकों में मतदाताओं ने भाजपा को जीताकर एक संदेश भी िदया है िक सरकार ने नक्सलियों के खिलाफ जो सलवा जुडूम अभियान चलाया था वह जनता के हितों की रक्षा के लिए ही था। इन इलाकाें में 61 फीसदी मतदान इस बात का गवाह है कि आने वाले िदनों में इस इलाके में लोकतंत्र का ही बयार बहेगा। सारे पूर्वानुमान को तो़डते हुए नक्सल प्रभािवत इलाकों में भाजपा की भारी जीत सूबे में ही नहीं, देशव्यापी राजनीितक प्रेक्षकों के सामने एक सवाल ख़डा कर दिया है। नक्सली प्रजातंत्र के िवरोधी तो रहे ही हैं। वे भाजपा को एक सांप्रदाियक पार्टी भी मानते रहे हैं। बावजूद इसके इस क्षेत्र में नक्सिलयों की ब़ढी गतिविधियों व वारदातों के बाद भी आिदवासी बहुल बस्तर के लोगों ने भाजपा को अपना िवश्वास देकर सबको चौंका दिया है। गौरतलब है िक चुनाव के पूर्व मानवािधकार संगठनों के यह दावा किया था िक नक्सली आतंक व सलवा जुडूम के कारण दिक्षणी बस्तर के ही 200 से अिधक गांव खाली हो गये हैं जबिक मतदान के बाद इस बात का खुलासा हुआ है िक पूरे बस्तर संभाग में 55 मतदान केन्द्रों पर ही नक्सलियों की धमकी का असर दिखा।
इस चुनाव में सरकार के खिलाफ माहौल नजर नहीं आया। फिर भी सरकार में शािमल कई िदग्गजों को हार का मुंह देखना प़डा। केन्द्रीय नेतृत्व लोकसभा चुनाव को देखते हुए अभी से ही आत्ममंथन में जुट गयी है। एक ओर जहां सत्त्ााधारियों में िवधानसभा अध्यक्ष प्रेम प्रकाश पांडेय, स्कूल िशक्षा मंत्री अजय चन्द्राकर, कृिष मंत्री मेघाराम साहू, आवास एवं पर्यावरण मंत्री गणोशराम भगत, सत्यानन्द राठिया चुनाव हार गये वहीं प्रदेश में नक्सलियों के घोर िवरोधी रहे कांग्रेसी नेता महेन्द्र सिंह कर्मा, कांग्रेस िवधायक दल के उपनेता भूपेश बघेल, प्रदेश कांग्रेस के कार्यकारी अध्यक्ष सत्यनारायण शर्मा को भी हार का मुंह देखना प़डा। राज्य के चुनावी इितहास में यह पहला मौका है जबिक चुनाव ल़डने वाले सभी प्रमुख दलों के प्रदेश अध्यक्षों को िशकस्त का सामना करना प़डा।
फिर भी भाजपा का यह जनादेश कांटों भरा ताज है। आने वाले दिनों में अपने चुनावी वायदे पर सरकार को खरा उतरना होगा तभी यह िवश्वास स्थायी जनाधार में तब्दील हो सकता है। सूबे के परिणाम ने स्पष्ट िकया है ब़डे चुनावी मुद्दे न ही राज्यों पर हावी होता है और ही राज्यों के मुद्दे लोकसभा चुनाव में ज्यादा कारगर सािबत हो सकते हैं।
िदग्गज हारे
भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष िवष्णुदेव साय
कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष धनेन्द्र साहू
एनसीपी के प्रदेश अध्यक्ष नोबेल वर्मा
िवधानसभा अध्यक्ष प्रेम प्रकाश पांडेय
नेता प्रितपक्ष महेन्द्र सिंह कर्मा
कांग्रेस के कार्यकारी अध्यक्ष सत्यनारायण शर्मा
कांग्रेस विधायक दल के उपनेता भूपेश बघेल
स्कूल िशक्षा मंत्री अजय चन्द्राकर
कृिष मंत्री मेघाराम साहू
आवास एवं पर्यावरण मंत्री गणोशराम भगत
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िदग्गज जीते
राजनांदगाव से मुख्यमंत्री रमन सिंह विजयी
मरवाही से पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी विजयी
कोटा से कांग्रेस की डा. रेणु जोगी विजयी
रामविचार नेमात (गृहमंत्री)
बृजमोहन अग्रवाल (रायपुर दक्षिण), राजस्व मंत्री
अमर अग्रवाल (बिलासपुर), नगरीय प्रशासन मंत्री
राजेश मूणत (रायपुर पश्िचम) पीडब्लूडी मंत्री
दुर्ग से भाजपा के हेमचंद यादव
िबलासपुर िसटी से भाजपा के अमर अग्रवाल
कांकेर से भाजपा की सुिमत्रा मरकोले
दंतेवा़डा से भाजपा के भीमा मांडवी ने
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संकट में माओवादी राजनीति

रोल्पा में नेपाली सरकार की नहीं, आज भी माओवादियों की सत्ता है। इस जिले में न तो सरकार की नीतियां लागू हैं और न ही सरकारी कायदे कानून। कमोवेश यही स्थिति रुकुम, डोल्पा, जाजरकोट, चितवन, दैलेख, उदयपुर, सिन्धुली समेत पश्चिमांचल से लेकर पूर्वांचल तक के 60 जिलों की है। लगातार 10 वर्षों तक राजशाही को चुनौती देने वाले नेपाली छापामार इन दिनों पूरी तरह से बेरोजगार हो चुके हैं। इनकी बेरोजगारी पार्टी को गहरे राजनीतिक संकट में डाल दिया है। एक ओर प्रचंड गठबंधन धर्म निभाने में लगे हैं वहीं दूसरी ओर उन्हें पार्टी के आंतरिक संघर्ष से भी दो-चार होना पड़ रहा है।
पार्टी के तीन बड़े नेताओं पुष्प कमल दहल "प्रचंड', बाबूराम भट्टाराई औैर रामबहादुर थापा उर्फ बादल के सरकार में शामिल होने के बाद पोलित ब्यूरो में बचे हुए लोग चाहते हैं कि पार्टी का नेतृत्व उनके हाथों में सौंप दिया जाए। इस दौर में गुरिल्ला आर्मी की ओर से कृष्णबहादुर महरा और मोहन वैद्य उर्फ किरन सबसे आगे चल रहे हैं। ये दोनोंं नेता कट्टर माओवादी व हार्डकोर सदस्य माने जाते हैं। सूत्रों का कहना है कि गुरिल्ला कैम्पों में रह रहे लगभग 20 हजार महिला-पुरुष छापामारों पर दोनों नेताओं का काफी असर है। इनके समर्थकों का मानना है कि प्रचंड "जनयुद्ध' से अपना ध्यान पूरी तरह से हटा लिये हैं और "संसदीय राजनीति' के कुचक्र में फंसते चले जा रहे हैं। नेपाली मीडिया का भी कहना है कि प्रचंड इन दिनों गहरे राजनीतिक संकट के दौर से गुजर रहे हैं। यह संकट सरकार में शामिल सहयोगी दलों से भी है और अपनी पार्टी से भी। पार्टी के आंतरिक विद्रोहियों का कहना है कि प्रचंड पूरी तरह से संशोधनवादी लाइन अख्तियार करते जा रहे हैं। (मार्क्सवादियों की भाषा में कम्युनिस्टों के लिए संशोधनवाद एक गाली है।) आश्चर्य तो यह कि कभी नेपाली माओवादी पार्टी 1974 के बाद के चीनी कम्युनिस्ट पार्टी को संशोधनवादी घोषित की थी। लेकिन बदले माहौल में प्रचंड ही संशोधनवादी करार दिये जा रहे हैं। प्रचंड विरोधी खेमे के तेवर को देखते हुए कहा जा सकता है कि आने वाले दिनों में अगर प्रचंड गुरिल्ला आर्मी और माओवादियों द्वारा जब्त किये गये भू-माफियाओं की संपत्तियों पर जल्द कोई कारगर निर्णय नहीं लिए, तो हो सकता है कि प्रचंड स्वयं सशस्त्र संघर्ष करने वाले माओवादी पार्टी से ही अलग-थलग नहीं पड़ जाएं। इसके संकेत भी दिखने लगे हैं। सरकार चलाने में मशगूल दिख रहे प्रचंड अब तक न तो शिविरों में रह रहे छापामार लड़ाकों के लिए कोई ठोस निर्णय नहीं ले पाए हैं और न ही समान भूमि वितरण के बारे में उनकी कोई सोच दिख रही है। प्रचंड के विरोधियों का कहना है कि सरकार के पास विकास की स्पष्ट कोई नीति नहीं दिख रही है और न ही वह बाहरी निवेशकों को आकर्षित करने में सफल रहे हैं। देश में जमींदारों की संख्या सैैंकड़ों में हैं जिनके पास खेती योग्य 65 फीसद भूमि हैं। इन खेतिहर जमीनों पर माओवादियों का अवैध कब्जा अभी भी बरकरार है। देशवासी घोर बिजली संकट झेल रहा है। 70 फीसद आबादी आज भी गरीबी रेखा से नीचे जी रही है। 85 फीसद लोग आज भी गांवों में रह रही है। देशवासी पीने के पानी और सफाई व रोजी-रोजगार की बुनियादी सुविधाओं का नामोनिशान नहीं है।
कुछ दिनों पहले ही पार्टी की केन्द्रीय कमिटी की बैठक में "जनवादी लोकतंत्र' और पार्टी के नाम पर प्रचंड लाइन का 11 में से 8 सदस्यों ने जमकर विरोध किया। बावजूद इसके इन विरोधों का प्रचंड पर कोई असर नहीं दिख रहा है। इस बाबत उन्होंने कहा कि जब वर्ष 2005 में पार्टी भूमिगत संघर्ष छोड़कर राजशाही के खात्मे के लिए सड़कों पर निकली थी तब भी कुछ इसी तरह के कयास लगाये जा रहे थे कि पार्टी अब टूटी, तब टूटी। लेकिन जब उस समय ऐसे विरोध का कोई असर नहीं हुआ तब अब क्या होगा। प्रचंड चाहे जो भी कहें लेकिन इस सच्चाई से कौन इनकार कर सकता है कि जो युवा बंदूक के सहारे व्यवस्था परिर्वतन करने का सपना देखकर "जनयुद्ध' में शामिल हुए थे। जिन लोगों ने "जनयुद्ध' में अपनी पूरी ताकत झोंकी थी और करीब 13 हजार लोगों की शहादतों का लाभ आखिर संसदीय राजनीति करने वाले कैसे उठा सकते हैं। किरन समेत अन्य विरोधियों को मिल सकता है।
हाल ही में प्रचंड में नेपालगंज के एक सभा में कहा, "सरकार चलाने से आसान है बंदूक के सहारे क्रांति करना।' वैसे तो इस बयान से प्रचंड एक ही साथ कई निशाने साधने की कोशिश में थे लेकिन पार्टी के अंदर इस बात से एक बार फिर भूचाल आ गया है। इसी सभा में उन्होंने आगे कहा,"जब पार्टी सत्ता में होती है, ऐसे मतभेद आते ही रहते हैं। प्रचंड ने कहा कि मैं अंतरराष्ट्रीय समुदाय को बता चुका हूं कि माओवादियों को सिर्फ देश की चिंता है और वे लोकतांत्रिक मूल्यों का आदर करते हैं।' फिर भी पार्टी के अंदर उठे राजनीतिक भूचाल जब शांत होता नहीं दिखा तो उन्होंने एक सार्वजनिक सभा में अपने इस्तीफे की धमकी भी दे डाली। अब तक नेपाली प्रधानमंत्री प्रचंड ऐसी चार बार धमकियां दे चुके हैं।
एक ओर प्रचंड संसदीय रास्ते से क्रांति का राग अलापने में लगे हैं वहीं कट्टरपंथियों के आगे उनकी बेबसी भी साफ झलक रही है। जब वे नेपालगंज में जनता को सत्ता चलाने के गुर सिखला रहे थे। उसके कुछ दिनों के बाद काठमांडू में कम्युनिस्ट युवा लीग के दर्जनभर समर्थकों ने "हिमालयन टाइम्स' के दफ्तर में धावा बोलकर संपादक समेत अन्य मीडियकर्मियों को मारा-पीटा। इसका नेपाल में खासा विरोध हुआ। बावजूद इसके प्रचंड राजनीतिक बयान देकर इस मामले में माओवादियोंे का हाथ होने से इंकार करते रहे। लेकिन जब मीडिय समेत अन्य नेपाली समुदाय का दबाव काफी बढ़ गया तो उन्हें दबाव में आकर इस घटना की जांच की घोषणा करनी पड़ी। यह तो एक उदाहरण मात्र है। नेपाल के सुदूर इलाकों में संघर्ष के दिनों की तरह ही अभी भी माओवादी बेलगाम होकर हिंसक वारदातों को अंजाम दे रहे हैं।
दक्षिणी तराई क्षेत्र समेत कई ऐसे इलाके हैं जहां इन दिनों घोर अशांति छाई हुई है। यहां माओवादियों का आतंक इस कदर बढ़ गया है कि कानून-व्यवस्था की स्थापना के लिए गुरिल्ला सेना के उप कमांडर रह चुके जनार्दन शर्मा के नेतृत्व में एक सप्ताह पहले ही जनतांत्रिक तराई मुक्ति मोर्चा के बीच पांच सूत्री एक समझौता पत्र पर हस्ताक्षर हुआ है। आंतरिक सूत्रों का कहना है कि प्रचंड माओवादियों के वैसे सारे कैडरों से गुप्त बाचचीत की फिराक में हैं जो हथियार छोड़ना चाहते हैं। ऐसी स्थिति में माओवादियों का आतंरिक संकट किस करवट मोड़ लेगा फिलहाल कहना मुश्किल है।
नवंबर महीने में ही पार्टी का राष्ट्रीय सम्मेलन हुआ। इसमें भी दोहरा संघर्ष (टू लाइन स्ट्रगल) उभरकर सामने आया। इसके पहले भी केन्द्रीय कमिटी की बैठक में प्रचंड 11 में से 8 सदस्यों ने प्रचंड लाइन का विरोध किया था। इस बाबत मोहन वैद्य का कहना है कि जनवादी लोकतंत्र (साम्यवाद) के लिए ही करीब 13 हजार माओवादियों ने अपने प्राणों को न्योक्षावर किया है। न की मिश्रित अर्थव्यवस्था के लिए। जिसके प्रचंड हिमायती हैं।
अब सवाल उठता है कि शिविरों में रह रहे छापामारों पर इस बयान का असर किस रूप में पड़ता है। क्योंकि छापामारों को प्रचंड ने चीनी कम्युनिस्ट नेता माओत्सेतुऽग के नारे को सिखलाया था,"सत्ता बंदूक की नली से निकलती है।' इस नारे को शिविरों में रह रहे हजारों लड़ाके अभी भी नहीं भूले हैं। नाम नहीं छापने की शर्त्त पर एक माओवादी छापामार ने बताया कि सोवियत नेता लेनिन ने यह भी कहा था कि नेताआें पर बराबर दुश्मन की निगाह रखना चाहिए। शायद कुछ हद तक माओवादियों की गुरिल्ला आर्मी प्रचंड पर पैनी निगाहें रख रही है।
इधर नेपाली माओवादी पार्टी की हर गतिविधियों पर भारतीय माओवादियों की भी पैनी निगाहें हैं। भारतीय माओवादी अभी भी प्रचंड लाइन के विरोधी हैं और सशस्त्र विद्रोह छेड़े हुए हैं। यही नहीं सूत्रों का कहना है कि नेपाली माओवादी के दूसरे गुट (हार्डकोर) से भारतीय माओवादियों का संपर्क लगातार बढ़ते जा रहा है। फिर भी प्रचंड लाइन पर भारतीय माओवादी दो खेमों में दिख रहे हैं। बिहार-बंगाल स्पेशल एरिया कमिटी के सचिव रहे माओवादी राजनीति के समर्थक व बंदी मुक्ति संग्राम समिति के अध्यक्ष पूर्व विधायक रामाधार सिंह कहते हैं कि दुनिया में प्रचंडवाद स्वीकार्य नहीं हो सकता। क्योंकि कभी सर्वहारा क्रांति का राग अलापने वाले प्रचंड इन दिनों संसदीय राग अलापने लगे हैं। वहीं नाम नहीं छापने की शर्त पर एक वरिष्ठ भारतीय माओवादी बताता है कि संघर्ष की भी एक सीमा होती है। जनता के सामने राजशाही का खात्मा असली मुद्दा था। अब जबकि राजशाही खत्म हो चुकी है। कयास लगाए जा रहे हैं कि शायद दूसरे चरण में वहां भी माओत्सेतुऽग की तरह सांस्कृतिक क्रांति की ओर प्रचंड बढ़े।

Wednesday, December 10, 2008

chhatishgarg में रमन प्रभाव

प्रदेश में न नक्सिलयों की चली और न ही कांग्रेिसयों की बल्िक स्थानीय मुद्दों के सहारे भाजपा दूसरी बार सत्त्ाा में लौटी है। 90 विधानसभा सीटों में से 50 सीटें भाजपा को मिली हैं। कांग्रेस की झोली में 37 सीटें गयी हैं। वैसे तो भाजपा को वर्ष 2003 के विधानसभा चुनाव में भी 50 सीटें हािसल हुई थीं और 39.26 फीसदी मत प्राप्त हुआ था वहीं इस बार उसका वोट बैंक ब़ढकर 40.36 फीसदी हो गया है। जबकि कांग्रेसी वोट बैंक में भी दो फीसदी की ब़ढोतरी हुई है। हालांिक प्रदेश में सबसे अिधक मतों से जीतने वाले पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी ही रहे। मारवाही िवधानसभा सीट वे हैिट्रक बनाते हुए 42092 मतों से विजयी घोिषत हुए हैं। वहीं प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी ने भी अपनी उपस्िथित दर्ज कराने में सफल रही है। उसने दो सीटों पर अपना कब्जा जमाया है।
"चावल बाबा' के नाम से प्रिसद्ध हो चुके डा. रमन सिंह की राजनीति "चावल' के इर्द-िगर्द ही उफनती रही। "राम-कृष्ण हरे-हरे, कमल छाप घरे-घरे' के नारे लगाते हुए रमन मंत्रीमंडल ने गरीबों के लिए तीन रुपये के िहसाब से प्रितमाह 35 िकलोग्राम चावल देने का वायदा ही नहीं िकया बल्िक उसे पूरा भी किया। वहीं सरकार ने िकसानों के लिए अपनी पूरी झोली खोल दी और ब्याज दर 14 फीसदी से घटाकर तीन फीसदी कर दिया। इसका उसे फायदा भी हुआ। इसकेे अलावा महंगाई,गरीबों के साथ न्याय, गांवों के विकास व रोजगार के साथ ही नक्सलवाद का मुद्दा भी प्रभावी रहा। हालांिक कांग्रेस ने तीन रुपये के बदले दो रुपये चावल देने का वादा चुनावी घोषणा पत्र ने किया लेकिन भाजपा ने एक रुपये किलो चावल देने का गुगली फेंककर कांग्रेस को घेर लिया। वहीं रमन सिंह का सौम्य छवि भी कांग्रेस के िलए भारी प़डा। बतौर मुख्यमंत्री वे चुनावी सभाओं में गये जिसके सामने अजीत जोगी टिक नहीं सके। यही नहीं आपसी कलह की वजह से कांग्रेस न तो भ्रष्टाचार का मुद्दा सकी और न ही सत्त्ाा विरोधी लहर (एंटी इनकंबेन्सी ) का ही लाभ ले सकी। अनमने ढंग से ही सही लेिकन नक्सिलयों के मुद्दे पर मौन रहने वाली कांग्रेस पार्टी को नक्सल प्रभािवत क्षेत्रों में भी करारा झटका लगा और बस्तर, बीजापुर समेत अन्य क्षेत्रों में उसे मुंह की खानी प़डी। वहीं भाजपा के लिए सलवा जुडूम अिभयान रंग लाया। जहां उसे मतदाताओं का भरपूर समर्थन मिला। िवश्लेषकों का कहना है कि कांग्रेस ने मतदाताओं के सामने बेहतर िवकल्प पेश नहीं किया परिणामत: भाजपा को फायदा हुआ।
राज्य के इितहास मेें पहली बार बुलेट (नक्सली धमकी) पर बैलेट (लोकतंत्र) भारी रहा। सूबे के नक्सल प्रभािवत बस्तर, सरगुजा, बीजापुर व नारायणपुर समेत अन्य इलाकों में मतदाताओं ने भाजपा को जीताकर एक संदेश भी िदया है िक सरकार ने नक्सलियों के खिलाफ जो सलवा जुडूम अभियान चलाया था वह जनता के हितों की रक्षा के लिए ही था। इन इलाकाें में 61 फीसदी मतदान इस बात का गवाह है कि आने वाले िदनों में इस इलाके में लोकतंत्र का ही बयार बहेगा। सारे पूर्वानुमान को तो़डते हुए नक्सल प्रभािवत इलाकों में भाजपा की भारी जीत सूबे में ही नहीं, देशव्यापी राजनीितक प्रेक्षकों के सामने एक सवाल ख़डा कर दिया है। नक्सली प्रजातंत्र के िवरोधी तो रहे ही हैं। वे भाजपा को एक सांप्रदाियक पार्टी भी मानते रहे हैं। बावजूद इसके इस क्षेत्र में नक्सिलयों की ब़ढी गतिविधियों व वारदातों के बाद भी आदवासी बहुल बस्तर के लोगों ने भाजपा को अपना िवश्वास देकर सबको चौंका दिया है। गौरतलब है िक चुनाव के पूर्व मानवािधकार संगठनों के यह दावा किया था िक नक्सली आतंक व सलवा जुडूम के कारण दिक्षणी बस्तर के ही 200 से अिधक गांव खाली हो गये हैं जबिक मतदान के बाद इस बात का खुलासा हुआ है िक पूरे बस्तर संभाग में 55 मतदान केन्द्रों पर ही नक्सलियों की धमकी का असर दिखा।
इस चुनाव में सरकार के खिलाफ माहौल नजर नहीं आया। फिर भी सरकार में शािमल कई िदग्गजों को हार का मुंह देखना प़डा। केन्द्रीय नेतृत्व लोकसभा चुनाव को देखते हुए अभी से ही आत्ममंथन में जुट गयी है। एक ओर जहां सत्त्ााधारियों में िवधानसभा अध्यक्ष प्रेम प्रकाश पांडेय, स्कूल िशक्षा मंत्री अजय चन्द्राकर, कृिष मंत्री मेघाराम साहू, आवास एवं पर्यावरण मंत्री गणोशराम भगत, सत्यानन्द राठिया चुनाव हार गये वहीं प्रदेश में नक्सलियों के घोर िवरोधी रहे कांग्रेसी नेता महेन्द्र सिंह कर्मा, कांग्रेस िवधायक दल के उपनेता भूपेश बघेल, प्रदेश कांग्रेस के कार्यकारी अध्यक्ष सत्यनारायण शर्मा को भी हार का मुंह देखना प़डा। राज्य के चुनावी इितहास में यह पहला मौका है जबिक चुनाव ल़डने वाले सभी प्रमुख दलों के प्रदेश अध्यक्षों को िशकस्त का सामना करना प़डा।
फिर भी भाजपा का यह जनादेश कांटों भरा ताज है। आने वाले दिनों में अपने चुनावी वायदे पर सरकार को खरा उतरना होगा तभी यह िवश्वास स्थायी जनाधार में तब्दील हो सकता है। सूबे के परिणाम ने स्पष्ट िकया है ब़डे चुनावी मुद्दे न ही राज्यों पर हावी होता है और ही राज्यों के मुद्दे लोकसभा चुनाव में ज्यादा कारगर सािबत हो सकते हैं।
िदग्गज हारे
भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष िवष्णुदेव साय
कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष धनेन्द्र साहू
एनसीपी के प्रदेश अध्यक्ष नोबेल वर्मा
िवधानसभा अध्यक्ष प्रेम प्रकाश पांडेय
नेता प्रितपक्ष महेन्द्र सिंह कर्मा
कांग्रेस के कार्यकारी अध्यक्ष सत्यनारायण शर्मा
कांग्रेस विधायक दल के उपनेता भूपेश बघेल
स्कूल िशक्षा मंत्री अजय चन्द्राकर
कृिष मंत्री मेघाराम साहू
आवास एवं पर्यावरण मंत्री गणोशराम भगत
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िदग्गज जीते
राजनांदगाव से मुख्यमंत्री रमन सिंह विजयी
मरवाही से पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी विजयी
कोटा से कांग्रेस की डा. रेणु जोगी विजयी
रामविचार नेमात (गृहमंत्री)
बृजमोहन अग्रवाल (रायपुर दक्षिण), राजस्व मंत्री
अमर अग्रवाल (बिलासपुर), नगरीय प्रशासन मंत्री
राजेश मूणत (रायपुर पश्िचम) पीडब्लूडी मंत्री
दुर्ग से भाजपा के हेमचंद यादव
िबलासपुर िसटी से भाजपा के अमर अग्रवाल
कांकेर से भाजपा की सुिमत्रा मरकोले
दंतेवा़डा से भाजपा के भीमा मांडवी
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