Tuesday, December 30, 2008

संकट में माओवादी राजनीति

रोल्पा में नेपाली सरकार की नहीं, आज भी माओवादियों की सत्ता है। इस जिले में न तो सरकार की नीतियां लागू हैं और न ही सरकारी कायदे कानून। कमोवेश यही स्थिति रुकुम, डोल्पा, जाजरकोट, चितवन, दैलेख, उदयपुर, सिन्धुली समेत पश्चिमांचल से लेकर पूर्वांचल तक के 60 जिलों की है। लगातार 10 वर्षों तक राजशाही को चुनौती देने वाले नेपाली छापामार इन दिनों पूरी तरह से बेरोजगार हो चुके हैं। इनकी बेरोजगारी पार्टी को गहरे राजनीतिक संकट में डाल दिया है। एक ओर प्रचंड गठबंधन धर्म निभाने में लगे हैं वहीं दूसरी ओर उन्हें पार्टी के आंतरिक संघर्ष से भी दो-चार होना पड़ रहा है।
पार्टी के तीन बड़े नेताओं पुष्प कमल दहल "प्रचंड', बाबूराम भट्टाराई औैर रामबहादुर थापा उर्फ बादल के सरकार में शामिल होने के बाद पोलित ब्यूरो में बचे हुए लोग चाहते हैं कि पार्टी का नेतृत्व उनके हाथों में सौंप दिया जाए। इस दौर में गुरिल्ला आर्मी की ओर से कृष्णबहादुर महरा और मोहन वैद्य उर्फ किरन सबसे आगे चल रहे हैं। ये दोनोंं नेता कट्टर माओवादी व हार्डकोर सदस्य माने जाते हैं। सूत्रों का कहना है कि गुरिल्ला कैम्पों में रह रहे लगभग 20 हजार महिला-पुरुष छापामारों पर दोनों नेताओं का काफी असर है। इनके समर्थकों का मानना है कि प्रचंड "जनयुद्ध' से अपना ध्यान पूरी तरह से हटा लिये हैं और "संसदीय राजनीति' के कुचक्र में फंसते चले जा रहे हैं। नेपाली मीडिया का भी कहना है कि प्रचंड इन दिनों गहरे राजनीतिक संकट के दौर से गुजर रहे हैं। यह संकट सरकार में शामिल सहयोगी दलों से भी है और अपनी पार्टी से भी। पार्टी के आंतरिक विद्रोहियों का कहना है कि प्रचंड पूरी तरह से संशोधनवादी लाइन अख्तियार करते जा रहे हैं। (मार्क्सवादियों की भाषा में कम्युनिस्टों के लिए संशोधनवाद एक गाली है।) आश्चर्य तो यह कि कभी नेपाली माओवादी पार्टी 1974 के बाद के चीनी कम्युनिस्ट पार्टी को संशोधनवादी घोषित की थी। लेकिन बदले माहौल में प्रचंड ही संशोधनवादी करार दिये जा रहे हैं। प्रचंड विरोधी खेमे के तेवर को देखते हुए कहा जा सकता है कि आने वाले दिनों में अगर प्रचंड गुरिल्ला आर्मी और माओवादियों द्वारा जब्त किये गये भू-माफियाओं की संपत्तियों पर जल्द कोई कारगर निर्णय नहीं लिए, तो हो सकता है कि प्रचंड स्वयं सशस्त्र संघर्ष करने वाले माओवादी पार्टी से ही अलग-थलग नहीं पड़ जाएं। इसके संकेत भी दिखने लगे हैं। सरकार चलाने में मशगूल दिख रहे प्रचंड अब तक न तो शिविरों में रह रहे छापामार लड़ाकों के लिए कोई ठोस निर्णय नहीं ले पाए हैं और न ही समान भूमि वितरण के बारे में उनकी कोई सोच दिख रही है। प्रचंड के विरोधियों का कहना है कि सरकार के पास विकास की स्पष्ट कोई नीति नहीं दिख रही है और न ही वह बाहरी निवेशकों को आकर्षित करने में सफल रहे हैं। देश में जमींदारों की संख्या सैैंकड़ों में हैं जिनके पास खेती योग्य 65 फीसद भूमि हैं। इन खेतिहर जमीनों पर माओवादियों का अवैध कब्जा अभी भी बरकरार है। देशवासी घोर बिजली संकट झेल रहा है। 70 फीसद आबादी आज भी गरीबी रेखा से नीचे जी रही है। 85 फीसद लोग आज भी गांवों में रह रही है। देशवासी पीने के पानी और सफाई व रोजी-रोजगार की बुनियादी सुविधाओं का नामोनिशान नहीं है।
कुछ दिनों पहले ही पार्टी की केन्द्रीय कमिटी की बैठक में "जनवादी लोकतंत्र' और पार्टी के नाम पर प्रचंड लाइन का 11 में से 8 सदस्यों ने जमकर विरोध किया। बावजूद इसके इन विरोधों का प्रचंड पर कोई असर नहीं दिख रहा है। इस बाबत उन्होंने कहा कि जब वर्ष 2005 में पार्टी भूमिगत संघर्ष छोड़कर राजशाही के खात्मे के लिए सड़कों पर निकली थी तब भी कुछ इसी तरह के कयास लगाये जा रहे थे कि पार्टी अब टूटी, तब टूटी। लेकिन जब उस समय ऐसे विरोध का कोई असर नहीं हुआ तब अब क्या होगा। प्रचंड चाहे जो भी कहें लेकिन इस सच्चाई से कौन इनकार कर सकता है कि जो युवा बंदूक के सहारे व्यवस्था परिर्वतन करने का सपना देखकर "जनयुद्ध' में शामिल हुए थे। जिन लोगों ने "जनयुद्ध' में अपनी पूरी ताकत झोंकी थी और करीब 13 हजार लोगों की शहादतों का लाभ आखिर संसदीय राजनीति करने वाले कैसे उठा सकते हैं। किरन समेत अन्य विरोधियों को मिल सकता है।
हाल ही में प्रचंड में नेपालगंज के एक सभा में कहा, "सरकार चलाने से आसान है बंदूक के सहारे क्रांति करना।' वैसे तो इस बयान से प्रचंड एक ही साथ कई निशाने साधने की कोशिश में थे लेकिन पार्टी के अंदर इस बात से एक बार फिर भूचाल आ गया है। इसी सभा में उन्होंने आगे कहा,"जब पार्टी सत्ता में होती है, ऐसे मतभेद आते ही रहते हैं। प्रचंड ने कहा कि मैं अंतरराष्ट्रीय समुदाय को बता चुका हूं कि माओवादियों को सिर्फ देश की चिंता है और वे लोकतांत्रिक मूल्यों का आदर करते हैं।' फिर भी पार्टी के अंदर उठे राजनीतिक भूचाल जब शांत होता नहीं दिखा तो उन्होंने एक सार्वजनिक सभा में अपने इस्तीफे की धमकी भी दे डाली। अब तक नेपाली प्रधानमंत्री प्रचंड ऐसी चार बार धमकियां दे चुके हैं।
एक ओर प्रचंड संसदीय रास्ते से क्रांति का राग अलापने में लगे हैं वहीं कट्टरपंथियों के आगे उनकी बेबसी भी साफ झलक रही है। जब वे नेपालगंज में जनता को सत्ता चलाने के गुर सिखला रहे थे। उसके कुछ दिनों के बाद काठमांडू में कम्युनिस्ट युवा लीग के दर्जनभर समर्थकों ने "हिमालयन टाइम्स' के दफ्तर में धावा बोलकर संपादक समेत अन्य मीडियकर्मियों को मारा-पीटा। इसका नेपाल में खासा विरोध हुआ। बावजूद इसके प्रचंड राजनीतिक बयान देकर इस मामले में माओवादियोंे का हाथ होने से इंकार करते रहे। लेकिन जब मीडिय समेत अन्य नेपाली समुदाय का दबाव काफी बढ़ गया तो उन्हें दबाव में आकर इस घटना की जांच की घोषणा करनी पड़ी। यह तो एक उदाहरण मात्र है। नेपाल के सुदूर इलाकों में संघर्ष के दिनों की तरह ही अभी भी माओवादी बेलगाम होकर हिंसक वारदातों को अंजाम दे रहे हैं।
दक्षिणी तराई क्षेत्र समेत कई ऐसे इलाके हैं जहां इन दिनों घोर अशांति छाई हुई है। यहां माओवादियों का आतंक इस कदर बढ़ गया है कि कानून-व्यवस्था की स्थापना के लिए गुरिल्ला सेना के उप कमांडर रह चुके जनार्दन शर्मा के नेतृत्व में एक सप्ताह पहले ही जनतांत्रिक तराई मुक्ति मोर्चा के बीच पांच सूत्री एक समझौता पत्र पर हस्ताक्षर हुआ है। आंतरिक सूत्रों का कहना है कि प्रचंड माओवादियों के वैसे सारे कैडरों से गुप्त बाचचीत की फिराक में हैं जो हथियार छोड़ना चाहते हैं। ऐसी स्थिति में माओवादियों का आतंरिक संकट किस करवट मोड़ लेगा फिलहाल कहना मुश्किल है।
नवंबर महीने में ही पार्टी का राष्ट्रीय सम्मेलन हुआ। इसमें भी दोहरा संघर्ष (टू लाइन स्ट्रगल) उभरकर सामने आया। इसके पहले भी केन्द्रीय कमिटी की बैठक में प्रचंड 11 में से 8 सदस्यों ने प्रचंड लाइन का विरोध किया था। इस बाबत मोहन वैद्य का कहना है कि जनवादी लोकतंत्र (साम्यवाद) के लिए ही करीब 13 हजार माओवादियों ने अपने प्राणों को न्योक्षावर किया है। न की मिश्रित अर्थव्यवस्था के लिए। जिसके प्रचंड हिमायती हैं।
अब सवाल उठता है कि शिविरों में रह रहे छापामारों पर इस बयान का असर किस रूप में पड़ता है। क्योंकि छापामारों को प्रचंड ने चीनी कम्युनिस्ट नेता माओत्सेतुऽग के नारे को सिखलाया था,"सत्ता बंदूक की नली से निकलती है।' इस नारे को शिविरों में रह रहे हजारों लड़ाके अभी भी नहीं भूले हैं। नाम नहीं छापने की शर्त्त पर एक माओवादी छापामार ने बताया कि सोवियत नेता लेनिन ने यह भी कहा था कि नेताआें पर बराबर दुश्मन की निगाह रखना चाहिए। शायद कुछ हद तक माओवादियों की गुरिल्ला आर्मी प्रचंड पर पैनी निगाहें रख रही है।
इधर नेपाली माओवादी पार्टी की हर गतिविधियों पर भारतीय माओवादियों की भी पैनी निगाहें हैं। भारतीय माओवादी अभी भी प्रचंड लाइन के विरोधी हैं और सशस्त्र विद्रोह छेड़े हुए हैं। यही नहीं सूत्रों का कहना है कि नेपाली माओवादी के दूसरे गुट (हार्डकोर) से भारतीय माओवादियों का संपर्क लगातार बढ़ते जा रहा है। फिर भी प्रचंड लाइन पर भारतीय माओवादी दो खेमों में दिख रहे हैं। बिहार-बंगाल स्पेशल एरिया कमिटी के सचिव रहे माओवादी राजनीति के समर्थक व बंदी मुक्ति संग्राम समिति के अध्यक्ष पूर्व विधायक रामाधार सिंह कहते हैं कि दुनिया में प्रचंडवाद स्वीकार्य नहीं हो सकता। क्योंकि कभी सर्वहारा क्रांति का राग अलापने वाले प्रचंड इन दिनों संसदीय राग अलापने लगे हैं। वहीं नाम नहीं छापने की शर्त पर एक वरिष्ठ भारतीय माओवादी बताता है कि संघर्ष की भी एक सीमा होती है। जनता के सामने राजशाही का खात्मा असली मुद्दा था। अब जबकि राजशाही खत्म हो चुकी है। कयास लगाए जा रहे हैं कि शायद दूसरे चरण में वहां भी माओत्सेतुऽग की तरह सांस्कृतिक क्रांति की ओर प्रचंड बढ़े।

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