Wednesday, May 27, 2009

सात फेरों से वंचित मांएं

पहाड़िया जनजाति की हजारों लड़कियां बिना विवाह के मां बनने को विवश हैं और विवाह की रस्म का इंतजार कर रही हैं।
बामू पहाड़िया की उम्र करीब 50 वर्ष है। इनके छह बच्चे हैं। वर्षों पहले अमड़ापाड़ा ब्लॉक के बाघापाड़ा गांव में भोज खाने गये बामू पहाड़िया अपने साथ एक लड़की को लेते आये थे। दोनों बताैर पति-पत्नी हरिणडूबा गांव में रहने लगे। बामू मां बनती गयी पर सुहागन नहीं बन पायी है। कमोबेश यही कहानी है शिबू पहाड़िया के परिवार की। इनका एक बच्चा गोद में आैर दूसरा की छाती से चिपका हुुआ। तीसरे आैर चाैथे बच्चे की उम्र कोई आठ आैर दस साल। जबकि पांचवें ने अपना घर बसा लिया है। न मां सुहागन बनी आैर न ही बहू।
पाकुड़ जिला मुख्यालय से 10 किलोमीटर दक्षिण-पिश्चम पहाड़ पर बसे हरिणडूबा गांव में ऐसी अन ब्याही 40 से अधिक मां बन चुकी युवतियां हैं जबकि उनकी शादी की रस्म अदायगी तक नहीं हो पायी है। अधिकांश लड़कियां (महिलाएं) बिना विवाह के ही अधेड़ हो चुकी हैं। हरिणडूबा गांव में पहाड़िया जनजाति के 60 परिवार रहते हैं। इन्हीं में से एक है शिबू पहाड़िया का परिवार। बाप-बेटे (दोनांें) अपना घर बसा चुके हैं। दोनों को आशा है कि एक दिन जब घर की माली हालत सुधरेगी तभी मंडप सजेगा। एक ही मंडप में सास आैर बहू दोनों माथे पर सिंदूर लगायेंगी। चूड़ियां पहनेंगी। गांव में भोज का आयोजन होगा। ग्राम प्रधान की माैजूदगी में रस्म अदायगी के बाद सुहागन बनने का सपना पूरा होगा।
बिना सुहाग के ही पहाड़िया जनजाति की सैकड़ों लड़कियों के मां बनने की कहानी दिलचस्प है। समाज ने इसे "हरण विवाह' नाम दिया है। इलाके में लगने वाले हाट आैर मेले में जब लोग यानी लड़के-लड़कियां जाते हैं, तो वहीं अपनी क्षेत्रीय भाषा में साथ-साथ रहने की बातें करते हैं। जब बातचीत पक्की हो जाती है, तब लड़की का हाथ पकड़कर तेजी से लड़का हाट से बाहर निकलता है आैर सीधे अपने गांव की ओर रवाना होता है। गांव वाले किसी अनजान लड़की को देखकर गंाव प्रधान को खबर करते हैं। उसी समय पंचायत बैठती है आैर साथ रहने की इजाजत मिल जाती है। फिर लड़की मां भी बनती है आैर समाज में वे बताैर पति-पत्नी रहने लगते हैं।
यह कहानी सिर्फ हरिणडूबा गांव की ही नहीं है। संथालपरगना प्रमंडल के अधिकांश पहाड़िया जनजाति के सुदूर गांवों में गरीबी का दंश झेल रही सैकड़ों लड़कियां काफी कम उम्र में बिन ब्याही मां बन रही हैं। ऐसी ही हजारों महिलाओं में से 125 महिलाएं कुछ महीने पहले सुहागन बनीं। पाकुड़ जिला मुख्यालय से करीब 50 किलोमीटर दक्षिण-पिश्र्चम िस्थत अमड़ापाड़ा प्रखंड के पकलो-सिंगारसी गांव में जब सुहागन बनने के लिए महिलाओं का जमावड़ा लगा, तो सभ्य समाज आैर धर्म के ठेकेदार किंकर्तव्यविमूढ़ नजर आये। वहीं स्थानीय प्रशासन भी सकते में था। सुहागन बनने पहुंची महिलाओं में से किसी के चार बच्चे हैं, तो कोई दो बच्चों की मां है। दो दर्जन ऐसी भी युवतियां पहुंचीं, जिनकी उम्र करीब 15 की रही होगी आैर गोद में अपने नवजात शिशु को लेकर अिग्न के सात फेरे लगा रही थीं। दर्जनों ऐसी भी महिलाएं थीं, जो अपनी बहू आैर बेटी के साथ मंडप में सिंदूर दान की रस्म अदायगी के लिए बैठी थीं।
इस इलाके में आगे भी इस तरह की सामूहिक विवाह के आयोजन की तैयारी चल रही है। जून तक करीब 250 बिन ब्याही मांओं की सिंदूर दान की रस्म अदायगी होने की संभावना है। आखिर इस समुदाय की लड़कियां बिन ब्याही मां क्यों बनती हैं। इस बाबत पूर्व सैनिक आैर सामाजिक कार्यकर्ता विश्र्वनाथ भगत बताते हैं, "गरीबी की वजह से भोज देने के लिए पैसे नहीं रहने आैर फिर शिक्षा का अभाव आैर खुला समाज होने की वजह से वे (लड़कियां) घर बसाने को तैयार हो जाती हैं। परंपरागत शादी (जिसमें लड़की के घर बारात जाती है) का प्रचलन धीरे-धीरे गरीबी की ही वजह से सुदूर इलाके से खत्म होता जा रहा है।'
जंगलों आैर पहाड़ों के बीच रहने वाली इस जनजाति की माली हालात किसी से छुपी नहीं है। पहाड़ों पर िस्थत झीलों आैर तालाबों का पानी पीना आैर जंगली कंदमूल खाकर जीवनयापन करना ही इनकी नियति हो गयी है। हालांकि, बाजारवाद का असर भी कहीं-कहीं देखने को मिलता है, जहां इस समुदाय के युवक जंगली लकड़ियों को स्थानीय हाट में मामूली पैसे पर बेचते हैं आैर जरूरी सामानों की खरीद-बिक्री करते हैं।
अंग्रेजों ने पहा़िडया समुदाय की वीरता को देखते हुए 1782 में पहाड़िया सैनिक दल का गठन किया, मिजाज से स्वाभिमानी पहाड़िया जनजाति ने कभी अंग्रेजों की अधीनता नहीं स्वीकारी। इससे आजीज आकर ब्रिटिश सरकार ने 1833 में पहाड़िया समुदाय को 1338 वर्गमील की सीमा में कैद कर दिया। इस क्षेत्र को "दामिन-इ-कोह' क्षेत्र घोषित किया गया। इस इलाके में 26 दामिन बाजार स्थापित किये गये तो आजाद भारत की सरकार ने इनकी संस्कृति के साथ ही गरीबी को देखते हुए 1954 में विशिष्ठ पहाड़िया कल्याण विभाग का गठन किया। पहाड़ों पर स्कूल बनाये गये। कहीं-कहीं चिकित्सा की भी व्यवस्था की गयी। आदिवासियों की अिस्मता के नाम पर बंटा बिहार आैर नवोदित झारखंड की सरकार अपने आठ साल के कार्यकाल के बावजूद इनकी नियति सुधारने में नाकाम साबित हुई है। हालांकि, नक्सलियों से मुकाबले के लिए अर्जुन मंडा की सरकार ने ब्रिटिश सरकार की तर्ज पर पहाड़िया बटालियन बनाने की रूपरेखा तैयार की थी, लेकिन बाद की सरकारों ने इस ओर ध्यान नहीं दिया। यही नहीं, वर्ष 2002 की जनगणना के अनुसार पहाड़िया जनजाति के करीब एक लाख 70 हजार, 309 की आबादी को आबाद करने के लिए प्रतिवर्ष करोड़ों रुपये विश्र्व बैंक के साथ ही केंद्र सरकार से सहायता के रूप में मिलते हैं। हालांकि स्थानीय लोग सरकार के इस आंकड़े को झूठा मानते हैं। इस जनजाति के लोगों का कहना है कि संथाल परगना प्रमंडल में ही 57 गांवों का न तो सर्वे हो पाया है आैर न ही मतदाता सूची में ही नाम दर्ज कराया गया है। सच्चाई चाहे जो भी हो। बावजूद इसके, पहाड़िया समाज बदहाल बना हुआ हैै। संथाल परगना प्रमंडल के बोरियो, अमरापाड़ा आैर लिट्टीपाड़ा समेत अन्य कई इलाके के ग्रामीण 8 किलोमीटर की दूरी तय कर पीने का पानी लाने को विवश हंै। जंगलों आैर पहाड़ों पर बिषैले सांप-बिच्छू का खतरा भी बराबर मंडराता रहता है। कई इलाके मलेरिया जोन घोषित किये गये हंै। बावजूद इसके इलाके में जन स्वास्थ्य सुविधाओं का घोर अभाव है। स्थानीय भाजपा कार्यकर्ता आैर पहाड़िया समुदाय के शिवचरण मालतो बताते हैं, "गरीबी आैर अशिक्षा का फायदा रांची आैर दुमका में बैठे अधिकारी उठा रहे हैं।' आदिवासी कल्याण आयुक्त डॉ नितिन मदन कुलकर्णी बताते हैं कि सरकार की ओर से उनकी दशा सुधारने के लिए सार्थक प्रयास किये जा रहे हैं। कई सारी योजनाएं उनके कल्याण आैर विकास के लिये चलायी जा रही हैं।
वैसे तो सारे पहाड़िया समुदाय की िस्थति कमोबेस एक जैसी ही है, फिर भी माल पहाड़िया के बीच शिक्षा का विकास हुआ है। वहीं साैरिया आैर कुमारभाग पहाड़िया समुदाय अब भी पहाड़ों पर ही डेरा डाले हुए है। कभी राज परिवार रहे आैर गुरिल्ला युद्ध में निपुण रहे इस समुदाय की आर्थिक िस्थति इतनी बदतर कैसे हो गयी, इस बाबत सामाजिक कार्यकर्ता दयामणि बारला बताती हैं, "प्रकृति पर निर्भर रहने वाले इस समुदाय के पास आजादी के पहले तक जंगलों पर पूरा अधिकार था, लेकिन आजादी के बाद वनों आैर पहाड़ों पर माफिया का राज स्थापित होने लगा जो बदस्तूर जारी है। फिर आैद्योगीकरण की वजह से प्रदूषण का प्रभाव पड़ा आैर अनावृिष्ट आैर अतिवृिष्ट की वजह से सारा कुछ बर्बाद हो गया। परिणामत: यह समाज धीरे-धीरे गरीबी की दलदल में फंसता चला गया।' एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि बिन ब्याही मांओं को इस समाज में भी मान्यता नहीं मिली है। फिर भी गरीबी की वजह से वे ऐसा कर रहे हैं, जिसे किसी भी परििस्थति में जायज नहीं ठहराया जा सकता।'

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