Thursday, April 30, 2009

तिकड़ी नेताओं की अिग्नपरीक्षा

सियासत आैर गंगा नदी का पुराना रिश्ता रहा है। कभी बिहार की कुर्सी पर विराजमान होने को लालायित सियासतदान मुख्यमंत्री की कुर्सी हथियाने के लिए गंगा में फेंकवाने की धमकी विधायकों को दिया करते थे। लेकिन पंद्रहवीं लोकसभा चुनाव में उल्टा हो रहा है। परिसीमन के बाद बदली हुई परििस्थति में दियारा इलाके के मतदाता सियासी चाल चलने वाले नेताओं को धमकाते फिर रहे हैं। संयोग से सूबे के चाैथे चरण में होने वाले पाटलिपुत्र, पटना साहिब आैर नालंदा लोकसभा सीटेंे गंगा के दियारा को छूता हुआ आगे बढ़ते हंै। इन तीनों सीटों पर देश की निगाहें टिकी हुई हैं। वह इसलिए कि पाटलिपुत्र सीट से रेल मंत्री आैर राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव अपनी किस्मत आजमा रहे हैं। इन्हें कड़ी चुनाैती दे रहे हैं जदयू के प्रत्याशी डॉ. रंजन प्रसाद यादव। कभी लालू के जिगरी दोस्त रहे रंजन यादव मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के विकास रथ पर सवार होकर सियासी बैतरणी पार करने की फिराक में हैं। छह विधानसभा क्षेत्रों से मिलकर बना यह क्षेत्र यादव बहुल माना जाता है। इसमें दानापुर, जहां भाजपा का कब्जा है, के अलावा फुलवारीशरीफ, बिक्रम, मनेर, पालीगंज आैर मसाैढ़ी विधानसभा क्षेत्र को शामिल किया गया है। फुलवारीशरीफ राजद प्रवक्ता श्याम रजक का क्षेत्र है तो बिक्रम आैर दानापुर से पूर्व सांसद रामकृपाल यादव बराबर बढ़त बनाते रहे हैं। लालू प्रसाद को भरोसा है कि भले ही दानापुर सीट भाजपा के खाते में चला गयी हो, लेकिन यहां िस्थत अपनी खटाल से राजनीति करने का फायदा उन्हें मिल सकता है। लालू के साथ ही राबड़ी देवी भी अपने पटना प्रवास के दाैरान अधिकांश समय गाैशाला में ही बीताती हैं। बावजूद इसके लालू का रास्ता आसान नहीं दिख रहा है। इसी साल होली के दिन इस सीट से चुनाव लड़ने का प्रस्ताव देने वाले पूर्व राज्यसभा सदस्य आैर स्थानीय नेता विजय सिंह यादव एन माैके पर पलट गये आैर कांग्रेस से अपनी किस्मत आजमाने के लिए मैदान में कूद गये। दियारा इलाके में इनकी अच्छी पकड़ बतायी जा रही है। वैसे मुिस्लम मतदाताओं पर भी इन्हें भरोसा है। राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि प्रथम चरण में ही "माय' (मुिस्लम-यादव) समीकरण में दरार आ गयी है। हालांकि यह कहना अभी जल्दबाजी होगी। फिर राजद सुप्रीमो का कांग्रेस के खिलाफ हताशा-भरे बयान एक ही साथ बहुत कुछ कह जाते हंै। कभी किंगमेकर की भूमिका में रहे लालू प्रसाद को इस सीट पर कड़ी मेहनत करनी पड़ रही है।
एक ओर जहां पाटलिपुत्र सीट पर तीन यादवों की भिड़ंत है वहीं दूसरी ओर पटना साहिब लोकसभा इलाका दो कायस्थों का अखाड़ा बन गया है। बिहारी बाबू के नाम से चर्चित सिने अभिनेता शत्रुघ्न सिन्हा भाजपा से अपनी किस्मत आजमा रहे हैं, तो अचानक छोटे पर्दे के स्टार अभिनेता शेखर सुमन कांग्रेस पार्टी के टिकट पर मैदान में हैं। इस क्षेत्र के शहरी इलाकों में कायस्थों के अलावा बड़ी आबादी मुसलमानों की है। थोड़े-बहुत सिख मतदाता भी हैं। शेखर सुमन को कांग्रेस कैडर के अलावा मुसलमानों के साथ ही स्वजातीय वोट बैंक पर भरोसा है । हालांकि बिहारी बाबू नीतीश कुमार की विकास-छवि, सुशासन के नारों आैर भाजपा के साथ ही अतिपिछड़ा आैर महादलितों पर भरोसा कर रहे हैं जबकि ग्रामीण इलाके मसलन बख्तियारपुर, फतुहा, दीघा विधानसभा सीटों के मतदाताओं की बदाैलत राजद उम्मीदवार विजय साहू भी सफलता की उम्मीद पाले हुए हैं। राजद सुप्रीमो को मुसलमान मतदाताओं पर भी भरोसा बना हुआ है। राजद खेमे को उम्मीद है कि दो कायस्थों की लड़ाई का फायदा राजद उम्मीदवार विजय साहू को मिल सकता है। लेकिन यह तो आने वाला समय ही बतायेगा कि उन्हें इस समीकरण से लाभ हुआ या फायदा। वैसे सवर्णों की राजनीतिक सोच अब वोटकटवा की नहीं रही है। इस सीट पर वाम मोर्चा भी अपनी किस्मत आजमा रहा है , लेकिन उसका प्रभाव झुग्गी-झोपड़ियों तक ही सीमित दिख रहा है।
कुर्मी बहुल नालंदा सीट पर नीतीश कुमार के साथ ही उनकी सरकार की अिग्नपरीक्षा है। विकास का नारा देते फिर रहे नीतीश कुमार के इस परंपरागत सीट पर तीन कुर्मियों की जोर-आजमाइश से मुकालबा दिलचस्प हो गया है। इसी का फायदा जातीय राजनीति से दूर रहने वाले शशि यादव को मिलने के कयास लगाये जा रहे हैं। यहां 17 लाख मतदाताओं में से 3.75 लाख कुर्मी, 2.75 लाख यादव, 1.25 लाख कुशवाहा आैर 1.65 लाख मुिस्लम मतदाता हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में यहां नीतीश कुमार ने एक लाख से अधिक मतों से लोजपा प्रत्याशी डॉ. पुष्परंजन को हराया था। इस सीट पर तीन कुर्मियों के बीच कड़ा मुकाबला दिख रहा है। वर्ष 2006 में जदयू के टिकट पर उपचुनाव जीते रामस्वरूप प्रसाद कांग्रेस से भाग्य आजमा रहे हैं तो पूर्व विधायक सतीश प्रसाद लोजपा से मैदान में हैं। लव-कुश सम्मेलन की सफलता से सूबे की राजनीति में धाक जमाने वाले सतीश कुमार का भी वही वोट बैंक है जो नीतीश कुमार का है। वहीं जदयू ने नये चेहरे काैशलेंद्र कुमार को मैदान में उतारकर सारे गिला-शिकवा को खत्म करने की कोशिश की है। वहीं वाम मोर्चा से शशि यादव मैदान में डटी हैं। पारंपरिक चुनाव प्रचार अभियान में जुटी शशि आैर भाकपा (माले) लिबरेशन के महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य ने अपनी पूरी ताकत इस इलाके में झोंक दी है। वहीं बसपा की हाथी पर सवार होकर देवकुमार राय क्षेत्र में अपनी पहचान बनाते फिर रहे हैं।
 

बंदूक नहीं, बैलेट से मिलेगी मुिक्त : रंजन यादव

केश्वर यादव उर्फ दिनकर यादव उर्फ रंजन यादव नक्सल आंदोलन का जाना-पहचाना चेहरा है। कभ्ाी झारखंड आैर छत्त्ाीसगढ पुलिस के लिए सिरदर्द बना रंजन यादव चतरा लोकसभाा सीट से पंद्रहवें लोकसभा चुनाव में,"सत्त्ाा बंदूक की नली से निकलती है' के नारे को तिलांजलि देेते हुए संसदीय रास्ते को मुिक्त का मार्ग चुना है। लातेहार जेल से भाकपा (माले) लिबरेशन के झंडे तले चुनावी समर में अपनी किस्मत आजमा रहे रंजन यादव को जनता पर पूरा भरोसा है आैर उन्हें उम्मीद है कि 16 मई को सारे महारथी चित हो जायेंगे। जेल में उनसे द पब्लिक एजेंडा की ओर से श्याम सुंदर ने एक्सक्लुसिव बातचीत की । प्रस्तुत है बातचीत के प्रमुख अंश ः
15 वर्षों तक बंदूक की राजनीति करने के बाद आखिर आपने जेल से चुनाव लड़ने का फैसला कैसे किया?
बहुत दिनों से मन में विचार चल रहा था । 15 वर्षों के लंबे संघर्ष से जो अनुभव मिला उसके अनुसार, अभी जनता बंदूकके सहारे सत्त्ाा हथियाने को तैयार नहीं हुई है। इसलिए हमने सोचा कि जब लड़ाई जनता के लिए ही लड़ी जा रही है तब फिर क्यों नहीं जनता की भावनाओं का कद्र करते हुए संसदीय रास्ते को ही अपना लिया जाये ताकि सही मायने में गरीबों को उनका हक-हुकूक मिल सके।
आपके पुराने साथियों यानी नक्सलियों ने इस फैसले का विरोध नहीं किया ?
चाैतरफा विरोध हुआ। उन्होंने (नक्सलियों ने ) माैत का फरमान जारी किया। कई इलाकों मसलन मनिका, पीपरा, हेहेगड़ा आदि में चुनाव बहिष्कार के साथ ही नक्सलियों ने हिंसक तेवर अख्तियार किया। दूसरी ओर, सामंती तत्वों की छाती पर सांप लोटने लगे कि कैसे गरीब का बेटा भारतीय संसद की शोभा बढ़ायेगा। बावजूद इसके हमें जनता का व्यापक समर्थन मिला।
हिंसक राजनीति से संसदीय राजनीति अपनाने के पीछे क्या कारण रहे ?
हिंसा आैर अहिंसा को परिभाषित करना बहुत मुिश्कल है। जब इलाके में जमींदारों का जुल्म था तब जनता की गोलबंदी सामंतों के खिलाफ हुइर् । परिणामस्वरूप 90 फीसदी जमींदार नक्सलियों की गोली के शिकार हुए । इसे मैं हिंसा नहीं मानता । बिहार आैर झारखंड में होने वाले गैंगवार आैर माफिया राज हिंसा नहीं है, क्या ? फिर क्यों , सरकार गरीबों की लड़ाई को हिंसक लड़ाई मानती है? बीते वर्षों में गुजरात में हुए सांप्रदायिक हिंसा (जो अभी भी विवाद में है) के साैदागरों को सियासत करने की खुली छूट मिलती है, तब कोई सवाल क्यों नहीं खड़ा किया जाता ?
भाकपा (माले) लिबरेशन से दोस्ती के पीछे का क्या राज है ?
इसके पीछे कोई राज नहीं, बिल्क मुझे अभी भी विश्वास है कि लाल झंडा ही सामंती व्यवस्था के खिलाफ लड़ाई लड़ सकती है। इसलिए मैंने दो साल पहले जेल में ही माले की सदस्यता ग्रहण की थी।
क्या आपको लगता है कि लातेहार, पलामू में सामंतवाद का खात्मा हो गया ?
पलामू समेत झारखंड के कई इलाकों में सामंती धाक बचा हुआ है। सामंती धाक को खत्म करने के लिए लाल झंडा संघर्षरत है।
संसदीय व्यवस्था में आने की प्रेरणा आपको किनसे आैर कैसे मिली ?
श्री श्रीरविशंकर जी महाराज। लातेहार जेल में उनसे हमारी मुलाकात हुई। उन्होंने मुख्य मार्ग की राजनीति करने को प्रेरित किया। सच तो यह है कि रविशंकर जी भले ही देशव्यापी भाजपा को मदद करते हैं लेकिन हमें उनसे पूरी मदद मिली है।
महंगी चुनाव व्यवस्था में पैसे का इंतजाम आपने कहां से किया ?
जन समर्थन आैर चंदा के पैसे ही चुनाव जीताने के लिए काफी है। मैं बाहुबलियों की तरह धनबल के प्रदर्शन का शाैक नहीं रखता, इसलिए कार्यकर्ताओं के बीच कभी पैसे की कमी नहीं हुई।

ग्रामीणों पर पुलिसिया कहर

झारखंड का लातेहार जिला नक्सलियों के आतंक से हमेशा सुर्खियों में रहा है। एक बार फिर यह जिला सुर्खियों में है। लेकिन इस बार दो कारणों से चर्चा में आया है। पहला यह कि छत्त्ाीसगढ़ राज्य कमेटी का सदस्य आैर उत्त्ारी सरगुजा स्पेशल एरिया कमेटी का प्रभारी कामेश्वर यादव उर्फ रंजन यादव बंदूक की वोट बहिष्कार के नारे को तिलांजली देते हुए संसदीय रास्ते को अख्तियार कर लिया है। जिले के मंडल कारा से चुनावी मैदान में अपनी किस्मत आजमा रहे हैं आैर दूसरा कारण यह कि जिस चतरा लोकसभा सीट से रंजन चुनावी मैदान में डटे हैं वह पूरा इलाका प्रथम चरण के चुनाव के दो दिन पहले से ही हिंसक वारदातों का अखाड़ा बना रहा। एक ओर जहां सीआरपीएफ के 14वीं बटालियन पर यह आरोप लगा कि नक्सलियों की बारुदी सुरंग विस्फोट के बाद हुए दोनों ओर से (नक्सली-सीआरपीएफ) अंधाधुंध फायरिंग में मारे गये अपने दो साथियों के खून देखकर खाैफलाये जवानों ने बढ़निया गांव के सुमरा टोला के पांच निर्दोष लोगों, जिसमें 50 वर्षीय सुपाय बोदरा (सीएमपीडीआइ, रांची का कर्मचारी), इनके इकलाैते बेटे आैर संत पॉल कॉलेज, रांची का विद्यार्थी संजय बोदरा (20 वर्ष), पड़ोसी सुपाय बोदरा (जो राजा मेदिनीराय इंटर कॉलेज, बरवाडीह) आैर 8वीं कक्षा का छात्र रहा मसी बोदरा (दोनों सगे भाई) के साथ ही अपने खपड़ैल घर की मरम्मत कर रहे 50 वर्षीय पिताय मुंडू को गोलियों से भून दिया वहीं माओवादियों के कड़े तेवर से 10 दिनों तक संपूर्ण झारखंड अस्त-व्यस्त रहा। माओवादियों ने निर्दोष ग्रामीणों के मारे जाने के विरोध में बताैर मुआवजा 10 लाख रुपये आैर पीड़ित परिवार को नाैकरी की मांग को लेकर बंद का फरमान जारी किया। बंद के दाैरान चतरा लोकसभा क्ष्ोत्र के हेहेगड़ा रेलवे स्टेशन के समीप माओवादियों ने बरवाडीह-मुगलसराय पैसेंजर ट्रेन को चार घंटों तक बंधक बनाये रखा। फिर भी प्रशासनिक अधिकारियों ने हिम्मत नहीं जुटा सकी कि नक्सलियों की गिरफ्त में फंसे पैसेंजर को निकालने की पहल की जाये। दूसरी घटन्ाा इसी क्षेत्र के लादूप में हुई जहां सीआरपीएफ की बस को माओवादियों ने सुरंग विस्फोट कर उड़ा दिया। पड़ोस का पलामू लोकसभा सीट से भी बिहार आैर पूर्वी उत्त्ार प्रदेश का कुख्यात माओवादी आैर पांच लाख का इनामी कामेश्वर बैठा झारखंड मुिक्त मोर्चा के टिकट पर चुनावी समर में कूदा है। हालांकि बैठा इसके पहले भी संसदीय राजनीति में अपनी किस्मत आजमा चुके हैं। दो बड़े माओवादियों का चुनावी समर में कूदना नक्सलियों के बंदूक की राजनीति पर प्रश्नचिह्न लगाता है। आखिर क्या वजह है कि एक-एक कर माओवादी संसदीय रास्ते की ओर रूख कर रहे हैं। इसके पहले एमसीसी के नेता रामाधार सिंह बिहार के गुरुआ से चुनाव लड़कर नक्सली राजनीति को चुनाैती दे चुके हैं।
इधर बढनिया कांड के विरोध को लेकर प्रशासनिक बयानबाजी थमने का नाम नहीं ले रहा है। शुरू में अधिकारियों ने मारे गये लोगों को नक्सली करार दिया। लेकिन जनदबाव बढने लगा तब प्रक्षेत्रीय पुलिस महानिदेशक (आइजी) रेजी डुंगडुंग ने 23 अप्रैल को ग्रामीणों के मारे जाने की बात स्वीकारी। हालांकि, गृह सचिव जेबी तुबिद ने पूरे मामले पर "द पिब्लक एजेंडा' से कहा कि जबतक जांच रिपोर्ट नहीं आ जाती तब तक कुछ भी कहना जल्दबाजी होगी। वहीं राज्य पुलिस प्रवक्ता एसएन प्रधान का कहना है कि काैन लोग मारे गये हैं, इस संबंध में गृह सचिव ही कुछ बोल सकते हैं। बयानबाजी में फंस चुका यह मामला कई मायनों में पेचीदा बन चुका है। इस मामले में पुलिस के इरादे शुरू से ही विवादित रहे। मसलन पोस्टमार्टमर की वीडियोग्राफी तक नहीं करायी गयी। इस बात की खबर ग्रामीणों को बरवाडीह में किसी फोटाग्राफर से मिली।
पूरे मामले को करीब से देख रहे ग्रामीण महिला फुलमनी बोदरा आैर जग्गा कंडुलना (जिसने पुलिसिया दबिश में पांचों ग्रामीणों को सड़क की ओर दाैड़ते हुए देखा था) की मानें तो बाैखलाये जवानों की मंशा को भांपते हुए पांचों की खोजबीन शुरू की तो भयावह तस्वीर सामने आयी। इसे संयोग ही कहेंगे कि जंगल के रास्ते हुंटार कोलियरी होते हुए बरवाडीह पहुंचे ग्रामीणों की किसी फोटोग्राफर से मुलाकात हो गयी। इधर, घर लाैटने का इंतजार कर रही मृतक सुपाय बोदरा की तीनों बेटियां आैर 80 वर्षीय बूढ़ी मां के साथ ही पूरी तरह से विक्षिप्त उनकी पत्नी को अभी भी भरोसा नहीं हो रहा है कि सीपीएमडीआइ के काम कर रहे कर्मी आैर उसके भाई को जवानों ने क्यों निशाना बनाया। वहीं नउरी बोदरा का पूरा परिवार ही उजड़ गया। गोलियों के शिकार इनके दोनों बेटे भी बने।
पुलिस ने नाटकीय तरीके से मामले को रफा-दफा करने के लिए पहले ग्रामीणों को नक्सली बताया। लेकिन, जब इस बात का खुलासा हो गया कि मारे गये सारे लोग ग्रामीण हैं आैर नक्सलियों से मृतकों का कोई लेना-देना नहीं आैर खुद नक्सली भी इस गांव में जाने की जुर्रत नहीं करते, तब पसोपेश में फंसा पुलिस महकमा नित्य नये बयान देने लगा। नक्सलियों के तेवर भी तभी गर्म हुए जब एक साथ पांच लोगों की हत्याएं हो गयीं। जबकि, दो महीने पहले ही खूंटी जिले के मूरहू में सीआरपीएफ के जवानों ने महुआ चुन रहे 12 वर्षीय एक बच्चे को इसलिये गोली मार दी थी, क्योंकि उसने यह बताने से इनकार कर दिया था कि इस इलाके में नक्सली भी आते हैं। वहीं अड़की इलाके में भी कुछ दिन पहले एक किसान की अद्धसर्ैनिक बलों ने नक्सली बताकर हत्या कर दी थी। राज्य में लगातार खाैफनाक होता जा रहा पुलिस का चेहरा इस राज्य को किस हाल में छोड़ेगा, फिलहाल कहना मुिश्कल है।
इधर, भाकपा माओवादी के पूर्वी रिजनल ब्यूरो के अनिमेष ने अपने ही संगठन के अभय को कड़ी फटकार लगायी है आैर कहा है कि अभय ने बिना केंद्रीय कमेटी की इजाजत के ही कई दिनों तक लगातार बंद का ऐलान कर दिया, जिससे जनता को भारी परेशानी उठानी पड़ी। दूसरी ओर, बिहार, झारखंड, छत्त्ाीसगढ़ के प्रवक्ता गोपाल ने सिर्फ एक दिन ही बंदी का समर्थन किया था। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि बढ़निया कांड को लेकर माओवादियों के साथ ही प्रशासन का आंतरिक ढांचा चरमरा गया है।

Sunday, April 12, 2009

माओवादियों का अर्थशास्त्र

विश्वव्यापी छायी मंदी ने जहां लोगों को जीना मुहाल कर दिया है वहीं देश में सक्रिय माओवादी विद्रोहियों का अर्थतंत्र इस मंदी से कोसों दूर है। न तो यहां छंटनी का खौफ है और न ही खर्चों में कटौती ही हो रही है। भाकपा (माओवादी) की गुरिल्ला आर्मी संगठन को आर्थिक मजबूती देने के लिए बतौर कमीशन लेवी वसूली में लगी हुई है। वैसे तो आज के समय में देश के अधिकांश हिस्से नक्सलियों की धधक से खौफजदा हैं फिर भी पशुपतिनाथ से तिरूपतिनाथ तक लाल गलियाना बनाने का सपना देख रहे नक्सलियों ने करीब १०५०० वर्ग लोमीटर क्षेत्र में अपनी हुकूमत स्थापित कर ली है जहां सरकार की नहीं, नक्सलियों की तूती बोलती है। बिहार, झारखंड, उड़ीसा और छतीसगढ़ के दर्जनों जिलों में वे अपनी जनवादी सरकार स्थापित करने का दावा कर रहे हैं। उन इलाकों में पहले सरकारी हुक्मरान जाने से कतराते थे। इस वजह से नक्सल इलाकों में वर्षों तक लोक निर्माण कार्य ठप रहा। लेकिन अब नक्सली मांद में सरकारी नुमाइंदे बेधड़क आवाजाही कर रहे हैं और सरकारी योजनाओं को अमलीजामा पहना रहे है। उन इलाकों में पुलिस भी सक्रिय दिख रही है। इसके कई मायने निकाले जा रहे हैं। एक ओर जहां सरकार इसे नक्सलियों का घटता जनाधार मान रही है वहीं सूत्रों का कहना है कि नक्सली खेमा एक सोची-समझी रणनीति के तहत ही लोक निर्माण के कामों को करने की इजाजत दे रहा है ताकि उनका बजट सरप्लस हो सके। नक्सल आंदोलन से सहानुभूति रखने वाले लोगों का कहना है कि आधार इलाका तैयार करने की बात करने वाले नक्सली अब छापामार जोन बनाने में लगे हैं ताकि पुलिसिया दबिश का प्रभाव गुरिल्ला आर्मी पर नहीं पड़े। इंस्टिट्यूट ऑफ डिफेंस स्टडीज़ एंड अनालिसिस के पीवी रमना का कहना है कि प्रत्येक वर्ष माओवादी विभिन्न स्रोतों से 1500 करोड़ रुपये राजस्व की उगाही कर रहे हैं।
नक्सली दस्तावेजों से मिली जानकारी के अनुसार बिहार समेत देश के दस राज्यों के नक्सल प्रभावित इलाकों में खोले गये इंर्ट चिमनी भठ्ठा से प्रतिवर्ष 25हजार रुपये लिये जा रहे हैं। खनन विभाग के अनुसार सिर्फ में ही आैसतन 760 इंर्ट भठ्ठे हैं। इस हिसाब से नक्सलियों के खाते में सूबे के चिमनी भठ्ठे से ही एक करोड़ 90हजार रुपये जमा हो रहे हैं। बालू घाटों से भी प्रति वर्ष करोड़ों रुपये की वसूली हो रही है। पेट्रोल पंप से पहले वे आमदनी के अनुसार पैसे वसूला करते थे लेकिन अब नक्सलियों की गुरिल्ला आर्मी हाइवे के पेट्रोल पंपों से प्रतिवर्ष 30 हजार और ग्रामीण इलाकों के पंपों से 15 हजार रुपये की वसूली कर रही है। देहाती इलाकों में बन रहे मोबाइल टावर भी नक्सलियों की कमाई का अच्छा जरिया साबित हो रहा है। बीते महीने नक्सलियो ने बिहार के गया और औरंगाबाद के साथ ही झारखंड के देहाती इलाकों में स्थापित तीन दर्जन टावरों को इसलिए उड़ा दिया था ताकि वे समय पर लेवी दे दिया करें। लोक निर्माण के कामों में कमीशनखोरी की बात से भले ही प्रशासनिक अधिकारी इंकार करते रहें लेकिन सच्चाई यह है कि बिना नक्सलियों को लेवी दिये एक भी काम संपन्न नहीं हो रहा है। लेवी की रकम 5 से 20 फीसदी और किसी-किसी में 30 फीसदी तक निर्धारित है। जिन ठेकेदारों ने लेवी देने से इंकार किया उनकी योजनाएं तो खटाई में मिली ही वे भी नक्सलियों की गोली के शिकार हुए। जंगल तो नक्सलियों के लिए महफूज है ही। खुफिया सूत्रों का कहना है कि नक्सलियों के रहमोकरम पर ही वन विभाग के कर्मचारी और अधिकारी सुरक्षित हैं। जंगलों में लड़की से लेकर कत्था तस्करों की चांदी बिना नक्सलियों की सहमति के संभव ही नहीं है। इससे भी प्रति वर्ष करोड़ों रुपये की आमदनी हो रही है। उड़ीसा के मयूरभंज जिले में कार्यरत एक अधिकारी का कहना है कि अकेले बांस के फूल से ही करोड़ों रुपये की उगाही नक्सली कर रहे हैं जबकि छतीसगढ़ और झारखंड में केंदू पत्ता ठेकेदार अच्छी कमाई का जरिया साबित हो रहे है।
वैसे तो हाल के वर्षों में जमीन आंदोलन से नक्सलियों ने अपना ध्यान खींच लिया है फिर भी उनका दावा है कि बिहार-झारखंड के करीब 17 हजार एकड़ जमीन पर जनवादी खेती हो रही है। इस जमीन की उपज का एक-चौथाई हिस्सा नक्सलियों के खजाने में जा रहा है। बिहार-झारखंड की सीमाई इलाकों में धान और गेहूं के बदले गांजा, भांग और अफीम की खेती इस बात का गवाह है कि समतामूलक समाज निर्माण की बात करने वाले माओवादी पैसे की उगाही के लिए किस तरह के तरकीब अपना रहे हैं। हालांकि सीधे-सीधे इसकी खेती के लिए माओवादियों को दोषी नहीं माना जा सकता फिर भी एक सवाल तो उठता ही है कि आखिर उन्हीं इलाकों में अफीम की खेती क्यों फल-फूल रही है,जो कभी माओवादियों का आधार क्षेत्र था। मजे की बात तो यह है कि इसकी खेती करने वालों में से अधिकांश नक्सलियों के हार्डनाइनर रहे हैं। चतरा में कार्यरत लाल दस्ता का सदस्य उमेश कहता है कि सरकार ने रोजगार के सारे साधन छीन लिये परिणामत: नक्सली समर्थक भी पेट की भूख मिटाने के लिए गलत धंधों में लिप्त हो गये हैं। अपने दस्तावेजों में नशा विरोधी अभियान की बात करने वाले नक्सलियों के पास इस बात का जवाब नहीं है कि आखिर अधिकांश नक्सल प्रभावित गांवों में ही क्यों अवैध शराब (महुआ) तैयार हो रहा है? वर्ग विहीन समाज निर्माण की बात करने वाले नक्सलियों के पास क्या इस बात का जवाब है कि वह किस तरीके का समाज स्थापित करना चाहते हैं?
पूर्व खुफिया ब्यूरो और फिलहाल छतीसगढ़ में कार्यरत एक अधिकारी का कहना है कि सिर्फ जबरन वसूली से ही नक्सलियों को प्रति वर्ष 1500 करोड़ रुपये की आमदनी हो रही है। वैसे तो aउओधोगिक आैद्योगिक घराने नक्सलियों को लेवी देने की बात से इंकार करते हैं लेकिन सच्चाई ठीक इसके विपरीत है। आन्ध्र के एक पेपर मिल कंपनी पिछले पांच वर्षों से प्रतिवर्ष 5 करोड़ रुपये दे रही है तो वहीं की रेयॉन कंपनी प्रतिवर्ष 10 लाख रुपये नक्सलियों को पहुंचा रही है। झारखंड में जब बुंडू का उपचुनाव हो रहा था तब इस बात की अफवाह थी कि झामुमो सुप्रीमो शिबू सोरेन ने माओवादियों को खुश करने के लिए करोड़ों रुपये दिये हैं। हालात ऐसे हो गये हैं कि जिन परियोजनाओं में नक्सलियों की कोई रूचि नहीं है वैसी स्कीम सरकार के लाख प्रयास के बावजूद अधर में लटक जा रहा है। बात चाहे झारखंड के नेटरहाट िस्थत फील्ड फायरिंग रेंज की हो या बंगाल के सिंगूर आैर नंदीग्राम की। जिसमें मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने कहा था कि विस्थापन विरोधी मोर्चा की आड़ में माओवादी इस आंदोलन को हवा दे रहे हैं। उड़ीसा का पोस्को (साउथ कोरिया की इस्पात उद्योग) समेत दर्जनों ऐसी परियोजनाएं हैं जिनका विरोध माओवादियों ने पर्दे के पीछे से किया आैर वे परियोजनाएं खटाई में पड़ गयीं। हाल ही में आन्ध्र प्रदेश का हार्डकोर माओवादी अन्ना शंकर की गिरफ्तारी जब बोकारो में हुई तब इस की पुिष्ट भी हो गयी कि किस तरह से नक्सलियों की जमात देश के विभिन्न भागों में विस्थापन विरोधी आंदोलन को हवा देते फिर रहे हैं।
समता आैर न्याय के तर्क आैर तकाजे के साथ जिन लोगों ने बंगाल के नक्सलबाड़ी नामक स्थान से 1967 में बंदूक उठायी थी उन लोगों की हमदर्दी गरीबों के प्रति झलकती थी आैर वे सीलिंग की फालतू जमीन को भूमिहीनों के बीच बांटने के हिमायती थे। आज भी नक्सलियों की जमात भूमिहीनों को जमीन दिये जाने की वकालत तो करती है लेकिन उनका अधिकांश जोर लेवी वसूली पर जान पड़ता है। हालांकि इसकी शुरुआत कैसे हुई? इसकी सही जानकारी तो नक्सलियों के पास भी नहीं है फिर भी, द पिब्लक एजेंडा की तहकीकात से जानकारी मिली की कि नक्सली आंदोलन को गति आैर पैसे की कमी को दूर करने के लिए एमसीसी आैर पीपुल्स वार गु्रप अपने-अपने आधार इलाकों में जमींदारों की तिजोरियां लूटा करते थे। फिर भी आर्थिक संकट खत्म नहीं हो रहा था तब तत्कालीन एमसीसी की केंद्रीय कमिटी ने लेवी वसूली का प्रस्ताव पास किया। आठवें दशक में कूप (जले लकड़ी से बनी कोयला) आैर खैर के कारोबारियों से मामूली रकम की वसूली की जाने लगी। एमसीसी के बिहार-बंगाल स्पेशल एरिया कमिटी के सचिव आैर पूर्व विधायक रामाधार सिंह बताते हैं,"बाद के दिनों में सिंचाई परियोजनाओं से लेकर लोक निर्माण के कामों में भी लेवी लेने का प्रावधान पास हुआ, जो बढ़ता ही गया।' बीते महीने जब उत्त्ार प्रदेश के सोनभद्र इलाके में हार्डकोर महिला माओवादी बबिता की गिरफ्तारी हुई तब इस बात का खुलासा हुआ कि माओवादियों की आक्रमक ताकत हथियार बटोरने आैर धन उगाही में लगी हुई है।
कंपनियों से लेवी वसूली की सूची बाद में दी जाएगी।
 

तीखे होंगे छापामार संघर्ष

एमसीसी के संस्थापक सदस्य व बिहार-बंगाल स्पेशल एरिया कमिटी के तीन-तीन बार सचिव रह चुके पूर्व विधायक रामाधार सिंह फिलहाल बंदी मुिक्त संघर्ष समिति के बैनर तले माओवादी राजनीति में सक्रिय हैं। उन्होंने द पिब्लक एजेंडा से देश में चल रहे नक्सली आंदोलन पर अपनी बेबाक टिप्पणी की। पेश है बातचीत के प्रमुख अंश---
आप शिक्षक से नक्सल राजनीति (दरमिया आैर बघाैरा-दलेलचक नरसंहार समेत आधा दर्जन नरसंहारों के आरोपी रहे) में आये। फिर वहां से आपकी दिलचस्पी खत्म हुई आैर संसदीय रास्ता अपनाते हुए विधानसभा में पहुंचे। आखिर क्या कारण रहा कि मुख्यधारा की राजनीति को तिलांजलि देते हुए पुन: नक्सली गतिविधियों में शामिल हो गये हैं।
मैं शिक्षक के साथ-साथ भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का सदस्य भी था। देखा कि क्रांति के नाम पर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी जमींदारों के साथ सांठगांठ करने में लगी है। फिर आैरंगाबाद के इलाके में जमींदारों के खिलाफ एमसीसी (अति चरम वामपंथी संगठन) का बगावती नेतृत्व अपनी ओर आकर्षित किया। इससे प्रभावित होकर मैंने भी बंदूक थाम ली। लेकिन एमसीसी की नरसंहार की राजनीति से मन उब गया आैर फिर संसदीय रास्ता अख्तियार कर लिया। लेकिन विधासभा के अंदर देखा कि किस तरह से गरीबों के पैसे पर नव जमींदार (विधायक आैर मंत्री) मटरगस्ती कर रहे हैं। उससे एक बार फिर लगा कि अगर गरीबों के लिए लड़ाई लड़नी है तो नक्सल आंदोलन से अच्छा कोई विकल्प नहीं हो सकता। इसी ख्याल से पुन: नक्सल आंदोलन को गति देने में लगा हूं।
पिछले चार वर्षों में दर्जनों कुख्यात माओवादी या तो गिरफ्तार कर लिये गये या फिर पुलिस मुठभेड़ में मारे गये। इसका माओवादी पार्टी पर क्या असर दिख रहा है?
देखिये, फर्जी मुठभेड़ में नक्सलियों के मारे जाने से माओवादियों की ताकत बढ़ने वाली नहीं है। क्योंकि पुलिस मुठभेड़ में मारे जाने वाले नक्सली अपने जमात में शहीद कहे जाते हैं। रही बात गिरफ्तारी की, तो नक्सलियों ने मुखबिरों के खिलाफ कार्रवाई (माैत के घाट) की शुरुआत कर दी है।
तो इसके क्या मायने निकाले जायें?
माओवाद एक विज्ञान है जिसका सिद्धांत कहता है कि दुश्मन से निपटने के लिए एक कदम आगे बढ़ना चाहिए जबकि दुश्मन की ताकत को भांपते हुए दो कदम पीछे भ्ाी हटना चाहिए। इसी सिद्धांत को मानते हुए नक्सलियों ने आन्ध्र के पड़ोसी राज्यों मसलन उड़ीसा, छत्त्ाीसगढ़, केरल आैर तमिलनाडू में अपना फैलाव शुरू कर दिया है ताकि पुलिसिया दमन होने पर जनता को इसका खामियाजा नहीं भुगतना पड़े वहीं दूसरी ओर आधार इलाके से सुरक्षित छापामार लड़ाई को तेज किया जा सके।
आन्ध्र प्रदेश के राज्य सचिव ने हाल ही में किसी केंद्रीय कमिटी के नेता पर मनमानी का आरोप लगाते हुए केरल पुलिस के सामने आत्मसमर्पण कर दिया। इसका पार्टी पर कैसा प्रभाव पड़ेगा?
पार्टी छोड़ने वाले से माओवादी राजनीति पर कोई खास असर तो नहीं पड़ेगा। लेकिन जनता पर इसका बुरा प्रभाव पड़ सकता है। ऐसी िस्थ्ाति में केंद्रीय नेतृत्व को चाहिए कि वे माओवादी दर्शन से जनता को शिक्षित करे।
भाकपा (माओवादी) बंदूक के सहारे सत्त्ाा पर कब्जा करने बात करता है जबकि दंडकारण्य स्पेशल कमिटी ने छत्त्ाीसगढ़ सरकार से शांतिवात्त्र्ाा का प्रस्ताव रखा है। क्या माओवादी पार्टी कमजोर हो गयी है इस कारण सरकार से शांतिवात्त्र्ाा की अपील की है या इसके कुछ आैर मायने हैं।
यह नक्सलियों की कमजोरी नहीं है। बिल्क छत्त्ाीसगढ़ में बदले हालात का नतीजा है। वहां पर भाजपा सरकार आदिवासियों से आदिवासियों को लड़वाने की फिराक में है। इसीलिये नक्सलियों ने संघर्ष का अपना तरीका बदलते हुए सरकार से शांतिवात्त्र्ाा की शत्त्र्ा (प्रतिबंध हटाने) रखी है ताकि माओवादी राजनीति को जनसंगठन के माध्यम से जनता के बीच ले जाया जा सके।
बिहार-झारखंड के नक्सल प्रभावित सीमाई इलाकों में अफीम की खेती घड़ल्ले से हो रही है। क्या नक्सली नशाखोर समाज निर्माण में लगे हुए हैं?
यह आरोप सरासर गलत है। रूस आैर चीन में भी कई इलाके नशाखोरों की चपेट में थे जहां आंदोलन चल रहे थे। जिसे लाल फाैज ने कुशलता के साथ बिना एक बूंद खून बहे ही खत्म कर दिया था। यहां भी जरूरत है उस तरह के आंदोलन छेड़ने की। अगर ऐसा नहीं हुआ तो दलालों की ही संख्या बढेगी। इसकी रोकथाम के लिए पार्टी गंभीरता से विचार कर रही है। गया आैर चतरा के कई इलाकों में नक्सलियों ने अफीम उगाने वाले किसानों के खिलाफ आंदोलन छेड़ रखा है।
फिर भी अफीम उगाने वाले किसानों की संख्या क्यों बढ़ती जा रही है?
जोनल कमांडरों में राजनैतिक चेतना का अभाव है। यही कारण है कि नक्सल प्रभावित इलाकों में अवैध धंधे फल-फूल रहे हैं। इसकी रोकथाम के लिए पार्टी गंभीरता से विचार कर रही है।
अचानक नक्सलियों ने जमीन आंदोलन से अपना ध्यान हटा दिया है? क्या माओवादी पार्टी अपने पुराने सिद्धांतों से हट गयी है?
ऐसी कोई बात नहीं है, अपने पुराने सिद्धंातों पर पार्टी आज भी कायम है।
नक्सलियों के नाम पर झारखंड में आधा दर्जन नक्सली समूह तैयार हो गये हैं जो आये दिन आपराधिक घटनाओं को अंजाम देते फिर रहे हैं। क्या ऐसे गिरोहों की माकपा (माओवादी) से सांठगांठ है।
नहीं, विकृत मानसिकता के क्रांति विरोधी लोग ही नक्सलवाद के आदर्श सिद्धांतों के खिलाफ हैं जिसका खामियाजा भाकपा (माओवादी) को भुगतना पड़ रहा है जबकि सच्चाई यह है कि माओवादियों ने अबतक चार दर्जन से अधिक टीपीसी समेत अन्य आपराधिक गिरोह के सदस्यों मार गिराया है।
भाकपा (माओवादी) की आगे की रणनीति होगी?
माओवादियों की रणनीति किसी से छुपी हुई नहीं है। फिर भी छत्त्ाीसगढ, महाराष्ट्र, उड़ीसा आैर आन्ध्र प्रदेश के कुछ हिस्सों में सक्रिय नक्सली संगठन भाकपा माले (जनशिक्त) से विलय के लिए वार्ता चल रही है। अगर परििस्थति ने साथ दिया तो जल्द ही भाकपा (माओवादी) में जनशिक्त का विलय हो जायेगा। अगर यह संभव हुआ तो देश मंेंं छापामार लड़ाई आैर तीखी होगी।
आसन्न लोकसभा चुनाव में नक्सलियों की कैसी रणनीति होगी?
क्रांति का रास्ता साफ है। अब आर-पार की लड़ाई शुरू हो गयी है जिसमें एक जगह संसदीय रास्ते हैं तो दूसरे रास्ते की लड़ाई माओवादी दिखा रहे हैं। इस बार के चुनाव में पार्टी जनता के बीच जायेगी आैर नेताओं के ढपोरशंखी घोषणाओं आैर उनके दागदार चेहरे को बेनकाम करेगी।
 

तार-तार होती दोस्तियां

अवसरवादी राजनीति का नायाब उदाहरण बन गया है झारखंड। सियासतदानों ने चुनावी रण-घोषणा के साथ ही गठबंधन की सिद्धांतविहीन राजनीति शुरू कर दी है। पूरी तरह से नक्सलियों की चपेट में होने के बावजूद चुनावी सभाओं में नक्सलवाद का मुद्दा गायब है। न तो चुनावी अभियानों में बिजली, पानी मुद्दा बन रहा है आैर न ही सड़क, स्कूल, अस्पताल जैसी आधारभूत सुविधाओं की बातें उठ रही हैं। आश्चर्य तो यह कि लोकसभा चुनाव की अधिसूचना जारी होने तक झारखंडी नेता जहां गठबंधन राजनीति की मजबूती की दुहाई देते फिर रहे थे। वहीं प्रथम चरण की अधिसूचना जारी होते ही यूपीए की दोस्ती तार-तार हो गयी। राजद ने लोजपा के साथ चुनावी बैतरनी पार करने का मन बनाया तो झामुमो ने कांग्रेस का हाथ थाम लिया। फिर भी कांग्रेस ने समझाैते को दरकिनार करते हुए हजारीबाग से साैरभ नारायण सिंह को टिकट देकर यह साफ संदेश दिया है कि इस चुनाव में कांग्रेस की कोई मजबूरी नहीं है। बिल्क झामुमो ही अपनी साख बचाने के लिए कांग्रेस के सहारे अपना बेहतर प्रदर्शन कर सकता हैै। पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने बेहतर प्रदर्शन करते हुए 6 सीटों पर अपना कब्जा जमाया था वहीं झामुमो की झोली में 4 सीटें आयी थीं।
ऐसी बात नहीं घमासान सिर्फ यूपीए में ही मचा है बल्कि एनडीए भी इससे अछूता नहीं रहा। समझाैते के अनुसार चतरा आैर पलामू सीट जदयू के खाते में चला गया। फिर क्या था? बगावती तेवर तीखे हो गये। हुआ यह कि सूबे की इकलाैती अनुसूचित जाति की सीट पलामू जदयू के खाते मेंं चला गया फिर चतरा लोकसभा सीट से जदयू ने भाजपा के जिला अध्यक्ष अरुण कुमार यादव को अपनी पार्टी में मिलवाया आैर चुनाव चिह्न थमा दिया। इससे बाैखलाये भाजपा विधायक सत्यानंद भोक्ता के नेतृत्व में सैकड़ों कार्यकर्ता प्रदेश कार्यालय पहुंचे आैर प्रदेश नेतृत्व के खिलाफ जमकर नारेबाजी शुरू की। प्रदेश कार्यालय में ताला जड़ दिये गये। प्रदेश अध्यक्ष रघुवर दास समेत सारे पदाधिकारी बंदी बना लिये गये। सामूहिक इस्तीफे की मांग उठी। समझाैता भंग करने की मांग करते हुए भोक्ता ने "द पिब्लक एजेंडा' से कहा, "जदयू नेतृत्व के हाथों भाजपा को गिरवी रख दिया गया है। पलामू की सीट को जदयू के खाते में डालकर भाजपा ने दलितों के साथ अन्याय किया है।' वहीं प्रदेश अध्यक्ष रघुवर दास का कहना है, "गठबंधन धर्म की अपनी मजबूरी होती है। इसी मजबूरी के तहत दोनों सीटें जदयू को दिया गया है।' जबकि जदयू के प्रदेश अध्यक्ष जलेश्वर महतो ने द पिब्लक एजेंडा से कहा, "भाजपाइयों की इस नाैटंकी से प्रदेश प्रभारी सुषमा स्वराज को अवगत करा दिया गया है। एक-दो दिनों में सारा मामला पटरी पर आ जायेगा।' प्रदेश नेतृत्व चाहे जो भी तर्क दें लेकिन सच्चाई यह कि भाजपा एक ही साथ दोहरे घाटे का दंश झेल रहा है। पहला यह कि अपने कारनामों से खुद ही अरुण कुमार यादव जैसा समर्पित कार्यकर्ता खो दिया दूसरा इंदरसिंह नामधारी जैसा कद्दावर नेता भी चाहे-अनचाहे हाथ से निकल गये।
सूबे में गठबंधन की राजनीति से अपने को अबतक झारखंड विकास मोर्चा (प्रजातांित्रक) ही अलग किये हुए है। शायद यह निर्णय पार्टी सुप्रीमो आैर प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी ने हवा का रुख देखकर ही लिया है। तभी तो उन्होंने तीसरे मोर्चे में भी शामिल होने से साफ ताैर पर इंकार करते हुए कहा कि चुनाव पूर्व गठबंधन दर्द ही पैदा करते हैंजबकि चुनाव बाद हुए गठबंधन आंनददायी होता है। उन्होंने सभी सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारने की घोषणा की है। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से अपनी राजनीतिक का सफर शुरू करने वाले मरांडी का वही वोट बैंक है, जो भाजपा का है। यह मरांडी की अिग्नपरीक्षा भी है। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि भाजपा में आंतरिक कलह की वजह से ही पिछले चुनाव में 33.01 फीसदी वोट पाने के बावजूद मात्र एक ही सीट से संतोष करना पड़ा था। बिहार में हुए वाम एकता से उत्साहित कम्युनिस्टों ने यहां भी वही उम्मीद पाल रखी थी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। जब मैं खबर लिखने बैठा था। भाकपा माले के महासचिव दीपाकंर भट्टाचार्य कोडरमा में अपनी चुनावी सभा को संबोधित करते हुए वाम बिखराव के लिए सारा दोष सीपीएम आैर सीपीआइ पर दे रहे थे। आरोप-प्रत्यारोप के इस दाैर में एक बार फिर प्रदेश की राजनीति दलदल में फंसी हुई है। फैसला जनता के हाथों में है।

चुनाव बहिष्कार कितना कारगर

लातेहार जिले के पोचरा गांव के लोग संसदीय लोकतंत्र और माओवादी जनवाद बीच चल रहे सत्ता संघर्ष के भंवर में फंसे हैं। उन्हें यह नहीं सूझ रहा कि आखिर क्या किया जाये? लोकतंत्र के चुनावी उत्सव में शामिल हुआ जाये या फिर नक्सलियों की बातों पर यकीन करते हुए वैकल्पिक जनसत्ता के निमार्ण में पूरी ताकत झोंक दी जाये। विदित हो कि माओवादियों ने पूरे गांव को चुनाव बहिष्कार के पोस्टर से पाट दिया है। ऐसी दुविधा सिर्फ पोचरा गांव के मतदाताओं की ही नहीं है बल्कि नक्सल प्रभावित बिहार के 19, झारखंड, छत्तीसगढ, उड़ीसा के अधिकांश लोकसभाई क्षेत्र, महाराष्ट्र के चार, पश्चिम बंगाल के पुरुलिया समेत तीन, पूर्वांचल के चार, उत्तराखंड के दो औरकर्नाटक के एक लोकसभाई क्षेत्रों के मतदाताओं के बीच बनी हुई है। इन क्षेत्रों में नक्सलियों ने संसदीय व्यवस्था के खिलाफ जोरदार प्रचार अभियान चला रखा है। खुफिया सूत्रों के अनुसार देश के 210 जिलों में माओवादियों ने राजनैतिक-सांगठनिक ढांचा तैयार कर लिया है जिमसें 53 जिले अतिसंवेदनशील हैं जबकि आंशिक रूप से प्रभावित 68, औसतन प्रभावित 20 जिले हैं। 70 जिलों मेंे माओवादी गुरिल्ला जोन में बदलने की फिराक में हैं। नक्सली सूत्रों का कहना है कि इन्हीं इलाकों में से 90 लोकसभाई क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर चुनाव बहिष्कार की तैयारी है जबकि अन्य इलाकों में सिर्फ चुनाव बहिष्कार के लिए प्रचार अभियान चल रहा है।
पिछले बिहार विधानसभा चुनाव में माओवादियों ने मतदाताओं की भावनाओं को दरकिनार करते हुए जिस हिंसक तेवर के साथ गया के देहाती इलाके में भाजपा के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष वैकेंया नायडू के हेलीकॉप्टर को जलाकर राख कर दिया था। इमामगंज विधानसभा क्षेत्र के लोजपा प्रत्याशी राजेश कुमार को गोलियों से भून दिया था। दो दर्जन से अधिक चुनाव प्रचार वाहनों में आग लगा दी थी। दो दर्जन से अधिक राजनैतिक कार्यकर्ताओं से इस्तीफा दिलवाकर संसदीय व्यवस्था के खिलाफ बगावती तेवर दिखाने का संकल्प करवाया था जबकि झारखंड में चार कार्यकर्ताओं के हाथ काट डाले थे। हालांकि बिहार-झारखंड में इस बात की भी चर्चा जोरों पर है कि संसदीय धारा के कई व्यक्तियों से नक्सलियों की गहरी दोस्ती है जिसका फायदा वे मतदान के दौरान लेते रहे हैं। बीते तमाड़ उपचुनाव में ही इस बात की अफवाह थी कि झारखंड मुक्ति मोर्चा के साथ ही एनोस एक्का की झारखंड पार्टी से नक्सलियों का सांठगांठ है। वहीं बिहार में राजद से माओवादियों की दोस्ती की भी चर्चा गाहे-बगाहे होती रही है।
कमोवेश यही स्थिति झारखंड और छत्तीसगढ़ में दिखा था। उससे सहमे राजनैतिक कार्यकर्ता इस बार देहाती इलाकों में जाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं। कमोवेश यही स्थिति छत्तीसगढ़ के बस्तर, दांतेवारा, कांकेर, बीजापुर समेत आठ जिले, उड़ीसा के कंधमाल, मयूरभांज, आन्ध्रप्रदेश के करीमनगर समेत संपूर्ण दण्कारण्य क्षेत्र, महाराष्ट्र के गढ़चिरौरी समेत अन्य नक्सल प्रभावित देहाती इलाकों की है जहां के ग्रामीणों ने अबतक राजनैतिक दलों के प्रचार वाहन नहीं देखा है। बीते दिनों दांतेवाड़ा इलाके में माओवादियों की गोलियों के शिकार दो भाजपा कार्यकर्ता बन चुके हैं। इन इलाकों की दीवारों पर चुनाव बहिष्कार के पोस्टर चस्पे देखे जा सकते हैं। झारखंड के चतरा, पलामू, खूंटी, जमशेदपुर, गुमला के साथ ही छत्तीसगढ़ के दांतेवाड़ा, बस्तर, बिहार के गया, नवादा आदि इलाकों में वहीं तक राजनैतिक दलों का प्रचार वाहन जा रहा है जहां तक सुरक्षा बलों की तैैनाती है। मसलन अधिकांश ग्रामीण इलाकों में चुनावी उत्सव का नामोनिशान नहीं है जबकि देश के अन्य भागों में चुनाव की अधिसूचना जारी होते ही राजनीतिक सरगर्मी दिनोंदिन तेज होती जा रही है।
हालांकि छत्तीसगढ़ के अबूझमाड़ इलाके से कुछ दूसरी ही खबर आ रही है। बताया जाता है कि इस इलाके को मुगल शासकों से लेकर आज तक किसी ने नहीं बूझा। नक्सलियों के लिए यह इलाका 70 के दशक से ही महफूज रहा है। लेकिन सूत्रों का कहना है कि इन दिनों माओवादी वहां अस्तित्व की अंतिम लड़ाई लड़ रहे हैं। इस इलाके में अर्द्धसैनिक बल तेजी से आगे बढ़ता जा रहा है। बात दीगर है कि इसी इलाके से अगस्त, 2008 को एक हेलीकॉप्टर गायब हो गया था। सुरक्षा एजेंसियों को आशंका है कि गायब हुआ हेलीकॉप्टर नक्सलियों के पास है जबकि नक्सली इससे इंकार करते रहे हैं। उसे खोजने में अर्द्धसैनिक बल नाकाम रहा है।
नक्सलियों के चुनाव बहिष्कार के मद्देनजर सलवा जुडूम कैंपों को ही मतदान केंद्र में तब्दील किया जा रहा है। इस बाबत नाम नहीं छापने की शर्त पर एक स्थानीय हिन्दी समाचार पत्र के संपादक बताते हैं कि भले ही माओवादियों की हिंसक तेवर से चुनाव आयोग सहमा हो लेकिन सच्चाई यह है कि नक्सलियों की हिंसक कार्रवाई से आम जनता ऊ ब चुकी है। नक्सली सिर्फ हिंसक वारदातों को अंजाम देकर अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं।
इधर राजनैतिक कार्यकर्ताओं के बीच उस वक्त सनसनी फैल गयी जब छत्तीसगढ़ के जशपुर इलाके में 17 मार्च को 5 टन विस्फोटक के साथ हथियारों का जखीरा पकड़ाया। केंद्रीय जांच ब्यूरो के अधिकारियों का कहना है कि यह दांतेवाड़ा इलाके में ले जाया जा रहा था जहां से नक्सली हिंसक वादरातों को अंजाम देने के लिए अपने प्रभाव वाले इलाकों में बांटते।
बात दीगर है कि बंदूक के सहारे चुनाव बहिष्कार की धमकी देने वाले नक्सली इस बार जनवाद की बात कर रहे हैं और हिंसक तेवर से परहेज करने को कहा है। पहली बार नक्सलियों ने चुनाव बहिष्कार के औचित्य को सही ठहराते हुए आठ पन्नों का वैकल्पिक जनसत्ता निर्माण चुनावी घोषणा पत्र जारी किया है और मतदाताओं से चुनाव बहिष्कार की मार्मिक अपील की है। भाकपा (माओवादी) के बिहार-झारखंड- छत्तीसगढ़ स्पेशल एरिया कमिटी के प्रवक्ता गोपाल का कहना है कि मौजूदा सरकार विकास के नाम पर सिर्फ बयानबाजी कर रही है और अराजकता को बढ़ावा दे रही है। उनके अनुसार पांच साल के कुशासन के बाद एक बार फिर संसदीय चुनाव हो रहे हैं। इसके बाद जो सरकार बनेगी उससे लोकतंत्र की मजबूती के नाम पर फायदा भले ही किसी और को होगा लेकिन इस चुनाव में लिया जानेवाला जनादेश अगले पांच साल तक जनता पर जुल्म ढाने, बेरोजगारी और भुखमरी पैदा करने वाली नीतियों की ही पोषक होगी। अपने पर्चे में माओवादियों ने कहा है कि वैश्विक भुखमरी के सूचकांक के अनुसार 118 देशों में भारत का 94वां स्थान है जो पाकिस्तान और इथोपिया से भी नीचे है। गोपाल के अनुसार, "तथाकथित आजादी के 61 वर्षों और भारतीय गणतंत्र के 48 वर्षों के बाद भी देश अर्द्धसामंती-अर्द्धऔपनिवेशिक बना हुआ है। अमीरी-गरीबी के बीच खायी चौड़ी होती जा रही है। देश के विभिन्न भागों में चल रहे राष्ट्रीयता के आंदोलन को बेरहमी से कुचला जा रहा है। भारतीय संसद पूंजीपतियों की पोषक है जिसे साम्राज्यवाद पूरी तरह से अपनी मुट्टी में जकड़ लिया है। इससे बचने का एक मात्र रास्ता वैकल्पिक सत्ता का निर्माण ही है। नक्सलियों ने भारतीय को गणराज्य बनाने के लिए लोकयुद्ध तेज करने और सामंतवाद-साम्राज्यवाद से मुक्ति के लिए वोट नहीं, चोट की जरूरत पर बल दिया है। माओवादियों का मानना है कि बिना पीपुल्स गुरिल्ला लिबरेशन आर्मी में शामिल हुए क्रांतिकारी सरकार का निर्माण संभव ही नहीं है।
हालांकि यह कोई पहला मौका नहीं है जब नक्सलियों ने संसदीय व्यवस्था को जनवाद के लिए धोखा बताया है। बल्कि आज से करीब 40 साल पहले 14 मार्च, 1968 को ऑल इंडिया कमिटी ऑफ कम्युनिस्ट रिव्यूसनरीज के संयोजक एस रॉय चौधुरी ने चुनाव को छलावा बताते हुए पहली बार इसके बहिष्कार की घोषणा की थी। तब से चुनाव बहिष्कार का यह नारा एक लंबा सफर तय कर चुका है। हर लोकसभा और विधानसभा चुनाव के समय नक्सली संसदीय व्यवस्था के बहिष्कार की घोषणा करते हैं। बावजूद इसके कुछ इलाके के छोड़ अधिकांश क्षेत्रों में मतदाता इस नारे को खारिज ही करते रहे हैं। प्रधानमंत्री भले ही नक्सलियों की हिंसक ताकत को देखते हुए इसे नक्सलवादी वायरस की संज्ञा दें लेकिन सच्चाई यह है कि अब भी देश का आम अवाम माओवादियों की जनवाद की ओर आकर्षित नहीं हो रहा है। हालात ऐसे उत्पन्न हो गये हैं कि छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित इलाकों में मतदाताओं ने नक्सली फरमान को दरकिनार करते हुए भाजपा के पक्ष में जमकर मतदान किया था। परिणामत: छत्तीसगढ़ में भाजपा की सरकार बन गयी।
संसदीय व्यवस्था और माओवादियों के बीच चल रहे द्वंद के बीच कभी चुनाव बहिष्कार का मुखर विरोध करने वाला नक्सलियों की जमात में से एक भाकपा (माले) लिबरेशन स्वयं ही संसदीय व्यवस्था का अंग बन गया है और वैकल्पिक जनसत्ता की बात कर रहे भाकपा (माओवादी) को अराजकतावादी घोषित कर दिया है। दूसरी ओर नक्सलबाड़ी मेें संसदीय व्यवस्था के खिलाफ विद्रोह करने वालों में से एक मृत्यु शैय्या पर पड़े कानू सान्याल ने माओवादियों की हर कार्रवाई को आतंकवादी कार्रवाई घोषित कर चुके हैं। रही बात सीपीआइ (एमएल) न्यू डेमोक्रेसी, रेड फ्लैग समेत अन्य नक्सलपंथी समूहों की। तो इनमें से अधिकांश समूहों में अभी जनवादी क्रांति के रास्ते को लेकर भ्रम बना हुआ है। हां इतना जरूर है कि सारे नक्सलपंथी समूह वर्तमान व्यवस्था को खारिज करते हैं। यह तो समय ही बतायेगा कि माओवादियों की बातों पर मतदान किस रूप में भरोसा करता है। वे वैकल्पिक जनसत्ता निर्माण में नक्सलियों के साथ खड़े होते हैं या वर्तमान व्यवस्था को ही सही जनवाद मानते हैं।