Wednesday, July 15, 2009

भारतीय मीडिया का दोरंगा चरित्र क्यों?

क्या हो गया है भारतीय मीडिया को? इंडिया और भारत के बीच बंटा हिन्दुस्तान आखिर तबतक इस विभाजन के कड़वाहट से रूबरू होता रहेगा? आखिर अपने-आप को चौथा स्तंभ कहलाने वाला मीडिया तब जागेगा? आखिर तब असली भारत की तस्वीर से देश और दुनिया को अवगत करायेगा? लाख टके का सवाल यह है कि नक्सली गूंज की धधक को शेयर मार्केट और संसद के गलियारे में गंभीरता से कब रखा जायेगा? आखिर क्यों नहीं मीडिया को 12 जुलाई को छत्तीसगढ के राजनांदगांव में नक्सलियों की घात में मारे गये पुलिस अधीक्षक विनोद कुमार चौबे समेत 39 सुरक्षा बलों की शहादत याद आयी? इसका जवाब न तो मीडिया घरानों के पास है और ही सियासतदानों की संजीदगी ऐसी घटनाओं पर होती है।
भारतीय मीडिया का चरित्र जानने के लिए सिर्फ चार उदाहरण ही काफी है। एक तो अभी की ताजातरीन छत्तीसगढ की घटना है, जिसमें एक आइपीएस अधिकारी समेत 39 पुलिस और अर्द्धसैनिक बलों के जवान मारे गये। दूसरी घटना है बरसात के पानी से मुंबई का डूबना। तीसरी घटना भी मुंबई की है, जहां बीते वर्ष आतंकवादियों ने ताज होटल में घुसकर कहर बरपाया था। और चौथी है दिल्ली उच्च न्यायालय का वह फैसला जिसमें समलैंगिक लोगों को कानूनी मान्यता की बात है। यह फैसला प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया में सप्ताह भर तक छाया रहा। देश में नई बहस शुरू हो गयी। हर साल की भांति इस साल भी मुंबई बरसात के पानी में डूबा। यह खबर भी कई दिनों तक सुर्खियों में बना रहा और दो आपराधिक घटनाएं...
चारों घटनाओं को भारतीय मीडिया ने अपने नजरिये से देखा। हमारी समझ में मीडिया के कुछ सामाजिक सरोकार भी हैं, लेकिन इन घटनाआंें में भारतीय मीडिया पूरी तरह से सामाजिक सरोकार को भूलकर अपने सरोकार से देश को देखा। जब मैं माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय से पत्रकारिता में स्नातकोत्तर कर रहा था तब पढाया गया था कि मीडिया सदा ही कमजोर पक्ष के साथ खड़ा रहा है लेकिन आज का भारतीय मीडिया...
छत्तीसगढ में अर्द्धसैनिक बलों के जवान नक्सलियों से लोहा ले रहे थे उस वक्त इलेक्ट्रानिक चैनल अपनी ही धून में खबरों को प्रसारित करने में मशगूल थे। शाम होते ही राष्ट्रीय चैनल "राखी का स्वयंवर' और सलमान खान का "दस का दम' दिखाने में व्यस्त दिखे। अबतक की देश की सबसे बड़ी नक्सली वारदात (नरसंहार) के बावजूद आखिर सीआरपीएफ के जवानों की शहादत को उस रूप में क्यों नहीं याद किया गया जिस रूप में ताज हमलों में शहीद हुए एटीएस प्रमुख करकरे, एनकाउंटर स्पेशलिस्ट विजय सालस्कर और एसीपी काम्टे को याद किया गया? आश्चर्य तो यह कि किसी भी फिल्मी हस्ती और खिलाड़ियों को विदेश में पुरस्कार जीतते ही बधाई पत्र जारी करने वाला राष्ट्रपति भवन भी लोकतंत्र की रक्षा के लिए शहीद हुए इन जवानों पर श्रद्धा के एक शब्द भी कहना मुनासिब नहीं समझा, आखिर क्यों? वह भी तब, जबकि नक्सली हमले में मारे गये एसपी विनोद कुमार चौबे को कभी यही राष्ट्रपति भवन बहादुरी का पुरस्कार दिया था।
कहा जा सकता है कि मुंबई महानगर है। देश की आर्थिक राजधानी है। यहां सैलानियों का जमावड़ा है और...
छत्तीसगढ...। यह ग्रामीण भारत है, जिसकी खुबसूरती कभी महात्मा गांधी देखा करते थे। आजादी के 60 वर्षों में गांवों की खुबसूरती को सियासतदानों ने पैरों तले रौंद दिया। शायद यही कारण है कि भारतीय मीडिया भी सियासतदानों की बहुरंगी चाल में फंसती चली जा रही है, जहां मुंबई और दिल्ली की चकाचौंध तो दिखाती देती है लेकिन गांवों की...
उन दिनों घटी देश की प्रमुख घटनाओं में से एक है दिल्ली में मेट्रो पुल गिरने से छह लोगों की मौत। लगातार दो दिनों तक यह खबर न्यूज चैनलों के टीवी स्क्रीन पर चलती रही। इसी दौरान इंग्लैंड और आस्ट्रेलिया के बीच एशेज का पहला टेस्ट ड्रॉ होने का विश्लेषण विशेषज्ञों द्वारा करवाया जा रहा है। "राखी का स्वयंवर' और सलमान खान के टीवी शो "कंगना रानौत की' उपस्थिति और हॉलीवुड में मल्लिका शेरावत की धूम और न जाने क्या-क्या..., उस वक्त टीवी चैनलों की सुर्खियां थे जबकि छत्तीसगढ में हुए बारूदी सुरंग विस्फोट में मारे गये सुरक्षाकर्मी सिर्फ और सिर्फ चलताउ खबर।
सबसे बड़ा आश्चर्य तो यह कि पूरे मामले पर देश का सियासतदान मौन है। इससे भी बड़ा आश्चर्य यह कि जिस दिन नक्सलियों की बंदूकें राजनांदगांव में गरज रही थी उसी दिन प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह जी-8 शिखर सम्मेलन में भाग लेने के लिए दिल्ली से उड़ान भर गये। फिर रक्षा मंत्री और गृह मंत्री भी मौन। सदा की तरह राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटील भी चुप रहना ही मुनासिब समझी। आखिर क्यों? इसलिये की नक्सली ग्रामीण भारत को लहुलूहान कर रहे थे?
60 साल के लोकतंत्र में क्या यह हास्यास्पद बात नहीं है कि मेनका गांधी का इकलौता वारिस वरूण गांधी हिन्दुत्ववादी राजनीति से प्रेरित होकर एक समुदाय विशेष (मुसलमान) के खिलाफ नफरत की आग उगलता है। उसके बाद मीडिया उसे हाथोंहाथ ले लेता है। जनता उसे लोकसभा सदस्य चुनती है और वह सांसद हो जाता है। तथाकथित सुरक्षा के मद्देनजर जेड श्रेणी सुरक्षा की मांग भी कर बैठता है। वहीं महाराष्ट्र का एक ऐसा भी नेता है जो भारतीय संप्रभुता पर चोट करते हुए दो प्रांतों के बीच नफरत फैलाकर राजनीति की दुकानदारी चलाना चाहता है। ये दोनों को मुंह खोलने भर की देरी है। इलेक्ट्रानिक चैनल इसे एक-एक क्षण का लाइव प्रसारण करने लगते हैं।
मुंबई घटना की लाइव रिपोर्टिंग करने का दु:साहस दिखलाने वाले किसी पत्रकार ने मदनवाडा और सीतापुर गांव में नक्सलियों से घिरे 200 जवानों और एसपी की बहादुरी और नक्सलियों के तेवर के दिखलाने का साहस आखिर किसी ने क्यों नहीं किया? खबर है कि नक्सलियों के चंगुल में फंस चुके जवान बराबर अपने मोबाइल और वॉकी टॉकी से अपने वरीय अधिकारियों के साथ ही मीडियाकर्मियों को पल-पल की सूचना दे रहे थे। एक बजे तक मोहला थाना प्रभारी विनोद धु्रव और एएसआइ कोमल साहू समेत करीब 21 जवान शहीद हो चुके थे। शाम होते-होते यह संख्या 30 तक हो गयी और देर शाम होते ही यह आंकड़ा 39 तक हो गयी।
प्रिंट मीडिया के पत्रकारों से मिली जानकारी के अनुसार, सुबह में ही खबर मिल गयी थी कि मानपुर इलाके के मदनवाड़ा, सीतापुर समेत पांच गांवों में नक्सलियों ने डेरा जमा लिया है। लेकिन न तो राज्य सरकार और न ही केंद्र सरकार ही इस संगीन और गंभीर मुद्दे पर अपनी सक्रियता दिखलायी। सरकार के साथ ही मीडिया के लिए भी शायद राष्ट्रपति पदक से सम्मानित एक आइपीएस अधिकारी और 39 जवानों की मौत देश को हिला देने वाली खबर नहीं है और न ही इस खबर पर विज्ञापन का कारोबार ही होने वाला है। बाजारवाद के आगे सबकुछ दाव पर लगा देने वाला मीडिया आखिर चिख-चिल्लाकर कुछ बोलता भी तो क्यों? इसका जवाब कौन देगा? लहुलूहान हो रहे रहे लोकतंत्र को बचाने की जिम्मेवारी सरकार के साथ ही मीडिया को भी है, आखिर कब जागेगा भारतीय मीडिया।
 
 

3 comments:

रंजीत/ Ranjit said...

Agar kahen kee bhartiya media baudhik rup se diwaliya ho gaya hai to atishyoktee nahin hogee. Yahan desh aur samaj kee chinta kisko hai, sab apne-apne swarth me leen hai. lekin samay inhen maaf nahin karega. ham bhee shayad dekhenge, wah deen ab door nahin hai, jab janta kee bijlee kadkegee aur dhartee thar-thasr kaapegee... sab taj hilaya jayega, sab takht giraya jayega...

रंजीत/ Ranjit said...

अगर कहें कि भारतीय मीडिया बौद्धिक तौर पर दिवालिया हो गया है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। आज समाज और जनता की सोचता कौन है? सब अपने-अपने स्वार्थ में लीन है। लेकिन समय इन्हें माफ नहीं करेगा। वह समय दूर नहीं, जब जनता की बिजली कड़केगी और धरती थर-थर कांपेगी। हर तख्त गिराया जायेगा, हर ताज हिलाया जायेगा। शायद हम भी इस नजारे को देखेंगे...
बहुत अच्छा वैचारिक लेख। बधाई।
रंजीत

रंजीत/ Ranjit said...

अगर कहें कि भारतीय मीडिया बौद्धिक तौर पर दिवालिया हो गया है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। आज समाज और जनता की सोचता कौन है? सब अपने-अपने स्वार्थ में लीन है। लेकिन समय इन्हें माफ नहीं करेगा। वह समय दूर नहीं, जब जनता की बिजली कड़केगी और धरती थर-थर कांपेगी। हर तख्त गिराया जायेगा, हर ताज हिलाया जायेगा। शायद हम भी इस नजारे को देखेंगे...
बहुत अच्छा वैचारिक लेख। बधाई।
रंजीत