Tuesday, June 30, 2009

भ्रांति में फंसी क्रांति

माओवादियों के तेवर और क्रांति के वाम भटकाव के कारण हिंसक संघर्ष की घटनाओं ने सामाजिक-राजनीतिक तनाव को चरम पर ला दिया है।
"लालकिले की धरती को लाल बनाके छोड़ेंगे, पूरे हिंदुस्तान को नक्सलाइट बनाके छोड़ेंगे।'

लालकिले के सामने 15 अगस्त 2001 को जब प्रधानमंत्री देश को संबोधित करने वाले थे, उसके कुछ ही मिनट पहले ही इस नारे की गूंज सुनी गयी थी। नारा लगाने वाले अति वामपंथी छात्र संगठन डेमोक्रेटिक स्टूडेंट यूनियन (डीएसयू) के सदस्य थे। इन छात्रों में से 15 को दिल्ली पुलिस ने गिरफ्तार कर तिहाड़ जेल भेज दिया था। उस समय इस नारे के निहितार्थ को समझना आम लोगों के लिए थोड़ा कठिन था, लेकिन आज जब पश्चिम बंगाल का लालगढ़ इलाका माओवादियों की गर्जना से दहल रहा है, अब इस नारे की हकीकत समझ में आ रही है। हालांकि माओवादियों के लिए लालगढ़ पड़ाव है, ठहराव नहीं। ठहराव की खोज में माओवादी देश के 45 फीसदी भू-भाग पर पहुंच चुके हैं। 30 फीसदी जमीन माओवादियों के कब्जे में बतायी जाती है, जहां उनकी अपनी हुकूमत चलती है। नक्सलबाड़ी विद्रोह के समय से ही चीनी कम्युनिस्ट नेता माओत्से तुंग को अपना आदर्श मानने वाले नक्सलियों की भाषा ही बंदूक मानी जाती है। लेकिन अचानक माओवादियों की जमात 15वीं लोकसभा चुनाव अभियान के समय से कुछ ज्यादा ही हिंसक हो गयी है। दरअसल बिहार के मैदानी इलाके आंध्र प्रदेश में नक्सलियों के रॉबिनहुड स्टाइल का जनता ने विरोध किया है। माओवादियों को करारा झटका तब लगा जब पांच लाख के इनामी जोनल कमांडर कामेश्र्वर बैठा और दिनकर यादव ने संसदीय रास्ता अख्तियार कर लिया। दूसरी ओर, आंध्र प्रदेश के राज्य सचिव ने इसी वर्ष मार्च में पुलिस के सामने आत्मसमर्पण कर दिया।
सरकार को नक्सलियों के नये हिंसक तेवर का आभास तो 14 अप्रैल को ही हो जाना चाहिए था, जब माओवादियों ने बिहार के कैमूर पहाड़ी पर बीएसएफ के एक अस्थायी कैंप पर रॉकेट लांचर हमला किया था। दिल्ली में बैठी सरकार तब से लेकर अब तक रणनीति बनाने में जुटी हुई है तो दूसरी ओर देश के विभिन्न हिस्से नक्सलियों के हिंसक तेवर से थर्रा रहे हैं। 10 जून को संसद में गृहमंत्री पी चिदंबरम नक्सलियों से निबटने के लिए विशेष योजना बनाने की घोषणा कर रहे थे, तो बिहार-झारखंड-उत्तरी ओड़िशा स्पेशल एरिया कमेटी की गुरिल्ला आर्मी झारखंड के पश्र्चिमी सिंहभूम स्थित सारूगढ़ा घाटी (सारंडा के जंगल) में बारूदी सुरंग विस्फोट कर एक इंस्पेक्टर समेत 11 जवानों को मौत की नींद सुला रही थी। सरकार कुछ समझ पाती, इसके पहले ही 12 जून को माओवादियों ने बोकारो के पास नवाडीह में अर्द्धसैनिक बलों पर हमला बोल दिया, जिसमें 11 जवान मारे गये। 18 जून को जब पुलिस के आला अधिकारी लालगढ़ को माओवादियों के कब्जे से मुक्त कराने के लिए अभियान छेड़ने की योजना बना रहे थे, माओवादी ओड़िशा के कोरापुट जिले के पालुर गांव के पास बारूदी सुरंग विस्फोट में सीआरपीएफ के नौ जवानों को उड़ा रहे थे। यह सिर्फ बानगी है। सच्चाई इससे भी भयावह है। खुद सरकार का मानना है कि 28 में से कम से कम 16 राज्यों के 210 जिले नक्सल प्रभावित हैं। सामाजिक कार्यकर्ता भी माओवादियों के इस तेवर से सकते में हैं। वहीं माओवादी पत्रिका "जन ज्वार के' संपादक त्रिवेणी सिंह ने "द पब्लिक एजेंडा' को बताया, "सामंतवाद से बड़ा दुश्मन बुर्जुवा पूंजीपति है, जिसकी रक्षा के लिए पुलिस और फौज है। माओवादियों को लग रहा है कि वर्तमान शोषण आधारित व्यवस्था को टिकाये रखने के लिए ही फौज और पुलिस है, इसलिए अर्द्धसैनिक बलों पर हमले तेज हो गये हैं।'
देश के ज्यादातर हिस्सों में किसी न किसी रूप में माओवादियों की मौजूदगी देखी जा सकती है। रेड कोरिडोर की पुरानी पड़ चुकी माओवादियों की योजना पर भाकपा (माओवादी) की नौवीं कांग्रेस में ही यह तय हो चुका था कि मुक्त क्षेत्र (लिबरेटेड जोन) बनाकर सरकार को चुनौती नहीं दी जा सकती। इसके बाद नक्सली गुरिल्ला आधार पर क्षेत्र विस्तार में जुट गये। कभी ओड़िशा में सीआरपीएफ के जवान शहीद हो रहे हैं तो कभी महाराष्ट्र, कर्नाटक आदि राज्यों में माओवादी वारदातें हो रही हैं। फिलहाल सरकार नक्सलवादियों की आग को बुझाने के लिए बंदूक सहारा बना रही है। लेकिन सरकार को अपने पुराने अनुभवों से सीखने की जरूरत है। बंदूक का जवाब बंदूक से देने का ही नतीजा है कि दोनों (अर्द्धसैनिक बल और नक्सली) ओर से आक्रामकता और शत्रुता बढ़ती चली गयी।
भाकपा (माओवादी) के प्रवक्ता आजाद की मानें तो, "संसदीय रास्ते से समाज के गरीब तबके का विकास अगर संभव होता तो 60 साल के लोकतांत्रिक इतिहास में विकास की रोशनी से सुदूर ग्रामीण इलाका जगमगा उठता, लेकिन ऐसा नहीं हो सका।' ग्रामीण विकास की योजनाएं सरकारी फाइलों की शोभा बढ़ रही हैं। चाहे शिक्षित और संपन्न राज्य महाराष्ट्र, कर्नाटक और तमिलनाडु हो या फिर बीमारू राज्यों में शुमार बिहार, झारखंड, ओड़िशा, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश समेत अन्य राज्य, जमीनी स्तर के विकास का हाल हर जगह यही है। खुफिया सूत्रों की मानें तो हाल के दिनों में माओवादियों का फैलाव हिमाचल प्रदेश, पंजाब, हरियाणा और उत्तराखंड में भी हुआ है। लंबे समय से वाम सोच द्वारा शासित, पश्चिम बंगाल में भी आदिवासियों समेत अन्य पिछड़ी जमातों की समस्या दिनोंदिन विकराल होती जा रही है। परिणामत: रॉबिनहुड स्टाइल होने के बावजूद माओवादियों का समर्थन दिनोंदिन बढ़ता चला जा रहा है।
सन्‌ 1967 में पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी और फांसी देवा में बंदूक उठाने वाले लोग चाहते थे कि जमींदारों और बड़े किसानों की सरप्लस (सीलिंग) भूमि गरीबों के बीच बांट दी जाये। पश्चिम बंगाल और केरल में इस दिशा में कुछ काम भी हुआ। लेकिन अन्य राज्यों में सरकारें नीतियां ही बनाती रह गयीं। लोग भुखमरी के शिकार होते रहे। उपेक्षा और विक्षोभ से उपजा आक्रोश अब इस कदर उद्वेलित हो गया है कि चाकू से गोदकर और पत्थरों से कूच-कूच कर पुलिस के जवानों की हत्याएं की जा रही हैं। पिछले महीने बिहार, झारखंड और महाराष्ट्र में ऐसी घटनाएं घट चुकी हैं। इस बाबत नक्सलियों के जो भी तर्क हों, लेकिन इस कार्रवाई को कहीं से भी जायज नहीं ठहराया जा सकता।
समय के साथ नक्सलबाड़ी से उठा तूफान पूरे देश की राजनीति को प्रभावित किया, लेकिन आज उसी के नाम पर राजनीति करने वालों की एक धारा जनसंघर्षों के माध्यम से संसदीय रास्ते पर चल रही है, तो दूसरी धारा, जिसका बड़ा हिस्सा (भाकपा (माओवादी) का शिकार है,) क्रांति के वैचारिक भटकाव के रास्ते पर आगे बढ़ रही है। इतिहास गवाह है कि राजनीति को प्रभावित किये बिना कोई भी आंदोलन ज्यादा दिन तक नहीं टिक सका है। नेपाल इसका ताजा उदाहरण है। हालांकि इसके पहले ही मिजो और नगा विद्रोहियों ने इसे समझा और बंदूक की राजनीति छोड़ दी। समाजवादी देश रूस और माओवादी चीन ने भी समय की गति के साथ अपने आपको बदला है। ऐसी स्थिति में क्या भारत की माओवादी ताकतें दुनिया के अन्य देशों से सबक लेंगी या यों ही क्रांति के वाम भटकाव में जान लेने और देने का क्रूर खेल चलता रहेगा।
हाल में घटी नक्सली घटनाएं

  • 19 जून, 2009 --उड़ीसा के कोरापुट जिले के पालुर गांव के समीप हुए बारूदी सुरंग में सीआरपीएफ के नौ जवान मारे गये।
  • 10 जून, २००९-- झारखंड के पश्चिमी सिंहभूम से गोइलकेरा थानाक्षेत्र के सारूगढ़ा घाटी (सारंडा के जंगल) में माओवादियों ने बारूदी सुरंग विस्फोट किया, जिसमें थानाप्रभारी, सीआरपीएफ के इंस्पेक्टर समेत 11 जवान शहीद हो गये। दूसरी ओर, छत्तीसगढ के बीजापुर स्थित गंगालूर इलाके के कोरचूली इलाके में हुए बारूदी सुरंग विस्फोट में सीआरपीएफ का असिस्टेंड कमांडेंट रामपाल सिंह मारे गये जबकि 5 जवान शहीद हो गये। इसके एक दिन बाद यानी 11 जून को माओवादियों ने इसी प्रदेश के दूसरे हिस्से में विस्फोट करके 11 जवानों को मौत की नींद सुला दिया।
  • 25 मई, 2009----महाराष्ट्र के गढ़चिरौली इलाके में भाकपा (माओवादी) ने एक बारूदी सुरंग में 15 से अधिक अधिकारियों और पुलिसकर्मियों को मौत की नींद सुला दिया।
  • 11 मई, २००९--- छत्तीसगढ़ के धमतरी जिले में घात लगाये नक्सलियों ने पुलिस बल के 15 जवान को गोलियों से भून दिया।
  • 12 अप्रैल, 2009 को ओड़िशा के कोटापुर जिले के नाल्को बॉक्साइड कंपनी पर हमला कर 7 सीआइएसएफ के जवानों को मौत की नींद सुला दी।
  • 11 अप्रैल, 2009 को खूंटी जिले के अड़की थाना क्षेत्र के जरको गांव में सुबह पांच बजे से दोपहर के एक बजे मुठभेड़ में 5 जवान मारे गये।
  • 27 मार्च, 2009 को चतरा में नामांकन करने जा रहे निर्दलीय प्रत्याशी इंदरसिंह नामधारी और कांग्रेस प्रत्याशी के समर्थकों को नक्सलियोंं जमकर धुनाई की और चुनाव बहिष्कार की धमकी दी।
    15वीं लोकसभा चुनाव के दौरान पूरा देश नक्सली हिंसा से त्रस्त रहा। लोकतांत्रिक प्रक्रिया में अबतक सबसे अधिक हिंसा इसी चुनाव में हुई, जहां नक्सलियों ने 49 अर्द्धसैनिक बल के जवानों को गोलियों से भून दिया।
     

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