Thursday, April 30, 2009

ग्रामीणों पर पुलिसिया कहर

झारखंड का लातेहार जिला नक्सलियों के आतंक से हमेशा सुर्खियों में रहा है। एक बार फिर यह जिला सुर्खियों में है। लेकिन इस बार दो कारणों से चर्चा में आया है। पहला यह कि छत्त्ाीसगढ़ राज्य कमेटी का सदस्य आैर उत्त्ारी सरगुजा स्पेशल एरिया कमेटी का प्रभारी कामेश्वर यादव उर्फ रंजन यादव बंदूक की वोट बहिष्कार के नारे को तिलांजली देते हुए संसदीय रास्ते को अख्तियार कर लिया है। जिले के मंडल कारा से चुनावी मैदान में अपनी किस्मत आजमा रहे हैं आैर दूसरा कारण यह कि जिस चतरा लोकसभा सीट से रंजन चुनावी मैदान में डटे हैं वह पूरा इलाका प्रथम चरण के चुनाव के दो दिन पहले से ही हिंसक वारदातों का अखाड़ा बना रहा। एक ओर जहां सीआरपीएफ के 14वीं बटालियन पर यह आरोप लगा कि नक्सलियों की बारुदी सुरंग विस्फोट के बाद हुए दोनों ओर से (नक्सली-सीआरपीएफ) अंधाधुंध फायरिंग में मारे गये अपने दो साथियों के खून देखकर खाैफलाये जवानों ने बढ़निया गांव के सुमरा टोला के पांच निर्दोष लोगों, जिसमें 50 वर्षीय सुपाय बोदरा (सीएमपीडीआइ, रांची का कर्मचारी), इनके इकलाैते बेटे आैर संत पॉल कॉलेज, रांची का विद्यार्थी संजय बोदरा (20 वर्ष), पड़ोसी सुपाय बोदरा (जो राजा मेदिनीराय इंटर कॉलेज, बरवाडीह) आैर 8वीं कक्षा का छात्र रहा मसी बोदरा (दोनों सगे भाई) के साथ ही अपने खपड़ैल घर की मरम्मत कर रहे 50 वर्षीय पिताय मुंडू को गोलियों से भून दिया वहीं माओवादियों के कड़े तेवर से 10 दिनों तक संपूर्ण झारखंड अस्त-व्यस्त रहा। माओवादियों ने निर्दोष ग्रामीणों के मारे जाने के विरोध में बताैर मुआवजा 10 लाख रुपये आैर पीड़ित परिवार को नाैकरी की मांग को लेकर बंद का फरमान जारी किया। बंद के दाैरान चतरा लोकसभा क्ष्ोत्र के हेहेगड़ा रेलवे स्टेशन के समीप माओवादियों ने बरवाडीह-मुगलसराय पैसेंजर ट्रेन को चार घंटों तक बंधक बनाये रखा। फिर भी प्रशासनिक अधिकारियों ने हिम्मत नहीं जुटा सकी कि नक्सलियों की गिरफ्त में फंसे पैसेंजर को निकालने की पहल की जाये। दूसरी घटन्ाा इसी क्षेत्र के लादूप में हुई जहां सीआरपीएफ की बस को माओवादियों ने सुरंग विस्फोट कर उड़ा दिया। पड़ोस का पलामू लोकसभा सीट से भी बिहार आैर पूर्वी उत्त्ार प्रदेश का कुख्यात माओवादी आैर पांच लाख का इनामी कामेश्वर बैठा झारखंड मुिक्त मोर्चा के टिकट पर चुनावी समर में कूदा है। हालांकि बैठा इसके पहले भी संसदीय राजनीति में अपनी किस्मत आजमा चुके हैं। दो बड़े माओवादियों का चुनावी समर में कूदना नक्सलियों के बंदूक की राजनीति पर प्रश्नचिह्न लगाता है। आखिर क्या वजह है कि एक-एक कर माओवादी संसदीय रास्ते की ओर रूख कर रहे हैं। इसके पहले एमसीसी के नेता रामाधार सिंह बिहार के गुरुआ से चुनाव लड़कर नक्सली राजनीति को चुनाैती दे चुके हैं।
इधर बढनिया कांड के विरोध को लेकर प्रशासनिक बयानबाजी थमने का नाम नहीं ले रहा है। शुरू में अधिकारियों ने मारे गये लोगों को नक्सली करार दिया। लेकिन जनदबाव बढने लगा तब प्रक्षेत्रीय पुलिस महानिदेशक (आइजी) रेजी डुंगडुंग ने 23 अप्रैल को ग्रामीणों के मारे जाने की बात स्वीकारी। हालांकि, गृह सचिव जेबी तुबिद ने पूरे मामले पर "द पिब्लक एजेंडा' से कहा कि जबतक जांच रिपोर्ट नहीं आ जाती तब तक कुछ भी कहना जल्दबाजी होगी। वहीं राज्य पुलिस प्रवक्ता एसएन प्रधान का कहना है कि काैन लोग मारे गये हैं, इस संबंध में गृह सचिव ही कुछ बोल सकते हैं। बयानबाजी में फंस चुका यह मामला कई मायनों में पेचीदा बन चुका है। इस मामले में पुलिस के इरादे शुरू से ही विवादित रहे। मसलन पोस्टमार्टमर की वीडियोग्राफी तक नहीं करायी गयी। इस बात की खबर ग्रामीणों को बरवाडीह में किसी फोटाग्राफर से मिली।
पूरे मामले को करीब से देख रहे ग्रामीण महिला फुलमनी बोदरा आैर जग्गा कंडुलना (जिसने पुलिसिया दबिश में पांचों ग्रामीणों को सड़क की ओर दाैड़ते हुए देखा था) की मानें तो बाैखलाये जवानों की मंशा को भांपते हुए पांचों की खोजबीन शुरू की तो भयावह तस्वीर सामने आयी। इसे संयोग ही कहेंगे कि जंगल के रास्ते हुंटार कोलियरी होते हुए बरवाडीह पहुंचे ग्रामीणों की किसी फोटोग्राफर से मुलाकात हो गयी। इधर, घर लाैटने का इंतजार कर रही मृतक सुपाय बोदरा की तीनों बेटियां आैर 80 वर्षीय बूढ़ी मां के साथ ही पूरी तरह से विक्षिप्त उनकी पत्नी को अभी भी भरोसा नहीं हो रहा है कि सीपीएमडीआइ के काम कर रहे कर्मी आैर उसके भाई को जवानों ने क्यों निशाना बनाया। वहीं नउरी बोदरा का पूरा परिवार ही उजड़ गया। गोलियों के शिकार इनके दोनों बेटे भी बने।
पुलिस ने नाटकीय तरीके से मामले को रफा-दफा करने के लिए पहले ग्रामीणों को नक्सली बताया। लेकिन, जब इस बात का खुलासा हो गया कि मारे गये सारे लोग ग्रामीण हैं आैर नक्सलियों से मृतकों का कोई लेना-देना नहीं आैर खुद नक्सली भी इस गांव में जाने की जुर्रत नहीं करते, तब पसोपेश में फंसा पुलिस महकमा नित्य नये बयान देने लगा। नक्सलियों के तेवर भी तभी गर्म हुए जब एक साथ पांच लोगों की हत्याएं हो गयीं। जबकि, दो महीने पहले ही खूंटी जिले के मूरहू में सीआरपीएफ के जवानों ने महुआ चुन रहे 12 वर्षीय एक बच्चे को इसलिये गोली मार दी थी, क्योंकि उसने यह बताने से इनकार कर दिया था कि इस इलाके में नक्सली भी आते हैं। वहीं अड़की इलाके में भी कुछ दिन पहले एक किसान की अद्धसर्ैनिक बलों ने नक्सली बताकर हत्या कर दी थी। राज्य में लगातार खाैफनाक होता जा रहा पुलिस का चेहरा इस राज्य को किस हाल में छोड़ेगा, फिलहाल कहना मुिश्कल है।
इधर, भाकपा माओवादी के पूर्वी रिजनल ब्यूरो के अनिमेष ने अपने ही संगठन के अभय को कड़ी फटकार लगायी है आैर कहा है कि अभय ने बिना केंद्रीय कमेटी की इजाजत के ही कई दिनों तक लगातार बंद का ऐलान कर दिया, जिससे जनता को भारी परेशानी उठानी पड़ी। दूसरी ओर, बिहार, झारखंड, छत्त्ाीसगढ़ के प्रवक्ता गोपाल ने सिर्फ एक दिन ही बंदी का समर्थन किया था। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि बढ़निया कांड को लेकर माओवादियों के साथ ही प्रशासन का आंतरिक ढांचा चरमरा गया है।

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