कश्मीर पर आखिर किसका चला डंडा? देशवासियों के जेहन में यह सवाल कौंध रहा है। आखिर क्यों दो महीनों तक पूरा जम्मू और कश्मीर जलता रहा और फिर अचानक ऐसी कौन सी नौबत आ गई कि सरकार के साथ ही जम्मूवासी समझौते पर राजी हो गये। एक ओर जहां दर्जनों बुद्धिजीवियों समेत कई संगठनों पर कश्मीरी हिमायती का चस्पा लगा वहीं राष्ट्रवादियों ने देश के दर्द का राग अलापा। तो फिर इसका जवाब कौन देगा। अगर आपके पास कोई जवाब है तो उसका जवाब देने की जल्दी कीजिए।
साथियों,
श्रीअमरनाथ श्राइन बोर्ड की जमीन ने ऐसी आग लगाई कि जम्मू और कश्मीर दोनों जगहों पर "पाकिस्तान जिंदाबाद,' "कश्मीर पर हिन्दुस्तानी हुकूमत नहीं चलेगी-नहीं चलेगी।' "आजाद करो-आजाद करो' आदि नारे गूंजते रहे और सुरक्षाकर्मी मूकदर्शक बनी रही। प्रदर्शनकारी सड़कों पर नंगा नाच करते रहे। 20 दिनों तक जारी आंदोलन ने पूरे देश का ध्यान अपनी ओर खींचा फिर भी मामला सुलझने के बजाय बढ़ता ही गया और अचानक एक राजनीतिक सौदेबाजी या समझौते के तहत "पाकिस्तान जिंदाबाद' के नारे लगाने वाले प्रदर्शनकारी राष्ट्रभक्त की तरह दिखने लगे। हिंदुओं और मुसलमानों के बीच उसी तरह का प्यार उमड़ा जिस तरह का प्यार वहां वर्षों से जारी था। पूरे आंदोलन का एक दिलचस्प पहलू यह रहा कि इस दौरान अमरनाथ यात्रा को किसी ने व्यवधान नहीं डाला। प्रदर्शनकारी सिर्फ और सिर्फ "लड़कर लेंगे पाकिस्तान' और "श्रीअमरनाथ श्राइन बोर्ड की जमीन रद?द करो-रद्द करो' के नारे लगा रहे थे। श्रीश्राइन बोर्ड जमीन और इसके आड़ में होने वाले प्रदर्शन के पीछे के कारणों पर भी गौर करने की जरूरत है।
प्रदेश में टीडीपी समर्थित कांग्रेस की सरकार सत्तारूढ थी। उसके पहले वहां कांग्रेस समर्थित टीडीपी की सरकार थी। तब मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती थी। लेकिन सत्ता हस्तांतरण के साथ ही प्रदेश की बागडोर गुलाम नबी आजाद के हाथों में चला गया। आजाद सरकार वहां के अल्पसंख्यक हिन्दुओं को पटाने में लग गई। वोट की राजनीति को सुरक्षित रखते हुए जम्मू में 40 एकड़ जमीन अस्थायी तौर पर श्राइन बोर्ड के नाम से आवंटित कर दी गयी। इससे टीडीपी घबरा गयी। पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती को लगा कि अगर कांग्रेस के नेतृत्व में आगामी विधानसभा चुनाव हुआ तो सब कुछ लूट जाएगा। इसी बात का ख्याल करते हुए महबूबा ने श्राइन बोर्ड की जमीन का विरोध करना शुरू किया। पहले तो कश्मीर की अस्मिता का मुद्दा बनाकर उसने सरकार गिरा दी।
इधर, 90 करोड़ की हिन्दू आबादी वाले देश में श्राइन बोर्ड की जमीन को वापस करना हिन्दूओं के लिए नाक कटाने जैसा दिखने लगा और देश के भावी प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी इसे राष्ट्रवाद बनाम अलगाववाद से जोड़कर देखने लगे। आडवाणी के मुताबिक प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी इस बात से सहमत हैं कि वाकई देश् में राष्ट्रवाद के खिलाफ अलगाववाद खड़ा है और उन्होंने कहा डाला कि अगर सहमति देश की है तो फिर समझौते की क्या जरूरत है। और फिर जो हुआ वह सबके सामने है। जम्मू के साथ-साथ कश्मीर में खुशी है। सरकार, श्राइन बोर्ड समिति के साथ ही प्रदर्शनकारियों के बीच समझौता हो गया है। अस्थायी ही सही, लेकिन 40 एकड़ जमीन श्राइन बोर्ड को दे दी जाएगी। घाटी में दो दिनों तक रंग-गुलाल हवा में उड़ते रहे। जम्मू व कश्मीर के लोग गुलाल उड़ाये भी तो क्यों नहीं, आखिर दो महीनों का संघर्ष जो रंग लाया है।
लेकिन लाख टके का सवाल है कि आखिर यह खुशी किसकी है। कौन खुश हो रहा है और क्यों खुश हो रहा है। सवाल उठता है कि क्या वे हिन्दू खुश हैं जो गला फाड़-फाड़कर चिल्ला रहा थे कि जब देश भर में मस्जिद-मकबरों को जमीन दी जा सकती है तोे बाबा भोले नाथ के लिये 800 कनाल जमीन क्यों नहीं दी जा सकती। क्या कश्मीरी पंडित खुश हैं जो दो दशकों के अपने दर्द को श्राइन बोर्ड की जमीन के नाम पर पहली बार जम्मू की सड़कों पर पाकिस्तान व मुसलमानों के खिलाफ नारे लगा रहे थे। कम से कम मैं इस बात से सहमत नहीं हूं कि इस समझौते से कोई कश्मीरी हिन्दू खुश है।
बात तो आर-पार की होनी थी फिर समझौता किसने कर लिया। एक अनुमान के मुताबिक सिर्फ जम्मू में ही दो महीनों में करीब सौ करोड़ से अधिक रुपयों का नुकसान व्याापारियों को उठाना पड़ा है। बताया जाता है कि जम्मू में जो व्यापारी है उनमें सिखों की संख्या बहुतायत है वहीं कश्मीर के बिचौलिये व्यापारियों मेंं भी पंजाबी समुदाय की संख्या अधिक बतायी जाती है। कहा जाता है कि जम्मू में आंदोलन खत्म कराने के लिए पंजाब सरकार पर भी समझौता के लिए काफी दबाव पड़ रहा था। गौरतलब है कि पंजाब में अकाली दल-भाजपा की सरकार है। इसमें दिलचस्प यह है कि भाजपा, आरएसएस कैडरों के साथ जिस तेवर में जम्मू में खड़ा होने की कोशिश कर रही थी वहीं भाजपा की राजनीति व उसका व्यापार उसे चेता रहा था कि एक हद से आगे वह आंदोलन ले जाने की गलती नहीं करे।
एक बार फिर भाजपा को कंेंद्रीय सत्ता दिखाई दे रही है। भाजपा के सत्ता में आते ही आरएसएस की महत्ता देश में दिखाई देने लगती है। देश, वाजपेयी शासनकाल में इसे महसूस भी किया है। आश्चर्य तो यह कि आरएसएस भी पूरे मामले पर खामोश रही। विदित हो कि प्रत्येक साल अमरनाथ यात्रा के समय जम्मू-कश्मीर व लद्दाख को अलग-अलग राज्य बनाने का मुद्दा उठाती रही है। एक बड़ा सवाल यह भी है कि जिस जमीन की राजनीति की शुरुआत कश्मीर की सियासत से शुरू हुई आखिर उसका पटाक्षेप जम्मू की सड़कों से कैसे हुई। कश्मीर में आजादी के नारे ने जम्मू को भड़काया और जम्मू के बंद व्यापार ने कश्मीर को भड़काने का काम किया। प्रदर्शनकारियों ने जम्मू से कश्मीर जाने वाले सारे रास्ते बंद कर यह जताने का प्रयास किया कि जम्मू के बगैर कश्मीर जन्नत नहीं हो सकती तो दूसरी ओर कश्मीर में पाक जिंदाबाद व कश्मीर की आजाादी का नारा लगाकर यह जताने का एहसास कराया गया कि जम्मू के रास्ते सिर्फ कश्मीर ही नहीं जाते बल्कि वे मुज्जफराबाद भी जा सकते हैं।
इसे संयोग ही कहा जाएगा कि सत्ता के मुनाफे पर टिकी राजनीति अब बाजार के मुनाफे में ज्यादा अधिक उम्दा दिखायी देने लगी है। शायद यही वजह है कि प्रदर्शनकारियों ने राष्ट्रवादी आंदोलन को सिरे से खारिज कर सौदेबाजी की राजनीति को अपनाया। कहा जा सकता है कि श्राइन बोर्ड की 40 एकड़ जमीन का समझौता उस राजनीति का सच है, जिसमंे समाज को बांट कर सुधार के उपाय वही संसदीय राजनीति अपनी जेब में रखना चाहती है जो अमरनाथ के जरिये राष्ट्रवाद को उभारती है...जो आजादी के नारे में अलगाववाद का उभरना देखती है।
अब आप इस सवाल को उठा सकते है कि समझौता हुआ तो शांति तो हुई। क्या समझौता न करके हालात बद से बदतर होने दिये जाते । यकीकन यह संभव नहीं है । लेकिन अगर आपको लगता है कि कश्मीरियों को पाठ पढ़ाना चाहिये...अगर आपको लगता है कश्मीर के लोग आंतकवादियों को पनाह देते है ..अगर आपको लगता है कि कश्मीरियों का दिल पाकिस्तान में है ...अगर आपको लगता है कि महबूबा मुफ्ती सरीखी नेता देश की नहीं, पाकिस्तानियों-आंतकवादियों की हिमायती है..तो फिर 40 एकड़ जमीन का समझौता क्यों । यह कैसे संभव है कि कश्मीर को लेकर हम एक बार पाकिस्तान का राग अलापे और दूसरी बार समझौते करके जीत का जश्न भी मनायें।
यकीन मानिये, अमरनाथ यात्रा की जमीन को लेकर किसी दल-संगठन की भावना हिचकोले नहीं मार रही थी और आप जो उसमें हिन्दुस्तान का बिगड़ता नक्शा देख रहे हैं, उन्हें समझना होगा कि धर्म और राज्य एक साथ नहीं चल सकते। इतिहास टटोलिये, भारत का नक्शा सबसे बड़ा और मजबूत कब था। मुगल काल में औरगंजेब और मौर्य काल में सम्राट अशोक के जमाने में। इन दोनों कालों में इनसे बड़ा शासक कोई दूसरा नहीं था । लेकिन दोनों का पतन तभी हुआ जब दोनों धर्म के प्रचार-प्रसार में लग गये । एक इस्लाम के तो दूसरा बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार में । धर्म और राजनीति के आसरे देश को न समझे तो ज्यादा अच्छा है।
देश में एक माहौल पैदा किया जा रहा है और दुष्प्रचारित किया जा रहा है कि आतंकवाद पड़ोसी देश पाकिस्तान से आ रहा है तो उसकी प्रयोगशाला देश में कश्मीर बन रहा है और इसके लिए सिर्फ और सिर्फ मुसलमान ही जिम्मेदार है। आजादी के 62वें वर्षगांठ के मौके पर तथ्यों को समझने की जरूरत है। देश में किसी भी राजनीतिक दल को 15 करोड़ वोट नहीं मिल पाते हैं तो फिर उसे बहुमत के पैमाने पर कैसे मापा जा सकता है। दूसरा तथ्य भी समझने की जरूरत है। इसी समय मुसलमानों के लिए पवित्र महीना रमजान शुरू हो रहा था। इस महीने में पूरा कश्मीर खामोश रहता है। इस पवित्र महीने में जम्मूवासी भी नहीं चाहते कि रमजान के महीने में हिंसा-प्रतिहिंसा का दौर जारी रहे।
Thursday, September 4, 2008
सौदेबाजी के आगे राजनीति फेल/· कश्मीर में किसका चला डंडा
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment