Wednesday, June 24, 2009

ब़ढती ताकत, घटती विचारधारा

पिछले कुछ वर्षों में झारखंड में नक्सलियों की ताकत और खौफ तो खूब ब़ढे हैं लेकिन उनकी वैचारिक प्रतिबधता लगभग खत्म हो चली है।
मलवे में तब्दील हो चुका लातेहार जिले के चियाकी रेलवे स्टेशन पर विरानगी छायी हुई है। यहां बुकिंग कलर्क के अलावा रेलवे के किन्ही अन्य कर्मचारियों का कोई अता-पता नहीं जबकि नक्सली घटना के तीन महीने से अधिक होने को है। भाकपा (माओवादी) से जु़डे नक्सिलयों ने 22 मार्च को इसलिए स्टेशन को डायनामाइट लगाकर उ़डा दिया था कि उनके दो दिवसीय बंदी के फरमान के बावजूद इस स्टेशन से होकर ट्रेनों की आवाजाही बंद नहीं हुई थी। ऐसी बात नहीं है कि माओवादियों का फरमान सिर्फ़ चियाकी रेलवे स्टेशन पर ही दिखा, बल्कि कुछ दिनों के बाद नक्सलियो ने हेहग़डा स्टेशन के समीप रांची-मुगलसराय पैसेंजर ट्रेन को छह घंटों तक बंधक बनाये रखा। घटना दिन में हुई, इसके बावजूद रेलवे के आला अधिकारी और सरकारी मशीनरी मूकदर्शक बनी रही और वे टेलीविजन व अखबारों से ही सूचना हासिल करते रहे। कमोबेश ऐसे ही हालात प्रदेश के अधिकांश इलाकों में है, जहां नक्सलियों की इजाजत के बिना पत्ता भी नहीं डोलता। एक सूचना के मुताबिक, माओवादियों ने 22 और 23 जून को एक बार फिर दो दिनों की बंदी का ऐलान किया है।
बात चाहे पश्चिम बंगाल और ओरिशा से सटे जमशेदपुर इलाके की करें या फिर छत्तीसगढ़ से लगे गुमला और ग़ढवा जिलो की, हर जगह स्थिति कमोबेश एक जैसी ही है। राज्य के पश्चिम इलाके यानि पलामू प्रमंडल की स्थिति तो और भी गंभीर है। पलामू प्रमंडल में ग़ढवा, लातेहार, पलामू और चतरा जिलो आते हैं। यहां तो एक तरह से नक्सलियों का ही "राज' कायम हो गया है। माओवादियो के भय से शाम होते ही कुडू होते हुए मेदिनीपुर (डालटेनगंज) जाने वाली स़डक बंद हो जाती है। चंदवा से चतरा जाने में तो आम लोगों के अलावा पुलिस अधिकारियों के भी पांव फूलने लगते हैं। शाम के बाद बरही से चौपारण और हजारीबाग से इटखोरी होते हुए चतरा जाने का तो सवाल ही नहीं उठता। पारसनाथ से गिरीडीह जाने वाले रास्ते में भी माओवादियों का वर्चस्व है। डुमरी की भी यही कहानी है। चाइबासा भी कोई अलग नहीं है। अगर कहें की पलामू प्रमंडल देश का दूसरा बस्तर बनते जा रहा है, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। जंगलों और पहा़डों से घिरे इस इलाके के अधिकांश भू-भाग नक्सलियों के कब्जे में चला गया है। जिला मुख्यालय में तो पुलिस अधिकारी दिख भी जाते हैं, लेकिन अधिकतर सुदूर इलाकों और प्रखंड मुख्यालयों में नक्सलियों का ही हुकुमत चलता है। नक्सलियों ने जिस तरीके से इस इलाके को अपनी गिरफ्त में लिया है, उससे आशंका व्यक्त की जाने लगी है कि कहीं यह इलाका दूसरा नक्सलबा़डी न बन जाये। जमीनी हालात तो यही बता रहे हैं कि भारी संख्या में अर्द्धसैनिक बलों की मौजूदगी के बिना पुलिस अधिकारी गांवों में घुसने से भी डरते हैं। नक्सलियों के फैलाव पर मानवाधिकार संगठन पीयूसीएल के प्रदेश सचिव शशिभूषण कहते हैं, "सामाजिक व्यवस्था शोषण पर आधारित है। फिर पलामू और चतरा के सामंती किस्से देश भर में चर्चित रहे हैं। इसकी रोकथाम के लिए सरकार ने कोई सामाजिक प्रयास नहीं किया। जिसकी वजह से भोले-भाले ग्रामीणों का विश्वास जीतने में माओवादी आगे निकल गये।'
उधर नक्सलबा़डी की परंपरा को आत्मसात करने वाली माओवादियों की जमात प्रदेश में कुकूरमुते की तरह उग रहे हैं। 70 के दशक नक्सल्वादिओं के जो आदर्श थे, वे समय की गति के साथ-साथ गुम होते चले गये। जमींदारों की जमीनों के खिलाफ गोलबंद हुए अतिवादी कम्युनिस्ट पार्टी व्यक्तिकत हिंसा और लूट-खसोट पर उतारू होती चली गयीं। 90 के दशक के बाद चली आर्थिक उदारीकरण और बाजारवाद की हवा में नक्सली भी बहने लगे। कमोबेश सारे सामंती दुर्गंध नक्सली गलियारे में पहुंच गये। लातेहार जिला स्थित ब़ढिनया गांव के शंकर मुंडा कहते हैं, "शुरू में माओवादियों के आदर्श ने आदिवासियों को आकिर्षत किया, लेकिन बाद में वे कुकुरमुते की तरह उग आये और अब नक्सली संगठनों के कारण लोगों का जीना हराम हो गया है।' ग्रामीणों को डर एक ओर से नहीं, बल्कि तीन ओर से है। एक ओर जहां पुलिस अधिकारी नक्सलियो को संरक्षण देने के आरोप में ग्रामीणों को प्रतारित करते हैं तो दूसरी ओर, माओवादियो का दोनों ध़डा उन्हें जबर्दस्ती अपनी ओर लाने की कोशिश कर रहा है।
इन परिस्थितियों बीच क्रांति का सब्जबाग दिखाने वाले नक्सिलयों का आंतरिक कलह भी अब खुलकर सामने आने लगा है। इसके परिणामतस्वरूप आठ साल के झारखंड में आधा दर्जन नक्सली संगठनों का उदय हो गया। एमसीसी के जमाने में पोलित ब्यूरो से नाराज चल रहे केंद्रीय कमेटी के सदस्य भरत ने एक अलग पार्टी ही बना डाली। नाम रखा तृतीय प्रस्तुति कमेटी (टीपीसी)। ग़ढवा, चतरा और पलामू में यह संगठन सिक्रय है और माओवादियों के आर्थिक स्रोत पर कब्जा जमाने की फिराक में है। अपने आक्रमक तेवर के साथ पीएलएफआइ (पीपुल्स लिबरेशन फ्रंट ऑफ इंडिया) ने उन इलाकों में भाकपा (माओवादी) समर्थकों पर हमले तेज कर दिया है जहां के लोगों ने उसकी अधीनता स्वीकार करने से इंकार कर दिया है। कभी इनामी माओवादी रहे दिनेश गोप भी एक अलग संगठन चला रहा है। नाम रखा है, जेएलटी (झारखंड लिबरेशन टाइगर)। खूंटी, गुमला, लोहरदगा और सिमडेगा इलाके में यह संगठन सिक्रय माओवादियों का कहना है इस तरह के अधिकतर संगठन अपने कारनामों से सच्चे नक्सलियों को बदनाम करने पर तूले हुए हैं।
हालात इस कदर बेकाबू होते जा रहा हैं कि माओवादियों ने अपनी करतूतों से दिन और रात का फासला खत्म कर दिया है। जब, जिसे चाहा, उसकी हत्या कर दी। मात्र आठ साल में ही प्रदेश में एक सांसद, दो विधायक, एक एसपी व दो डीएसपी मारे जा चुके हैं, जबकि 400 से अधिक पुलिस और अर्द्धसैनिक बलों के जवान नक्सली हिंसा के शिकार हुए हैं। जनवाद की बात करने वाली माओवादी जमात ने अबतक एक हजार से अधिक आम लोगों को पुलिस मुखबिर बताकर तो कहीं सामंती सोच के नाम पर गोलियों से भून डाला। खुफिया सूत्रों का कहना है कि सूबे के करीब 130 पुलिस थाने माओवादियों के ही रहमोकरम पर चल रहे हैं। इस बाबत राज्य पुलिस प्रवक्ता एसएन प्रधान ने "द पब्लिक एजेंडा' को बताया, "आज तक यही तय नहीं हो पाया है कि आख़िर माओवादी चाहते क्या हैं? कभी वे निरीह ग्रामीणों की हत्या करते हैं तो कभी छुपकर पुलिसकिर्मयों पर वार करते हैं, क्या इससे क्रांति आ जायेगी?' अधिकारीयों के तर्क अपनी जगह है लेकिन इस बात से कौन इंकार कर सकता है कि माओवादियों की राजनीतिक लाइन और संघर्ष के तरीकों में आये भटकाव के बावजूद सूबे के करीब 8 हजार नौजवान हथियार बंद होकर सरकार को चुनौती देते फिर रहे हैं।
लाख टके का सवाल है की प्रतिवर्ष पुलिस आधुनिकीकरण के नाम पर करीब एक हजार करो़ड रुपये खर्च होने के बावजूद राज्य मशीनरी माओवादियों के फैलाव को रोकने में क्यों नहीं सफल हो पा रही है? क्यों सियासतदान संगीनों के साये में जीने को मजबूर हैं? क्यों प्राकृतिक संपन्नता के बावजूद ग्रामीणों को पीने का पानी तक मयस्सर नहीं है? जिस दिन इसका जवाब सियासतदानों की फौज खोज लेगी, संभव है उसी दिन माओवादियों की चाल पर लगाम लग जायेगा। फिलहाल कागजी योजनाएं बनाने में मशगूल सरकार इसके समाधान की और आगे ब़ढती नजर नहीं आ रही है।

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