Tuesday, March 17, 2009

माओवादियों का बदला नेता!

"आप मजदूर हैं और आपकी मेहनत के सहारे ही देश आगे बढ़ता है। आपके खून-पसीने को मलाई में बदलकर मालिक-सरकार जमकर मौज उड़ाते हैं और आप अंधेरे में रहते हैं। इसलिये एक वर्ग की सरकार में बगैर हिस्सेदारी के भी रणनीति के तौर पर कैसे लाभ उठाया जाये, इसे समझना होगा। नहीं तो हम सभी मारे जाएंगे।'
नक्सलियों के सबसे बड़े नेता गणपति का यह बयान मुंबई हमले के बाद आया है। एक ओर सरकार देशी-विदेशी आतंकियों से निपटने के लिए फेडरल एजेंसी बनाने की पहल कर रही है वहीं दूसरी ओर गणपति ने यह बयान देकर नक्सली जमातों के साथ ही प्रशासनिक खेमे में भूचाल ला दिया है। बंदूक के सहारे सत्ता हथियाने की वकालत करने वाले गणपति को आखिर ऐसी कौन सी मजबूरी आ गयी कि उन्होंने सरकार में हिस्सेदारी के बगैर ही लाभ उठाने की समझौतावादी लाइन को अख्तियार करने की बात कह डाली। गणपति की मानें तो आजादी के बाद देश का बड़ा हिस्सा विकास की रोशनी से कोसों दूर रहा है। इसलिए संसदीय राजनीति के अंतरविरोधों और जनता के आक्रोश को गोलबंद कर ही उसका लाभ उठाया जा सकता है।
इधर नक्सली जमातों से लेकर प्रशासनिक महकमों तक में यह खबर जंगल में आग की तरह फैल रही है कि नक्सली प्रमुख मुपल्ला लक्ष्मण राव उर्फ गणपति लंबे समय से बीमार चल रहे हैं। इस वजह से संगठन के कामों में वे विशेष रूचि नहीं ले रहे हैं। परिणामत: संगठन की जिम्मेदारी आन्ध्रप्रदेश - उड़ीसा स्पेशल एरिया कमिटी के सचिव सब्यसाची पांडा को मिल गयी है। हालांकि इसकी पुष्टि न तो नक्सली खेमा कर रहा है और ही केंद्रीय खुफिया ब्यूरो को इस बात की सही जानकारी है। एमसीसी खेमे से आने वाले 40 वर्षीय पांडा के बारे में बताया जाता है कि उन्होंने वर्ष 1996 में पार्टी की सदस्यता ग्रहण की। 2006 में कोटापुर जेलब्रेक को अंजाम देने वाले पांडा ने तब 774 पुलिस रायफलें लूटकर माओवादी खेमे में अपना महत्वपूर्ण स्थान बना लिया था। नयागढ़ जेलब्रेक में भी रणनीति के तौर पर उनकी भूमिका मानी जाती है। आन्ध्रा पुलिस ने उन पर १० लाख रुपये का इनाम घोषित कर रखा है। राजनीतिक परिवार से आने वाले पांडा के पिता और भाई पहले माकपा के सदस्य थे लेकिन कुछ वर्ष पहले ही उन लोगों ने बीजू जनता दल का दामन थाम लिया।
छनकर आ रही खबरों के मुताबिक इन दिनों भाकपा (माओवादी) के अंदर संघर्ष के तरीकों को लेकर गहरी बहस छिड़ी हुई है और वे नये सिरे से भारतीय उपमहाद्वीप को परिभाषित करने में लगे हुए हैं। विदित हो कि आजादी के बाद से लेकर अबतक माओवादी इस देश को अर्द्धसामंती और अर्द्धऔपनिवेशिक देश मानते रहे हैं। लेकिन माओवादियों की कर्नाटक इकाई देश की अर्द्धसामंती चेहरे कोे सिरे से खारिज कर दिया है जबकि इसी सामंतवाद की बुनियाद पर साठ के दशक में पश्चिम बंगाल के गांवों में जन्मा नक्सलवाद धुर विप्लवी वामपंथी माओवादी विचारकों चारु मजूमदार और कानू सान्याल समेत दर्जनभर कम्युनिस्टों के जेहन से निकलकर साहित्यकार महाश्वेता देवी की "हजार चौरासी की मां' के कथानक तक विस्तृत हो गया है। कभी कानून-व्यवस्था की समस्या बन चुना नक्सलवाद अब घोषित तौर पर सामाजिक -आर्थिक प्रक्रिया में बदलाव का हामी हो गया है और उसका घटिया संस्करण सबके सामने है। शायद तभी गणपति का सूर भी बदला नजर आ रहा है।
माओवादी राजनीति में एक ही साथ कई समस्याएं उठ खड़ी हुई हैं। मसलन कभी दक्षिण एशिया में माओवादी आंदोलन को हवा देने वाला नक्सलियों का अगुवा नेपाल संसदीय रास्ता अख्तियार कर लिया है और दुनिया के माओवादियों के बीच यह संदेश दे रहा है कि वर्तमान समय में बंदूक के सहारे सत्ता हथियाने का रास्ता बंद हो चुका है। सूत्रों का कहना है कि माओवादियों की एक बड़ी जमात नेपाल के प्रचंड लाइन का मौखिक समर्थन कर रहा है। ऐसे में माओवादियों के बीच इस बात की बहस चल पड़ी है कि जब चीन में ही माओत्सेतुग्ड अप्रसांगिक हो गये तो फिर विविधताओं से भरे भारत में बंदूक के सहारे सत्ता कैसे हासिल की जा सकती है? वैसे ही लोग इस बात की वकालत कर रहे हैं कि जरूरत है अतीत की विरासत, वर्तमान के अनुभव और भविष्य की आकांक्षाओं को ध्यान में रखकर ही नयी विचारधारा और परिर्वतन की रणनीति बनाने की।
नौंवे दशक में अचानक उत्तर भारत में दलित और पिछड़े संसदीय नेताओं का राजनीति में उभार होना भी नक्सलियोंं के अस्तित्व को खतरे में डाल दिया है। यही कारण है वोट बहिष्कार को तिलांजलि देते हुए नक्सल समर्थक लोग अब जमकर मतदान में हिस्सा ले रहे हैं। बिहार, झारखंड, उड़ीसा समेत नक्सल प्रभावित अन्य राज्यों के गांवों से बड़े जोतदारों और जमींदारों का पलायन हो चुका है। यानी उन लोगों ने नक्सलियों की हुकूमत स्वीकार कर ली है।
केंद्रीय नेतृत्व इन सारी बातों पर आत्ममंथन ही कर रहा था कि अचानक छत्तीसगढ़ राज्य इकाई की दंडकारण्य कमिटी ने सरकार से शांति वार्ता का प्रस्ताव रख डाला। मजे की बात यह है कि इसबात की जानकारी केंद्रीय नेतृत्व तक को नहीं है। यही नहीं, आन्ध्र प्रदेश इकाई के राज्य सचिव और केंद्रीय कमिटी के सदस्य सांबासिवुदू ने आत्मसमर्पण करके नेतृत्व की कुशलता पर ही सवाल उठाया है। खबर है कि माओवादियों के शीर्ष नेतृत्व से उनकी अनबन चल रही थी। ये वही माओवादी हैं जिन्होंने अक्तूबर, 2003 में तत्कालीन मुख्यमंत्री चन्द्रबाबू नायडू पर हमले की योजना बनायी थी। इन्होंने 1993 में महमूदनगर जिले से भूमिगत माओवादी राजनीति की शुरुआत की थी। तब से वह लगातार माओवादी राजनीति को फैलाने में लगे रहे। उनके आत्मसमर्पण से माओवादियों के अंदर चल रहे अंतरविरोध खुलकर सामने आ गया है। यह तो बानगी मात्र है। सच्चाई तो यह है बीते चार वर्षों में आन्ध्र से लेकर बिहार तक दर्जनों हार्डकोर माओवादियों ने आत्मसमर्थन किया है। आखिर क्या कारण है कि एक जज्बे के साथ नक्सली बनने वाले हार्डकोर कैडर आत्मसमर्पण करने पर मजबूर हो रहे हैं? इसका मंथन माओवादियों की केंद्रीय कमिटी ने जब शुरू की तो विवाद गहरा गया। जबकि कई ऐसे भी हैं जो नेतृत्व को अनदेखा करते हुए रॉबिनहुड बनने के चक्कर में गिरफ्तार हो चुके हैं। नक्सलियों की लगातार हो रही गिरफ्तारी पर केंद्रीय नेतृत्व भी सकते में है और गंभीर आत्मचिंतन में लगा हुआ है। खबर है कि बीते साल बिहार और झारखंड के सीमाई इलाकों के घने जंगलों में आयोजित केंद्रीय कमिटी की बैठक में जब दो धारी संघर्ष (टू लाइन स्ट्रगल) शुरू हुआ तो पार्टी सकते में आ गयी और आनन-फानन में कई ऐसे फैसले ले लिये जिसे अगर सार्वजनिक कर दिया जाये तो नक्सल आंदोलन में भूचाल आये बिना नहीं रहेगा। बताया जाता है कि भारतीय समाज का विश्लेषण कर रहे माओवादियों की सर्वोच्च संस्था अब पीपुल्स गुरिल्ला लिबरेशन आर्मी हो गयी है जबकि इसके पहले पार्टी सर्वोच्च संस्था हुआ करती थी। बदले विश्व परिदृश्य में संयुक्त मोर्चा के महत्व को भी नक्सलियों ने समझा है। जबकि इसके पहले नक्सलियों की जमात संयुक्त मोर्चा को सिरे से खारिज करती थी। बंदूक के सहारे समतामूलक समाज निर्माण करने के हिमायती माओवादियों ने अपने 40 वर्षों के संघर्ष में पहली बार संयुक्त मोर्चा में गांधीवादियों से लेकर लोकतंत्रप्रेमियांें के साथ मोर्चा बनाने का निर्णय लिया है ताकि छोटे स्तर के नक्सली वाम भटकाव की ओर अग्रसर नहीं हों।
यही नहीं, पश्चिम बंगाल के गांवों से 1967 में सही किसानों के हाथों में जमीन और किसान कमिटी के हाथों में हुकूमत के हिमायती नक्सलियों ने आधार इलाका बनाने की बात भी फिलहाल स्थगित कर दी है और वे छापामार जोन बनाने पर जोर दे रहे हैं ताकि सरकार से संघर्ष तीखा होने की स्थिति में पुलिस के दमन से आधार इलाके की जनता को बचाया जा सके । इसका परिणाम भी सामने दिखने लगा है। बात चाहे महाराष्ट्र के गढचिरौली जिले में 15 पुलिसकर्मियों को पत्थर से कूच-कूचकर हत्या करने की हो या झारखंड के राहे पुलिस पिकेट के पांच जवानों को चाकू गोदकर मारने की। बिहार के नवादा स्थित कौआकोल में तो नक्सलियों ने हद ही कर दी जहां पीएलजीए की गुरिल्ला आर्मी की महिला दस्ता ने 15 पुलिसकर्मियों के हथियार छिनने के बाद हत्या कर दी। आगे नक्सलियों का कहर कहां बरपेगा, यह कहना मुश्किल है। विदित हो कि पिछले साल केंद्रीय कमिटी के सदस्य और मारक दस्ते का मास्टरमाइंड प्रमोद मिश्र की जब धनबाद में गिरफ्तारी हुई तब इस बात का खुलासा भी हुआ था कि नक्सलियों ने अपनी रणनीति बदल दी है और अब वे भारतीय सेना से लड़ाई करने के पक्ष में आ गये हैं। बात दीगर है कि अबतक सेना को नक्सली इलाकोें में नहीं उतारा गया है।
आर्थिक सुधारवाद के इस जमाने में नक्सलियों का मानना है कि दलाल पूंजीपतियों के सहयोग से साम्राज्यवादी पूंजी गांवों तक अपनी पैठ बना रही है। इससे निपटने और इसके खतरों से जनता को अवगत कराने के लिए गांधीवादियों से लेकर अन्य समाजवादियों से सांठगांठ कर रही है।

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