Sunday, April 12, 2009

चुनाव बहिष्कार कितना कारगर

लातेहार जिले के पोचरा गांव के लोग संसदीय लोकतंत्र और माओवादी जनवाद बीच चल रहे सत्ता संघर्ष के भंवर में फंसे हैं। उन्हें यह नहीं सूझ रहा कि आखिर क्या किया जाये? लोकतंत्र के चुनावी उत्सव में शामिल हुआ जाये या फिर नक्सलियों की बातों पर यकीन करते हुए वैकल्पिक जनसत्ता के निमार्ण में पूरी ताकत झोंक दी जाये। विदित हो कि माओवादियों ने पूरे गांव को चुनाव बहिष्कार के पोस्टर से पाट दिया है। ऐसी दुविधा सिर्फ पोचरा गांव के मतदाताओं की ही नहीं है बल्कि नक्सल प्रभावित बिहार के 19, झारखंड, छत्तीसगढ, उड़ीसा के अधिकांश लोकसभाई क्षेत्र, महाराष्ट्र के चार, पश्चिम बंगाल के पुरुलिया समेत तीन, पूर्वांचल के चार, उत्तराखंड के दो औरकर्नाटक के एक लोकसभाई क्षेत्रों के मतदाताओं के बीच बनी हुई है। इन क्षेत्रों में नक्सलियों ने संसदीय व्यवस्था के खिलाफ जोरदार प्रचार अभियान चला रखा है। खुफिया सूत्रों के अनुसार देश के 210 जिलों में माओवादियों ने राजनैतिक-सांगठनिक ढांचा तैयार कर लिया है जिमसें 53 जिले अतिसंवेदनशील हैं जबकि आंशिक रूप से प्रभावित 68, औसतन प्रभावित 20 जिले हैं। 70 जिलों मेंे माओवादी गुरिल्ला जोन में बदलने की फिराक में हैं। नक्सली सूत्रों का कहना है कि इन्हीं इलाकों में से 90 लोकसभाई क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर चुनाव बहिष्कार की तैयारी है जबकि अन्य इलाकों में सिर्फ चुनाव बहिष्कार के लिए प्रचार अभियान चल रहा है।
पिछले बिहार विधानसभा चुनाव में माओवादियों ने मतदाताओं की भावनाओं को दरकिनार करते हुए जिस हिंसक तेवर के साथ गया के देहाती इलाके में भाजपा के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष वैकेंया नायडू के हेलीकॉप्टर को जलाकर राख कर दिया था। इमामगंज विधानसभा क्षेत्र के लोजपा प्रत्याशी राजेश कुमार को गोलियों से भून दिया था। दो दर्जन से अधिक चुनाव प्रचार वाहनों में आग लगा दी थी। दो दर्जन से अधिक राजनैतिक कार्यकर्ताओं से इस्तीफा दिलवाकर संसदीय व्यवस्था के खिलाफ बगावती तेवर दिखाने का संकल्प करवाया था जबकि झारखंड में चार कार्यकर्ताओं के हाथ काट डाले थे। हालांकि बिहार-झारखंड में इस बात की भी चर्चा जोरों पर है कि संसदीय धारा के कई व्यक्तियों से नक्सलियों की गहरी दोस्ती है जिसका फायदा वे मतदान के दौरान लेते रहे हैं। बीते तमाड़ उपचुनाव में ही इस बात की अफवाह थी कि झारखंड मुक्ति मोर्चा के साथ ही एनोस एक्का की झारखंड पार्टी से नक्सलियों का सांठगांठ है। वहीं बिहार में राजद से माओवादियों की दोस्ती की भी चर्चा गाहे-बगाहे होती रही है।
कमोवेश यही स्थिति झारखंड और छत्तीसगढ़ में दिखा था। उससे सहमे राजनैतिक कार्यकर्ता इस बार देहाती इलाकों में जाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं। कमोवेश यही स्थिति छत्तीसगढ़ के बस्तर, दांतेवारा, कांकेर, बीजापुर समेत आठ जिले, उड़ीसा के कंधमाल, मयूरभांज, आन्ध्रप्रदेश के करीमनगर समेत संपूर्ण दण्कारण्य क्षेत्र, महाराष्ट्र के गढ़चिरौरी समेत अन्य नक्सल प्रभावित देहाती इलाकों की है जहां के ग्रामीणों ने अबतक राजनैतिक दलों के प्रचार वाहन नहीं देखा है। बीते दिनों दांतेवाड़ा इलाके में माओवादियों की गोलियों के शिकार दो भाजपा कार्यकर्ता बन चुके हैं। इन इलाकों की दीवारों पर चुनाव बहिष्कार के पोस्टर चस्पे देखे जा सकते हैं। झारखंड के चतरा, पलामू, खूंटी, जमशेदपुर, गुमला के साथ ही छत्तीसगढ़ के दांतेवाड़ा, बस्तर, बिहार के गया, नवादा आदि इलाकों में वहीं तक राजनैतिक दलों का प्रचार वाहन जा रहा है जहां तक सुरक्षा बलों की तैैनाती है। मसलन अधिकांश ग्रामीण इलाकों में चुनावी उत्सव का नामोनिशान नहीं है जबकि देश के अन्य भागों में चुनाव की अधिसूचना जारी होते ही राजनीतिक सरगर्मी दिनोंदिन तेज होती जा रही है।
हालांकि छत्तीसगढ़ के अबूझमाड़ इलाके से कुछ दूसरी ही खबर आ रही है। बताया जाता है कि इस इलाके को मुगल शासकों से लेकर आज तक किसी ने नहीं बूझा। नक्सलियों के लिए यह इलाका 70 के दशक से ही महफूज रहा है। लेकिन सूत्रों का कहना है कि इन दिनों माओवादी वहां अस्तित्व की अंतिम लड़ाई लड़ रहे हैं। इस इलाके में अर्द्धसैनिक बल तेजी से आगे बढ़ता जा रहा है। बात दीगर है कि इसी इलाके से अगस्त, 2008 को एक हेलीकॉप्टर गायब हो गया था। सुरक्षा एजेंसियों को आशंका है कि गायब हुआ हेलीकॉप्टर नक्सलियों के पास है जबकि नक्सली इससे इंकार करते रहे हैं। उसे खोजने में अर्द्धसैनिक बल नाकाम रहा है।
नक्सलियों के चुनाव बहिष्कार के मद्देनजर सलवा जुडूम कैंपों को ही मतदान केंद्र में तब्दील किया जा रहा है। इस बाबत नाम नहीं छापने की शर्त पर एक स्थानीय हिन्दी समाचार पत्र के संपादक बताते हैं कि भले ही माओवादियों की हिंसक तेवर से चुनाव आयोग सहमा हो लेकिन सच्चाई यह है कि नक्सलियों की हिंसक कार्रवाई से आम जनता ऊ ब चुकी है। नक्सली सिर्फ हिंसक वारदातों को अंजाम देकर अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं।
इधर राजनैतिक कार्यकर्ताओं के बीच उस वक्त सनसनी फैल गयी जब छत्तीसगढ़ के जशपुर इलाके में 17 मार्च को 5 टन विस्फोटक के साथ हथियारों का जखीरा पकड़ाया। केंद्रीय जांच ब्यूरो के अधिकारियों का कहना है कि यह दांतेवाड़ा इलाके में ले जाया जा रहा था जहां से नक्सली हिंसक वादरातों को अंजाम देने के लिए अपने प्रभाव वाले इलाकों में बांटते।
बात दीगर है कि बंदूक के सहारे चुनाव बहिष्कार की धमकी देने वाले नक्सली इस बार जनवाद की बात कर रहे हैं और हिंसक तेवर से परहेज करने को कहा है। पहली बार नक्सलियों ने चुनाव बहिष्कार के औचित्य को सही ठहराते हुए आठ पन्नों का वैकल्पिक जनसत्ता निर्माण चुनावी घोषणा पत्र जारी किया है और मतदाताओं से चुनाव बहिष्कार की मार्मिक अपील की है। भाकपा (माओवादी) के बिहार-झारखंड- छत्तीसगढ़ स्पेशल एरिया कमिटी के प्रवक्ता गोपाल का कहना है कि मौजूदा सरकार विकास के नाम पर सिर्फ बयानबाजी कर रही है और अराजकता को बढ़ावा दे रही है। उनके अनुसार पांच साल के कुशासन के बाद एक बार फिर संसदीय चुनाव हो रहे हैं। इसके बाद जो सरकार बनेगी उससे लोकतंत्र की मजबूती के नाम पर फायदा भले ही किसी और को होगा लेकिन इस चुनाव में लिया जानेवाला जनादेश अगले पांच साल तक जनता पर जुल्म ढाने, बेरोजगारी और भुखमरी पैदा करने वाली नीतियों की ही पोषक होगी। अपने पर्चे में माओवादियों ने कहा है कि वैश्विक भुखमरी के सूचकांक के अनुसार 118 देशों में भारत का 94वां स्थान है जो पाकिस्तान और इथोपिया से भी नीचे है। गोपाल के अनुसार, "तथाकथित आजादी के 61 वर्षों और भारतीय गणतंत्र के 48 वर्षों के बाद भी देश अर्द्धसामंती-अर्द्धऔपनिवेशिक बना हुआ है। अमीरी-गरीबी के बीच खायी चौड़ी होती जा रही है। देश के विभिन्न भागों में चल रहे राष्ट्रीयता के आंदोलन को बेरहमी से कुचला जा रहा है। भारतीय संसद पूंजीपतियों की पोषक है जिसे साम्राज्यवाद पूरी तरह से अपनी मुट्टी में जकड़ लिया है। इससे बचने का एक मात्र रास्ता वैकल्पिक सत्ता का निर्माण ही है। नक्सलियों ने भारतीय को गणराज्य बनाने के लिए लोकयुद्ध तेज करने और सामंतवाद-साम्राज्यवाद से मुक्ति के लिए वोट नहीं, चोट की जरूरत पर बल दिया है। माओवादियों का मानना है कि बिना पीपुल्स गुरिल्ला लिबरेशन आर्मी में शामिल हुए क्रांतिकारी सरकार का निर्माण संभव ही नहीं है।
हालांकि यह कोई पहला मौका नहीं है जब नक्सलियों ने संसदीय व्यवस्था को जनवाद के लिए धोखा बताया है। बल्कि आज से करीब 40 साल पहले 14 मार्च, 1968 को ऑल इंडिया कमिटी ऑफ कम्युनिस्ट रिव्यूसनरीज के संयोजक एस रॉय चौधुरी ने चुनाव को छलावा बताते हुए पहली बार इसके बहिष्कार की घोषणा की थी। तब से चुनाव बहिष्कार का यह नारा एक लंबा सफर तय कर चुका है। हर लोकसभा और विधानसभा चुनाव के समय नक्सली संसदीय व्यवस्था के बहिष्कार की घोषणा करते हैं। बावजूद इसके कुछ इलाके के छोड़ अधिकांश क्षेत्रों में मतदाता इस नारे को खारिज ही करते रहे हैं। प्रधानमंत्री भले ही नक्सलियों की हिंसक ताकत को देखते हुए इसे नक्सलवादी वायरस की संज्ञा दें लेकिन सच्चाई यह है कि अब भी देश का आम अवाम माओवादियों की जनवाद की ओर आकर्षित नहीं हो रहा है। हालात ऐसे उत्पन्न हो गये हैं कि छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित इलाकों में मतदाताओं ने नक्सली फरमान को दरकिनार करते हुए भाजपा के पक्ष में जमकर मतदान किया था। परिणामत: छत्तीसगढ़ में भाजपा की सरकार बन गयी।
संसदीय व्यवस्था और माओवादियों के बीच चल रहे द्वंद के बीच कभी चुनाव बहिष्कार का मुखर विरोध करने वाला नक्सलियों की जमात में से एक भाकपा (माले) लिबरेशन स्वयं ही संसदीय व्यवस्था का अंग बन गया है और वैकल्पिक जनसत्ता की बात कर रहे भाकपा (माओवादी) को अराजकतावादी घोषित कर दिया है। दूसरी ओर नक्सलबाड़ी मेें संसदीय व्यवस्था के खिलाफ विद्रोह करने वालों में से एक मृत्यु शैय्या पर पड़े कानू सान्याल ने माओवादियों की हर कार्रवाई को आतंकवादी कार्रवाई घोषित कर चुके हैं। रही बात सीपीआइ (एमएल) न्यू डेमोक्रेसी, रेड फ्लैग समेत अन्य नक्सलपंथी समूहों की। तो इनमें से अधिकांश समूहों में अभी जनवादी क्रांति के रास्ते को लेकर भ्रम बना हुआ है। हां इतना जरूर है कि सारे नक्सलपंथी समूह वर्तमान व्यवस्था को खारिज करते हैं। यह तो समय ही बतायेगा कि माओवादियों की बातों पर मतदान किस रूप में भरोसा करता है। वे वैकल्पिक जनसत्ता निर्माण में नक्सलियों के साथ खड़े होते हैं या वर्तमान व्यवस्था को ही सही जनवाद मानते हैं।
 

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