Wednesday, May 27, 2009

अकेली औरते, सामूहिक पहल

बिहार की कई विधवा और परित्यक्त महिलाओं ने समाज और धर्म की रूढ़ियों को तोड़ते हुए सुहागिन बनने का निर्णय लेकर एक मिसाल कायम की है।
अठारह साल की उम्र में विधवा हो चुकी विभा अपने परिजनों के साथ ही समाज के ठेकेदारों से पूछती है, "आखिर सफेद कपड़ों में पूरी जिंदगी कैसे कटेगी? कब तक कुलक्षणी होने का लांछन लगता रहेगा?' लेकिन समाज के पास इसका कोई जवाब नहीं है। विभा, पटना जिले के मदारपुर (पुनपुन) गांव की रहने वाली हैं। 15 वर्ष की आयु में उसकी शादी हुई थी और मात्र तीन साल के बाद ही वह विधवा हो गयी। उसके पति को अपराधियों ने गोलियों से भून दिया था। भरी जवानी में विधवा होने का दर्द क्या होता है, यह कोई विभा से पूछे। आगे की जिंदगी उसके सामने डरावने सवाल की तरह खड़ी थी और विभा के पास कोई जवाब नहीं था। ससुराल के साथ-साथ मैके से भी आये दिन ताने सुनने पड़ रहे थे। ऐसी विकट परििस्थतयों का सामना करने के लिए उसने पुनर्विवाह का निर्णय ले लिया। हालांकि उसके इस क्रांतिकारी फैसले से परिवार में कोहराम मचा हुआ है। कमोवेश ऐसी ही पीड़ा गया जिले के बाराचट्टी गांव की कमला की है। नक्सलियों ने कुछ वर्ष पहले उसके पति को पुलिस का मुखबिर बताकर गोली मार दी थी तो दूसरी ओर, पुलिस मुठभेड़ में मारे गये नक्सली लालमोहन यादव उर्फ नटवर की पत्नी हेमलता (काल्पनिक नाम), समस्तीपुर की पूजा, मुजफ्फरपुर की अर्चना, नालंदा जिले की सुनीता, बेगूसराय की रमावती आदि की कहानी भी एक जैसी है। समाज में विधवाओं की लंबी सूची है जो पति की गैरमौजूदगी कुंठित जिंदगी जी रही हैं और इस सामाजिक अभिशाप से मुक्ति चाहती है.
महिला सशिक्तकरण के नाम पर भले ही देश में हर वर्ष करोड़ों रुपये खर्च किये जा रहे हों, लेकिन विधवा और परित्यक्ता महिलाओं का कल्याण और सशिक्तकरण शायद सरकारी दायरे से बाहर ही है। अकेली जिंदगी गुजार रहीं विधवा और परित्यक्तता महिलाओं की घुटनभरी जिंदगी की दास्तान किसी से छिपी हुई नहीं है। घर के भीतर कुलक्षणी, तो बाहर उन्हें अपशकून माना जाता है। सामाजिक ताने-बाने और पारिवारिक मर्यादा का ऐसा ढोंग सामाजिक और धार्मिक ठेकेदारों ने रच रखा है कि उससे आजीज आकर विधवाओं ने रूढ़िवादी परंपराओं को तिलांजलि देते हुए सधवा (सुहागन) बनने की मुहिम ही छेड़ दी है। विचारों की शान पर विधवाओं की आवाज कितनी तेज होती है और कितनी दूर तक पहुंचती है, इस बारे में तत्काल कुछ कहना जल्दबाजी होगी। लेकिन राजधानी पटना में विधवा और परित्यक्ता महिलाओं ने विधवा पुनर्विवाह की वकालत करके सामाजिक तौर पर एक नया विवाद तो छेड़ ही दिया है।
इतिहास बताता है कि लोकतंत्र की जननी रहा बिहार राष्ट्रीय स्तर पर हमेशा क्रांतिकारी प्रतीक खड़ा करता रहा है और देश की सामाजिक-राजनीतिक हलचलों में अहम भूमिका निभाते आ रहा है। बात चाहे अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह की हो या फिर आजाद भारत में इंदिरा गांधी की तानाशाही और सामंती जुर्म के खिलाफ बगावत की हो, बिहार ने सदा ही अग्रणी भूमिका निभायी है। एक बार फिर सामाजिक ठेकेदारों और रूढ़िवादी परंपराओं को चुनौती देते हुए कनाडाई मूल की राजस्थानी महिला डॉ. जिन्नी श्रीवास्तव की पहल और मुस्लिम महिला अख्तरी बेगम के आह्वान पर बिहार की करीब 225 विधवाओं ने सधवा बनने की सामूहिक इच्छा व्यक्त करके सबको चौका दिया है। एकल नारी संघर्ष समिति के बैनर तले एकजुट हुई एकल महिलाओं ने एक स्वर में समाज के दकियानूसी चेहरे को उतार फेंकने का संकल्प लिया है। गांधीवादी विचारधारा से प्रभावित बेगम कहती हैं, " बात चाहे हिन्दू की हो या फिर मुिस्लम की, एकल महिलाओं की जिंदगी एक जैसी है। दोनों समुदाय की महिलाएं पति की गैरमौजूदगी में नारकीय जिंदगी जी रही हैं। इससे निजात पाने का एक ही तरीका है और वह है, आर्थिक आत्मनिर्भरता।'
बीते महीने पटना के पंचायत भवन में मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों के सामने जब इन महिलाओं ने माथे में सिंदूर, कलाई में चुड़ी-लहठी, और नाखूनों पर नेल पालिश लगायी तो इसका मतलब साफ था कि वे विधवा के पहनावे-ओढ़ावे की बंदिशों को मानने से इंकार कर रही हैं। विधवा होने के बावजूद संकेत में ही इन महिलाओं ने समाज के ठेकेदारों को अपनी मंशा जता दीं। इनमें से अधिकांश की आयु 15 से 40 वर्ष के बीच है। एक सुर में सभी ने कहा कि हम लोग समाज और परिवार को कलंकित करने नहीं, बिल्क खुद के जीवन को संवारने आये हैं। लगातार तीन दिनों तक पटना में इसे लेकर गहरा विचार-मंथन होता रहा। अधिकांश विधवाएं अपने इरादों पर पूरी तरह से अडिग दिखीं। आखिर हो भी क्यों नहीं? वर्षों की घुटनभरी जिंदगी, कई तरह के सामाजिक और पारिवारिक लांछन! फिर भी मौन स्वीकारोक्ति। और तो और, जलालत भरी जिंदगी जीने के बावजूद न तो परिवार के किसी सदस्य का कोई साया और न ही बच्चों की शिक्षा-चिकित्सा की कोई गारंटी। इससे भी नहीं बन पाया तो सुदूर देहाती इलाकों में कभी किसी महिला को डायन, तो कहीं-कहीं चुड़ैल बताकर मार डालने तक की घटनाएं सामने आ चुकी हैं। बावजूद इसके तथाकथित सभ्य समाज मौन बना रहता है। ऐसी महिलाओं पर चरित्रहीनता का आरोप तो सरेआम लगते रहे हैं। रोज-रोज के ताने सुनते हुए बदहवास हो चुकी ऐसी विधवाओं में से एक है, पटना जिले के म्सौर्धि आईडी की रहने वाली पिंकी। तो अन्य हैं नालंदा जिले की सुनीता और लड़कनिया टोला (कटिहार) की सुमन सिंह। हजारों महिलाओं की दर्दभरी दास्तान के साथ ही इन महिलाओं की जिंदगी भी दुखभरी है। पिंकी के पति कुछ वर्ष पहले अपराधियों के गोलियों के शिकार हो गये, तो सुमन सिंह का दाम्पत्य जीवन टूटने के कगार पर है। कारण यह है कि सुमन का पति नशेड़ी है। उसे न तो बच्चों की फिक्र है और ही पत्नी की। सुनीता के पति पिछले छह सालों से लापता हैं, जिसके कारण सुनीता के कंधे पर अपने बच्चों की परवरिश की जिम्मेदारी आ गयी है। लेकिन लाचार सुनीता इस जिम्मेदारी की बोझ को कैसे उठाये ? उसे कोई उपाय नहीं सूझ रहा। इन महिलाओं के सामने एक जैसी समस्याएं है। पारिवारिक दायित्वों के अलावा एक बड़ी जिम्मेदारी यह भी कि बाल-बच्चों की शिक्षा-चिकित्सा कैसे हो। चौखट से बाहर आते ही तथाकथित सभ्य समाज के ठेकेदार चिल्ला उठते हैं कि बिना मरद (मर्द) के बाहर कैसे जाओगी? इज्जत बची रहेगी तो किसी न किसी तरह गुजारा हो ही जाएगा। यह है सभ्य समाज का साफ-सुथरा चेहरा, जहां महिलाओं पर चाैखट से बाहर आते ही चरित्रहीनता का आरोप मढ़ दिया जाता है।
ये तो बानगी है, पूरी तस्वीर इससे भी ज्यादा भयावह है। जहानाबाद की किरण और सरस्वती, हरिहरपुर (भोजपुर) की लक्ष्मी समेत न जाने कितनी ऐसी महिलाएं हैं जो गुमनाम जिंदगी जीने को विवश हैं। नक्सल पचरम लहराने वाले बिहार में वैसे भी कभी जातीय सेना तो कभी नक्सली हिंसा के शिकार हजारों महिलाओं अपने सीने में पति खोने का दर्द समेटे हुई हैं। एकल महिलाओं की दुर्दशा से चिंतित राजस्थान से बिहार पहुंचीं सामाजिक कार्यकर्ता डा. जिन्नी श्रीवास्तव बताती हैं, "समाज में एकल जिंदगी जी रही महिलाओं को अबला न समझा जाये। महिलाएं शुरू से ही सबल रही हैं और अगर उन्हें समाज और परिवार की बंदिशों से मुक्त कर दिया जाये, तो आज भी वे सबल ही हैं।'
सवाल उठता है कि आखिर विधवा और परित्यक्ता महिलाओं के साथ समाज में ऐसे दोयम दर्जे का व्यवहार क्यों हो रहा है? इस बाबत मानवाधिकार कार्यकर्ता और बिहार राज्य मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष जिस्टस एसएन झा बताते हैं कि जब तक महिलाएं अपने पैरों पर खुद खड़ी नहीं होंगी तबतक इनके प्रति समाज का दकिनयानूसी व्यवहारों में कोई खास कमी नहीं होगी।
आंकड़ों पर गौर करें तो देश भर में विधवा महिलाओं की संख्या जहां आठ फीसद है वहीं विदुर पुरुष मात्र 2.5 फीसदी हैं। जबकि 67 फीसद महिलाएं ससुराल में रहती हैं। इनमें से अधिकतर ससुराल वालों की प्रताड़ना से परेशान हैं। ऐसी परििस्थतियों में विधवा पुनर्विवाह के इस अभियान का महत्व काफी बढ़ जाता है। लेकिन यह अभियान तब ही अपना लक्ष्य प्राप्त करने में सफल होगा जब इसमें अशिक्षित और गरीब महिलाओं के साथ-साथ शिक्षित और आर्थिक रूप से संपन्न महिलाएं भी हिस्सा लेंगी।

5 comments:

डॉ महेश सिन्हा said...

अत्यंत महत्वपूर्ण मुद्दा उठाया है आपने जब तक सबका विकास नहीं होगा देश का विकास एक थोथी कल्पना है आशा है बिहार फिर से देश को एक नयी दिशा देगा

Anonymous said...

कई सही प्रश्न उठाता आलेख...

शुभकामनाएं....

mastkalandr said...

pad kar achha laga ..,mahilaon ko unka haq milna chahiye,zamna kahan se kahan pahoch gaya hai..,aakhir kab tak log purani rudi wadi takaton ka zulm sahte rahenge...
aapka abhinandan..,logo tak sach pahuchane ke liye ..mk

गोविंद गोयल, श्रीगंगानगर said...

bahut khub.narayan narayan

संगीता पुरी said...

बहुत सुंदर…..आपके इस सुंदर से चिटठे के साथ आपका ब्‍लाग जगत में स्‍वागत है…..आशा है , आप अपनी प्रतिभा से हिन्‍दी चिटठा जगत को समृद्ध करने और हिन्‍दी पाठको को ज्ञान बांटने के साथ साथ खुद भी सफलता प्राप्‍त करेंगे …..हमारी शुभकामनाएं आपके साथ हैं।