Wednesday, March 4, 2009

कम नहीं आंकिये बसपा को

हालांकि उत्तर प्रदेश को छोड़कर कहीं भी बहुजन समाज पार्टी की सरकार नहीं है और न किसी दूसरे राज्यों में वह सरकार बनाने की ही स्थिति में है। बावजूद इसके आगामी आम चुनाव में बसपा राष्ट्रीय राजनीति में निर्णायक दबदबा बनाने में कामयाब हो सकता है। कुछ महीने पूर्व हुए चार राज्यों के विधानसभा चुनाव परिणामों को देखते हुए बड़े दलों मसलन भाजपा और कांग्रेस इसे नकार कर नहीं चल सकते।
बसपा की सोशल इंजीनियरिंग को देखते हुए कांग्रेस और भाजपा समेत वाम दलों ने भी इसे बतौर सत्ता प्रेम दलितों को पटाने में लगी है। हालांकि ऊ परी तौर पर दोनों दल यह दिखाने की फिराक में हैं कि फिलहाल बसपा से डरने की जरूरत नहीं है। लेकिन इन दलों के अंदर झांकने पर तस्वीर कुछ दूसरी उभरकर आ रही है। इसका गवाह केंद्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली ही है जहां कभी बसपा ने दो सीटों (8.5 फीसदी) से खाता खोला था वहां बीते विधानसभा चुनाव में उसे14 फीसदी वोट मिले। कमोवेश यही हाल मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में दिखा जहां पिछले विधासनभा चुनाव में अपना वोट बैंक बढ़ाने में कामयाब रहा। एक ओर बसपा ने जहां मध्य प्रदेश में दो सीटों की बढ़ोतरी करते हुए वर्तमान विधानसभा में सात विधायकों को भेजने में सफल रहा वहीं छत्तीसगढ़ में वोट प्रतिशत 6.00 कर लिया। हाथी की मस्त चाल से राजों-रजवाड़ों का गढ़ राजस्थान भी अछूता नहीं रहा। यहां सत्ता की बागडोर भले ही कांग्रेस पार्टी ने संभाली हो लेकिन बसपा ने 4 अतिरिक्त सीटें जीतकर अपना 6 फीसदी वोट बढ़ा लिया। कभी "वोट से लेंगे पीएम-सीएम और मंडल से लेंगे एसपी-डीएम' का राग अलापने वाली बसपा इन दिनों न सिर्फ उत्तर भारत में बल्कि अखिल भारतीय राजनैतिक वजूद बचाने में कामयाब हुई है। विदित हो कि कांशीराम ने जब अपनी नौकरी छोड़कर बामसेफ और डी-फोर के रास्ते बसपा बनाया था उसी समय उन्होंने नया हिन्दुस्तान का सपना भी देखा था उस समय उनका स्पष्ट विचार था कि दलितों और पिछड़ों का भला तब तक नहीं होने वाला जबतक सत्ता पर उनका (दलितों और पिछड़ों) कब्जा नहीं होगा।
वैसे तो बहुत लोगों को यह भ्रम है कि बसपा दलितों की पार्टी है। लेकिन इसके गिरेबां में झांकने पर यह स्पष्ट होता है कि यह दलितों की पार्टी नहीं, बल्कि भारतीय संविधान पर खरा उतरने वाली एकमात्र पार्टी है जिसके संस्थापक कांशीराम ने 1987 में ही हरियाणा विधानसभा में पिछड़ों को आरक्षण देने की वकालत की थी। तब मंडल कमीशन की रिपोर्ट केंद्रीय सचिवालय में धूल खा रही थी। उसी समय कांशीराम ने आजादी के बाद के हुक्मरानों पर तरस के साथ ही आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा था कि आखिर क्या कारण रहा कि इतने दिनों के बाद भी अनुसूचित जाति, जनजाति के साथ ही पिछड़ों को न तो सामाजिक मान्यता ही मिली और न ही कोई अधिकार ही दिये गये।
यही नहीं, सीएसडीएस की ओर से जारी किये गये आंकड़ों के अनुसार 1999 में 13 फीसदी गैर-यादवों के वोट बसपा को मिली। कहने का तात्पर्य यह कि कांशीराम ने बसपा में दलितों के साथ ही पिछड़ों और मुसलमानों को भी जोड़ने का प्रयास किया। एक कदम आगे बढ़ते हुए वर्ष 2007 में पार्टी सुप्रीमो मायावती ने बसपा में सवर्णों में ब्राहणों के साथ ही वैश्यों को जोड़कर एक नया कीर्तिमान स्थापित किया और सोशल इंजीनियर बन गयी। कमाल करते हुए मायावती ने प्रदेश में 30 फीसदी वोट और 206 सीटें पाकर अपने दम पर सरकार बना ली। अगर सबक ुछ ठीकठाक रहा तो आगामी लोकसभा चुनाव में वह 40-50 सीट आसानी से जीत सकती है। अगर ऐसा हुआ तो बिना बसपा के सहयोग के केंद्र की सरकार चलाना मुश्किल होगी। फिर गठबंधन की राजनीति उन्हें प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठा दे तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी, क्योंकि देश की बड़ी वामपंथी पार्टी सीपीएम पहले ही मायावती के पक्ष में खड़ा हो चुकी है। वहीं सांप्रदायिकता के नाम पर भाजपा विरोध अभी भी वामपंथियों का जारी है। फिर दिल्ली, राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ समेत अन्य राज्यों में जिस तरीके से हाथी मस्तानी चाल चली है उसका भी संकेत सकारात्मक ही है।

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