Sunday, April 12, 2009

तार-तार होती दोस्तियां

अवसरवादी राजनीति का नायाब उदाहरण बन गया है झारखंड। सियासतदानों ने चुनावी रण-घोषणा के साथ ही गठबंधन की सिद्धांतविहीन राजनीति शुरू कर दी है। पूरी तरह से नक्सलियों की चपेट में होने के बावजूद चुनावी सभाओं में नक्सलवाद का मुद्दा गायब है। न तो चुनावी अभियानों में बिजली, पानी मुद्दा बन रहा है आैर न ही सड़क, स्कूल, अस्पताल जैसी आधारभूत सुविधाओं की बातें उठ रही हैं। आश्चर्य तो यह कि लोकसभा चुनाव की अधिसूचना जारी होने तक झारखंडी नेता जहां गठबंधन राजनीति की मजबूती की दुहाई देते फिर रहे थे। वहीं प्रथम चरण की अधिसूचना जारी होते ही यूपीए की दोस्ती तार-तार हो गयी। राजद ने लोजपा के साथ चुनावी बैतरनी पार करने का मन बनाया तो झामुमो ने कांग्रेस का हाथ थाम लिया। फिर भी कांग्रेस ने समझाैते को दरकिनार करते हुए हजारीबाग से साैरभ नारायण सिंह को टिकट देकर यह साफ संदेश दिया है कि इस चुनाव में कांग्रेस की कोई मजबूरी नहीं है। बिल्क झामुमो ही अपनी साख बचाने के लिए कांग्रेस के सहारे अपना बेहतर प्रदर्शन कर सकता हैै। पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने बेहतर प्रदर्शन करते हुए 6 सीटों पर अपना कब्जा जमाया था वहीं झामुमो की झोली में 4 सीटें आयी थीं।
ऐसी बात नहीं घमासान सिर्फ यूपीए में ही मचा है बल्कि एनडीए भी इससे अछूता नहीं रहा। समझाैते के अनुसार चतरा आैर पलामू सीट जदयू के खाते में चला गया। फिर क्या था? बगावती तेवर तीखे हो गये। हुआ यह कि सूबे की इकलाैती अनुसूचित जाति की सीट पलामू जदयू के खाते मेंं चला गया फिर चतरा लोकसभा सीट से जदयू ने भाजपा के जिला अध्यक्ष अरुण कुमार यादव को अपनी पार्टी में मिलवाया आैर चुनाव चिह्न थमा दिया। इससे बाैखलाये भाजपा विधायक सत्यानंद भोक्ता के नेतृत्व में सैकड़ों कार्यकर्ता प्रदेश कार्यालय पहुंचे आैर प्रदेश नेतृत्व के खिलाफ जमकर नारेबाजी शुरू की। प्रदेश कार्यालय में ताला जड़ दिये गये। प्रदेश अध्यक्ष रघुवर दास समेत सारे पदाधिकारी बंदी बना लिये गये। सामूहिक इस्तीफे की मांग उठी। समझाैता भंग करने की मांग करते हुए भोक्ता ने "द पिब्लक एजेंडा' से कहा, "जदयू नेतृत्व के हाथों भाजपा को गिरवी रख दिया गया है। पलामू की सीट को जदयू के खाते में डालकर भाजपा ने दलितों के साथ अन्याय किया है।' वहीं प्रदेश अध्यक्ष रघुवर दास का कहना है, "गठबंधन धर्म की अपनी मजबूरी होती है। इसी मजबूरी के तहत दोनों सीटें जदयू को दिया गया है।' जबकि जदयू के प्रदेश अध्यक्ष जलेश्वर महतो ने द पिब्लक एजेंडा से कहा, "भाजपाइयों की इस नाैटंकी से प्रदेश प्रभारी सुषमा स्वराज को अवगत करा दिया गया है। एक-दो दिनों में सारा मामला पटरी पर आ जायेगा।' प्रदेश नेतृत्व चाहे जो भी तर्क दें लेकिन सच्चाई यह कि भाजपा एक ही साथ दोहरे घाटे का दंश झेल रहा है। पहला यह कि अपने कारनामों से खुद ही अरुण कुमार यादव जैसा समर्पित कार्यकर्ता खो दिया दूसरा इंदरसिंह नामधारी जैसा कद्दावर नेता भी चाहे-अनचाहे हाथ से निकल गये।
सूबे में गठबंधन की राजनीति से अपने को अबतक झारखंड विकास मोर्चा (प्रजातांित्रक) ही अलग किये हुए है। शायद यह निर्णय पार्टी सुप्रीमो आैर प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी ने हवा का रुख देखकर ही लिया है। तभी तो उन्होंने तीसरे मोर्चे में भी शामिल होने से साफ ताैर पर इंकार करते हुए कहा कि चुनाव पूर्व गठबंधन दर्द ही पैदा करते हैंजबकि चुनाव बाद हुए गठबंधन आंनददायी होता है। उन्होंने सभी सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारने की घोषणा की है। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से अपनी राजनीतिक का सफर शुरू करने वाले मरांडी का वही वोट बैंक है, जो भाजपा का है। यह मरांडी की अिग्नपरीक्षा भी है। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि भाजपा में आंतरिक कलह की वजह से ही पिछले चुनाव में 33.01 फीसदी वोट पाने के बावजूद मात्र एक ही सीट से संतोष करना पड़ा था। बिहार में हुए वाम एकता से उत्साहित कम्युनिस्टों ने यहां भी वही उम्मीद पाल रखी थी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। जब मैं खबर लिखने बैठा था। भाकपा माले के महासचिव दीपाकंर भट्टाचार्य कोडरमा में अपनी चुनावी सभा को संबोधित करते हुए वाम बिखराव के लिए सारा दोष सीपीएम आैर सीपीआइ पर दे रहे थे। आरोप-प्रत्यारोप के इस दाैर में एक बार फिर प्रदेश की राजनीति दलदल में फंसी हुई है। फैसला जनता के हाथों में है।

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