Friday, September 5, 2008

फुलवरिया बांध बन गया बाधा

आजादी को शर्मसार करती है फुलवरिया जलाशय परियोजना से प्रभावित ग्रामीणों की कहानी। बांध ने करीब 20 हजार लोगों को ऐसा उजाड़ा कि वे जानवरों की जिंदगी जीने को मजबूर हैं। न खाने का ठिकाना और न ही रहने का आशियाना। शिक्षा-चिकित्सा की तो बात ही अलग है। पूरा इलाका तंगहाली में जी रहा है और इसकी सूध लेने वाला कोई नहीं है। महादलितों की इस आबादी की ओर न तो सरकार का ध्यान गया है और न ही अन्य कोई समाजसेवी ही इन गरीबों की ओर रूख किया है।
फुलवरिया जलाशय परियोजना के अिस्तत्व में आने के बाद इलाके के लगभग दो दर्जन गांव बाहरी दुनिया से कट गये हैं। ग्रामीणों को अपने ही प्रखंड मुख्यालय में जाने के लिए या तो उबाऊ नाैका यात्रा या थकाऊ पैदल यात्रा करनी पड़ती है।
नवादा जिले की हरदिया पंचायत में जहोरा नदी पर जब बांध नहीं बना था तब पूरा इलाका गुलजार था। इलाके में शिक्षा-चिकित्सा के बेहतर इंतजाम थे। बिजली की चकाचाैंध देखते ही बनती थी। सिनेमा देखने के लिए भानेखान गांव में रजाैली तक के लोग आते थे। वहां कभी अबरख (ढिबरा) का खान था। इस वजह से पूरे इलाके पर देश की नजर थी। लेकिन 1988 में फुलवरिया जलाश्ाय परियोजना के बनते ही पूरा इलाका देश-व-दुनिया से कट गया।इलाके के 20 हजार लोग अपने ही जिले, अनुमंडल व प्रखंड मुख्यालय से बेगाने हो गये हैं। जब कभी इन्हें प्रखंड मुख्यालय जाने की जरूरत होती है तो 70 किलोमीटर की दूरी तय कर पड़ोसी प्रदेश झारखंड के कोडरमा होकर वे रजाैली आते हैं, वह भी जंगल-पहाड़ के कंक्रीट व संकीर्ण रास्तों से। नहीं तो, डिलवा से गझंडी स्टेशन होते हुए गया के रास्ते। दोनों रास्ते जंगलों-पहाड़ों से घिरे हैं। इस वजह से बराबर विषैले सांप, भालू समेत अन्य जंगली जीव-जंतुओं के आक्रमण का खतरा बना रहता है। जबकि अगर सीधे सड़क मार्ग से इन गांवों को जोड़ दिया जाय तो दूरी मात्र 12 किलोमीटर ही पड़ेगी। तीसरा विकल्प है नदी मार्ग से। 179.20 वर्ग किलोमीटर में फैले फुलवरिया जलाश्ाय को ग्रामीण नाव से पार करते हैं। यह बेहद खर्चीला आवागमन है आैर समय भी अधिक लगता है। समय पर नाव मिल ही जाएगा, इसकी भी कोई गारंटी नहीं है। यही नहीं, जलाश्ाय के दो छोरों से नाव खुलती है। एक नाव भानेखान, मरमो आदि गांवों की ओर जाती है जबकि दूसरी नाव डिलवा समेत अन्य टोले व गांवों के लिए।
जलाश्ाय बनते ही यानी 20 वर्षों से हरदिया पंचायत की बड़ी आबादी "जल कैदी' की तरह रहने को विवश है। "जल कैदी' बने इन महादलितों को न तो जॉब कार्ड मिला है आैर न ही इिन्दरा आवास ही मय्यसर है। इलाके में शिक्षा-चिकित्सा का भी घोर अभाव है। ग्रामीणों को राष्ट्रीय गारंटी रोजगार योजना (नरेगा)के बारे में भी कुछ इल्म नहीं है।
ऐसी बात नहीं है कि ग्रामीणों की यह परेशानी सदियों पुरानी है। 1988 के पहले इलाके में सड़क संपर्क अच्छा था। चिरैला गांव में साप्ताहिक हाट लगती थी, यहां रजाैली तक के ग्रामीण बाजार करने आते थे। यहीं मध्य विद्यालय थाजिसमें आसपास के ग्रामीण बच्चे शिक्षा ग्रहण करते थे। भानेखाप में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र था जहां करमा टीबी अस्पताल के टीबी विशेषज्ञ बैठा करते थे। सिंगर के रामचरितर राजवंशी बताते हैं कि चिरैला से नवादा के लिए उस समय पावापुरी व रोहिणी नामक बसें खुला करती थीं। भानेखाप में अबरख खान की वजह से इलाके में संपन्नता थी। ग्रामीण इसी खान में नाैकरी किया करते थे। इसके अलावा केंदू पत्त्ाा व कत्था से भी ग्रामीणों की अच्छी आय हो जाया करती थी।
फुलवरिया जलाश्ाय परियोजना बनते ही 40 गांवों-टोले के ग्रामीणों का मानो सबकुछ लुट गया। जलाश्ाय ने पहले तो हरदिया पंचायत के 14 गांवों (चिरैला, सिंगर, मरमो, रनिमास, बिगहा, कमात, धुरीताड़, पीपरा, कांसतरी, जहुरा आदि) को डुबोया। इन ग्रामीणों को पटना-रांची हाइवे के बगल में बसाया गया है। इनमें से कुछ को मुआवजा मिला लेकिन अन्य ग्रामीण अभी भी विस्थापन के मुआवजे की लड़ाई लड़ रहे हैं। ऊंचाई वाले भानेखाप (कभी अबरख के लिए प्रसिद्ध), सुअरलेटी, कुंभियातरी, खिरकिया, चोरडीहा, डिलवा, कोसदरिया, झराही, परताैनिया, जमुंदाहा आदि गांव उसी हालात में छोड़ दिये गये। इन्हीं गांवों के ग्रामीण आदिम युग में जीने को मजबूर हैं आैर 20 वर्षों से "जल कैदी' बने हुए हैं।
पूर्ववर्ती सरकारों से लेकर वर्तमान सरकार ने दलितों के विकास के लिए खूब रोना रोया। पर उनका ध्यान इन महादलितों की बदहाली की ओर नहीं गया है। स्थानीय विधायक बनवारी राम स्वीकारते हैं कि ग्रामीणों को काफी परेशानी का सामना करना पड़ रहा है लेकिन जल्द ही इनकी समस्याएं दूर कर दी जाएंगी। उनका कहना है कि रजाैली के पास से धमनी होते हुए डिलवा स्टेशन तक सड़क के लिए योजना बनाई गई है। जल्द ही टेंडर होने वाला है।हरदिया पंचायत की मुखिया मुन्ना देवी (महादलित) बताती हैं कि पंचायत कोष में सड़क का कोई प्रावधान नहीं है। इलाके के विधायक व सांसद ग्रामीणों की समस्याओं पर ध्यान नहीं देते। टापू पर रह रही चिरैला की रजिया देवी बताती है कि वह कभी पांच बीघे की मालकिन थी, आज भूमिहीन हो गई है। विस्थापन का भी मुआवजा नहीं मिला। मरमो गांव के कृष्णा राजवंशी बताते हैं कि वतर्मान विधायक बनवारी राम दलित वर्ग से आते हैं फिर भी, आज तक उनका चेहरा ग्रामीणों ने नहीं देखा है।
बांध के उस पार 20 हजार की आबादी पर मात्र दो ही प्राथमिक विद्यालय हैं। आंगनबाड़ी भी कागजों पर ही चल रही है। दलितों के विकास के लिए बनी अन्य योजनाओं के लाभ से ग्रामीण वंचित हैं। मरमो गांव निवासी व मुखिया के समधी कृष्णा भुइंर्या बताते हैं कि दलितों में शिक्षा का नामोनिशान नहीं है। इस वजह से सरकारी योजनाओं का कुछ पता ही नहीं चलता।
समय पर नाव की उपलब्धता नहीं होने से इलाके के मासूम बच्चे शिक्षा से पूरी तरह से वंचित हो गये हैंे। सिंगर निवासी संजय बताता है कि नयी सिंगर में रहकर किसी तरह से 6वीं पास किया हूं। लेकिन अब आगे की पढ़ाई संभव नहीं हैं। पूछने पर बताता है कि एक तो समय पर नाव नहीं मिलती। अगर किसी दिन समय पर मिल भी गई तो नाव पर ही तीन घंटे समय लग जाते हैं, फिर पेट का सवाल है। घर में इतने पैसे नहीं हैं कि आगे की पढ़ाई जारी रखी जाय। वहीं सैंकड़ों मासूमों जिनके हाथों में कलम होनी चाहिए थी उनके हाथों में परििस्थति ने छेनी-हथाैड़ी थमा दी है।
जलाश्ाय बनाकर सरकार कितने किसानों को लाभािन्वत कर रही है। इसका तो अनुमान ही लगाया जा सकता है । लेकिन सरकार ने जाने-अनजाने ही पूरे इलाके को नक्सलियों के हवाले जरूर कर दिया है। जिला मुख्यालय से सीधा संपर्क मार्ग नहीं होने की वजह से इलाके में नक्सलियों की तूती बोलती है। कानून-व्यवस्था के लिए पुलिस भी होती है, यह बात अब ग्रामीण भूल चुके हैं। इलाके का कोई भी मामला (खनन को छोड़कर) पुलिस के पास नहीं पहुंचती। सीपीएम नेता व विस्थापितों के लिए संघर्षरत कृष्णा चंदेल बताते हैं कि रजाैली ब्लॉक व थाना मुख्यालय है। यहां आने के लिए लोगों को दो दिनों का समय आैर साै रुपये की जरूरत होती है। इस वजह से ग्रामीण कभी पुलिस के पास जाते ही नहीं हैं। फिर वहां न्याय मिलने में भी देर होती है। दूसरी ओर, जब भी कोई मामला नक्सलियों के पास पहुंचता है, फटाफट उसका समाधान नक्सली कर देते हैं। इसके कारण नक्सली ग्रामीणों के बीच पैठ बना चुके हैं।
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सरकार ने मछली मारने का भी हक छीना
सरकार महादलितों के कल्याण के लिए गंभीर तो दिखती है पर व्यावहारिक ताैर पर इस दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठाती। इसका उदाहरण है फुलवरिया जलाशय परियोजना। सरकार ने पहली बार अक्टूबर, 2007 में फुलवरिया जलाशय के लिए खुला निविदा (टेंडर) जारी किया था। लेकिन निविदा जारी करते वक्त फुलवरिया परियोजना के अभियंता ने राष्ट्रीय पुनर्वास एवं पुनस्र्थापन नीति-2007 का खयाल नहीं किया। उक्त नीति की कंडिका-सात में स्पष्ट उल्लेख है कि प्राथमिकता के आधार पर परियोजना से प्रभावित परिवार को ही मछली मारने का हक बनता है। इस क्षेत्र में ग्रामीणों के लिए रोजी-रोजगार का एक मात्र साधन मछली मारना ही बचा है।
जलाशय बनते ही खेतिहर जमीन डूब क्षेत्र में चला गया। विस्थापित ग्रामीण इसी नीति का हवाला देते हुए जिलाधिकारी से हस्तक्षेप की मांग कर रहे हैं। ग्रामीणों ने जिलाधिकारी को भेजे ज्ञापन में अनुरोध किया है कि खुला निविदा रद्द कर "नयी सिंगर मत्स्यजीवी स्वावलंबी समिति' (सहकरी समिति) के नाम से बंदोबस्त कर दिया जाय।

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