Sunday, April 12, 2009

माओवादियों का अर्थशास्त्र

विश्वव्यापी छायी मंदी ने जहां लोगों को जीना मुहाल कर दिया है वहीं देश में सक्रिय माओवादी विद्रोहियों का अर्थतंत्र इस मंदी से कोसों दूर है। न तो यहां छंटनी का खौफ है और न ही खर्चों में कटौती ही हो रही है। भाकपा (माओवादी) की गुरिल्ला आर्मी संगठन को आर्थिक मजबूती देने के लिए बतौर कमीशन लेवी वसूली में लगी हुई है। वैसे तो आज के समय में देश के अधिकांश हिस्से नक्सलियों की धधक से खौफजदा हैं फिर भी पशुपतिनाथ से तिरूपतिनाथ तक लाल गलियाना बनाने का सपना देख रहे नक्सलियों ने करीब १०५०० वर्ग लोमीटर क्षेत्र में अपनी हुकूमत स्थापित कर ली है जहां सरकार की नहीं, नक्सलियों की तूती बोलती है। बिहार, झारखंड, उड़ीसा और छतीसगढ़ के दर्जनों जिलों में वे अपनी जनवादी सरकार स्थापित करने का दावा कर रहे हैं। उन इलाकों में पहले सरकारी हुक्मरान जाने से कतराते थे। इस वजह से नक्सल इलाकों में वर्षों तक लोक निर्माण कार्य ठप रहा। लेकिन अब नक्सली मांद में सरकारी नुमाइंदे बेधड़क आवाजाही कर रहे हैं और सरकारी योजनाओं को अमलीजामा पहना रहे है। उन इलाकों में पुलिस भी सक्रिय दिख रही है। इसके कई मायने निकाले जा रहे हैं। एक ओर जहां सरकार इसे नक्सलियों का घटता जनाधार मान रही है वहीं सूत्रों का कहना है कि नक्सली खेमा एक सोची-समझी रणनीति के तहत ही लोक निर्माण के कामों को करने की इजाजत दे रहा है ताकि उनका बजट सरप्लस हो सके। नक्सल आंदोलन से सहानुभूति रखने वाले लोगों का कहना है कि आधार इलाका तैयार करने की बात करने वाले नक्सली अब छापामार जोन बनाने में लगे हैं ताकि पुलिसिया दबिश का प्रभाव गुरिल्ला आर्मी पर नहीं पड़े। इंस्टिट्यूट ऑफ डिफेंस स्टडीज़ एंड अनालिसिस के पीवी रमना का कहना है कि प्रत्येक वर्ष माओवादी विभिन्न स्रोतों से 1500 करोड़ रुपये राजस्व की उगाही कर रहे हैं।
नक्सली दस्तावेजों से मिली जानकारी के अनुसार बिहार समेत देश के दस राज्यों के नक्सल प्रभावित इलाकों में खोले गये इंर्ट चिमनी भठ्ठा से प्रतिवर्ष 25हजार रुपये लिये जा रहे हैं। खनन विभाग के अनुसार सिर्फ में ही आैसतन 760 इंर्ट भठ्ठे हैं। इस हिसाब से नक्सलियों के खाते में सूबे के चिमनी भठ्ठे से ही एक करोड़ 90हजार रुपये जमा हो रहे हैं। बालू घाटों से भी प्रति वर्ष करोड़ों रुपये की वसूली हो रही है। पेट्रोल पंप से पहले वे आमदनी के अनुसार पैसे वसूला करते थे लेकिन अब नक्सलियों की गुरिल्ला आर्मी हाइवे के पेट्रोल पंपों से प्रतिवर्ष 30 हजार और ग्रामीण इलाकों के पंपों से 15 हजार रुपये की वसूली कर रही है। देहाती इलाकों में बन रहे मोबाइल टावर भी नक्सलियों की कमाई का अच्छा जरिया साबित हो रहा है। बीते महीने नक्सलियो ने बिहार के गया और औरंगाबाद के साथ ही झारखंड के देहाती इलाकों में स्थापित तीन दर्जन टावरों को इसलिए उड़ा दिया था ताकि वे समय पर लेवी दे दिया करें। लोक निर्माण के कामों में कमीशनखोरी की बात से भले ही प्रशासनिक अधिकारी इंकार करते रहें लेकिन सच्चाई यह है कि बिना नक्सलियों को लेवी दिये एक भी काम संपन्न नहीं हो रहा है। लेवी की रकम 5 से 20 फीसदी और किसी-किसी में 30 फीसदी तक निर्धारित है। जिन ठेकेदारों ने लेवी देने से इंकार किया उनकी योजनाएं तो खटाई में मिली ही वे भी नक्सलियों की गोली के शिकार हुए। जंगल तो नक्सलियों के लिए महफूज है ही। खुफिया सूत्रों का कहना है कि नक्सलियों के रहमोकरम पर ही वन विभाग के कर्मचारी और अधिकारी सुरक्षित हैं। जंगलों में लड़की से लेकर कत्था तस्करों की चांदी बिना नक्सलियों की सहमति के संभव ही नहीं है। इससे भी प्रति वर्ष करोड़ों रुपये की आमदनी हो रही है। उड़ीसा के मयूरभंज जिले में कार्यरत एक अधिकारी का कहना है कि अकेले बांस के फूल से ही करोड़ों रुपये की उगाही नक्सली कर रहे हैं जबकि छतीसगढ़ और झारखंड में केंदू पत्ता ठेकेदार अच्छी कमाई का जरिया साबित हो रहे है।
वैसे तो हाल के वर्षों में जमीन आंदोलन से नक्सलियों ने अपना ध्यान खींच लिया है फिर भी उनका दावा है कि बिहार-झारखंड के करीब 17 हजार एकड़ जमीन पर जनवादी खेती हो रही है। इस जमीन की उपज का एक-चौथाई हिस्सा नक्सलियों के खजाने में जा रहा है। बिहार-झारखंड की सीमाई इलाकों में धान और गेहूं के बदले गांजा, भांग और अफीम की खेती इस बात का गवाह है कि समतामूलक समाज निर्माण की बात करने वाले माओवादी पैसे की उगाही के लिए किस तरह के तरकीब अपना रहे हैं। हालांकि सीधे-सीधे इसकी खेती के लिए माओवादियों को दोषी नहीं माना जा सकता फिर भी एक सवाल तो उठता ही है कि आखिर उन्हीं इलाकों में अफीम की खेती क्यों फल-फूल रही है,जो कभी माओवादियों का आधार क्षेत्र था। मजे की बात तो यह है कि इसकी खेती करने वालों में से अधिकांश नक्सलियों के हार्डनाइनर रहे हैं। चतरा में कार्यरत लाल दस्ता का सदस्य उमेश कहता है कि सरकार ने रोजगार के सारे साधन छीन लिये परिणामत: नक्सली समर्थक भी पेट की भूख मिटाने के लिए गलत धंधों में लिप्त हो गये हैं। अपने दस्तावेजों में नशा विरोधी अभियान की बात करने वाले नक्सलियों के पास इस बात का जवाब नहीं है कि आखिर अधिकांश नक्सल प्रभावित गांवों में ही क्यों अवैध शराब (महुआ) तैयार हो रहा है? वर्ग विहीन समाज निर्माण की बात करने वाले नक्सलियों के पास क्या इस बात का जवाब है कि वह किस तरीके का समाज स्थापित करना चाहते हैं?
पूर्व खुफिया ब्यूरो और फिलहाल छतीसगढ़ में कार्यरत एक अधिकारी का कहना है कि सिर्फ जबरन वसूली से ही नक्सलियों को प्रति वर्ष 1500 करोड़ रुपये की आमदनी हो रही है। वैसे तो aउओधोगिक आैद्योगिक घराने नक्सलियों को लेवी देने की बात से इंकार करते हैं लेकिन सच्चाई ठीक इसके विपरीत है। आन्ध्र के एक पेपर मिल कंपनी पिछले पांच वर्षों से प्रतिवर्ष 5 करोड़ रुपये दे रही है तो वहीं की रेयॉन कंपनी प्रतिवर्ष 10 लाख रुपये नक्सलियों को पहुंचा रही है। झारखंड में जब बुंडू का उपचुनाव हो रहा था तब इस बात की अफवाह थी कि झामुमो सुप्रीमो शिबू सोरेन ने माओवादियों को खुश करने के लिए करोड़ों रुपये दिये हैं। हालात ऐसे हो गये हैं कि जिन परियोजनाओं में नक्सलियों की कोई रूचि नहीं है वैसी स्कीम सरकार के लाख प्रयास के बावजूद अधर में लटक जा रहा है। बात चाहे झारखंड के नेटरहाट िस्थत फील्ड फायरिंग रेंज की हो या बंगाल के सिंगूर आैर नंदीग्राम की। जिसमें मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने कहा था कि विस्थापन विरोधी मोर्चा की आड़ में माओवादी इस आंदोलन को हवा दे रहे हैं। उड़ीसा का पोस्को (साउथ कोरिया की इस्पात उद्योग) समेत दर्जनों ऐसी परियोजनाएं हैं जिनका विरोध माओवादियों ने पर्दे के पीछे से किया आैर वे परियोजनाएं खटाई में पड़ गयीं। हाल ही में आन्ध्र प्रदेश का हार्डकोर माओवादी अन्ना शंकर की गिरफ्तारी जब बोकारो में हुई तब इस की पुिष्ट भी हो गयी कि किस तरह से नक्सलियों की जमात देश के विभिन्न भागों में विस्थापन विरोधी आंदोलन को हवा देते फिर रहे हैं।
समता आैर न्याय के तर्क आैर तकाजे के साथ जिन लोगों ने बंगाल के नक्सलबाड़ी नामक स्थान से 1967 में बंदूक उठायी थी उन लोगों की हमदर्दी गरीबों के प्रति झलकती थी आैर वे सीलिंग की फालतू जमीन को भूमिहीनों के बीच बांटने के हिमायती थे। आज भी नक्सलियों की जमात भूमिहीनों को जमीन दिये जाने की वकालत तो करती है लेकिन उनका अधिकांश जोर लेवी वसूली पर जान पड़ता है। हालांकि इसकी शुरुआत कैसे हुई? इसकी सही जानकारी तो नक्सलियों के पास भी नहीं है फिर भी, द पिब्लक एजेंडा की तहकीकात से जानकारी मिली की कि नक्सली आंदोलन को गति आैर पैसे की कमी को दूर करने के लिए एमसीसी आैर पीपुल्स वार गु्रप अपने-अपने आधार इलाकों में जमींदारों की तिजोरियां लूटा करते थे। फिर भी आर्थिक संकट खत्म नहीं हो रहा था तब तत्कालीन एमसीसी की केंद्रीय कमिटी ने लेवी वसूली का प्रस्ताव पास किया। आठवें दशक में कूप (जले लकड़ी से बनी कोयला) आैर खैर के कारोबारियों से मामूली रकम की वसूली की जाने लगी। एमसीसी के बिहार-बंगाल स्पेशल एरिया कमिटी के सचिव आैर पूर्व विधायक रामाधार सिंह बताते हैं,"बाद के दिनों में सिंचाई परियोजनाओं से लेकर लोक निर्माण के कामों में भी लेवी लेने का प्रावधान पास हुआ, जो बढ़ता ही गया।' बीते महीने जब उत्त्ार प्रदेश के सोनभद्र इलाके में हार्डकोर महिला माओवादी बबिता की गिरफ्तारी हुई तब इस बात का खुलासा हुआ कि माओवादियों की आक्रमक ताकत हथियार बटोरने आैर धन उगाही में लगी हुई है।
कंपनियों से लेवी वसूली की सूची बाद में दी जाएगी।
 

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