Saturday, February 28, 2009

सामने आया सिब्ते रजी का हिटलरी चेहरा

एक ओर नया जनादेश की मांग को लेकर प्रदेश में संपूर्ण विपक्ष आंदोलनरत है तो दूसरी ओर राज्यपाल सूबे में कानून का राज स्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं।
देश के इतिहास में शायद यह पहला मौका है जब गठन के सिर्फ आठ साल में ही किसी राज्य को राष्ट्रपति शासन देखना पड़ा है। 15 नवंबर, 2000 को देश के नक्शे पर 28वें राज्य के रूप में गठित झारखंड ने इतने कम समय में छह मुख्यमंत्रियों को देखा है। सभी ने मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठने के लिए तरह-तरह के सियासी नुस्खे आजमाये। सातवें की तलाश में एक बार फिर राजनीतिक तिकड़म का दौर जारी है। रांची से लेकर दिल्ली तक हर रोज सियासतदानों की राजनीतिक खिचड़ी पक रही है, लेकिन मामला कुछ बनता नजर नहीं आ रहा।
आदिवासी अस्मिता के नाम पर जब इस राज्य का गठन हो रहा था तब किसी को भी यह उम्मीद नहीं थी कि सियासतदानों की बहुरंगी राजनीति प्रदेश को बदहाली के कगार पर खड़ा कर देगी। लोगों की उम्मीद थी कि खादी के रास्ते नक्सलवाद अपने-आप खत्म हो जायेगा। कानून का राज आयेगा। प्राकृतिक संपदाओं से संपन्न इस प्रदेश में उद्योगों का जाल बिछेगा। लेकिन अफसोस, शुरू से ही झारखंड दिल्ली के सियासतदानों का शिकार बनता रहा। सरकार बनाने और गिराने के खेल से राज्य के योजना मद की राशि समय रहते खर्च नहीं हो पायी तो दूसरी ओर गैर योजना मद का खर्च लगातार बढ़ता चला गया। राजनीतिक अस्थिरता की वजह से एक ओर जहां अधिकारी निरंकुश होते गये, वहीं सियासतदान लूट-खसोट में लगे रहे।
केंद्रीय मंत्रिमंडल से बेदखल झामुमो सुप्रीमो शिबू सोरेन ने वैसे तो तिकड़म भिड़ाकर 27 अगस्त को दूसरी बार सूबे की बागडोर तो थाम ली, लेकिन तमाड़ विधानसभा उपचुनाव में हुई हार से उन्हें मुख्यमंत्री की कुर्सी गंवानी पड़ी। राजनीतिक अनिश्चितता प्रदेश को राष्ट्रपति शासन (निलंबित विधानसभा) की ओर धकेल दिया। राज्याल के हाथों में सूबे की कमान कब तक रहेगी, इसकी भविष्यवाणी तो नहीं की जा सकती। फिर भी राज्यपाल ने विपक्षियों की मांगों (विधानसभा भंग) को दरकिनार करके जता दिया है कि केेंद्रीय हुक्मरानों के आदेश के बिना झारखंड का पत्ता भी नहीं हिल सकता। उनकी केंद्रीय वफादारी और हिटलरी चेहरा तब झलकी जब 12 फरवरी को भाजपा की ओर से आयोजित शांतिपूर्वक "घेरा डालो डेरा डालो' आंदोलन के समय अभूतपूर्व दृश्य उत्पन्न हो गया। घेरेबंदी को तोड़ते हुए हजारों कार्यकर्ता राजभवन की ओर कूच कर गये। इससे बौखलायी पुलिस ने जमकर लाठियां बरसायी। पत्रकारों तक को नहीं बख्शा गया। आधा दर्जन पत्रकार भी घायल हो गये। किसी का सिर फूटा तो किसी का हाथ-पैर टूटा। सैंकड़ों गंभीर रूप से घायल हुए। हद तो तब हो गयी जब पूर्व केंद्रीय वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा, पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा, प्रदेश अध्यक्ष रघुवर दास पर लाठियां बरसनी शुरू हुईं। प्रशासन की इस कार्रवाई पर सूबे में राजनीतिक माहौल गरमाने लगा है। भाजपा ने राज्यपाल पर राजनीतिक प्रहार तेज कर दिये हैं। पुलिस की इस बर्बरतापूर्ण कार्रवाई पर यशवंत सिन्हा ने "द पब्लिक एजेंडा' से कहा," सड़कों पर बिखरा खून का एक-एक कतरा राष्ट्रपति शासन की कील साबित होगा। जनता सबकुछ देख रही है। सरकार बनते ही एक-एक लाठी का बदला सिब्ते रजी से ले लेंगे।' ऐसी बात नहीं है कि सिर्फ भाजपा की ओर से ही नया जनादेश की मांग की जा रही है। बल्कि 18 फरवरी को भाकपा माले ने भी राजभवन के सामने जोरदार प्रदर्शन करने का एलान किया है। झारखंड विकास मोर्चा भी विधानसभा भंग करने की मांग को लेकर आंदोलित है। विपक्षियों को अंदेशा है कि केंद्र सरकार के दबाव में राज्यपाल विधानसभा को बहाल कर सकते हैं।
महीने भर पहले जब राज्यपाल सैयद सिब्ते रजी ने सूबे की कमान संभाली थी तब राज्यवासियों को लगा था कि थोड़े समय के लिए ही सही लेकिन कानून का राज जरूर स्थापित होगा। लेकिन ऐसा नहीं हो सका। न तो उग्रवादियों व अपराधियों पर पुलिसिया हनक दिख रही और न ही भ्रष्टाचारियों ने सिकन ही महसूस किया है। और तो और वर्षों से भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे अधिकारियों ने केंद्रीय गृह मंत्री पी.चिदंबरम तक को बरगला दिया और चतरा और पलामू में चल रहे पायलट प्रोजेक्ट समेत कई योजनाओं के गलत आंकड़े पेश किये। इससे खिन्न राज्यपाल के सलाहकार जी.कृष्णन नेे कहा, "विकास आयुक्त का गृह जिला गोड्डा ही विकास से कोसों दूर है।'
हालांकि इस बीच राज्यपाल ने कई अहम फैसले लिये हैं। मसलन वर्षों से एक ही स्थान पर जमे मोबाइल दारोगाओं का तबादला कर सिब्ते रजी ने यह जता दिया कि कानून के आगे सब बौने हैं। विदित हो कि दर्जनभर मोबाइल दारोगाओं की तूती सचिवालय तक में बोलती थी। कई दारोगाओं ने अकूत संपत्ति बटोरी है। अपनी पहली ही बैठक उन्होंने लापरवाह कर्मचारियों और अधिकारियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की चेतावनी दी। राजस्व वसूली का लक्ष्य भी दोगुना कर दिया है। यही नहीं, भ्रष्टाचार की गंगोत्री में गोता लगा रहे सियासतदानों ने दो साल तक झारखंड लोक सेवा आयोग (जेपीएससी) की काली करतूतों को छिपाये रखा। 26 अप्रैल, 2006 को डिप्टी कलेक्टरांें के लिए आयोजित सीमित प्रतियोगिता परीक्षा में बड़े पैमाने पर धांधली की शिकायतें मिली थीं। तत्कालीन निगरानी डीआइजी अमित खरे ने आरोप लगाया था कि कई केंद्रों पर गड़बड़ियां हुईं हैं। कोषागार में तीन दिनों बाद उत्तर पुस्तिकाएं जमा करने की शिकायतें मिली थीं। फिर भी मधु कोड़ा और शिबू सोरेन ने इस दिशा में कार्रवाई नहीं की। राज्यपाल ने इसकी निगरानी जांच के आदेश देकर मेधावी छात्रों के बीच उम्मीद की किरण जगायी है।
सियासतदानों ने जिले और प्रखंडों की कमान उन अधिकारियों को सौंपी जिन्होंने सियासतदानों की काली करतूतों में हाथ बंटाया। वैसे सारे अधिकारी किनारे कर दिये गये या फिर छुट्टी पर चले गये जो निष्ठावान थे। इन अधिकारियों में से एक हैं आइएएस अधिकारी पूजा सिंघल पुरवार। देश ने उन्हें नरेगा एक्सेलेंस अवार्ड से नवाजा जबकि झारखंड सरकार ने एक महीने में ही सात बार तबादला करके यह जता दिया कि कर्तव्यपरायणता की दरकार इस प्रदेश को नहीं है। फिलहाल वे सेकेंड्ररी स्कूल की निदेशक हैं। पूजा सिंघल अकेली ऐसी अधिकारी नहीं हैं जिन्हें सही रास्ते पर चलने की कीमत चुकानी पड़ी है। सत्ता के सौदागरों ने नितिन कुलकर्णी को आधी रात में ही तबादला करा दिया। हालांकि तबादले राष्ट्रपति शासन में भी हो रहे हैं, लेकिन अब तबादला उद्योग का रूप नहीं ले रहा है। जी. कृष्णन, सुनीला बसंत और टीपी सिन्हा जैसे अपने मनमिजाज के अधिकारियों को सलाहकार बनाकर राज्यपाल ने यह संदेश दिया है कि वे कर्मठ और अच्छे अफसरों के कायल हैं। फिर भी राज्यपाल की अपनी सीमाएं होती हैं। उसी दायरे में रहकर कानून का राज स्थापित करने की जिम्मेवारी सिब्ते रजी को मिली है।
पर अब भी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। मसलन राजनेताओं और अभियंताओं के मेल से ठेकेदारों द्वारा लूट-खसोट पर लगाम कसना। अभियंताओं का एक तबका ऐसा भी है जो सरकार के तौर-तरीकों का विरोध करता रहा है। यह सवाल बराबर उठता रहा है कि एक ही अभियंता को चार-चार विभागों की जिम्मेदारी क्यों सौंप दी जाती है। यानी वह खुद ही अपने कामों का मूल्यांकन कर सकता है, जांच कर सकता है और पैसे का भुगतान भी कर सकता है। देश के इतिहास में ऐसी जिम्मेदारी शायद ही दूसरे राज्यों में देखने को मिले। ऐसे ही अभियंताओं में शामिल हैं जल संसाधन विभाग में नारायण खां, दुमका के अधीक्षण अभियंता सिद्धिनाथ शर्मा, ग्रामीण विशेष विभाग के कार्यपालक अभियंता ब्रजमोहन कुमार आदि। कमोबेश ऐसी स्थिति दूसरे विभागों में भी है।
राजनीतिक अस्थिरता के इस दौर में नक्सलियों से निपटने की एक बड़ी चुनौती राज्यपाल के समक्ष है। राष्ट्रपति शासन के बावजूद माओवादियों ने चतरा, पलामू समेत पांच जिलों में एक सप्ताह तक नाकेबंदी करके यह जता दिया है कि उनकी गतिविधियों में कोई कमी नहीं आयी है। रांची के दौरे पर आये केंद्रीय गृह मंत्री पी.चिदंबरम ने नक्सली गतिविधियों पर चिंता जताते हुए कोबरा फोर्स की स्थापना पर जोर दिया था। उन्होंने राज्यपाल को भरोसा दिलाया कि सीआरपीएफ का ग्रुप सेंटर नामकुम में बनाया जायेगा। लेकिन इस भरोसे पर केंद्र सरकार खरी उतरे, अभी से ही यह सवाल उठने लगा है।
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राष्ट्रपति शासन के फैसले
20-21 जनवरी---रिम्सकर्मियों और अराजपत्रित कर्मचारियों की हड़ताल खत्म कराने का अफसरों को निर्देश
पहले रिम्स की हड़ताल खत्म हुई फिर अराजपत्रित कर्मचारियों की हड़ताल भी समाप्त
निगरानी विभाग को चुस्त-दुरुस्त करने का निर्देश,एमजी राव आइजी बनाये गये जबकि कई अधिकारी बदले गये।
25 जनवरी---आयुष डॉक्टरों की नियुक्ति की जांच का आदेश, तीन दिनों में ही जांच रिपोर्ट सौंपी गयी। अब कार्रवाई की तैयारी चल रही है।
29 जनवरी---मोबाइल दारोगा को 24 घंटे में बदलने का निर्देश।
30 जनवरी---सभी मोबाइल दारोगा बदले गये।
एक फरवरी---परिवहन विभाग के सभी अधिकारी बदले गये
तीन फरवरी---रांची नगर निगम की हड़ताल समाप्त
शिबू सोरने की सरकार के फैसले
29 अगस्त---हड़िया बेचनेवाली महिलाओं को सूचीबद्ध करने का जिला उपायुक्तों को निर्देश
15 नवंबर---एक लाख लोगों को नौकरी देने की घोषणा, थानेदार, बीडीओ को महीने में एक बार जनता दरबार लगाने का निर्देश, आदिवासियों की लूटी जमीन को भू-माफियाओं से मुक्ति दिलवाने का आश्वासन।
मौलाना आजाद विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए जमीन उपलब्ध कराने का आश्वासन।
7 नवंबर---मंत्रिमंडल ने लिये अहम फैसले। पलामू, गढ़वा,चतरा और लातेहार जिले सूखाग्रस्त घोषित, लेकिन कोई कार्रवाई नहीं।
22 दिसंबर---उग्रवाद से निपटने के लिए सर्वदलीय समिति बनाने की घोषणा।
चिह्नित थानों में अतिरिक्त सुरक्षा बल तैनात करने पर बल, 61 नये थानों का सृजन और पुलिस आधुनिकीकरण योजना पर काम करने का आश्वासन।

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