Thursday, April 30, 2009

बंदूक नहीं, बैलेट से मिलेगी मुिक्त : रंजन यादव

केश्वर यादव उर्फ दिनकर यादव उर्फ रंजन यादव नक्सल आंदोलन का जाना-पहचाना चेहरा है। कभ्ाी झारखंड आैर छत्त्ाीसगढ पुलिस के लिए सिरदर्द बना रंजन यादव चतरा लोकसभाा सीट से पंद्रहवें लोकसभा चुनाव में,"सत्त्ाा बंदूक की नली से निकलती है' के नारे को तिलांजलि देेते हुए संसदीय रास्ते को मुिक्त का मार्ग चुना है। लातेहार जेल से भाकपा (माले) लिबरेशन के झंडे तले चुनावी समर में अपनी किस्मत आजमा रहे रंजन यादव को जनता पर पूरा भरोसा है आैर उन्हें उम्मीद है कि 16 मई को सारे महारथी चित हो जायेंगे। जेल में उनसे द पब्लिक एजेंडा की ओर से श्याम सुंदर ने एक्सक्लुसिव बातचीत की । प्रस्तुत है बातचीत के प्रमुख अंश ः
15 वर्षों तक बंदूक की राजनीति करने के बाद आखिर आपने जेल से चुनाव लड़ने का फैसला कैसे किया?
बहुत दिनों से मन में विचार चल रहा था । 15 वर्षों के लंबे संघर्ष से जो अनुभव मिला उसके अनुसार, अभी जनता बंदूकके सहारे सत्त्ाा हथियाने को तैयार नहीं हुई है। इसलिए हमने सोचा कि जब लड़ाई जनता के लिए ही लड़ी जा रही है तब फिर क्यों नहीं जनता की भावनाओं का कद्र करते हुए संसदीय रास्ते को ही अपना लिया जाये ताकि सही मायने में गरीबों को उनका हक-हुकूक मिल सके।
आपके पुराने साथियों यानी नक्सलियों ने इस फैसले का विरोध नहीं किया ?
चाैतरफा विरोध हुआ। उन्होंने (नक्सलियों ने ) माैत का फरमान जारी किया। कई इलाकों मसलन मनिका, पीपरा, हेहेगड़ा आदि में चुनाव बहिष्कार के साथ ही नक्सलियों ने हिंसक तेवर अख्तियार किया। दूसरी ओर, सामंती तत्वों की छाती पर सांप लोटने लगे कि कैसे गरीब का बेटा भारतीय संसद की शोभा बढ़ायेगा। बावजूद इसके हमें जनता का व्यापक समर्थन मिला।
हिंसक राजनीति से संसदीय राजनीति अपनाने के पीछे क्या कारण रहे ?
हिंसा आैर अहिंसा को परिभाषित करना बहुत मुिश्कल है। जब इलाके में जमींदारों का जुल्म था तब जनता की गोलबंदी सामंतों के खिलाफ हुइर् । परिणामस्वरूप 90 फीसदी जमींदार नक्सलियों की गोली के शिकार हुए । इसे मैं हिंसा नहीं मानता । बिहार आैर झारखंड में होने वाले गैंगवार आैर माफिया राज हिंसा नहीं है, क्या ? फिर क्यों , सरकार गरीबों की लड़ाई को हिंसक लड़ाई मानती है? बीते वर्षों में गुजरात में हुए सांप्रदायिक हिंसा (जो अभी भी विवाद में है) के साैदागरों को सियासत करने की खुली छूट मिलती है, तब कोई सवाल क्यों नहीं खड़ा किया जाता ?
भाकपा (माले) लिबरेशन से दोस्ती के पीछे का क्या राज है ?
इसके पीछे कोई राज नहीं, बिल्क मुझे अभी भी विश्वास है कि लाल झंडा ही सामंती व्यवस्था के खिलाफ लड़ाई लड़ सकती है। इसलिए मैंने दो साल पहले जेल में ही माले की सदस्यता ग्रहण की थी।
क्या आपको लगता है कि लातेहार, पलामू में सामंतवाद का खात्मा हो गया ?
पलामू समेत झारखंड के कई इलाकों में सामंती धाक बचा हुआ है। सामंती धाक को खत्म करने के लिए लाल झंडा संघर्षरत है।
संसदीय व्यवस्था में आने की प्रेरणा आपको किनसे आैर कैसे मिली ?
श्री श्रीरविशंकर जी महाराज। लातेहार जेल में उनसे हमारी मुलाकात हुई। उन्होंने मुख्य मार्ग की राजनीति करने को प्रेरित किया। सच तो यह है कि रविशंकर जी भले ही देशव्यापी भाजपा को मदद करते हैं लेकिन हमें उनसे पूरी मदद मिली है।
महंगी चुनाव व्यवस्था में पैसे का इंतजाम आपने कहां से किया ?
जन समर्थन आैर चंदा के पैसे ही चुनाव जीताने के लिए काफी है। मैं बाहुबलियों की तरह धनबल के प्रदर्शन का शाैक नहीं रखता, इसलिए कार्यकर्ताओं के बीच कभी पैसे की कमी नहीं हुई।

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