Thursday, December 1, 2016

सिसकियां भर रहा मगध का लाल गलियारा



कभी बमों के धमाके तो कभी गोलियों की गूंज से आसमान गूंजायमान। भूख से तड़पते बच्चे। मार्च का महीना आते ही हलक बूझाने लायक पानी मयस्सर नहीं। एक तो गांवों में स्कूल का नामोनिषान नहीं, कहीं स्कूल दिख भी गये तो पढ़ाने लायक मास्टर नहीं। दवा और डाॅक्टर के अभाव में दम तोड़ते मरीज। यही पहचान रह गयी है मगध के नवादा, गया और औरंगाबाद के एंटी नक्सल अभियान चलाये जा रहे इलाकों की। वह मगध जिससे कभी दुनिया को शांति और अहिंसा का पाठ पढ़ाया था। बौद्धिक संपन्नता के लिये दुनिया मगध की ओर आकर्षित होती थी। नालंदा का बौद्ध विहार आज भी शोध का विषय बना हुआ है तो नये जमाने में मगध की पहचान भूख, अषिक्षा, गरीबी, कुपोषण के साथ ही मानवता को शर्मसार करने वाले कुकृत्यों से हो रहा है। आज मगध पहचाना जा रहा है जातीय जहर से। मगध की पहचान हो रही है साम्प्रदायिक उन्माद से। मगध पहचाना जा रहा है दलाल नेताओं से। गरीबों के शोषण से। मगध पहचाना जा रहा है सामंती उत्पीड़न से। मगध की पहचान हो गयी है लाष पर राजनीति करने वाले सियासतदानों से। अपने में गौरवषाली अतीत समेटे मगध पहचाना जा रहा है नक्सल के नाम पर गोलियों की तड़तड़ाहट से। बमांे के धमाकों से। देषद्रोह और देषभक्तों के वैचारिक संघर्षों से।
अपने गौरवषाली इतिहास पर इतराता मगध एक लाख वर्ष पहले से जाना जा रहा है। बात चाहे ऋग्वेद या अर्थववेद की करें या फिर द्वापर के कृष्ण और त्रेता के राम की। हर युग में मगध की अपनी पहचान रही है। प्यार-मोहब्बत से दुनिया पर राज करने वाला मगध सिसक रहा है। कराह रहा है। अपनों से। सियासतदानों से। कानून के रखवालों से। संविधान के रक्षकों से। लोकतंत्र के नाम पर तांडव मचाने वाले सियासतदानों से। सामंती देषभक्तों से। कू्रर नौकरषाहों से। मगध के जिन इलाकांे में सीआरपीएफ और कोबरा बटालियन का विषेष नक्सल विरोधी अभियान चल रहा है, उस मगध में बेजुबानों पर बहादुर बन रही है सीआरपीएफ। कहीं गांवों में एंटी नक्सल के नाम पर झोपड़ियां उजाड़ी जा रही है। किषोरियों के साथ दुष्कर्म हो रहे हैं। बुर्जुगों को पीटा जा रहा है। महिलाआंे को माओवादियों की पत्नी बताया जा रहा है तो संविधान और मानवता की दुहाई देने वाले नौजवानों को नक्सली कह कर जेलों में ठूंसा जा रहा है। अघोषित कफ्र्यू लागू है मगध के जंगली और पहाडी इलाकों में। हद तो यह कि नक्सल आॅपरेषन से लौटते वक्त जवान गांवों से मुर्गियां और बकरे अपने साथ उठा ला रहे हैं। कभी गांवों में पुलिस की लाल टोपी देखते ही जंगलों और पहाड़ों में दुबकने वाले ग्रामीण आजादी के 70 वर्षों के बाद भी सैंकड़ों की संख्या में सीआरपीएफ को देख पहाड़ों को अपना बसेरा बना रहे हैं तो ऐसे ग्रामीणों को कोबरा और पारा मिलिटी के जवान नक्सल कह गोलियों से भून रहे हैं।
क्या देष का गृह मंत्री यह बता सकता है कि मगध के किस गांव और किस जंगली इलाके से माओवादियों के किसी बड़े नेता की गिरफ्तारी हुई है? कब हुई? क्यों जंगलों में नहीं पकड़े जाते माओवादी चिंतक और कुख्यात माओवादी? जब माओवादी नेताआंे की गिरफ्तारी शहरों से हो रही है तो फिर क्यों माओवादियों के नाम पर जंगलों और पहाड़ों में खाक छान रही है पुलिस। अपनी बंदूकों से किसे डराना चाह रही है सीआरपीएफ? सवाल यह भी कि किस नेटवर्क से हथियारों का जखीरा पहुंच रहा है माओवादियों के पास। क्या 50 सालों के नक्सल विरोधी अभियान मंे यह बताने का साहस आला अधिकारी करेंगे कि किन रास्तों से असमाजित तत्वों तक पहंुच रहा है कारतूस, गोला-बारूद, डायना माइट और हथियारों का जखीरा? आखिर इन सवालों पर क्यों चूप्पी साध लेते हैं एंटी नक्सल आॅपरेषन में लगे अधिकारी और सियासतदान? आष्चर्य तो यह भी अब माओवादियों के पास राॅकेट लांचर तक की उपलब्धता बतायी जा रही है तो फिर सवाल है कि अािखर सरकार का खुफिया तंत्र कर क्या रहा है? क्यों नहीं खुफिया अधिकारियों को जानकारी हो पाती है माओवादी गतिविधियों की? इस चूक की वजह से आम लोग तो परेषान हैं ही। अर्द्ध सैनिक बलों के जवान भी मलेरिया जैसी भयंकर बीमारी से परेषान हो रहे हैं। कई जवानों की मौत मलेरिया से हो चुकी है।
सवाल कई हो सकते हैं। इस सबके बीच, जहां तक मुझे जानकारी है। माओवादी वर्ग-संघर्ष की राजनीति करते हैं। माओवादियों के सिद्धांत में एक वर्ग शोषकों का है तो दूसरा शासकों का। माओवादी मानते हैं कि दूसरा वर्ग गरीबों का दुष्मन है। कानून को अपने तरीके से चलाता है। संविधान को रौंदता है। देष में दिनोंदिन चैड़ी होती जा रही आर्थिक विषमता की खाई का हवाला देते हुए माओवादी कहते हैं कि देष की 90 फीसद अकूत संपत्ति पर एक फीसद लोगों का कब्जा है और यही एक फीसद लोगों की अर्थव्यवस्था 99 फीसद लोगों पर थोपी जा रही है। एक माओवादी चिंतक ने बताया कि पूंजीपतियों की रखैल बन चुके सियासतदान कहीं विषमता की खाई में देष को ही न डूबो दें!
बहरहाल, सच्चाई चाहे जो भी हो, लेकिन पुलिसिया आंकडें बताते हैं कि देष में माओवादियों के एकाध-दो नेता को छोड़ किसी भी बड़े माओवादी की गिरफ्तारी जंगलों-पहाड़ों से नहीं हुई है। बात चाहे आॅक्सफोर्ड में रीडर रह चुके माओवादी प्रो कोबार्ड गांधी की हो या फिर तमिल साहित्य के बड़े जानकार व पोलित ब्यूरो सदस्य सुधाकर रेड्डी की। माओवादी प्रमोद मिश्रा की हो या फिर विजय कुमार आर्य, सुषील राय, नारायण सान्याल, शीला दीदी, पुलेंदू शेखर मुखर्जी, वाराणासी सुबह्णयम समेत दूसरे माओवादी चिंतकों की।
इस सबके बीच, एंटी नक्सल आॅपरेषन में लगे जवानों और अधिकारियों के अपने तरीके हैं। लेकिन क्या सरकार का कोई आला अधिकारी बता सकता है कि मगध के औरंगाबाद स्थित मदनपुर ब्लाॅक के पचरूखिया और लंगुआही समेत आस-पड़ोस के आधा दर्जन ग्रामीणों का क्या गुनाह है जिसकी वजह से सैंकड़ों लोग गांवों से पलायन कर चुके हैं। इन गांवों में रह रही हैं तो सिर्फ बूढ़ी महिलाएं। लाचार बुर्जुग। बिना दूध देने वाली कुछ गाय और भैंस। मुसहरों के जीविकोपार्जन का असली ताकत सुअर। औरंगाबाद के पत्रकार गणेष कुमार ने बताया कि पचरूखिया और लंगुआही समेत उस इलाके में जाने के कोई सीधे रास्ते नहीं हैं। एक बार पत्रकारों की टोली वायु सेना के हेलीकाॅप्टर से उस दुर्गम गांव में पहुंची थी। दुखद लेकिन रोमांचकारी आपबीती सुनाई गणेष कुमार ने। बतौर गणेष कुमार-इलाके को देखने से नहीं लगता यह मगध का कोई गांव है। लोगों के बदन पर कपड़े नहीं हैं। गांवों में घरों के नाम पर झोपड़ियां हैं। पहुंचने के रास्ते नहीं हैं। घरों में खाने को समुचित अन्न नहीं हैं। लोग आज भी पीने के पानी पाॅच किलोमीटर दूर गैलन में भरकर लाते हैं। लोगों की सूखी अंतड़िया हैं। शरीर की बनावट ऐसी मानों कंकाल हो।
इस सबके बीच, आजादी के 70 वर्षों के बाद भी इस इलाके में न तो पीडीएस सिस्टम का नामोनिषान है और न ही पीने के पानी मयस्सर है। स्कूल और अस्पताल अबतक ग्रामीण नहीं देख पाये हैं। गरीबों के लिये सरकारी योजनाएं होती क्या है? इसकी भनक लोग नहीं जानते।
आष्चर्य तो यह कि पिछले करीब 26 वर्षों से सूबे में सामाजिक न्याय की सरकार है। इस सरकार के रहते लगातार इलाके से नक्सल के नाम पर हो रहे इंतहां जुर्म से आजीज आ चुके ग्रामीणों का होता पलायन यह बताने के लिये काफी है कि सामाजिक न्याय औरंगाबाद के पंचरूखिया, लंगुआही, गया के रजौल, फुलवरिया डैम के अंदर बसे दर्जनों गांव, इमामगंज, बांकेबाजार, मोहनपुर, नवादा ककोलत, कौआकोल समेत अन्य पहड़तली इलाके में रह रहे मुसहर, भोक्ता समेत अन्य दलितों, पिछड़े समुदायांे के लिये जुमला के सिवा कुछ नहीं है।

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